यूं तो भदेस माने जाते हैं पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्घदेव भटटाचार्य और उनमें धीरज भी गजब की है। लेकिन माँ, माटी और मानुष के नारे के पंख लगाए तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने गत वर्ष से ऐसा कारनामा कर दिखाया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। उन्होंने पश्चिम बंगाल में तीन दशक पुराना वाम का लाल गढ़ ध्वस्त कर दिया। लिहाजा, स्वयं मुख्यमंत्री ने मोर्चा खोलते हुए कई बार कहा कि तृणमूल से करीबी रिश्ता है माओवादियों का।
सच तो यह भी है कि एक समय पर अभेद्य माने जा रहे वाम के किले में ममता द्वारा लगाई गई इस सेंध से प्रदेश की फिजाओं में यह सवाल उमड़ रहा है कि क्या राज्य में माकपा के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार का सूर्य अस्ताचल की ओर है और 2011 के विधानसभा चुनाव में इसके डूबने के आसार हैं। तृणमूल के तीरों से भीतर तक आहत वाम मोर्चे को इस वर्ष हुए आम चुनाव में राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से मात्र 15 पर ही जीत हासिल हो सकी और माकपा तो 9 पर ही सिमटकर रह गई। तृणमूल कांग्रेस ने उपचुनाव में जीत के साथ इस वर्ष का आगाज किया जब उसने नंदीग्राम में वाम मोर्चे के सहयोगी दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को शिकस्त दी। इसके बाद ममता ने वाम मोर्चे को चुनौती देने के लिए कांग्रेस और वाम विपक्षी दल सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आफ इंडिया का दामन थाम लिया। वाम की पराजय का सिलसिला लोकसभा चुनाव में हार से ही नहीं थमा और उसके बाद 16 नगर पालिकाओं और 10 विधानसभा उपचुनावों में मिली पराजय उसके गम को और बढ़ा गई। विधानसभा के उपचुनाव में तो माकपा की हालत और भी खराब रही। नार्थ बंगाल के गोलपोखार चुनाव क्षेत्र में फारवर्ड ब्लाक के उम्मीदवार को मिली जीत के अलावा उसे कुछ और नसीब नहीं हुआ।
दरअसल, राज्य कांग्रेस प्रमुख प्रणव मुखर्जी ने इस राजनीतिक परिदृश्य को वाम मोर्चे का पत्ता साफ करने के लिए तृणमूल, कांग्रेस गठबंधन के लिए सुनहरा अवसर करार दिया। चुनाव परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि ममता बनर्जी का मां माटी और मानुष का नारा काम कर गया है और मुसलमानों सहित तमाम ग्रामीण तथा शहरी मतदाताओं ने तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। इन चुनावों ने चुनावी पंडितों की इस राय को गलत साबित कर दिया कि सिंगूर और नंदीग्राम में तृणमूल कांग्रेस ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जो आंदोलन चलाया था उसका शहरी इलाकों में कोई असर नहीं होगा।
ऐसे हालात में लोकसभा चुनाव के परिणामों को विधानसभा क्षेत्रों के आधार पर आकलन करें तो वाम मोर्चे के लिए अंधेरे के अलावा और कुछ नजर नहीं आता। ममता ने वाम मोर्चे की हार को मोर्चे के प्रति जनता का अविश्वास बताया। मोर्चे की लगातार हार के कारण राज्य में विधानसभा चुनाव भी समय पूर्व कराने की मांग उठने लगी है। यह मांग विपक्षी खेमे से ही नहीं वाम मोर्चे के भीतर से भी उठी है। राज्य के राजनीतिक परिदृश्य में आए इस बदलाव की वजह तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के बीच हुए गठबंधन को माना जा रहा है। वाम मोर्चा हाल के वर्षों में इन दोनों पार्टियों की दूरी से जो फायदा उठा रहा था, इस गठबंधन ने उसे उस फायदे से महरूम कर दिया और नतीजा सबके सामने है।
2 टिप्पणियां:
भाई ये नेता कभी नहीं मरने वाले ......
Ye to vaqt batayega.
--------
क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
एक टिप्पणी भेजें