नाम भगवान का काम इनसान का। हिंदू संस्कृति में भगवान तो ऐश्वर्य से ओत-प्रोत हैं ही, लेकिन आधुनिक समय में भगवान के नाम पर धर्म के ठेेकेदार धनवान होते जा रहे हैं। उसके लिए कोई भी छल-प्रपंच करने से नहीं हिचकते। लिहाजा, भगवान के नाम पर 'खास इनसानÓ धनवान होते जा रहे हैं। इस खेल में कहीं सरकारी नियमों को ताक पर रखा जाता है तो कहीं गरीबों का निवाला छीना जाता है। कहीं पुजारी की जीभ काट ली जाती है तो कहीं करोड़ों की संपत्ति हड़प ली जाती है। और कहा जाता है कि सब कुछ भगवान के लिए भगवान के लोगों द्वारा भगवत इच्छा से हो रहा है।
सदियों से कहा जाता है कि भारत अमीर है भारतीय गरीब। इसके पीछे अपने-अपने तर्क दिए और गढ़े जाते हैं। वर्तमान में भी कुछ बदला नहीं है। इसी देश में कोई एक वक्त की रोटी के लिए तरसता है तो किसी के पास इतना धन है कि वह उसे संभाल नहीं पाता। तो कुछेक जगहों पर धन की इतनी अधिक उपलब्धता है कि धन की उपादेयता नहीं रह जाती है। मसलन, भगवान जो सर्वशक्तिशाली, सर्वऐश्वर्य संपन्न हैं, कलयुग में प्रत्यक्ष रूप से उन्हें धन की कोई आवश्यकता नहीं हेाती, फिर भी उनके दर्जनों से अधिक मंदिर में अतुल धन-संपदा अर्पित की जाती है। जो भगवान के काम का नहीं होता। हां, इतना जरूर है कि भगवान के नाम पर पुजारी और जहां बड़े मंदिर आदि हैं, वहां के ट्रस्टी करोड़ों का वारा -न्यारा करते हैं। अव्व्ल तो यह कि सारा कुछ भगवान के नाम पर होता है। लिहाजा, कोई चूं तक नहीं करता।
परंपरा और श्रद्घा के नाम पर लोगों के मन में आता है तो धार्मिक स्थलों पर जाकर गाढ़ी कमाई का हिस्सा दान कर आता है। यह बात अक्सर सुनने में आती है कि हमारे देश में अमीर और भी अमीर होता जा रहा है और गरीब और भी गरीब। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि अब हमारे भगवान् लोगों से भी ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं। आलम यह है कि अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और वेल्लूर के श्रीपुरम मंदिर में जड़े करोड़ों रूपए के सोने के बाद अब तिरुपति बालाजी भगवान् मंदिर को भी स्वर्ण युग में शामिल किया जा रहा है। तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम के कार्यकारी अधिकारी के। वी. रमणाचारी के अनुसार, तिरुपति बालाजी भगवन मंदिर को स्वर्णिम रूप देने में लगभग 12.71 करोड़ रूपए के सोने का इस्तेमाल होगा। वर्ष 2009-10 में मन्दिर के कार्यों के लिए ट्रस्ट बजट 1363 करोड़ रुपये है। जबकि प्रतिवर्ष लगभग 520 करोड़ रुपये का चढावा तिरुपति बालाजी भगवन मन्दिर में चढ़ता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या करेंगे भगवान इतने रुपये कमा कर, जहाँ हमारे देश की आधी से ज्यादा जनसँख्या गरीबी रेखा से नीचे रहती है और उन्हें भरपेट खाना भी नहीं मिलता हो। आंकड़ों के लिहाज से बात की जाए तो 12.71 करोड़ रुपये का सोना से लगभग 31.77 लाख लोगों के लिए एक दिन का भरपेट खाना होता है। तो 520 करोड़ का सालाना चढावा का यदि उपयोग किया जाए तो लगभग 4 करोड़ लोगों को एक महीने तक भरपेट खाना मिल सकता है। ट्रस्ट ने वर्ष 2009-10 के लिए 1363 करोड़ रुपये का बजट रखा है, इसका उपयोग किया जाए तो लगभग 11 करोड़ लोगों के लिए एक महीने तक भरपेट खाना मुहैया कराई जा सकती है। मगर, अफसोस भगवान के नाम पर इक_ïा किए गए इस धन का ऐसा किसी भी कार्य में प्रयोग नहीं किया जाएगा। गौरतलब यह भी है कि आंध्रप्रदेश के प्रसिद्ध वेंकटेश्वर मंदिर में 05 अक्टूबर, 2009 को पहली बार एक ही दिन में तीन करोड़ रुपये का रिकार्ड चढावा चढा। मंदिर में करीब एक लाख श्रद्धालुओं ने भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन किए और उनसे तीन करोड़ रुपये का हुंडी संग्रह हुआ। अमूमन इस मंंदिर में प्रतिदिन करीब एक लाख श्रद्धालु पहुंचते हैैं। बताया गया कि इस दरम्यान मात्र चार दिनों में सात करोड रुपये का हुंडी संग्रह हुआ है।
इसी प्रकार प्रसिद्घ शिर्डी मंदिर में 60 करोड़ रुपए से अधिक का वार्षिक दान मिलता रहा है। मंदिर ट्रस्ट के एक सदस्य के अनुसार पिछले वर्ष इसके अलावा 14 किलो सोना और 235 किलो चांदी का चढावा भी चढ़ा। इससे पिछले वर्ष में 35।25 करोड़ रूपये नकद और 9.326 किलो सोना तथा 136 किलो चांदी दान में मिली थी। दिसबंर 2007 में 7 करोड़ नकद, 250 ग्राम सोना और 21 किलो चांदी दान में मिला था। कहा जा रहा है कि ट्रस्ट इस धन का उपयोग लोगों की भलाई के लिए विभिन्न परियोजनाओं में कर रहा है। ट्रस्ट जन कल्याण के लिए सड़क, धर्मशाला, अस्पताल, शिक्षा संस्थानों के लिए 300 करोड़ रूपये खर्च करने की योजना बनाई है। वहीं, वाराणसी के विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर को भक्तों के चढावे और अन्य संसाधनों से इस वर्ष अब तक तीन करोड रुपये से अधिक की प्राप्ति हुई है जो पिछले वर्ष की इसी अवधि से लगभग एक करोड रुपये अधिक है। इस आमदनी से भक्तों के लिए मुफ्त भोग की व्यवस्था किए जाने की योजना है। श्री काशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के अध्यक्ष नितिन रमेश गोकर्ण के अनुसार, मंदिर को इस वित्त वर्ष में पहली अप्रैल से अब तक की अवधि में भक्तों से लगभग तीन करोड़ रुपये का राजस्व चढावे और अन्य संसाधनों से प्राप्त हुआ है जो पिछले वर्ष की इसी अवधि में प्राप्त राजस्व की तुलना में लगभग एक करोड़ रुपया अधिक है। भक्तों के लिए मुफ्त भोग की व्यवस्था तत्काल प्रारंभ करने में धन कोई बाधा नहीं है, लेकिन मंदिर न्यास के पास स्थान की कमी है। जैसे ही इस पुण्य कार्य के लिए स्थान की उपलब्धता होगी, न्यास मुफ्त भोग की व्यवस्था करने में तनिक भी विलंब नहीं करेगा। स्थान की उपलब्धता के लिए किए जा रहे प्रयासों की चर्चा करते हुए गोकर्ण बताते हैं कि सबसे पहले लगभग 2600वर्गफीटमें स्थित अ_ारहवीं सदी के मंदिर परिसर का विस्तार किया जा रहा है। इसे तीन गुना बढा कर लगभग साढे आठ हजार वर्ग फीट में इसका विस्तार किया जा रहा है। कुछ समय पूर्व एक समारोह के दौरन मंडफिया के प्रमुख तीर्थ स्थल भगवान श्री सांवलियाजी का विशाल भंडार चौदस को खोला गया तो उसमें से जिसमें 93 लाख 31 हजार 404 रूपए नकद प्राप्त हुए। इसके अलावा भारत के अंदर जितने भी तीर्थ स्थल हैं, वहां चढ़ावे के रूप में अनगनित धन चढ़ाए जाते हैं। धन समस्या की जड़ है। आम इनसान के लिए और धर्माम्बलंबी के लिए भी।
काबिलेगौर है कि हिंदू संस्कृति में धन का देवता कुबेर को माना गया है, बावजूद इसके कुबेर नहीं पूजे जाते । कहा जाता है कि पूर्व जन्म में कुबेर चोर थे- चोर भी ऐसे कि देव मंदिरों में भी चोरी करने से बाज नहीं आते थे। एक बार चोरी करने के लिए वे एक शिव मंदिर में घुसे। तब मंदिरों में बहुत माल-खजाना रहता था। उसे ढूंढने के लिए कुबेर ने दीपक जलाया, लेकिन हवा के झोंके से दीपक बुझ गया। कुबेर ने फिर दीपक जलाया, फिर बुझ गया। जब यह क्रम कई बार चला तो भोले-भाले और औढरदानी शंकर ने इसे अपनी दीप आराधना समझ लिया और प्रसन्न होकर अगले जन्म में कुबेर को धनपति होने का आशीष दिया। कुबेर के संबंध में प्रचलित है कि उनके तीन पैर और आठ दांत हैं। अपनी कुरूपता के लिए वे अति प्रसिद्ध हैं। उनकी जो मूर्तियां पाई जाती हैं वे भी अधिकतर स्थूल और बेडौल हैं। शतपथ ब्राह्मण में तो इन्हें राक्षस ही कहा गया है। वहां ये चोरों, लुटेरों और ठगों के सरदार के रूप में वर्णित हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि धनपति होने पर भी कुबेर का व्यक्तित्व और चरित्र वैसा नहीं था, जैसा विष्णु की पत्नी, धन की देवी लक्ष्मी का है। शुरू में अनार्य देवता कुबेर, बाद में आर्य देव भी मान लिए गए। यह संभवत: उनके धन के प्रभाव के कारण ही हुआ होगा। बाद में पुजारी और ब्राह्मण भी कुबेर के प्रभाव में आ गए और आर्य देवों की भांति उनकी पूजा का विधान प्रचलित हो गया। न को शुचिता के साथ जोड़कर देखने की जो आर्य परम्परा रही, संभवत: उसमें कुबेर का अनगढ़ व्यक्तित्व नहीं खपा होगा। बाद के शास्त्रकारों पर कुबेर का यह प्रभाव बिल्कुल नहीं रहा, इसलिए वे देवताओं के धनपति होकर भी दूसरे स्थान पर ही रहे, लक्ष्मी के समकक्ष न ठहर सके।
आमतौर पर माओवादी विचारधारा के लोग हिंदू धार्मिक कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं रखते। मगर, कुछ समय पूर्व अचानक नेपाल नेपाली माओवादियों की आसक्ति मंदिरों में होने लगी। ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि नेपाली माओवादियों को मंदिर की राजनीति क्यों रास आने लगी है? दरअसल, मध्य नेपाल की दुर्गम पहाडिय़ों पर बसे गोरखा में गोरखनाथ का प्राचीन मंदिर है, और यहीं पर राष्ट्र निर्माता पृथ्वी नारायण शाह का गोरखा दरबार भी। माओवादियों के दूसरे नंबर के नेता बाबूराम भट्टराई यहीं से सांसद हैं। गोरखा दरबार और मंदिर के रख-रखाव पर माओवादी शासन से पहले 15 करोड़ रुपये सरकार ने आवंटित किया था। गोरखा मंदिर के नाम पर 23 गांवों में सात हजार रोपनी जमीन पर माओवादियों की निगाहें लंबे समय से थीं। मार्च 2008 में इस मंदिर पर माओवादियों ने हल्ला बोला। पुजारी प्रदीपनाथ जोगी, जो कभी बाबूराम भट्टराई को टीका लगाकर गौरवान्वित होते थे, उसी पुजारी के मुंह पर कामरेडों ने कालिख पोती, राजावादी कहकर पीटा; और जूते की माला पहनाकर शहर भर में घुमाया। आज गोरखा मंदिर की हजारों एकड़ जमीन माओवादियों के कब्जे में है।
सच तो यह है कि पशुपतिनाथ मंदिर में भी माओवादियों की दिलचस्पी धर्म को लेकर नहीं, धन को लेकर है। पशुपतिनाथ में पांच सौ से लेकर 11 लाख रुपये तक की स्पेशल पूजा होती है। इस मंदिर के नाम कितनी जमीनें, सोना-चांदी, जवाहरात हैं, और दान-चढ़ावे से कितनी आमदनी होती रही है, यह भी एक रहस्य है। मंदिर के महंत, भट्ट और भंडारी ब्राöणों से पशुपति क्षेत्र विकास प्राधिकार (पीएडीटी) ने 25 प्रतिशत राशि की हिस्सेदारी मांगी थी। महंत लोग हिस्से के प्रतिशत को लेकर सहमत नहीं थे।
इसके उलट बात की जाए तो योजना आयोग के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 28।3 प्रतिशत लोग और शहरी क्षेत्रों में 27.5 प्रतिशत लोग अभी भी गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यदि पूरे परिवार की एक दिन की आय ( 45-50 रुपयेप्रतिदिन) से कम है तो उसे गरीबी रेखा से नीचे मन जाता है, और यदि किसी परिवार की एक दिन की आय (90-100 रुपये प्रतिदिन) है तो वह परिवार गरीब कहलाता है जबकि भारत में 80 प्रतिशत परिवार इस श्रेणी में आते हैं। हालांकि, यह आंकड़ा सरकारी सर्वेक्षण के हैं और सरकारी सर्वेक्षण कैसे होते हैं यह कहने की आवश्यकता नहीं।
सवाल यह भी है कि जो धन मंदिरों में चढ़ावे के रूप में चढ़ता है, वह समाज कल्याण के कार्यों में भी तो खर्च किया जा सकता है? इस पर अलग-अलग लोगों की रायशुमारी अलग है। सिविल सेवा का अभ्यर्थी शीतल चंदन का कहना है कि चढ़ावा या दान का अर्थ है पुण्य प्राप्ति के लिए प्रभु के चरणों में अपनी क्षमता के अनुसार यथासंभव अर्पण करना। हमारी आस्था और विश्वास का केंद्र है। कहने को तो आदिकालीन ग्रंथों में पढ़ा और ज्ञानियों से सुना है कि कण-कण में प्रभु का वास है। आजकल धार्मिक स्थलों पर भक्तगण खूब चढ़ावा चढ़ा रहे हैं। कोई शिरडी में सोने का सिंहासन अर्पित कर रहा है तो कोई तिरूपति में दस करोड़ रुपए के आभूषण दान कर रहा है। क्या यह आस्था है या धन का दुरूपयोग?
2 टिप्पणियां:
हिंदू मंदिरों और पीठों में अकूत धन संपत्ति का इकट्ठा होना तो कभी भी आश्चर्य की बात नहीं रही ..किंतु उसका दुरूपयोग और उस पर कभी भी कोई आवाज न उठना हमेशा ही अफ़सोसनाक लगा है ....विचारोत्तेजक आलेख
"देख तेरे भगवान की हालत
क्या हो गई रे इंसान
की कितना बदल गया भगवान"
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