मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

बादल की कविता

प्रकोप

एक बवंडर
आया और चला गया
साथ ही छोड़ गया एक चेतावनी
ऐ मानवों,
अपनी अमानवीय हरकतों से बाज आओ
जिससे त्रस्त है सारी पृथ्वी
और सहन नहीं कर पा रहा
सगस्त सृष्टिï भी
अगर तुम मेरे नियमों का उल्लंघन करोगे
तो मैं भी तेरे अस्तित्व को मिटा डालूंगा
जहां कोई माली की कद्र ही न जाने
वो गुलशन ही बसा के मैं क्या करूंगा?


सभ्यता की पोल

सहमी हुई सुबह
सूरज की रोशनी से
भयाक्रांत थी
कौन जाने किस पल
एक धमाका हो
जो कई जिस्मानी साबूत के साथ
प्रगतिशील सभ्यता की पोल खोल दे
और चांद पर चढऩेवाले
इनसानी मंसूबों को
अंदर तक नंगा कर दे।


मृत्यु

अपरिभाषित है अभी भी
जिन्दगी, नियति, जन्म और मृत्यू
अभिमन्यु का चक्र भेदन
और, राज सातवें दुर्ग का
अभी भी प्रश्न है
प्रज्ञाओं से ऊपर
अनुभूति से परे
मृत्यु,
तुम रहस्य हो
पुरुष के भाग्य और
त्रिया चरित्र से भी गूढ़
मृत्यु,
तुम हो अभी भी अपरिभाषित
ज्ञान और विज्ञान की परिकल्पनाएं
अभी भी बहुत बौनी है।

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