राम...राम इतवारी लाल जी, कहां से आ रहा हैं? मौसम सर्द होने को बेताब है और आपके चेहरे पर पसीना? सबकुछ ठीक-ठाक हैं न...
हां, भई, कुछ ठीक भी कह सकते हैं। और नहीं भी। अभी-अभी नागपुर से लौटा हूं।
नागपुर? संतरा लेने गए थे क्या?
अरे, भई आप भी न... संतरा तो अपनी दिल्ली में भी सस्ती हो गई है। तो भला उसके लिए नागपुर क्यों जाऊं। मैं तो गया था वसंतराव देशपांडे हॉल में टीम अन्ना को सुनने। वहां की खबरें जानने। शीतलकालीन सत्र भी आने को है न... सो, मन में जिज्ञासा हुई कि टीम अन्ना की हरकत को देखूं। मगर, क्या बताएं? हरकत में तो वहां के लोग दिखे।
जो वसंतराव देशपांडे हॉल अब किसी बड़े राजनेता के भाषणवाजी में नहीं भरता, वह टीम अन्ना के महारथी अरविंद केजरीवाल के कारण भर गया। एकदम ठूंस-ठूंस कर लोग भरे थे। फिर भी जिन्हें जगह न मिली वो हॉल के बाहर बड़े-बड़े स्क्रीनों पर केजरीवाल को देख-सुन रहे थे। अरे बाप, काफी दिनों बाद यह हॉल इतना भरा था। स्थानीय लोगों को भी यह भान नहीं था कि आखिरी दफा कब इतनी हुजूम यहां जुटी थी।
सच। दिल्ली में तो चर्चा है कि वहां भाजपा-कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में जूतम-पैजार तक हो गई?
हां भई। ऐसी ही नौबत थी। मगर, तिल को ताड़ कैसे बनाया जाता है, यह तो दिल्ली दरबार की खासियत रही है। जनता से सरोकार नहीं और बेमतलब का बखेड़ा। दरअसल, केजरीवाल का भाषण खत्म हुआ वैसे ही बाहर खड़े दस-पन्द्रह लोगों ने काले झंडे लहराने शुरु कर दिये। जो बाहर खड़े होकर भाषण सुन रहे थे उन्होंने काले झंडे दिखाने वालो को मारना-पीटना शुरु कर दिया। बस, दिल्ली में बैठे लोग चिल्लाने लगे कि कांग्रेसी और भाजपाई में जूतम-पैजार हो गई।
सच तो यह है कि नागपुर के इस हॉल में दोनों दल की डायरेक्ट एंट्री नहीं थी इस कार्यक्रम में। कार्यक्रम तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने किया था। मुख्य आयोजक की भूमिका में नागपुर के बिजनेसमैन अजय सांघी थे। प्रत्यक्ष तौर पर जिनका कोई ताल्लकुत राजनीति में अभी तक नहीं है। आने वाले दिन में कौन सा बिजनैसमेन किस पार्टी का दामन थाम ले, ये तो अभी कह नहीं सकता न...
ये बात तो हर कोई जानता है न कि कांग्रेस के एक पूर्व मुख्यमंत्री आजकल टीम अन्ना के खिलाफ जमकर मोर्चा खोला था। लगता है कि अचानक उन्हें कुछ घूंटी पिलाई गई है, इसीलिए तो वह खुलकर बोल नहीं पाते। मगर राजनेता बोलने से जाए तो जाए, लेकिन राजनीति करने से न जाए... ये बात तो हर कोई जानता ही है। दरअसल, जंतर-मंतर से टीम अन्ना का जो स्वरूप अस्तित्व में आया वह रामलीला मैदान में अपने विराट स्वरूप का अक्स दिखा दिया। केवल सत्ताधीशों को ही नहीं, बल्कि पूरी संसदीय व्यवस्था के नुमांइदें को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया। सियासी गलियारों में हाय-तौबा मचनी शुरू हो गई। यह अनायास थोड़े ही था कि जो प्रधानमंत्री 18 अगस्त को संसद में अन्ना हजारे के आंदोलन को देश के लिये खतरनाक बता रहे थे, वही प्रधानमंत्री 28 अगस्त को पलट गए और समूची संसद ने अन्ना से अनशन तोडऩे की प्रार्थना की। बस...टीम अन्ना के हौंसले इस कदर बुलंद हो गए कि उन्हें लगना लगा...हम ही हैं रक्षक। नए भारत के निर्माता। इस सोच को भोंपू ने भी आमजनता तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लोग-बाग टीम अन्ना को तारणहार मानने लगे। और जब इंसान भगवान के रूप में आ जाता है तो साथ में वह अहंकारी भी हो जाता है। अहंकार दुराचार का मार्ग खोलता है। शक्ति उसका संवर्धन करती है।
अरे, इतवारी लाल जी, आप तो दर्शन बताने लगे?
काहे का दर्शन... देश के सामने आज कुछ ऐसी ही परिस्थिति है। यह परिस्थितियां देश के सामने कुछ नये सवाल खड़ा करती हैं। जनलोकपाल को लेकर आम जनता के मन में यह बात घर कर बैठी है कि इसके आने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा और भ्रष्टाचार खत्म होते ही महंगाई छू-मंतर हो जाएगी। तभी तो आम आदमी टीम अन्ना में अपना अक्स देख रहा है।
अब चूंकि छह प्रदेशों में चुनावी बिगुल बजने भर का देर है। महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण राष्ट्रीय स्तर पर भी रूक-रूक कर मध्यावधि चुनाव की संभावना तलाशी जा रही है। इस हालात में चुनावी राजनीति की धुरी जनलोकपाल के सवाल पर टीम टीम है। कांग्रेस को इसमें राजनीतिक घाटा तो भाजपा को राजनीतिक लाभ नजर आ रहा है। जनलोकपाल आंदोलन से पहले सरकार इतनी दागदार नहीं लग रही थी और भाजपा की सड़क पर हर राजनीतिक पहल बे-सिर पैर की कवायद लग रही थी। देश का आम आदमी, जिसकी अहमियत केवल चुनावों तक जैसे सीमित हो चुकी लगती है, उसे कांग्रेस को लेकर यह मत था कि यह भ्रष्ट है। मगर भाजपा के जरिये रास्त्ता निकलेगा ऐसा भी किसी ने सोचा नहीं था। लेकिन अन्ना आंदोलन ने झटके में एक नयी बिसात बिछा दी।
इसी बिसात की एक चाल तो नागपुर में दिखी। वरना क्यों कोई काले झण्डा दिखाता और क्यों नाहक मार-कुटाई होती। भोंपू को तो मसाला चाहिए। सो, कह दिया गया कि जिसने काले झण्डे दिखाए वह कांग्रेसी और जिसने मार-कुटाई की वह भाजपाई। एक तरफ कांग्रेस की झपटमार दिग्विजयी राजनीति ने भाजपा और संघ में जान ला दी तो दूसरी तरफ भाजपा की चुनावी राजनीति ने सरकार की जनवरोधी नीतियों से हटकर कांग्रेस की सियासी राजनीति को केन्द्र में ला दिया।
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