पुरातन काल में 'तंत्रÓ और वर्तमान में 'विज्ञानÓ मनुष्य को यह शक्ति दे देता है कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को तबाह कर सकता है। बेशक, यह अमानवीय हो, प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप हो। बावजूद इसके, ऐसे कार्य किए जा रहे हैं। 'कृत्रिम वर्षाÓ आधुनिक समय का ऐसा ही अस्त्र है, जिसके सहारे जब चाहे प्रलय ला सकते हैं। जबकि इसका खोज मानवीय सहायता के लिए की गई थी।
द्वितीय विश्वयुद्घ के कुछ समय बाद एक अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर फैंक ने 16 नवम्बर, 1946 ईसवी को अमेरिकी रसायनशास्त्री लांग सेर की सहायता से संसार में पहली बार कृत्रिम वर्ष कराने में सफलता हासिल की। वायु में कारबोनिक गैस के तत्व छोड़कर कृत्रिम वर्षा कराने की यह अप्रतिम घटना थी। चूंकि, यह प्रक्रिया काफी खर्चीली थी जिसके कारण जरूरतमंद शुष्क क्षेत्रों में यह प्रचलन में नहीं आ पाया। हां, विकसित देश लगातार इस प्रक्रिया पर काम करते रहे और अपने सुविधा के संग इसमें अधिक सफलता प्राप्त करते गए। अब तो आलम यह है कि कुछ देश दूसरे देशों में जल के माध्यम से प्रलय लाने की जुगत में भी कृत्रिम वर्षा का सहायता लेने की योजना पर काम कर रहे हैं। एक ओर 'ग्लोबल वार्मिंगÓ से पूरा विश्व त्रस्त है, वहीं दूसरी ओर भारत के पड़ोसी देश चीन लगातार कृत्रिम वर्षा जिसे 'क्लाउड सीडींगÓ कहा जाता है, पर कार्य कर रहा है। हैरत तो यह कि वह सूखे से छुटकारा पाने के लिए नहीं बल्कि 'दूसरोंÓ को तबाह करने के लिए यह कार्य कर रहा है। कहा जा रहा है कि चीन ने कई बार लद्दाख से सटे सीमावर्ती इलाकों में इसका परीक्षण भी किया है। जानकार मानते हैं कि यदि इसी प्रकार चीन की नियत रही तो भारत में वह कभी भी प्रलय ला सकता है। वैसे भी हर वर्ष भारत में बाढ़ भारी तबाही मचाती है, और यदि उस पर चीन क्लाउड सीडिंग करता है, तो खुदा ही खैर करें? काबिलेगौर है कि परमाणु अप्रसार संधि की तरह क्लाउड सीडिंग को लेकर भी कई विकसित देशों ने इसके अनाधिकार प्रयोग को लेकर एक संधि कर रखी है। मगर, चीन ने इस संधि को मानना जरूरी नहीं समझा और न ही संधि करने वाले देश उसे बाध्य कर सके। वैसे हालात में चीन की मंशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
कुछ समय पूर्व भारत में भी क्लाउड सीडिंग को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था। बुंदेलखण्ड सरीखे सूखाग्रस्त क्षेत्र इसकी जद में लाने की बात हो रही थी तो महानगर मुंबई में भी इसके प्रयोग की बात की जाने लगी थी। कई खबरिया चैनलों में तो चीख-चीख कर एकतरफा 'क्लाउड सीडींगÓ के पक्ष में बातें की जा रही थी। बिना इसके दूसरे पहलू को जाने। संभवत: तस्वीर के दूसरे पहलू को देखने को कोई तैयार नहीं है। इस संबंध में कई मौसम विज्ञानियों का कहना है कि यह तकनीक तो पूरी दुनिया में अपनायी जा रही है। इस बात की बहुत सम्भावना है कि इस प्रक्रिया से वर्षा होगी। पर इस वर्षा की कीमत किसी न किसी को चुकानी ही पड़ेगी। कहीं आस-पास पड़ रहा सूखा और तीव्र हो जायेगा। फिर सिल्वर आयोडाइड के प्रयोग से भी पर्यावरण विशेषकर वनस्पतियों पर असर पड़ेगा। सच तो यह भी है कि कृत्रिम वर्षा की बात और प्रक्रिया उतना सीधा-सीधा नहीं है। दुनिया के बहुत से देशों में इस पर प्रतिबन्ध भी लगता रहा है। वैज्ञानिक दस्तावेज बताते हैं कि थाईलैंड में इस तकनीक के लम्बे समय तक प्रयोग ने सूखे की बुरी स्थिति को जन्म दिया है। तकनीकी विषय होने के कारण मीडिया में इसके नकारात्मक पहलुओ के विषय में कम ही कहा जाता है। यह देशी नहीं बल्कि विदेशी मीडिया के साथ भी समस्या है। सच्चाई तो यह भी है कि 'क्लाउड सीडींगÓ के लिये कोई सरकार करोड़ो - अरबों रुपए पानी की तरह बहायेगी, इस बात की परवाह किये बिना कि यह तकनीक असफल भी हो सकती है। विदर्भ में ऐसे प्रयोग पहले किये गए हंै।
काबिलेगौर है कि कुछ समय पूर्व डिस्कवरी चैनल पर एक कार्यक्रम में बताया जा रहा था कि एक समय जब तेजी से बढते हुए एक समुदी तूफान को खत्म करने के लिए बादलों पर रसायनो का छिड़काव किया गया तो तूफान वहाँ तो टल गया पर उसने दिशा बदलकर दूसरे स्थानों पर जबरदस्त कहर बरसाया। प्रकृति की व्यवस्था की नकल इतनी सरल नहीं है।
बहरहाल, कुछ समय पूर्व चीनी समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक सीएमए की वेबसाइट पर उपलब्ध एक बयान में कहा गया है कि मौसम नियंत्रक अधिकारियों ने बादल निर्माण की कुल 127 कार्रवाइयों के दौरान रात में 2,392 तोप के गोले और 409 रॉकेट दागे। कहा गया कि बारिश कराने वाली ये कार्रवाइयां हेनान, गांसु, निंगसिया, शांसी, शैंसी, हुबेई व अंहुई जैसे सूखाग्रस्त प्रांतों में की गईं। नेशनल मेट्रोलॉजिकल सेंटर (एनएमसी) की रिपोर्ट के मुताबिक इन प्रांतों में व उत्तरी चीन के हेबेई प्रांत में इससे कुछ ही घंटों में एक से पांच मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई। हालंाकि, अकाल की समस्या से जूझते चीन को उबारने के लिए वैज्ञानिकों ने विश्व का सबसे बडा क्लाउड सीडिंग सिस्टम तैयार किया है। इस सिस्टम के जरिए चीन के कई शहरों में बारिश करवाई जा चुकी है। पहली बार बीजिंग वेदर मॉडिफिकेशन ऑफिस ने चीन के कई शहरों को अकाल से मुक्ति दिलाने और जंगल की आग से बचाने के लिए कृत्रिम बारिश कराई। बारिश कराने के लिए रॉकेट शेल्स का सहारा लिया गया, जिसमें आकाश में 7 रॉकेट शेल्स छोडे गए। इन रॉकेट्स में 163 सिल्वर आयोडाइड के सिगरेट साइज स्टिक्स थे जिसे बीजिंग के आकाश में छोड़ा गया। परिणामस्वरूप भारी वर्षा हुई, जो हर वर्ष होने वाली वर्षा से कहीं अधिक थी। इसी प्रकार
सूखे के हालात से निपटने के लिए मोरक्को को भी कृत्रिम वर्षा की तकनीक का उपयोग करना पड़ा। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था लगातार कई सालों से सूखे की मार झेल रही थी। इससे निजात पाने के लिए मोरक्को सरकार ने कृत्रिम बारिश करवाने की तकनीक इस्तेमाल की। मोरक्को रॉयल एयर फोर्स की मदद से एक योजना तैयार की गई जिसमें एसीटोन बर्नर जनरेटर से लैस एयरक्राफ्ट के माध्यम से बादलों में सिल्वर, सोडियम व एसीटोन का छिडकाव कराया गया। जिसकी वजह से 10 फीसदी वर्षा अधिक हुई। इससे स्थानीय सिंचाई व हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर को काफी फायदा हुआ। इस तकनीक को अफ्रीका के दूसरे देशों ने भी अपनाया।
हाल ही में कोपेनहेगेन में हुई बैठक में यूं तो मसौदे पहले से ही तैयार थे लेकिन हाल ही में चीन कृत्रिम तरीके से की गई बर्फबारी ने इसमें एक नया आयाम जोड़ दिया है। सवाल यह है कि क्या कृत्रिम रुप से मौसम बदलने का प्रयास पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डाल सकता है। और भारत की चिंता तो यहां तक है कि कहीं चीन इसका इस्तेमाल हमारे खिलाफ तो नहीं करेगा? गौर करने योग्य यह भी है कि चीन के वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने मौसम पर नियंत्रण कर लिया है। वैज्ञानिकों द्वारा कराई गई बर्फबारी ने चीन की राजधानी बीजिंग को पाट दिया था। पिछले कुछ महीनों से चीन सूखे से परेशान था। इससे निजात पाने के लिए चीन के मौसम वैज्ञानिकों ने सिल्वर आयोडाइड के 186 राकेट दागे जिससे खासी बर्फबारी हुई। बीजिंग के मौसम विभाग के मुताबिक 'चीन सूखे की मार झेल रहा है। ऐसे में हम कृत्रिम वर्षा से मौसम बदलने का कोई मौका चूकना नहीं चाहते थे।Ó हालांकि चीन में मौसम बदलने का यह कोई नया प्रयास नहीं है। अक्टूबर में चीन की 60वीं सालगिरह की परेड में बारिश न होने के लिए 18 क्लाउड-सीडिंग जेट व 432 विस्फोटक राकेट छोड़े गए। यही नहीं बीजिंग ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में आसमान साफ रखने के लिए एक हजार राकेट छोड़े गए थे।
कृत्रिम बारिश कैसे होती है?
कृत्रिम वर्षा तकनीक के तीन चरण हैं। पहले में रसायनों का इस्तेमाल करके उस इलाक़े के ऊपर वायु के द्रव्यमान को ऊपर की तरफ़ भेजा जाता है जिससे वे वर्षा के बादल बना सकें। इस प्रक्रिया में कैल्शियम क्लोराइड, कैल्शियम कार्बाइड, कैल्शियम ऑक्साइड, नमक और यूरिया के यौगिक, और यूरिया और अमोनियम नाइट्रेट के यौगिक का प्रयोग किया जाता है। ये यौगिक हवा से जल वाष्प को सोख लेते हैं और संघनन की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। दूसरे चरण में बादलों के द्रव्यमान को नमक, यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट, सूखी बफऱ् और कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग करके बढ़ाया जाता है और तीसरे चरण में सिल्वर आयोडाइड और सूखी बफऱ् जैसे ठंठा करने वाले रसायनों की बादलों में बम्बारी की जाती है जिससे बारिश होने लगे। इस तकनीक को 1945 में विकसित किया गया था और आज कोई 40 देशों में इसका प्रयोग हो रहा है। अमरीका में एक टन वर्षा का पानी बनाने में 1।3 सैंट का ख़र्च आता है जबकि ऑस्ट्रेलिया में यह मात्र दशमलव तीन सैंट है जो काफ़ी सस्ता हुआ। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि इस तकनीक में प्रयोग होने वाले रसायन पानी और मिट्टी को प्रदूषित कर सकते हैं।
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छा आलेख लिखा है।......वैसे एक बात निश्चित है इस तरह प्राकृति से खिलवाड़ करना आखिर बहुत महंगा पड़ेगा....अब तक के सारे अनुभव यही बताते हैं........
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