सोमवार, 15 जून 2009

दिल्ली में है सरकार ?

देश की राजधानी - दिल्ली। सत्ता और शक्ति का केन्द्र - दिल्ली। केन्द्र के अलावा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का मुख्यालय और प्रधानमंत्री के अलावा एक मुख्यमंत्री भी। यानी दोे सरकारोेेें से शासित - दिल्ली। मगर कानून व्यवस्था - सिफर। अपराध की प्रयोगशाला बन चुकी दिल्ली अपराधों के हिसाब से देश की सर्वाधिक असुरक्षित जगह है। लगता है शीला दीक्षित और मनमोहन सिंह की सरकार ने बिहार में कानून का राज स्थापित होने के बाद दिल्ली को जंगल राज का दर्जा दिलाने का बीड़ा उठा लिया है। यह भले ही सहयोगी लालू यादव को खुश करने के लिए उनकी परम्परा का अनुसरण नहीं हो लेकिन राजधानी में बढ़ते अपराध को देखते हुए सबकी जुबान पर यही सवाल है कि क्या दिल्ली में है भी कोई सरकार ?
व्यवस्थाहीनता से ग्रस्त दिल्ली में असुरक्षा के साथ ही हर तरह की समस्याओं का अंबार है। प्रशासकीय अमला कहीं भी प्रभावी नजर नहीं आता। भ्रष्टाचार का बोलबाला हर सरकारी विभाग में इस हद तक है कि मानो यह भी सरकारी नियमावली का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया हो। लालफीताशाही ने एक नई मिसाल कायम कर ली है। रिश्वत के बिना तो किसी काम की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सड़क पर परिवहन व्यस्थापन पूर्णतः लचर साबित हुई है। तमाम नियम - कानून, आदेश - अध्यादेश सरकारी फाइलों में धूल फाॅंक रहे हैं। ’आपके लिए आपके साथ सदैव’ की उद्घोषणा करने वाली दिल्ली पुलिस का नाम ही शरीफ लोगों के बदन में सिहरन पैदा करने के लिए काफी है। दिल्ली पुलिस की छवि ‘भरी जेब खुले हाथ के साथ - सदैव‘ वाली बनी हुई है। वह भी तब जब केन्द्र और राज्य दोनों जगह ‘आम आदमी के साथ‘ वाली पार्टी की सरकार है।
आपराधिक घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि की खबरें प्रायः प्रतिदिन मीडिया में पढ़ने - सुनने को मिलती है। कभी 60 से भी अधिक उम्र की महिला के साथ ब्लात्कार तो कभी नाबालिग से सामूहिक दुष्कर्म। इन अपराधों में क्या अपराधी, क्या पुलिसकर्मी या शिक्षक कोई पीछे नहीं रहता। इतना ही नहीं, 12-13 साल के अबोध बच्चों के द्वारा दिल दहलाने वाले कातिलाना अपराधों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि पुलिसवालों पर भी हमला करने से वे नहीं हिचकते। लचर राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिति तथा भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा पुलिस तंत्र अब अपराधियोें से लड़ने का नैतिक हौसला भी खोता जा रहा है। हो भी क्यों न ! जब पुलिस के बीट और थाने तक बिकाऊ हैं और ‘कमाऊ जगह‘ पर बहाली के लिए कथित रुप से पुलिसकर्मियों को रिश्वत देनी पड़ती है तो ऐसे में उम्मीद ही क्या किया जा सकता है ? तभी तो पुलिस थानों के अगल बगल से लेकर व्यस्ततम सड़कों,, चलती वाहनो और सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण समझे जाने वाले बैंकों तक अपराधी बहुत आराम से हत्या, लूट, अपहरण और ब्लात्कार जैसी संगीन घटनाओं को अंजाम देने में अपराधियों को खास दिक्कत नहीं होती। मजे की बात यह है कि अधिकांश मामलों में अपराधी दिन दहाड़े इन वारदातों को अंजाम देकर गायब हो जाते हैं और हाथ मलती रह जाती है पुलिस।
दिल्ली पुलिस को आॅंकड़ों मेें हर साल अपराध की संख्या कम दिखाने में खासी मशक्कत करनी पड़ती है। पहले जब दिल्ली सरकार और पुलिस के आला अधिकारियों को महसूस हुआ कि दिल्ली में अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है तोे अपराधियोें पर अंकुश लगाने के बदले यह दलील दी जाने लगी कि चूॅंकि सरकार और पुलिस प्रशासन ने सभी मामलों में एफआईआर दर्ज करने की पहल की है इसीलिए आॅंकड़े ज्यादा दिख रहेेेेे हैं। सरकार की लापरवाही और पुलिस की अकर्मण्यता का ही परिणाम रहा कि आज राजधानी में अपराध बेलगाम हो गया है और अब पुलिस एफआईआर दर्ज करने के नाम पर भी भड़कने लगी है। शिकायतकर्ता को उल्टे पाॅंव लौटाने में पुलिस का जवाब नहीं है। अब तो एफआईआर लिखाने के लिए भी पैरबी और रसूख का सहारा लेना पड़ता हैै। रिश्वत की चाश्नी में डूब कर ही काम करने की आदी हो चुकी दिल्ली पुलिस का आलम यह है कि वह पीड़ित पक्ष और शिकायत कर्ता को भी नहीं बख्शती। इतना ही नहीं कई बार तो शिकायतकर्ता और प्रत्यक्षदर्शी को ही पुलिस ऐसेेेेेे फंॅसा देती है कि वह पुलिस का नाम सुनते ही सहम जाता है। यहाॅं समस्त नियम कानून और प्रशासनिक निकाय कुछ बड़े और प्रभावशाली लोगों की बांदी बनकर रह गई है।
दिल्ली में अव्यवस्था और कानून की धज्जी सरेआम उड़ते देखने के लिए मात्र किसी नजदीकी सड़क पर आने की आवश्यकता है। ट्रैफिक के तमाम नियम जहाॅं कराह रहे होते हैं वहीं ट्रैफिक वाले या तो निर्विकार भाव से अपनी ‘ड्यूटी‘ निभाते या फिर किसी गाड़ीवाले से ‘वसूली’ करते देखे जा सकते हैं। ट्रैफिक का आलम यह है कि निर्धारित लेन में गाड़ियों को चलते देखना मुश्किल है। दूपहिया वाहन तो फुटपाथों पर इस फर्राटे से चल रहे होते हैं कि पैदल यात्रियों का चलना दूभर हो गया है। व्यस्त समयों में बीस मिनट के सफर के लिए घंटा भर का समय कम पड़ जाता है। राजधानी में टैªफिक की यह स्थिति तब है जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं देश की टैªफिक के हाल पर चिन्ता जता चुके हैं। राजधानी की रक्त रंजित सड़के वाहन चालकों के लिए खूनी सैरगाह बनी हुई है, जहाॅं वे मानों कभी भी किसी को गाड़ी से रौंदने का लाइसेंस लेकर चलते हैं। पहले रेड लाइन बसों ने सड़कों पर अपना कहर ढ़ाया था अब उसकी जगह ब्लू लाइन बसों ने ले ली हैं। प्रतिवर्ष सैकड़ों लोगों की जान लेने और हजारों परिवारों से रोजी रोटी छिनने के बाद भी अगले ‘शिकार‘ की तलाश में यह दिल्ली की सड़कों को बेखौफ रौंदती फिर रही है। एक ही स्टैंड पर देर तक खड़ा रखना, यात्रियों से बदसलूकी और मार पीट और गाड़ी में जेबकतरों को संरक्षण देना ब्लू लाइन और आरटीवी वालो का शगल बन चुका है। दिल्ली की सड़केें यात्रियों के लिए कितनी असुरक्षित बन चुकी है इसकी मिसाल है तिपहिया वाहन चालको द्वारा सवारी संग लूटपाट और महिला यात्रियों से की गई ब्लात्कार की घटनायें। पर ऐसी कितनी घटनायें प्रकाश में आ पाती हैं ?
दिल्ली यूॅं तोे किसी के लिए भी सुरक्षित नहीं रह गया है उसमें भी महिलाओं स्थिति तो और भी दयनीय है। अपहरण और ब्लात्कार की घटनाओं में लगातार ईजाफा हो रहा है। अबोध बच्चियों से लेकर उम्र के चैथे पड़ाव तक पहॅंच चुकी महिलाएॅं ब्लात्कार की शिकार होती रही हैं। स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि चलती वाहनों से लेकर हाॅस्पीटल तक में महिलाएॅं इस घृणित अपराध का शिकार होती रही हैं। विद्यालयों तक में छात्राएॅं अपने ही शिक्षकों के हवस का शिकार हुई हैं। हालात इस हद तक गंभीर हो चुका है कि अपने मित्रों या परिजन के साथ घर से निकली महिला कब अपहरण या ब्लात्कार अथवा दोनों का शिकार हो जाय, कहना मुश्किल होे गया है। पुलिस की मुस्तैदी का आलम यह है कि किसी भी संगीन घटना की सूचना 100 नम्बर पर देने के बाद भी वह घटना स्थल पर कभी भी घंटे भर से पहले नहीं पहुॅंच पाती चाहे वारदात की जगह कितनी ही नजदीक क्यों न हो। लम्बी कानूनी प्रक्रिया भी पुलिस और अपराधी दोेेेेेेनो के मुफीद ही साबित हुई हैं। बुजुर्ग नागरिकों को सुरक्षा और सम्मान देना प्रत्येक सभ्य समाज का दायित्व होता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तोेेे यह एक खास धरोहर है। सरकार ने रेल, बस, बैंक, अस्पताल आदि जगहों पर वरिष्ठ नागरीकों के सुविधा का ख्याल तो रखा है परन्तु उन्हें सम्मानपूर्वक जीवन जीने देने के मामले में उदासीनता बरत रखी है। सच् तोे यह है कि देश की राजधानी में हमारे बुजुर्ग सर्वाधिक असुरक्षित हैंै। घरेलु हिंसा से लेकर लूट और हत्या जैसे जघन्य अपराध के सबसे आसान शिकार बनाये जा रहे हैं दिल्ली के वरिष्ठ नागरिक। पिछले दिनों एक खबर मीडिया में काफी सुर्खियों में थी जिसमेें एक आला पुलिस अधिकारी पर दिल्ली विश्वविद्यालय से रिटायर्ड एक महिला केे करोड़ों की कोठी हड़पने का आरोप था। गौरतलब है कि दिल्ली में शासन की तिगड़ी बनानेवाली मुख्यमंत्री स्वयम् बुजुर्ग महिला हैं और बुजुर्गों की मुश्किलों और अपेक्षाओ से अच्छी तरह वाकिफ भी हैं। बावजूद इसके वरिष्ठ नागरिकों के प्रति बढ़ रहे अपराध के सामने विवश दिखती हैं।
जिस विकास का ढ़िढ़ोरा पीटकर सरकार दिल्ली में अपने चुनावी जीत का श्रेय लेती है वह विकास दिल्ली के कुछ खास क्षेत्रों में ही सिमटा रह गया है। पूर्वी और बाहरी दिल्ली विकास के बयार से कोसों दूर दिखता है। यहाॅं की गंदी गलियाॅं और टूटी सड़कें इसे दिल्ली से अलग होने का भ्रम पैदा करती हैं। दक्षिणी दिल्ली के बदरपुर - जैतपुर आदि इलाके भी जगमगाती दिल्ली से इतर किसी दूर दराज के कस्बाई क्षेत्र होने का आभास कराते हैं। इन क्षेत्रों में बिजली, पानी, सड़क परिवहन, स्वास्थ्य चिकित्सा आदि सभी मूलभूत सुविधाओं का खासा अभाव है। विकास के पैमाने पर सौतेलेपन का दंश झेल रहे इन क्षेत्रों की सुधि सरकार मात्र चुनावों के वक्त लेती है। इन क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अपराध भी अधिक है और अधिकंाश मामलों में प्रशासनिक रवैया ‘समरथ को नाहीं दोष‘ के अनुरुप ही रहता है।
जब कभी देश में अपराध पर चर्चा होती है तो बिहार, उत्तर प्रदेश, आदि कुछ राज्यों का नाम तोते की तरह रटने लगते हैं बुद्धिजीवी। किन्तु विडंबनापूर्ण हकीकत यही है कि केन्द्र सहित दो सरकारों की मुख्यालय दिल्ली न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के सर्वाधिक अपराधोें वाला शहर है। जो लोग इसकी तुलना बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से करते हैं उन्हें यह तथ्य भी याद रखना चाहिए कि इन बड़े राज्यों का जितना किसी एक जिला का क्षेत्रफल है उसमें पूरी दिल्ली ही समा सकती है। तुलना करने पर यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि राज्य के क्षेत्रुफल के हिसाब सेेे न सिर्फ दिल्ली में पुलिसकर्मियों की संख्या अधिक है अपितु ये आध्ुानिक हथियारों से अधिक सुसज्जित और प्रशिक्षित भी हैं। भौगोलिक और सड़क परिवहन की सुविधा की दृष्टि से भी यह अन्य राज्यों जैसी विसंगतियों का शिकार नहीं है न ही यहाॅं उस तरह का जातिय या धार्मिक सामाजिक संरचना है जिससे अन्य बड़े राज्य ग्रसित हैं। जागरुकता, गरीबी, शिक्षा, और रोजगार की स्थिति भी यहाॅं अन्य राज्यों की तुलना में कहीं बेहतर है। बावजूद इसके यदि दिल्ली में कानून व्यवस्था और सुशासन का अभाव दिखता है तो यह सवाल बहुत लाजिमी हो जाता है कि दिल्ली में कोई सरकार है भी या यहाॅं की अधिसंख्य जनता भगवान भरोसे ही जीवन गुजार रहे हैं।

- बिपिन बादल
9810054378

2 टिप्‍पणियां:

मुफ़्त राय सिंह ने कहा…

कोई सिरफ़िरा वकील दिल्ली सरकार कॊ और से मुकदमा कर देगा.तुरंत पोस्ट हटा दो

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

एक कड़वी सच्चाई ब्यान की है आपने।लेकिन दिल्ली की जनता अब क्या कर सकती है उसी ने तो उन्हें बैठाया है......भुगतना भी उसी को पड़ेगा.. इस के लिए सरकार को क्या दोष देना.....