''वैश्विक गर्मी या ग्लोबल वार्मिंग।ÓÓ यह दो शब्द दशकों से मानवजाति के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। पृथ्वी का तापमान बढ रहा है और इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। क्या हम विनाश की तरफ बढ रहे हैं या फिर विनाश की शुरूआत हो चुकी है? क्या अभी भी हमारे पास चेतने और अपनी पृथ्वी तथा खुद अपने आपको बचाने का समय बचा है? दुनिया भर के ताकतवर देशों के कद्दावर नेता कोपनहेगन में शुरू होने वाले पर्यावरण संबंधित सम्मेलन में भाग ले रहे हैं और आपसी सहमति प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। हालाँकि विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस सम्मेलन से ठोस कुछ भी हासिल नहीं होगा लेकिन इससे दुनिया का ध्यान एक बार फिर 'पृथ्वी को बचाओÓ अभियान की तरफ गया है।
ग्रीन हाउस इफेक्ट के नाम से बदनाम हो चुके इस संकट पर सोचने के लिए आज से कोपनहेगन में 192 देशों के नेता मिल रहे हैं। वे तय करेंगे कि ग्रीन हाउस गैसों में कैसे और कितनी कमी की जाए। उनके सुर अलग-अलग हैं और कहना मुश्किल है कि मीटिंग से क्या निकलेगा। लेकिन आप और हम अपने लेवल पर कुछ कर सकते हैं। हम धरती को बचाने में थोड़ी-सी मदद कर सकते हैं, और हमारी छोटी-छोटी कोशिशें मिलकर बड़ा फर्क ला सकती हैं।
इतिहास बताता है कि वैश्विक उष्णता से सम्भावित खतरे के बारे में आज से 150 वर्ष पहले ही चेता दिया गया था। यह वह समय था जब चार्ल्स डार्विन अपनी उत्क्रांति की व्याख्या को अंतिम रूप देने में जुटे हुए थे। डार्विन ने अपनी पुस्त का प्रकाशन करते उससे 6 महिने पहले लंडन के रोयल इंस्टिट्यूट में जॉन टाइंडॉल अपनी लेबोरेटरी में प्रयोग के द्वारा ग्रीनहाउस इफैक्ट तैयार किया। टाइंडॉल ने अपने पूर्ववर्ती फ्रांस के वैज्ञानिक जोसेफ फ्यूरीयर की व्याख्या को आगे बढाया। फ्यूरीयर ने 1824 में लिखा था कि वायुमंडल की कुछ गैसें गर्मी को सोख कर रखती हैं। फ्यूरीयर ने इसे नाम दिया था ग्रीनहाउस इफैक्ट। टाइंडॉल ने 1859 में अपनी लेबोरेटरी में किए गए परीक्षण के आधार पर कहा कि हमारा वायुमंडल सूर्य की गर्मी को प्रवेश तो करने देता है लेकिन उसे बाहर नहीं जाने देता और इससे पृथ्वी की सतह गर्म ही रहती है। इसके बाद 1897 में स्वीडन के स्वांते एरनियस ने जानने की कोशिश की कि कार्बन डाइऑक्साइड वैश्विक गर्मी को किस हद तक बढा सकता है? वैसे स्वांते इससे चिंतित नहीं था। स्वीडन अपेक्षाकृत ठंडा देश है और स्वांते का इरादा तो कोयले जैसे खनीज का व्यापक मात्रा में दहन कर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को बढाने का था, ताकी स्वीडन में कुछ हद तक गर्मी बढ सके। लेकिन उसने यह अनुमान नहीं लगाया कि इससे बाकी की पृथ्वी पर कितना असर पड़ेगा। 1950 तक यही स्थिति रही, लेकिन उसके बाद चार्ल्स कीलिंग ने अंटार्टिका और हवाई के कुछ प्रदेशों का अवलोकन कर साबित किया कि दुनिया में इसकी दर तेजी से बढ रही है और इससे गम्भीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। 1965 में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने वैश्विक उष्णता के प्रति अपनी चिंता प्रगट की और विश्व नेताओं से आग्रह किया कि इस बारे में गम्भीरता से विचार किया जाए। 1972 में नेचर नामक पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें गया गया था कि सन 2000 तक पृथ्वी का तापमान आधा डिग्री सैल्शियस तक बढ जाएगा। लेकिन वैश्विक उष्णता के खतरे के प्रति दुनिया भर के देश असवेंदनशील ही रहे। इससे कोई खास खतरा नहीं - इस धारणा में उल्लेखनीय बदलाव तब देखने को मिला जब 1992 में ब्राज़ील के रियो द जेनेरियो में अर्थ समीट का आयोजन किया गया । इस आयोजन को बीते 17 साल हो चुके हैं और इन वर्षों में वैश्विक उष्णता को रोकने के लिए शायद ही कोई ठोस कदम उठाया गया है। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्षों में जैविक ईंधन के जलने की वजह से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 40त्न तक बढ चुका है और पृथ्वी का तापमान .8 डिग्री सैल्शियस तक बढ चुका है।
ऐसे में सवाल अपनी जगह कायम है कि अगर यही स्थिति रही तो सन 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा 90त्न तक बढ जाएगी। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं। यही दर कायम रही तो 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। पिछले 100 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 0.8 डिग्री सैल्शियस तक बढ चुका है। यह मामुली लगता है लेकिन इससे पृथ्वी पर गम्भीर असर पड रहा है। सन 1870 के बाद से पृथ्वी की जलसतह 1.7 मीमी की दर से बढ रही है, और अब तक 20 सेमी जितनी बढ चुकी है। इस दर से एक दिन मोरेशियस जैसे कुछ देश और कई तटीय शहर डूब जाएंगे।
आर्कटिक समुद्र में बर्फ पिघलने से समुद्र के तट पर भूकम्प आने से सुनामी का खतराअ बढ जाएगा। तापमान में बढोत्तरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40त्न तक घट जाएगा, इससे खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। तापमान बढने से बिमारियाँ बढेंगी। लू, मलेरिया, डेंग्यू और दिमागी बुखार का व्याप बढेगा। तापमान बढने से जंगलों में आग लगने की दर भी बढ रही है और जंगलों में आग लगने से जो कार्बन डाईऑक्साइड निकलता है वह वातावरण में मौजूद कुल कार्बन डाईऑक्साइड का 20 फीसद है। यानी एक बहुत बड़ी मात्रा। इस तरह से जंगलों की आग भी वैश्विक उष्णता में बढोत्तरी कर रही है और उसी से फिर जंगलों में आग भी लग रही है। जानकारों की मानें तो वैश्विक उष्णता को बढाने के पीछे सूर्य भी जिम्मेदार है। पिछले दो दशकों में सूर्य से आने वाली ऊर्जा में 10 से 30फीसदी की वृद्धि हुई है।
काबिलेगौर है कि भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षों में कार्बन उत्सर्जन में 25फीसद तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। यह एक बहुत बड़ा कदम होगा जिसे हासिल करना काफी मुश्किल होगा। वैसे कुछ छोटे छोटे उपाय भी वैश्विक उष्णता को बढने से रोक सकते हैं।
1 टिप्पणी:
आपके विचारो से सहमत हूँ पर पृथ्वी के समाप्त होने की प्रक्रिया में करोडो वर्ष लगेंगे.
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