काल की भयावहता
खेत पड़े हैं सूने सपाट वैधव्य की
माँग रेखा से, पड़ रही है उजाड़
पृथ्वी में दरारें, फेरती है अपने
पपड़ाये होठों पर सूखी
यह कविता डा. वाजदा खान की पुस्तक 'जिस तरह घुलती है काया' में संग्रहित है।
जिह्वा, कंठ हो चला काँटे -सा
चुभ रहा है देह में तीखेपन के साथ
भीग रही है धरती
रक्त-रक्त से हो रही है लाल
नहीं दिखाई पड़ता कहीं हरापन
आकाश मौन सपाट
नहीं गूँज रही है कहीं कोयल की
कूक, नहीं कर रहा है नृत्य
कहीं किसी वन में मोर
हो रहे हैं यज्ञ, पड़ रही है आहुति
चला रही हैं हल स्त्रियाँ
होकर निर्वस्त्र, गीत गाती इन्द्रलोक
के द्वार तक, पर खुलते नहीं
देवताओं के सूने कपाट
पड़ती नहीं माथे पर उनके
करूणा की शिकन
क्या बन गए हैं अनश्वर लोक के
देवता नश्वर लोक के प्राणी की भाँति
संवेदनहीन।
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क्या बन गए हैं अनश्वर लोक के
देवता नश्वर लोक के प्राणी की भाँति
संवेदनहीन।
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