अगले साल अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अब तक विभिन्न स्टेडियमों के निर्माण में 1493 करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए हैं लेकिन अभी तक आधा काम भी नहीं हो पाया और इस बीच अनुमानित बजट भी कई अरब बढ़ गया है। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी पिछले एक साल से जोरों से चल रही है लेकिन स्वयं खेल मंत्री ने संसद में स्वीकार किया कि अधिकतर स्टेडियमों में अभी आधा काम ही हो पाया है। वैसे खेल मंत्रालय के अनुसार इस काम में ही लगभग 1493 करोड़ रुपये खर्च हो गए हैं। यही नहीं जब इन स्टेडियमों का निर्माण कार्य शुरू हुआ था तो इसके लिए 3792 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे लेकिन अब यह खर्च बढ़कर 4644 करोड़ हो गया है यानि अब अनुमानित लागत में 852 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हो गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली विकास प्राधिकरण के साथ मिलकर बनाए जा रहे खेल गांव पर अनुमान से करीब दो गुणा ज्यादा खर्च होने उम्मीद है। खेल गांव बनाने के लिए 325 करोड़ का अनुमान लगा कर धन आवंटित किया गया था जिसमें से 276 करोड़ रुपये खर्च किया जा चुका है और इस पर 1034 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है यानि अनुमान से 709 करोड़ रुपये ज्यादा खर्च होगा। खेल गांव में राश्त्रमंडलखेलों में भाग लेने लिए आने वाले करीब 70 देशों के पांच हजार से ज्यादा खिलाड़ी और अधिकारी ठहरेंगे। खेलों कआयोजन के बाद इन फ्लैट को बेच दिया जाएगा। इस आवासीय स्थल का एक छोटा और अत्याधुनिक फ्लैट भी एक करोड़ रुपये से भी ज्यादा की कीमत का होगा। खेल गांव के अलावा अनुमान से ज्यादा खर्च होने वाले स्टेडियमों में दिल्ली विश्वविद्यालय पर बनाए जाने वाले प्रतियोगिता और ट्रेनिंग सेंटर पर 222 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का अनुमान था जिसमें अभी केवल 97 करोड़ ही खर्च हुआ है और अब इस पर 306 करोड़ खर्च होने अनुमान लगाया जा रहा है। इसी तरह टेनिस के लिए आरके खन्ना स्टेडियम पर 30 करोड़ खर्च होने का अनुमान था और जो अब बढ़कर 66 करोड़ रुपये पहुंच गया है। गुडग़ांव के खादरपुर शूटिंग रेंज पर 15 करोड़ खर्च अनुमान लगाया गया था जबकि अब पांच करोड़ खर्च हुआ है और 29 करोड़ रुपये खर्च होने का अंदाजा है।
सच तो यह भी है कि कॉमनवेल्थ गेम्स सर पर हैं। हमारी, आपकी, सबकी आ?र उससे भी ज्यादा देश की इज्जत दांव पर लगी है। पर हालात ऐसे हैं कि बारात घर से निकल चुकी है और हम अभी जनवासे (बारातियों के ठहरने की जगह)का इंतजाम ही नहीं कर पाये हैं। दुनियाभर को न्यौता जा चुका है और मेहमानों ने आने की हामी भी भर दी है। लेकिन उन्हें सुलाएंगे कहां....! फुटपाथ पर? जी हां, कॉमनवेल्थ गेम्स में आने वाले मेहमानों को जितने कमरे चाहिए उसके एक चौथाई कमरों का ही हम अभी तक इंतजाम कर पाये हैं। दिल्ली में दो से लेकर चार सितारा होटलों का निर्माण कार्य कछुआ चाल से चल रहा है। जुम्मा-जुम्मा आठ दिन। अगले साल अक्टूबर में दिल्ली में राष्ट्रकुल खेल होने हैं। सरकार इस आयोजन के लिए होने वाले खर्च 700 करोड़ रूपये को बढ़कर 1780 करोड़ और अब 8000 करोड़ रूपये कर चुकी है। और भी बढ़ा सकता है खर्च। लेकिन अफसरों की ढीलमढाल देश की नाक कटाने की भयावह आशंका पैदा कर रही है। खौफजदा तो अब ये जिम्मेदार अफसर भी हैं। लेकिन उपर से 'हो जाएगा, हो जाएगाÓ की रट लगाये हुए हैं। कहीं इस 'हो जायेगाÓ के चक्कर में गुणवत्ता से समझौता तो नहीं हो जाएगा! इसकी चिंता फिलहाल किसी को नहीं है। मेहमानों को ठहराने की अब जरा इनकी प्लानिंग भी सुन लें। कुल 40 हजार कमरों की जरूरत है। ये कहते हैं दस हजार मौजूद हैं। बाकी बचे 30 हजार। इनका इंतजाम कुछ इस तरीके से होगा। 11 हजार मकान एनसीआर में उपलब्ध हो जाएंगे। अब बचे 19 हजार। इनका कहना है कि डीडीए के वसंतकुंज और जसोला के एचआईजी/ एमआईजी और एलआई फ्लैटों के 5500 कमरों को तीन सितारा श्रेणी में तब्दील कर देंगे। फिर भी 13500 कमरों की और आवश्यकता होगी। तब सरकार की नजर दिल्ली में चल रहे दोयम दर्जे के गेस्ट हाउसों के 11000 कमरों पर है। सरकार की योजना यह भी है कि बेड एंड ब्रेक फास्ट स्कीम के तहत तीन हजार कमरे उपलब्ध हो जाएंगे। लेकिन यह सब योजना ही है। सच्चाई यह है कि अभी तक वास्तव में दस हजार कमरे ही उपलब्ध हैं। बाकी की योजना पर अमल हो पाता है या नहीं। इस पर सवालिया निशान है। अगले साल अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रकुल खेलों के आयोजन पर पूरे देश की इज्जत दांव पर लगी है। राष्ट्रकुल खेलों का सफल आयोजन न केवल दुनिया भर की निगाह में हमारी इज्जत और बढ़ाएगा बल्कि आ?लंपिक खेलों की मेजबानी के लिए हमारा दावा भी पुख्ता करेगा। लेकिन तैयारियों पर निगाह डालें तो दिल बैठने लगता है। खेल स्थल और स्टेडियमों का निर्माण कार्य अपने लक्ष्य से पीछे चल रहा हैं। खेल स्थलों का निर्माण कार्य पूरा करने के लिए केंद्र सरकार जी तोड़ कोशिश कर भी रही है। लेकिन बात अटक रही है उन होटलों के निर्माण कार्य पर जो विदेशी मेहमानों के ठहराने के लिए बन रहे हैं। होटल बनाने की जिम्मेदारी निजी कंपनियों पर थी। लेकिन किफायती दर पर जमीन मिलने का मौका देखते हुए होटल मालिकों ने जमीन तो हथिया ली लेकिन जब उन्होंने नफा-नुकसान का हिसाब लगाया तो उन्हें केवल कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए होटल बनाना नुकसान का सौदा लगा। इसलिए कुछ ने तो कछुवा चाल से ही सही लेकिन निर्माण कार्य शुरू कर दिया है तो दूसरे यह सोचने में ही व्यस्त हैं कि निर्माण कार्य शुरू भी करना है। इस संवाददाता ने स्वयं दर्जन भर होटल निर्माण स्थलों का दौरा किया। कुछेक को छोड़कर लगभग सबकी स्थिति ऐसी है कि वे अगले 13 महीनों में सितारा होटल नहीं बना सकते। उनके होटल बनेंगे जरूर लेकिन तब किसी और प्रायोजन के लिए। कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली में एक लाख अतिरिक्त लोगों के आने संभावना है। इस हिसाब से पर्यटन मंत्रालय ने अंदाजा लगाया है कि दिल्ली में 40 हजार अतिरिक्त कमरों की आवश्यकता होगी। इन कमरों को उपलब्ध कराने के लिए 33 दो, तीन और चार स्टार होटल बनाने के लिए निविदाएं आमंत्रित की गयी थी। तब कम दाम में जमीन मिलने और पांच साल तक टैक्स में छूट मिलने के लालच में इन होटल मालिकों ने जमीन ले ली। लेकिन 33 में से केवल 10 ही होटल खेलों के आयोजन तक बन कर तैयार होंगे। बाकी 23 की प्रगति चिंताजनक है। किसी ने पांच प्रतिशत काम किया है तो किसी ने 10 प्रतिशत। कोई तो अभी नींव ही खोद रहा है। खेलगांव के निकट पूर्वी दिल्ली इलाके में बनने वाले ज्यादातर निर्माणाधीन होटलों का मुआयना करके बाद तो यही सच्चाई सामने आयी है। मयूर विहार फेज-1 में चार होटलों का निर्माण हो रहा है। इनमें एक होटल के निर्माण की दशा यह है कि उसकी अभी नींव ही खोदी जा रही है, जबकि अन्य कुछ में होटलों का ढांचा तैयार हो रहा है तो कुछ में ईंट ढांचों के बीच-बीच में दीवारों की चुनाई हो रही है। कमोवेश यही दशा अन्य निर्माणाधीन होटलों की है, जो चाहे कोंडली घड़ौली, मंडावली फाजलपुर, विवेक विहार में बन रहे हैं अथवा अन्य इलाकों में। कुल मिलाकर यह नहीं कहा जा सकता है कि कंक्रीट के ढांचों और ईंट की दीवारों के सरीखे खड़े आधे-अधूरे निर्माण समय से अपनी मंजिल को पा सकेंगे। भवन निर्माण कार्र्यों से जुड़े लोगों का कहना है कि कम से कम समय में भी ढांचे (स्ट्रक्चर) को ही तैयार होने में डेढ़ साल से अधिक का समय लगता है। इसके बाद कम से कम एक साल का समय उनके फिनिशिंग के लिए चाहिए। और स्थिति यह है कि अभी तमाम होटलों का ढांचा ही पूरी तरह से पूर्ण नहीं हुआ है, तो उन्हें फिनिश करने के लिए कब समय मिलेगा। इस तरह से यह कहना ज्यादा मुनासिब लगता है कि राष्ट्रकुल खेल के आयोजन से पहले ये होटल नहीं तैयार हो पाएंगे। हालांकि इस संबंध में डीडीए के एक आला अधिकारी का कहना है कि सभी होटल भले ही न तैयार हो पाएं, लेकिन इनमें करीब दो दर्जन होटल जरूर तैयार हो जाएंगे। सबसे खास बात यह है कि डीडीए ने होटल व्यवसायियों को भूखंड तो दिया है, लेकिन उनकी निर्माण की निगरानी कौन कर रहा है यह जानकारी किसी को नहीं है। केवल राष्ट्रकुल खेल के आयोजनों को लेकर होने वाली बैठकों में इन होटलों की मौजूदा स्थिति रिपोर्ट दे दी जाती है और तब उनके निर्माण न होने की दशा में उसके विकल्पों पर विचार होने लगता है। इस संवादाता ने होटल एसोसिएशन और डीडीए से संपर्क साधा लेकिन दोनों ही रिकार्ड पर नहीं आना चाहते। लेकिन आफ द रिकार्ड स्वीकार करते हैं कि होटलों का निर्माण समय होने की संभावना कम दिखती है।
दरअसल, शुरूआत में कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के लिए सिर्र्फ 700 करोड़ रूपए का बजट निर्धारित किया गया था। देरी होती गई, बजट बढ़ता गया। एक साल पहले की चिंता थी कि खर्चा होगा 1780 करोड़ और इंतजाम सिर्फ 212 करोड़ का हुआ है लेकिन जैसे जैसे देरी होती गई सरकारी खजाने का मुंह खुलता गया। खुले खर्च का अंदाजा सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार ने 100 करोड़ रूपए तो सिर्फ आ?पनिंग व क्लोजिंग समारोह के लिए निकालकर अलग रख दिए हैं और कहा कि कम पड़े तो और ले लेना। विलंब के कारण कदाचित खर्चों और निश्चित अवधि में काम पूरा होने के दबाव के चलते ही मौजूदा बजट में 3472 करोड़ का और आवंटन किया गया है। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन को लेकर भले ही पूरे देश की इज्जत दांव पर लगी हो और दिन ब दिन सरकार की चिंता बढ़ रही हों लेकिन लालफीताशाही और अफसरों की लापरवाही में फिलहाल कोई कमी नहीं आई है। सरकार की सबसे बड़ी चिंता निर्माण कार्यों की गुणवत्ता को लेकर है। जानकारों के मुताबिक डर इस बात का है कि जल्दबाजी में अफसरशाही निर्माण इत्यादि में वो सब न कर बैठे जिसकी कि वह अभ्यस्त है। इसीलिए देश की इज्जत की खातिर खुले खर्च की रणनीति अपनाई गई है। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की कहावत की जगह यहां खर्च बढ़ता गया ज्यों ज्यों देरी का फार्मूला लागू हो गया दीखता है। अफसरों को यह फार्मूला रास आ रहा है और यह बात सरकार की समझ में आ रही है। खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी पहले दावा करते थे कि हम न खेल पर आने वाला खर्च जुटा लेंगे बल्कि बचत भी करेंगे। लेकिन दावों का दम निकलते देख अब कमाई की बात भुलाई जा चुकी है। वर्ष 2003 में जब भारत ने जमैका के खाड़ी शहर मोंटीगो बे में कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजमानी के लिए दावा ठोका था तो 72 राष्ट्रकुल देशों ने कनाडा के हेमिल्टन के मुकाबले नयी दिल्ली को 22 के मुकाबले 46 वोट से तरजीह दी थी थी। उस वक्त दावेदारी में हिस्सा लेने आए तमाम खेल प्रेमियों ने तालियों की गड़ागड़ाहट से भारत को मेजबानी मिलने का जोरदार स्वागत किया था। उन्हें उम्मीद थी कि भारत जैसा देश यह आयोजन बखूबी निभा सकता है, लेकिन करीब साढ़े चार साल से ज्यादा समय बीतने के बाद आज जब हम खेल आयोजन की तिथि के मुहाने पर खड़े हैं, तब न केवल पूरा देश बल्कि राष्ट्रकुल देशों के चेहरों पर भी चिंता की लकीरें खिंच रही है कि नयी दिल्ली अभी तक खेलों के लिए तैयार क्यों नहीं है। वर्ष 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इन खेलों की मेजबानी मिलने पर खुशी जाहिर करते हुए घोषणा की थी कि खेलों के आयोजन में कोई कमी नहीं रखी जाएगी। सरकार इसके लिए धन की कमी महसूस नहीं होने देगी। खेल आयोजन की शुरूआती तैयारी के लिए सरकार ने 700 करोड़ रूपये का बजट तय किया था, लेकिन लालफीताशाही, लापरवाही और खेलों की नकारात्मक राजनीति के कारण पहले तो काम के अवार्ड में देरी हुई और फिर स्थानीय निकायों और दूसरे विभागों की तरफ से क्लीयरेंस मिलने में देरी हुई। जब सभी विभागों से एनआ?सी मिली तो ठेकेदार आसानी से नहीं मिले, मिले तो उन्होंने काम शुरू करने में देरी की और आज यह हालत हो गई है कि 700 करोड़ रूपये का बजट बढ़कर 8000 करोड़ तक पहुंच गया है और एक अनुमान के अनुसार इसमें अभी एक हजार करोड़ रूपए और बढ़ेंगे। बजट में साल दर साल लगातार बढ़ोत्तरी होने के बावजूद आयोजकों ने धन हाथ में आने के बाद भी खर्च करने में हाथ नहीं खोला। यदि हाथ खोला होता तो निर्माण कार्य विलंब से शुरू होने के बाद भी अपने नियत समय पर पूरे हो चुके होते। उदाहरण के लिए जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम के पुनर्निमाण के लिए 961 करोड़ रूपए मंजूर किए गए थे जबकि अभी केवल 346 करोड़ रूपए ही खर्च किए गए हैं। मेजर ध्यानचंद स्टेडियम पर 262 करोड़ रूपए खर्च होने हैं। लेकिन अभी 104 करोड़ ही खर्च हुए हैं। इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम के लिए 669 करोड़ मंजूर हैं जबकि अभी खर्च हुए हैं सिर्फ 224 करोड़। डा। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जल क्रीड़ा स्थल पर 377 करोड़ रूपए खर्च होने हैं लेकिन खर्च हुए हैं 112 करोड़। डा. कर्णी सिंह स्टेडियम पर 149 करोड़ रूपए खर्च होने हैं और अभी खर्च हुए हैं 48 करोड़ रूपए। दिल्ली विश्वविघालय के मुख्य ग्राउंड पर 222 करोड़ रूपए खर्च होने हैं लेकिन अभी इसमें से केवल 97 करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। दिल्ली सरकार के लिए 417 करोड़ मंजूर किए गए हैं, जिसमें से केवल 179 करोड़ ही खर्च हुए है। दिल्ली सरकार को यह राशि केवल खेल स्थलों का विकास करने के लिए दी गई है। (इसमें ढांचागत विकास शामिल नहीं है।) एनडीएमसी का बजट भी 330 करोड़ रूपए का है लेकिन वह मात्र 76 करोड़ रूपए खर्च कर पाया है। अब देखना यह है कि अफसर अब भी काहिली छोड़ते हैं या देश को शर्मनाक स्थिति में पहुंचाते हैं।
1 टिप्पणी:
आपकी बात से पूर्ण सहमत सुभाष जी, इसी मुद्दे पर एक लेख कुछ समय पहले मैंने भी लिखा था, उसका एक अंश यहाँ प्रस्तुत है ;
"यह बात मैंने शायद बहुत पहले भी कहीं पर कही थी कि जब हमारे पास वक्त था, तब हमारे इन रणनीतिकारों ने जान-बूझकर सारे प्रोजक्ट को देर किया, कभी यमुना बेड का मुद्दा उछालकर, कभी आयोजन की ढाचागत सुविधावो को विश्वस्तरीय बनाने हेतु अपने बीबी बच्चो समेत चीन, जापान और एथेंस घूमने के नाम पर, कभी पुरात्व की धरोहरों के नीचे से सुरंग ले जाने के नाम पर और न जाने किस-किस बात पर! वह भी एक सोची-समझी रणनीति का ही हिस्सा थी! हमारे ये कुछ मातहत common weath game को "come on wealth" game मानकर चल रहे है, हिंदी में ये उसे ये 'आम-धन का खेल' कहते है! यानी कि तुम भी खावो, हम भी खाए ! इसका एक उदाहरण यह दे सकता हूँ कि नेहरु स्टेडियम के जीर्णोधार के लिए तकरीबन ८०० करोड़ रूपये का बजट रखा गया है, जिसके पीछे तर्क यह है कि चूँकि अब समय बहुत कम रह गया है, इसलिए कार्य को निर्धारित समय पर ख़त्म करने के लिए अधिक धन की जरुरत है ! अब कोई सोचे कि ८०० करोड़ रूपये सिर्फ जीर्णोधार के लिए ? इतनी राशि में तो पुराने स्टेडियम को तोड़कर एक नया स्टेडियम बन सकता था, मगर पूछेगा कौन?"
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