आज मैं वो करने जा रहा हँू, जो काफी पहले करना चाहिए। मन में कोई बात दबी रह जाए तो अच्छा नहीं होता। आज मैं अपनी भावनाओं को कोरे का$गज़ पर उकेरने जा रहा हूॅँ, जिसको मैंने भोगा, महसूस किया और जिया और जिसकी पे्ररणा भी तुम ही रही हो। तो शुरुआत कर दी जाए न ... शायद तुम सामने होतीं तब भी मुझे मना नहीं करतीं, आखिर इतना विश्वास तो तुम पर आज भी है। चाहे आज तुम किसी और की हो गई हो... क्या हुआ अगर मुझे मनचाहा मुकाम नहीं मिल पाया, इस बात की खुशी और भी ज्य़ादा है कि तुम्हारी मुराद पूरी हो गई।
मुझे आज भी याद है, वो पहला दिन जब तुम मेरे पास आई थीं। हाथों में खनकती चूडिय़ाँ, माथे पर बड़ी-सी बिंदी, कानों में इठलाती झुमकियाँ और होठों पर आया हुआ हल्का-सा तब्बसुम। मेरे आस-पास का हर कण तो उस समय इनके मिति प्रभाव से जैसे खिल ही उठा था। मैं नहीं जानता था वो एक पल मेरे मानसपटल पर इतनी गहरी छाप छोड़ जाएगा। न जाने कितनी ही युवतियों और महिलाओं से रोज़ वास्ता पड़ता था, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक दर्जनों से मुलाकात होती और कुछेक-से हंसी-ठिठोली भी। लेकिन तुममें न जाने क्या बात थी? आज भी नहीं समझ पा रहा हूं कि किस तरह तुमसे एक पल की मुलाकात काफिला बनकर मेरे वजूद से जुड़ गया। तुम्हारा अस्तित्व मुझसे, मेरे जीवन से, मेरे हर पल से, मेरे होने न होने से, हर एक वस्तु से जो मुझसे जुड़ी है, इस तरह से जुड़ जाएगा कि मुझे उसमें स्वयं को ढूढने में उम्र निकल जाएगी। मैं आज भी तुम्हारी एक झलक को अपनी आँखों में बसाकर पूरा दिन गुज़ार लेता हॅंू, अपनी रातों को समझाता हंू और सुबह तुम्हारे दीदार क ा इंतज़ार करता रहता हंू। यदि इस तरह भी उम्र गुज़र जाए तब भी रंज न होगा। तुम तो जानती हो कि इतने पर भी कभी तुम्हें स्पर्श करने क ो मन लालायित न हुआ। आज भी लगता है कि तुम्हेंं छू लूूंगा तो सारा सपना टूट जाएगा। क्या हुआ मैं तुम्हारे अपने सपनों मेंं नहीं आता, आजादी के वल इतनी चाहिए कि मैं जब चाहूं तुम्हें सपने में बुला सकूं। और इस पर केवल और के वल मेरा अधिकार है।
मुझे इससे कोई वास्ता नहीं कि आज तुम मेरे बारेे में क्या सोचती हो तथा अन्य लोग क्या सोचते और बोलते हैं। मैं यह भी नहीं जानता कि तुम मुझे कितना जान पाई। मैं तुमसे कुछ नहीं मांगता। प्रेम कुछ पाने क ा नाम नहीं, मेरे लिए पे्रम का अर्थ है समर्पण। ओशो ने भी कहा है - प्रेम: एक ही मंत्र है समर्पण, समग्र समर्पण। जरा-सी भी बचाया खुद को कि खोया सबकुछ। बस, खो दो ख़्ाुद को। पूरा का पूरा, बिना शर्त। और फिर, पा लोगे वह सबकुछ, जिसे पाये बिना जीवन एक लंबी मृत्यु के अलावा और कुछ भी नहीं है। और समझकर करने के लिए मत रूके रहना क्योंकि किए बिना समझने का क ोई उपाय नहीं है।
आज मैं तुमसे बिना कुछ मांगे अपना सब कुछ समर्पित करता हूं। वैसे भी मेरे पास स्वयं का कुछ बचा ही क्या है? जो कुछ भी है उस पर अब केवल तुम्हारा हक है, सो तुम्हें अर्पित कर रहा हूँ। मन में कोई दुराव मत रखना। तुम को तुम्हारा ही सब कु छ दे रहा हंू। जीवन में जितने पल शेष हंै, उनमें तुम्हें महसूस करता रहूंगा, कोई हर्ज तो नहीं...
तुम ही कहा करती थी, हम चाहे कितने भी मॉडर्न हो जाएं लेकिन हमारा मांजी हमेशा अपनी ओर खींंचता है। शायद यही वजह है कि तमाम मॉउर्न हिट हॉप इंस्ट्रूमेंट से सजे गानों पर हमारा जिस्म चाहे कितना ही थिरक ले, पर मन थिरकता है आज भी पुराने सिनेमाई गीतों की धुन पर। इसी के चलते हर दूसरे दिन नए रिमिक्स एलबम बाजार मे आ रहे हैं, यानी पुरानी मिठाई नई चाशनीके तड़के के संग। तुम्हारा यही अंदाज संभवत: मुझे भा गया और मैं आज तक तुम्हारे इंतजार में हॅंू, उसी जगह आज भी तुमको ताक रहा हूं, जहां हम दोनों पहली बार एकनजर हुए थे। अधिकतर लोगों का मानना है कि फनकार को किसी खास मौजूं की जरूरत नहीं होती, वह अपने आस-पास की चीजों से ही तरगीब हासिल कर लेता हैै। हम दोनों ही जिस फन में थे, उसकी नियति भी तो यही थी। तभी तो खूब से खूबतर की तलाश में हम सरगर्दा रहते थे। नहीं तो क्या ज़रूरत है लोगों को महानगर की सड़कों की धूल और गलियों की खाक छानने की?
अनुकूल वस्तु अथवा विषम को प्राप्त करने की ललक मानव का जन्मजात स्वभाव है। यह ललक सामान्यत: दो प्रकार की होती है, प्रत्येक वस्तु के प्रति तथा किसी विशेष वस्तु के प्रति। इनको क्रमश: लोभ और प्रेम कह सकते हैं। लोभ में वस्तु की मात्रा को प्राप्त करने की ललक होती है और प्रेम में वस्तु की विशेषता के प्रति ललक होती है। प्रेम अपनी इष्ट वस्तु के लिए अन्य वस्तु का त्याग करता है और केवल उसी को प्राप्त करने की इच्छा रखता है तथा लोभी प्रत्येक वस्तु को प्राप्त करना चाहता है। मैं आजतक अपनी उस $गलती को नहीं भूला, जिसका परिमार्जन तुमने किया था। और कहा था - अपनी $गलतियों को पूरी विनम्रता के साथ स्वीकार करना चाहिए , तब आप कभी $गलत नहीं रह जायेंगे। गलतियां ही सबसे अच्छा गुरुहोती है। इसलिए हर उस $गलती से सबक लें, जिससे आपको दु:ख पहुंचा हो। यह जानने की कोशिश करें कि फलां समय में उस दु:ख का कारण क्या था। इस बात की पूरी संभावना है कि वह ज़रूर कोई छोटी-सी बात ही होगी।
जिस प्रकार से हम मिले थे और हमारा लगाव एक-दूसरे के प्रति हुआ था, उसक ो सामाजिकता के आधार पर प्रेम की संज्ञा दी जा सकती थी। लेकिन हमने नहीं दी... आखिर क्यों? इसमें तुम्हारी $गलती रही या मेरी? प्रेम शब्द से यौवनोचित्त यौन-चित्र जिनके मन में उदय पाता हो, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरे निकट प्रेम उस परस्पराकर्षक तत्व के लिए सगुण संज्ञा है, जिस पर चराचर समस्त सृष्टि टिकी है। निर्गुण भाषा में उसी को ईश-तत्व कहा जा सकता हैै। जीवन के यौवन काल में जिस काम और कामना का प्राबल्य देखा जाता है, वह अभिव्यक्ति में वैयक्तिक है। 'प्रेेमी-प्रेमिकाÓ शब्दों के उपयोग में खतरा है कि हम व्यक्तिगत संदर्भ में सिमट आते हैं। पर जो महाशक्ति तमाम जगत और जीवन के व्यापार को चला रही है, उसके सही इंगित के लिए हमारे पास एक संवेद्य संज्ञा तो यही है - प्रेेम। इसे राधा-कृष्ण का प्रेम कह सकते हैं, जिसे केंद्र में रखकर ही भक्ति-युग का सारा ताना-बाना बुना गया।
तुम भी तो कहा करती थीं कि आज के आधुनिक युग में प्रेम का अर्थ अमूमन काम-वासना से लगाया जाता है। प्रेम के नाम पर युवक-युवतियां वासना का गंदा खेल खेलते हैें और प्रेम जैसे सात्विक तत्व को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। यदि प्रेम से तात्पर्य वासना से होता और प्रेमिका से पत्नी का तो भारतीय संस्कृति में राधा-कृष्ण का अमर प्रेम नहीं होता। त्रेता में लीलाधर कृष्ण ने राधा के संग प्रेम करके प्रेम को महिमामंडित किया और जनता के सामने एक मॉडल प्रस्तुत किया। यह जरूरी नहीं कि जिससे हम प्रेम करते हैं वहीं पति अथवा पत्नी बने। कृष्ण ने राधा के संग प्रेम किया और विवाह रुकमिणी के संग। प्रेम न जात-पात देखता है और न ही संबंध। वह तो बस प्रेम की मंदाकिनी में बह जाना जानता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब कृष्ण ने राधा से प्रेम किया तो राधा किसी की ब्याहता थी, लेकिन उन्होंने प्रेम को कलंकित नहीं होने दिया। विवाह कितना भी प्रेम-विवाह हो, पत्नी यथार्थ पर आकर निरी स्त्री हो आती हैै। उसी तरह पुरुष पति होने पर देवरूप से नीचे आता है और मनुष्य बनता है। प्रेम की ही खूबी है कि वह सामान्यत: से उठाकर उसे सुंदरता, दिव्यता आदि से मण्डित कर जाता है। इस गुण को प्रेम से छीलकर अलग नहीं किया जा सकता हैै। इसी की प्रगाढ़ता की महिमा है कि भक्ति और भगवना की सृष्टि हो आती है। जो लोग औरत शब्द पर ही टिके रहना चाहते हैैं और देवी अथवा अप्सरा को निष्कासन दिये रहना चाहते हैं, वे अपनी जानें। मेरेे विचार में वह संभव नहीं हैै, इïष्ट तो है ही नहीं। कोई विज्ञान या यथार्थ या वैराग्य का वाद प्राणी को परस्पर रोमांचित हो आने की क्षमता से विहीन नहीं बना सकेगा। कठिनाई बनती है, बीच में दैहिकता के आने से। मुख्य बाधा का कारण यह है कि हमने विवाह-संस्था को भोग-आधिपत्य की धारणा पर खड़ा किया है, इसलिए विवाह को सदा ही प्रेम की खरोंच में आना पड़ता हैै। प्रेम-विवाहों को तो और भी अधिक।
आज मुझे अपार खुशी है कि हमने विवाह जैसी संस्था में बंधने के बजाय उन्मुक्त जीवन जीने की सोची। हो सकता हैै तुम इसे मेरी भीरुता क हो, क्योंकि कुुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य को शादी करनी चाहिए, अपना पेट तो कुत्ता भी पाल लेता है और अपनी वासना की पूत्तर््िा कर लेता हैै। लेकिन इतिहास के कई प्रसंग ऐसे हैं, जहां हमारे महानायकों ने विवाह नामक संस्था को स्वीकार नहीं किया, तो क्या मैं उनकी राह का अनुसरण नहीं कर सकता? जब कभी मुझे विचार आता है कि मेरे आज यहां होने के कारणों में से एक कारण यह भी हो सकता हैै- यह अविश्वास की प्रतिक्रिया। उस दिन के बाद सोते-जागते, चैतन्य में और सुषुप्ति में, संग्राम और पलायन में, जितनी अधिक बार अविश्वास के उस भयंकर आकस्मिक ज्ञान का चित्र मेरे सामने आया हैै, उतनी बार कोई अन्य चित्र नहीं आया। ऐसा नहीं है कि मैं सदा आनंदित रहता हॅॅंू। जीवन की पुरवा-पछुवा मुझे भी भिंडझोड कर रख देती हैै और यहंा की शीतलहर का अंदाजा तो तुमको है ही... कभी-कभी मैं पीड़ा से इतना घिर जाता हूँ कि आनंद मेरा अपिरिचित हो जाता हैै। लेकिन कल्पना की ऑंखों से जब अंधियारे आकाश के पेट पर दो उलझे हुए शरीरों का चित्र देखता हॅॅंू, तब मेरे अंतरतम में भी कोई शब्दहीन स्वर मानो चौंककर अपने आपको पा लेता हैै।
आज जब तुमको पत्र लिख रहा हँू तो पुराने दिनों की कुछ घटनाएं बेतरतीब आंखों के सामने आ रही है और मुझे हंसी आती हँ। तुमसे दो-चार बातें क्या कर लेता, अपने को तीसमारखां समझता। और कभी मन ही मन खुश होता कि शायद प्रेम हो गया है। तुम पर अपना अधिकार भी समझता, तभी तो कई बातें तुमको कह देता। तुम किसी $गैर से बात करती तो मन मेें खुंदक होती, क्योंकि तुम्हें अपना जो मानता था... आज समझ रहा हूं कि बहुत सारे लोगों की प्यार में यही हालत हो जाती है। मेरा प्यारके वल मेरा है, किसी से उसने हंसकर बात कर ली तो बस कयामत ही आएगी... जब किसी से प्यार हो जाता है तो यह स्वभाविक है कि एक-दूसरे के ऊपर अधिकार जमाया जाता है। परंतु यह अधिकार एक सीमा में रहे तभी अच्छा लगता है। यदि यह प्यार और यह अधिकार किसी की स्वतंत्रता पर रोक लगाता है तो समझिए कि गïïड्डी विच हिंड्रेस। मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि रिश्तों को बनाए रखने हेतु स्वतंत्रता और अधिकार भावना का एक अच्छा संतुलन जरूरी होता हैै। जैसे ही यह संतुलन बिगड़ता हैै रिश्ते भी टूट जाते हैं। वैसे पजेसिवनेस हमेशा रिश्ते नहीं तोड़ती, जोड़ती भी हैै। पजेसिवनेस की भावना एक तरह से किसी के प्रति हमारे अटेंशन को व्यक्त करती हैै एवं प्रत्येक व्यक्ति को अटेंशन की जरूरत होती हैै। बस, हमें यह पहचानना आना चाहिए कि दूसरे व्यक्ति को किस समय अटेंशन की ज़रूरत है। यदि हम प्यार के रिश्ते की विशेष तौर पर बात करें तो इसमें पजेसिवनेस होना स्वभाविक हैै क्योंकि यह वह रिश्ता होता है, जिसमें व्यक्ति उम्मीद करता हैै कि सामने वाला केवल उसका होकर रहे। क्यों सही है न?
लेकिन हम भूल गए कि रिश्ता प्यार को हो अथवा कोई दूसरा, मुट्ïठी में बंद रेत की तरह होता है। रेत को यदि खुले हाथों से हल्के से पकड़े तो वह हाथ में रहती हैै। जोर से मुट्ïठी बंद करके पकडऩे की कोशिश की जाए तो वह फिसलकर निकल जाती हैै। आज की तारीख में यही हाल मेरा है है, सो मैं भी कोरे का$गज़ को काली रोशनाई से स्याह करता जा रहा हूँ और अपनी भावनाओं को चस्पा करने की कवायद कर रहे हैैं। तो क्या यह कवायद की जाए... तुम्हीं बताओ? यह सिलसिला जारी रखूं कि इसे भी अल्पविराम के बाद पूर्णविराम तक जाने दँू?
2 टिप्पणियां:
अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
aaj kal aapke dimag me dopamine aur serotin chemichal ki matra badhi hue lagthi hain.
bahut badhiya likhe. aishi hi sahaj shailly blog likhe likin chota.
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