शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

इंतजार में भूखा बचपन

जरूरी मुददों की लगातार उपेक्षा वास्तविकताओं से आंख मूंदकर बनाई अनुचित नीतियां और उचित नीतियों का भी गलत तथा भ्रष्टï क्रियान्वयन सरकार विरोधी लहर को जन्म देता है, पालता -पोसता है। इस लहर के बनने में सबसे बड़ा हिस्सा बुनियादी जरूरतों की आपराधिक उपेक्षा का है। दुर्भाग्य से हमार देश में यह उपेक्षा कदम-कदम पर दिख रही हैै।इसका एक ज्वलंत उदाहरण बीमार बचपन है। कुपोषण से लेकर बाल मृत्यु दर की बढ़ती दरों की हकीकत जीवन के उस अधिकार का लगातार मुंह चिढा रही है, जो हमारे संविधान ने देश के बच्चे को दिया है।
जिस तरह बढ़ती विकास दर की घोषणाओं से महंगाई की मार कम नहीं हुई,उसी तरह देश में बाल कुपोषण की स्थिति में कोई उल्लेखनीय प्रयोग नहीं दीख रही , उल्टे स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। यह विकास के समूचे दावों के बावजूद एक त्रासद सच्चाई है कि आज बाल कुपोषण के मामले में हमारे भारत की गणना विश्व के उन देश में होती है, जहां स्थिति सबसे बुरी है। कुुछ ही अरसा पहले सरकार ने राïïष्टï्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी की थी। इस सर्वेक्षण के अनुसार देश की लगभग 46 प्रतिशत तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चे अपेक्षित वजह से कम वजन के हैं। लगभग तीन चौथाई बच्चों में खून की कमी पाई गई है। इससे पहले ऐसा सर्वेक्षण 1998-99 में हुआ था। तब और अब के आंकड़ों को देखें तो सुधार नगण्य ही हुआ है। तब बाल कुपोषण 46।7 प्रशित था और अपेक्षा से कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत 79 था। सात साल की यह प्रगति जिस तथ्य को रेखांकित करती है, वह यही है कि बीमार बचपन का ईलाज हमारी सरकारों की प्राथमिकता की सूची में कहीं बहुत नीचे आता हैै।
इस संदर्भ में दिसंबर माह में जारी एक और रिपोर्र्ट काफी महत्वपूर्ण है । छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों की स्थिति के बारे में जारी रिपोर्र्ट फोकस हमारी समुचित बाल विकास सेवाओं की कलई खोल देती है। आइसीडी एस।के. नाम से पहचानी जानेवाली यह योजना अखिल भारतीय स्तर पर छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए चलाई जा रही अकेली योजना है, अत: इसका महत्व स्पष्टï है और उतना ही महत्वपूर्ण यह तथ्य भी है कि इस योजना की ओर अपेक्षित ध्यान देने की आवश्यकता हमारी सरकार महसूस नहीं कर रही है। बाकी बहुत से महत्वपूर्ण मुददों की तरह इस मुददों पर भी न्यायालय ने सरकार को आडे हाथों लिया हैै। लगभग सात साल पहले यानि 2001 में उच्चतम न्यायालय ने संविधान की धारा 21 के अंतर्गत भोजन के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा बताया था। तब न्यायालय ने इसके लिए समुचित बाल विकास योजनाओं को सारे देश में समान स्तर पर लागू करने की बात कही थी और यह भी समझाया था कि उन्हें बच्चो ंकी भोजन और स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी जरूरतें पूरी न होने का मतलब उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। पर समझाया तो उसे जा सकता है, जो समझना चाहे। जहां विकास की हर घोषणा का रिश्ता सत्ता में बने रहने से हो, वहां राष्टï्र के भविष्य के प्रति जिम्मेदारी और ईमानदारी के लिए जगह कहां बचती है?
न्यायपालिका ने तो और भी बहुत कुछ कहा, किया है इस संदर्भ में। लगभग तीन साल पहले उच्चतम न्यायालय ने गर्भवती महिलाओं और छह साल तक की उम्र के बच्चों को समेकित बाल विकास कार्यक्रमों के अंतर्गत लाने की बात कही थी। आंगनबाडिय़ों की संख्या बढाकर परिगणित एंव अनुसूचित जातियों की बस्तियों एंव सभी झोपड़पटटी तक उन्हें पहुंचाने का निर्देश दिए थे। साथ ही यहभी कहा था कि बच्चों को दिए जाने वाले पौष्टिक पदार्थो पर व्यय एक रूपये से बढकार दो रूपए कर दिया जाए । न्यायालय ने दिसंबर 2008 की समय सीमा भी निर्धारित की थी जब तक ये सारी योजनाएं लागू हो जानाी चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्र्ट इस बात का स्पष्ट संकेत है कि बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में सरकार अपना दायित्व निभाने में असफल रही है।
सवाल उठता है कि इस बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार नीतियों, तत्वों को रेखांकित करने की आवश्यकता कब महसूस की जाएगी? सत्ता कामना की पूत्र्ति में लगे राजनीतिक दलों को यह अहसास कब होगा कि भूख, महंगाई, गरीबी, अशिक्षा, असमानता जैसे मुददे किसी भी राष्टï्र की जीवन रेख को परिभाषित करते हैैं? लोक लुभावन नारों, घोषणाओं का असर पड़ता होगा चुनावों के परिणामों पर, लेकिन असली सवाल राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूत्र्ति का है। बीमार बचपन को स्वस्थ्य बनाने का कार्यक्रम किसी भी राष्ट्र की वरीयताओं में सबसे उपर होना चाहिए। हमारी राजनीति के सरोकारों तथा हमारी राजनीतिक ईमानदारी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण एंव बहुत ही गंभीर टिप्पणी है कि राष्टï्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्र्ट संसद में या सड़क पर मुददा उठाने के लायक नहीं समझी जाती। बच्चों को स्वस्थ्य जीवन का अधिकार न देना भी उसी आपराधिक अनैतिकता के अंतर्गत आता है , जिसमें आर्थिक भ्रष्टïाचार की गणना होती है। यह भ्रष्टïाचार हमारी राजनीति का मुददा क्यों नहीं बनता ? आखिर कब तक ......?