जब विकास का पहिया घूमता है तो वह अपने संग कई अच्छाई और बुराई को लेकर साथ चलता है। अच्छाई का अर्थ यह कि विकास होनेवाला है और बुराई का तात्पर्य उस सच से है जो प्रथम दृष्टया दिखता नहीं है। जहां विकास होने हैं, वह के मूल निवासी को विस्थापितों की जिंदगी जीनी होगी और उनको आश्वासनों का एक पुलिंदा थमा दिया जाता है। इसे भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का अभिशाप कह लीजिए। कुछ समय पूर्व देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए खेती योग्य जमीन के जबरन अधिग्रहण पर प्रतिबंध को लागू होने से रोकने के प्रयासों को अधिसूचित इलाकों में विकास एजेंसियों को सेज के लिए जमीन अर्जित की इजाजत के प्रस्ताव से बल मिला था। यह योजना सरकार के एजेंडे में है, जबकि हाल ही में सेज लॉबी किसानों को अपनी जमीन उनके साथ बांटने के लिए मनाने में नाकाम रही। हो सकता है यह भी इसकी एक वजह हो।
मौजूदा दौर में सेज के लिए जमीन के ‘अनिवार्य अधिग्रहण’ से राज्य सरकारों को रोक दिया गया है। केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय का तर्क है कि अपने न्ययाधिकरण क्षेत्र में जमीनों को अधिसूचित और अर्जित कर उन्हें प्रयोक्ताओं को लीज पर देने वाली विकास एजेंसियों(जैसे कि डीडीए, एनओआईडीए और एपीआईडीसी) को सेज के लिए जमीन अधिग्रहण की इजाजत दी जानी चाहिए। मंत्रियों के समूह को अपने नोट में वाणिज्य मंत्रालय कहता है- ‘ऐसे निर्देश जारी करने का प्रस्ताव है कि विकास एजेंसियों द्वारा सेज के इस्तेमाल के उद्देश्य से जमीन का अधिग्रहण ‘अनिवार्य अधिग्रहण’ की श्रेणी में नहीं आएगा। इन मामलों में कोई व्यक्तिगत रूप से ऐसी गतिविधियों के लिए जमीन नहीं खरीद सकता।’ यह सांकेतिक रूप से जमीन के इस्तेमाल को खेतिहर से गैर-खेतिहर में बदलकर जमीन के जबरन अधिग्रहण के समान ही है। प्रतिबंध को कमजोर करने वाले इस प्रस्ताव और अन्य ऐसे प्रस्तावों को सेज के संदर्भ में लोगों की प्रतिक्रिया की रोशनी में जांचने की जरूरत है, खासकर रायगढ़ की जनता की राय को। रिलायंस के प्रस्तावित सेज को किसानों द्वारा सिरे से नामंजूर कर देना जमीन से उन्हें बेदखल करने के प्रति विरोध को रेखांकित करता है। किसानों और उद्योग जगत के बीच जमीन के लिए संघर्ष राज्य की ओर से जबरदस्त प्रतिक्रिया की मांग करता है, जो खुद से जुड़े सभी पक्षों के अधिकारों का सम्मान करता है। वैसे अब तक राज्य सरकारें उद्योग के पक्ष में और किसानों के खिलाफ ही नजर आई हैं। राजस्थान का बाड़मेर इसकी बेहतरीन मिसाल है। जहां वसुंधरा राजे सरकार जिंदल समूह की ओर से एक बिजली व उत्खनन परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण करना चाहती थी। किसानों ने उनके इस कदम का जमकर विरोध किया। जहां तक किसानों की बात है तो उनके लिए रायगढ़ और बाड़मेर के सबक बिलकुल साफ हैं, ‘यदि किसान एक संयुक्त मोर्चा गठित कर अपने अधिकारों की मांग करें तो सरकार को भी बातचीत की टेबल तक लाया जा सकता है।’
बात राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की करें तो भारतीय इतिहास में संभवतः अपने आप में यह पहली घटना रही कि आंदोलनकारियों ने किसी उपायुक्त कार्यालय को एक महीने से अधिक समय तक तालाबंदी की हो। आंदोलनकारी कोई अन्य नहीं, बल्कि अन्नदाता थे। जो अपने जमीन के अधिग्रहण को लेकर आंदोलित थे। असल में दिल्ली सरकार ने कंझावला और उसके निकटवर्ती गांवों की जमीन पर औद्योगिक परिसर के निर्माण का निर्णय राजधानी दिल्ली में छोटे और मझौले उद्योगों की निरंतर बढ़ती मांग के आधार पर लिया। उल्लेखनीय है कि 1981 के बाद दिल्ली में छोटे और मझौले उद्योगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। देखा जाए तो जमीन खाद्यान्न उत्पादन का प्रमुख निर्धारक घटक है। वर्ष 1982 में जहां प्रति व्यक्ति के हिसाब से कृषि योग्य जमीन की उपलब्धता 0।27 हेक्टेयर थी, वहीं वर्ष 2003 में यह घटकर 0.18 हेक्टेयर रह गई। भारत दालों और तेलों का आयातक तो पहले से है और हाल ही में इसे विदेशों से गेंहू भी खरीदना पड़ा। जानकार यह भी कहते हैं कि हरित क्रांति अनाज उगाने की क्रांति नहीं बल्कि रासायन बेचने की क्रांति थी। रासायनिक उत्पादों के बाजार बनाने के चक्कर में आपने अपनी फसलों को गायब कर दिया। इस देश में कमी किस चीज की है? इस देश में प्रोटीन की कमी है। इस देश में तेल की कमी है। जबकि हरित क्रांति के नाम पर तिलहन और दलहन ही गायब कर दिए गए। जो बदलाव हुआ उसमें यह तय हो गया कि आप मिश्रित खेती की जगह पर अकेला गेहूं और चावल उगाओगे। जबकि यदि आप उतना जमीन और पानी गेंहू और चावल के उत्पादन पर लगा देते तो यहां के किसान बिना किसी नए बीज के उतना गेंहू चावल उगा लेते। हमारे पुराने बीजों इतने क्षमता वाले थे। फिर उसी हरित क्रांति और रासायनिक खेती की वजह से किसानों के खर्च बढ़ गए। पर पहले उस खर्च को सब्सिडी के नाम पर छिपाया गया। जब धीरे-धीरे सब्सिडी हटायी जाने लगी तब किसानों को इसकी असलियत का पता चला। पंजाब के किसानों को यह लगने लगा है कि वह खर्च ज्यादा करते हैं और तुलना में मिलता कम है। यह तो किसानों को खत्म करने का रास्ता है। यह सच है कि मूलभत नागरिक सुविधाओं की आपूर्ति और विकास योजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण अवश्यंभावी है। स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, नहरों, पेयजल और बिजली परियोजनाओं के निर्माण और प्रशासनिक भवनों व सेना के लिए जमीन के अधिग्रहण को रोका नहीं जा सकता। इन उद्देश्यों से जब सरकार कृषि योग्य या सार्वजनिक भूमि का अधिग्रहण करती है और इससे किसी गांव या बस्ती का विस्थापन होता है तो सरकार कथित रूप में जमीन का मुआवजा देने और विस्थापितों के पुनर्वास की व्यवस्था करती है। लेकिन इधर सरकार द्वारा सस्ते दामों पर या मनमाने ढंग से किसानों की निजी अथवा सार्वजनिक जमीन का अधिग्रहण कर उद्योगपतियों और व्यवसाइयों को सौंपे जाने सेे भूमि अधिग्रहण एक जटिल समस्या बन गई है। इससे कई पीढ़ियों से कृषि, पशुपालन और जल-जंगल-जमीन पर निर्भर लोगों के समक्ष आजीविका संकट का खतरा बढ़ ही गया है तो दूसरी ओर लेकिन जिन उद्यमियों और व्यवसाइयों को सरकार जमीन सौंप या बेच जा रही है उनकी संपत्ति और आमदनी में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हो रही है। यही स्थिति कम या ज्यादा कमोवेश पूरे देश की है।
भारतीय किसान आन्दोलन के इतिहास को देखें तो आज देश का किसान पहली बार अपनी जमीन बचाने के नाम पर अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रहा है। यह संकट निश्चित ही नई अर्थ व्यवस्था- 1991 में आरंभ उदारीकरण एवं निजीकरण, के कारण पैदा हुआ है, जो आज शहरी विस्तार, आद्योगिकीकरण, मूलभूत संरचना के विकास, पनबिजली योजनाओं आदि के नाम हो रहे अधिग्रहण और इन तमाम क्षेत्रों को निजी हाथों में सौंपे जाने से कृषि भूमि के बढ़ते संकट का पर्याय बन चुका है। अब तक तमाम किसान आन्दोलनों की अपेक्षा अधिक मुखर हैं। कृषि उपजों की वजिब कीमत और कृषि सुविधाओं की मांग पर चलने वाले आंदोलनों में बड़े किसानों के हितों की अधिक पैरवी करते मालूम होते हैं, यही वजह है कि उनमें छोटे व सीमांत किसानों, खेतीहर मजदूरों और कृषि आधारित अन्य व्यवासायों पर नर्भर लोगों के आन्दोलन नहीं बन पाए। लेकिन भूमि को बचाने की चुनौती छोटे-बड़े सभी किसानों और जल, जंगल एवं जमीन पर निर्भर सभी तरह के लोगों से इनका सीधा संबंध है। मुखर किसान आंदोलनों और किसानों की छोटी-मोटी जीत के बावजूद कृषियोग्य जमीन के अधिग्रहण की समस्या हल होने वाली नहीं है। कारण, एक तो सरकार शहरी विस्तार और औद्योगिक विकास का ऐसा ताना-बान बना चुकी है कि किसान अधिक समय तक अपनी जमीन नहीं बचा सकते। सरकार ने किसानों को कृषि योग्य जमीन का अधिकतम मूल्य देने का दावा करने के साथ-साथ पूंजीपतियों को बाजारभाव पर जमीन लेने के निर्देश दिए हैं। यह व्यवस्था एक किस्म से पूंजीपतियों को किसानों से उनकी जमीन हड़पने की खुली छूट देने के समान है। दूसरी बात यह है कि देश की बहुसंख्य आबादी ( लगभग 70 प्रतिशत) के कृषि पर निर्भर होने के बावजूद सराकर द्वारा उद्योग, व्यापार और सेवा क्षेत्रों को अधिक महत्व दिए जाने और कृषि क्षेत्रा की निरंतर उपेक्षा के कारण कृषि निरंतर घाटे का सौदा साबित हो रही है, जिसे अक्सर देश के किसानों और ग्रामीण आबादी के विरुद्ध सरकार की सुनियोजित नीति भी कहा जाता है। इसी नीति के चलते पंजाब, महाराष्ट, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल आदि राज्यों के किसानों द्वारा आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए हैं। इस दिशा में दिल्ली के कंझावला किसान आंदोलन ने कृषि योग्य जमीन के अधिग्रहण को बचाने और शहरी विस्तार के चलते किसानों और ग्रामीण आबादी की परेशानियों को कम करने के लिए एक बड़ी लाइन खींचने की पहल की है।
मार्च 2008 में सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण किए जाने पर बेहतर कीमत और मुआवजे की मांग से आरंभ इस आंदोलन की अगुवाई कर रही जन संघर्ष वाहिनी ने भूमि अधिग्रहण के बदले किसान-सरकार साझेदारी की अवधारणा पेश की है। हालांकि देश के विभन्न हिस्सों में चल रहे किसान आंदोलनों की तुलना में कंझावला किसान आंदोलन अपने विस्तार और प्रभाव की दृष्टि से अधिक बड़ा नहीं कहा जा सकता। यहां न तो कोई एसईजेड परियोजना है न ही सरकार कृषि भूमि का अधिग्रहण कर किसी एक उद्योगपति को दे रही है। बल्कि सरकार की योजना के मुताबिक कंझावला, कराला, सुल्तानपुर डबास, पूठ खुर्द, टिकरी खुर्द, टिकरी कलां आदि 6 गांवों की 1400 एकड़ जमीन का अधिग्रहणकर उस भूभाग पर औद्योगिक और आवासीय परिसरों का निर्माण कर उसे उद्यमियों और जरूरतमंदों को दिया जाना तय है। लेकिन जिस तरह दिल्ली महानगर का विस्तार पिछले सौ वर्षों के दौरान एक-एककर दिल्ली के गांवों को निगलता जा रहा है, दिल्ली के हरे-भरे गांवों के स्थान पर कंक्रीट के जंगज और धुंआ उगलते या फिर अत्याधुनिक पूंजी आधारित कारखाने उग आए हैं और आने वाले समय में इसके बृहत्तर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रा के रूप में दिल्ली सहित हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की उपजाउ$ कृषियोग्य भूमि में फैलना तय है, उसे देखते हुए कंझावला किसान आंदोलन की उपज ‘किसान-सराकर साझेदारी’ की अवधारणा ने देशभर में जल, जंगल और जमीन के सवाल पर आंदोलित जनता और बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित किया है।
1 टिप्पणी:
बहुत ही सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया है आपने इस तथाकथित विकास के गणित को धन्यवाद.
पिछले वर्ष हमने तथाकथित लोक प्रयोजन पर भी कलम घसीटी चलाई थी.
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