गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

खाद्य सुरक्षा पर भाकपा का हल्ला बोल

जब सरकारी नीतियों के परिणामस्वरूप देश की जनता महंगाई और खाद्यान्न को लेकर त्राहि-त्राहि कर रही है तो विपक्षी दल जनहित के मुद्दे पर आगे आती है। इसी सोच के तहत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 15 दिसंबर को अब खाद्य सुरक्षा दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है। भाकपा के महासचिव ए.बी. वर्धन का कहना है कि गत दिनों पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में हमने इसे मनाने का निर्णय किया है।
इस कार्यक्रम के सिलसिले में भाकपा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सर्वव्यापी बनाने, केवल लक्षित गु्रपों को सब्सिडी पर खाद्यान्न मुहैया कराने की व्यवस्था को समाप्त करने और कैश ट्रांसफर पर रोक लगाने की मांग के साथ देश भर में रैलियां निकालेगी। इस दरम्यान प्रदर्शन और जनसभाओं का आयोजन भी किया जाएगा। पार्टी महासचिव ए.बी. बर्धन का कहना है कि कहा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल की राह में रोड़े अटकाने के प्रयास जारी हैं। वर्तमान में यूपीए सरकार कहती कुछ है, करती कुछ है। उसकी कथनी और करनी में एकरूपता कम देखने को मिल रही है। केवल इतना ही नहीं, सरकार गरीबी की अवधारणा को तोडऩे-मोडऩे का प्रयास भी कर रही है। उसने गरीबों के बीच भी बंटवारा कर दिया है-बीपीएल और एपीएल। साथ ही, सरकार सब्सिडी वाली अनिवार्य सामग्रियों की सप्लाई को सुनिश्चित करने के बजाय सीधे कैश ट्रांसफर लाने की योजना बना रही है।
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर, यह सच है कि अन्ना हजारे आंदोलन ने इस आंदोलन को फोकस में ला दिया है। हमारी पार्टी को भी इस बात का श्रेय जाता है कि उसने 21 अक्टूबर को कारगर एवं मजबूत लोकपाल बिल लाने की मांग करते हुए राष्ट्रव्यापी भूख हड़ताल आयोजित की। राष्ट्रीय कायज़्कारिणी ने अपने इस दृष्टिकोण को दोहराया और सरकार से मांग की कि वह संसद की शीतकालीन सत्र में मजबूत लोकपाल बिल पारित कराये। मीटिंग में इस बात की चेतावनी दी गयी कि यदि चालू सत्र में मजबूत लोकपाल बिल नहीं लाया जाता तो देशव्यापी आंदोलन तेज किया जायेगा। दोहरे अंकों तक पहुंच चुकी और जनता के जीवन को दुश्वार बनाने वाली पेट्रोल की कीमतों में लगातार वृद्धि का विरोध करते हुए बर्धन ने कहा कि सरकार को आम जनता के हित में ईंधन की कीमतों के विनियमन और विनियंत्रण को वापस लेना चाहिए।
दरअसल, राजनीतिक रूप से सरकार भटकाव की शिकार है। ऐसे बहुत से मसले लटके पड़े हैं जिन पर सरकार फैसले लेने में नाकामयाब रही है। बर्धन ने इसके बड़े उदाहरण के रूप में तेलगांना मुद्दे का उल्लेख किया और कहा कि किसी को नहीं पता सरकार जिस सलाह-मशविरे की दुहाई दे रही है वह किस स्टेज में है। तेलंगाना एक गंभीर समस्या है। पूरा आंध्र प्रदेश एक महीने से अधिक समय तक ठप्प रहा। एक और उदाहरण उन्होंने मणिपुर में जारी आर्थिक नाकेबंदी का दिया जो 100 दिनों से अधिक समय से जारी है और राज्य की जीवन-रेखा, राष्ट्रीय राजमार्ग पर नाकेबंदी खत्म कराने की लिए कुछ भी नहीं कर रही। उन्होंने प्रश्न किया कि क्या हम युद्ध जैसी स्थिति में हैं कि जरूरी सामान लोगों तक नहीं पहुंच रहा और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है? नागाओं के साथ ऐसी क्या वार्ताएं हो रही हैं जो 20 साल से चल रही है और जो रहस्यों से घिरी हैं। मल्डी ब्रांड खुदरा व्यवसाय में एफडीआई की इजाजत देने के यूपीए-दो सरकार के फैसले की निंदा करते हुएऋ सरकार के पेंशन फंड रेगुलेटरी और डेवलपमेंट अथारिटी बिल लागू करने के हाल के फैसलों का विरोध करते हुए केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अनुसूचित जाति सब-प्लान और अनुसूचित जनजाति सब-प्लान पर योजना आयोग के दिशा निर्देश के अनुरूप अमल में न लाये जाने पर पार्टी काफी चिंतित है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण खाद्यान्न समस्या का सबसे अधिक सामना विकासशील देश कर रहे हैं। सवा अरब आबादी वाले भारत जैसे देश में, जहां सरकारी आकलनों के अनुसार 32 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, अत्यंत शोचनीय है। एफएओ के अनुसार भारत में 2009 में 23 करोड़ 10 लाख लोग चरम भूखमरी का सामना कर रहे थे। आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। देश में खाद्यान्न का उत्पादन बड़े स्तर पर होने के बावजूद बहुत बड़ी आबादी भूखमरी का संकट झेल रही है। तेजी से आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत का विश्व भूखमरी सूचकांक में 88 देशों में 66वां स्थान है। भारत से बेहतर भूखमरी से पीड़ित अफ्रीकी देशों नाइजीरिया, कांगों, बेनिन, चाड, सूडान आदि देश हैं। राज्य स्तर पर तो और भी व्यापक असमानता देखने को मिलती है। झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और राजस्थान आदि में भूख एवं कुपोषण से पीड़ित लोगों की संख्या अन्य भागों से अधिक है। आबादी बढऩे एवं खाद्यान्न की स्थिर पैदावार के कारण देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत घटती जा रही। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट अनुसार भारत में प्रतिदिन 5000 बच्चो कुपोषण के शिकार होते जा रहे हैं। जन वितरण प्रणाली के माध्यम से गरीबों को मिलने वाला अनाज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रहा है। कृषि क्षेत्र लगातार सरकारी उपेक्षा का शिकार हो रहा है। आज देश की अथज़्व्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी मात्र 14 फीसदी है और इस पर 55 फीसदी कामगारों की आजीविका चलती है।
घरेलू आर्थिक स्थिति बहुत गंभीर है। मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में मात्र 1.4 प्रतिशत की वृद्धि दर देखी गयी है। शायद पिछले कुछ दशकों की यह सबसे नीची वृद्धि दर है। वे दिन लग गये जब हमारे वितमंत्री 8.5 प्रतिशत और 9 प्रतिशत की वृद्धि दर की बात करते थे। अब वे ज्यादा-से-ज्यादा 7 प्रतिशत की उम्मीद कर सकते हैं। यह सच है कि खाद्य उत्पादन बेहतर है। इसकी वजह प्रकृति की मेहरबानी है। प्रकृति ने अच्छी बरसात की सौगात दी। जहां तक निर्यात का संबंध है उसमें विभिन्न कारणों से कमी आ रही है। पश्चिम के देशों में बाजार की कमी है और वह मंदी से बुरी तरह महीना-दर-महीना, साल- दर- साल बढ़ती महंगाई ने देश के आम लोगों का जीना दूभर कर दिया है और सरकार को कोई फ्रिक ही नहीं। संसद के शीतकालीन सत्र ने सवज़्सम्मति से प्रस्ताव पारित कर सरकार को निर्देश दिया था कि महंगाई को रोके। पर उसके बाद के महीनों में सरकार के आचरण से पता चलता है कि जनता के लिए जानलेवा बनी निरंतर बढ़ती महंगाई से सरकार को जैसे कोई देश वास्तव में गंभीर संकट में है क्योंकि अर्थव्यवस्था की सभी आधारभूत चीजें, चाहे वह सही या गलत किसी ढंग से देश पर थोपी गयी हों, कमजोर हो रही हैं।

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