मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

प्रेम ही तो है - 2

गतांक से आगे

अनुकूल वस्तु अथवा वि”ाम को प्राप्त करने की ललक मानव का जन्मजात स्वभाव है। यह ललक समान्यतः दो प्रकार की होती है, प्रत्येक वस्तु के प्रति तथा किसी विशो”ा वस्तु के प्रति। इनको क्रमश: लोभ और प्रेम कह सकते हैं। लोभ में वस्तु की मात्रा प्राप्त करने की ललक होती है औ प्रेम में वस्तु की विश”ाता के प्रति ललक होती है। प्रेम अपनी इशट वस्तु के लिए अन्य वस्तु का त्याग करता है और केवल उसी को प्राप्त करने की इच्छा रखता है। जबकि लोभी प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करना चाहता है। मैं आजतक अपनी उस गलती को नहीं भूला, जिसका परिमार्जन तुमने किया था। और कहा था, अपनी गलतियों को पूरी विनम्रता के साथ स्वीकार करना चाहिए, तब आप कभी गलत नहीं रह जाएंगे। गलतियां ही सबसे अच्छा गुरू होती है। इसलिए हर उस गलती से सबक लें, जिससे आपको दुःख पहुंचा हो। यह जानने की कोशिश’ करें कि फलां समय में उस दुःख का कारण क्या था ? इस बात की पूरी संभावना है कि वह जरूर कोई छोटी-सी बात ही होगी।
जिस प्रकार से हम मिले थे और हमारा लगाव एक-दूसरे के प्रति हुआ था, उसको सामाजिकता के आधार पर प्रेम की संज्ञा दी जा सकती थी। लेकिन हमने नहीं दी ... आखिर क्यों ? इसमंे तुम्हारी गलती रही या मेरी ? प्रेम शब्द से यौवनोचित्त यौन-चित्र जिनके मन में उदय पाता हो, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरे निकट प्रेम उस परस्पराकर्”ाक तत्व के लिए सगुध संज्ञा है, जिस पर चराचर समस्त सृ”िट टिकी है। निर्गुण भा”ाा में उसी को ई’ा तत्व कहा जा सकता है। जीवन के यौवन काल में जिस काम और कामना का प्राबल्य देखा जाता है, वह अभिव्यक्ति में वैयक्तिक है। ’प्रेमी-प्रेमिका’ शब्दों के उपयोग में खतरा है कि हम व्यक्तिगत संदर्भ मंे सिमट जाते हैं। पर जो महाशक्ति तमाम जगत और जीवन के व्यापार को चला रही है, उसके सही इंगित के लिए हमारे पास एक संवेद्य संज्ञा तो यही है - प्रेम। इसे राधा-कृ”ण का प्रेम कह सकते हैं, जिसे केंद्र में रखकर ही भक्ति युग का सारा ताना-बाना बुना गया।
तुम भी तो कहा करती थीं कि आज के आधुनिक युग में प्रेम का अर्थ अमूमन काम-वासना से लगाया जाता है। प्रेम के नाम पर युवक-युवतियां वासना का गंदा खेल खेलते हैं और प्रेम जैसे सात्विक तत्व को बदनाम करने की कोशिश’ करते हैं। यदि प्रेम से तात्पर्य वासना से होता और प्रेेमिका से पत्नी का तो भारतीय संस्कृति में राधा-कृ”ण का अमर प्रेम नहीं होता। त्रेता में लीलाधर कृशण ने राधा के संग प्रेम करके प्रेम को महिमामंडित किया और जनता के सामने एक माडल प्रस्तुत किया। यह जरूरी नहीं कि जिससे हम प्रेम करते हैं वहीं पति अथवा पत्नी बने। कृशण ने राधा के संग प्रेम किया और विवाह रूकमिणी के संग। प्रेम न जात-पात देखता है और न ही संबंध। वह तो बस प्रेम की मंदाकिनी में बह जाना जानता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब कृ”ण ने राधा से प्रेम किया तो राधा किसी की ब्याहता थी, लेकिन उन्होंने प्रेम को कलंकित नहीं होने दिया।
विवाह कितना भी प्रेम विवाह हो, पत्नी यथार्थ पर आकर निरी स्त्री हो आती है। उसी तरह पुरू”श पति होने पर देवरूप से नीचे आ जाता है और मनु”य बनता है। प्रेम की ही खूबी है कि वह सामान्यतः से उठाकर उसे सुंदरता, दिव्यता आदि से मण्डित कर जाता है। इस गुण को प्रेम से छीलकर अलग नहीं किया जा सकता है। इसी की प्रगाढता की महिमा है कि भक्ति और भगवान की सृ”िट हो जाती है। जो लोग औरत शब्द पर ही टिके रहना चाहते हैं और देवी अथवा अप्सरा को नि”कासन दिए रहना चाहते हैं, वे अपनी जानें। मेरे विचार में वह संभव नहीं है। इशट तो है ही नहीं। कोई विज्ञान या यथार्थ या वैराग्य का वाद प्राणी को परस्पर रोमांचित हो आने की क्षमता से विहीन नही ंबना सकेगा। कठिनाई बनती है, बीच में दैहिकता के आने से। मुख्य बाधा का कारण यह है कि हमने विवाह-संस्था को भोग-आधिपत्य की धारणा पर खड़ा किया है। इसलिए विवाह को सदा ही प्रेम की खरोंच में आना पड़ता है। प्रेम विवाहों को तो और भी अधिक....

क्रमश:

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