पिछले कुछ वर्षों से अच्छी नौकरी के लिए भारतीयों का विदेश जाना शगल में शुमार हो चुका है। अच्छी तनख्वाह, ऊंचे ओहदे और अति-आधुनिक जीवनशैली। यही चाहत अधिसंख्य की रहती है। बाह्य आवरण में तो यही दिखता है लेकिन यथार्थ के धरातल पर इसके दूसरे रूप में होते हैं। जो अवसाद, मानसिक यंत्रणा, अकेलापन आदि से जुड़ा होता है। विशेषकर प्रवासी महिलाओं को। बाजारवाद के चंगुल में आकर वे एकाकी हो जाते हैं। सिर्फ भावना के स्तर पर वे अकेले नहीं होते हैं, बल्कि हारी-बीमारी में भी वे अकेले होते हैं। मदद के लिए उठने वाले हाथ कम रहते हैं। एक तो लोग लगातार असामाजिक होते जा रहे हैं, ऊपर से संवेदना का ह्वास हो रहा है।
दरअसल, यह सच है विकसित या अर्ध विकसित देशों में जाकर बसे प्रवासी भारतीयों का, जिसकी अभिव्यक्ति अभी बस शुरू ही हुई है। विदेशी धरती पर जहां की जुबान अलग होती है, संस्कृति अलग होती है और लोग भी बिल्कुल अलग होते हैं, वहां उनका एडजस्ट होना एक समस्या बन जाती है। दूसरे दुनिया के विकसित देशों, खास कर अमेरिका वगैरह में स्वास्थ्य सेवाएं बेहद महंगी हैं, जिन्हें एक आम प्रवासी भारतीय अफोर्ड नहीं कर सकता है। एक आदमी की कमाई पर चार-पांच लोगों के परिवार को पालन भी आसान नहीं होता है। जो रकम भारत के हिसाब से ज्यादा दिखाई देती है, वह वहां के लिए काफी कम हो जाती है। इस मजबूरी की वजह से भी युवाओं को अपने मां-बाप को भारत में ही छोडऩा पड़ता है। वैसे अब इस भावनात्मक अलगाव ने युवाओं को वापस लौटने के लिए प्रेरित किया है और दुनिया के हर देश से प्रवासी भारतीय लौटने लगे हैं। दूसरी समस्या सामाजिक असुरक्षा की है। कभी नस्लीय भेदभाव के आधार पर तो कभी घर के अंदर ही वे हिंसा के शिकार होते हैं। महिलाओं की स्थिति तो और भी दयनीय है। जिसका चित्रण दीपा मेहता ने अपनी फिल्म 'विदेशÓ में किया है। फिल्म विदेशों में रहने वाली भारतीय महिलाओं पर किए जाने वाले घरेलू हिंसा पर आधारित है। अमूमन घरेलू हिंसा के मुद्दे को प्राय: अन्य समुदायों की भांति, दक्षिण एशियाई देशों में दबा दिया जाता है। लेकिन न्यू यॉर्क शहर की एक गैर-लाभ संस्था विदेश में सताई हुई व बेसहारा महिलाओं की आवाज बुलंद करने के लिए कृत-संकल्प है। 'सखीÓ अर्थात महिला मित्र की स्थापना 1989 में पाँच दक्षिण एशियाई महिलाओं द्वारा की गई। ये महिलाएं एक दूसरे से मिली क्यों कि इन्होंने अनुभव किया कि न्यू यॉर्क शहर में प्रवासी दक्षिण एशियाई आबादी पर घरेलू हिंसा के मुद्दे, जिस पर विचार नहीं हो रहा, पर विचार करने की तुरन्त जरूरत है। इसकी निदेशक सदीप बथाल हैंं। बथाल घरेलू हिंसा को गाली-गलोज युक्त व्यवहार के सदृश मानती है जिसमें एक साथी दूसरे की तुलना में भय, धमकी व नियंत्रण के माध्यम से शक्तिशाली स्थिति में होता है। जहां सभी सांस्कृतिक परिवेश की महिलाएं घर में र्दुव्यवहार झेलती हैं।
अनेक दक्षिण एशियाई मामलों की दूसरी विशेषता यह है कि महिला पर उसके ससुराल वालों, उसके पति सहित पारिवारिक ब्यक्तियों द्वारा जुल्म हो सकता है और इसी प्रकार की मानसिकता लिए वह यूरोपीय देशों में भी जीना चाहते हैं।
बथाला बताते हैं, ' एक प्रकार से, ससराल वालों व परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा किया गया जुल्म दक्षिण एशियाई समाज में सयुक्त परिवार/ बृहत्तर परिवार के महत्व के कारण और भी पेचीदा हो सकता है। शिकागो में रह रही माला, 28, के साथ उसका बच्चा पैदा होने तक सब कुछ ठीक चल रहा था, तब उसकी सास ने उनके पास आने व साथ रहने का निर्णय किया। उसके बाद, उसकी जिन्दगी भयंकर स्वप्न के समान हो गई। माला की सास ने उसको शारीरिक व मानसिक यातनाएं दी जब कि उसका पति इन यातनाओं को चुपचाप देखते रहता। तब उसका पति एक दिन, अपने साथ महत्वपूर्ण कागजात, धन और यहां तक कि माला के विवाह के गहने लेकर चले गया। वह मेरे 3 माह के बेटे को बच्चे को सम्भालने वाले से भगाकर अपने माता-पिता के पास रहने लगा। मैं अपने बच्चे को वापस लेने में सफल रही व सखी के पास आ गई। सखी के कर्मचारी के साथ मैं न्यायालय संरक्षण का आदेश लेने गई। अकेले परिवार-न्यायालय जाना खतरे का काम है और सखी के कर्मचारी ने सारी वैधानिक प्रक्रिया के दरमियान मेरी पूरी सहायता की। उन्होंने मुझे वकीलों के सम्पर्क में रखा तथा सतत अपने पांव पर खडे होने में मेरी मदद की, माला याद करती है।
सच तो यह भी है कि विदेशों में महिलाएं विविध परिवेशों से आती हैं। उन्हें वहां के परिवेश से सामंजस्य बिठाने में समय लगता है। सामाजिक ताना-बाना अलग रहता है तो पुरूषों की कार्यसंस्कृ ति भी एकदम जुदा होती है। अमूमन जो भी प्रवासी होते हैं वह अधिक से अधिक धन अर्जित करने को तत्पर होते हैं और उसी प्रक्रिया में परिवार बिखरता चला जाता है। संवेदनाएं छिजती जाती है। सखी के ऑंकड़े बताते हैं कि जुल्म के शिकारों में सबसे अधिक ंसंख्या प्रथम-पीढी की प्रवासी महिलाओं की होती है । यह महिलाएं अपने सीमित साधनों के कारण सर्बाधिक आघात-सुगम होती हैं।
वैसे दो दशक से ज्यादा हो गए, ''जब चि_ी आई है वतन से चि_ी आई है...ÓÓ गाना 'नामÓ फिल्म में दिखाया गया था। उसमें एक प्रवासी भारतीय की मां, बाप, बहन और पत्नी की पीड़ा का सजीव चित्रण किया गया था। वह फिल्मी पीड़ा अब यथार्थ में बदल गई है। देश के हर शहर, कस्बे और गांव में आज अपने बेटे का इंतजार करते मां-बाप हैं, भाई-बहन हैं और सात समन्दर पार उन्हीं की तरह भावनात्मक खालीपन लिए एकाकी जीवन बिता रहे उनके प्रियजन हैं। अपनों से अलगाव का दर्द दोनों तरफ है। भावात्मक खालीपन दोनों ओर है। लेकिन एक तरफ है आर्थिक स्वतंत्रता और उन्मुक्त जीवन शैली तो दूसरी ओर है आर्थिक निर्भरता, असुरक्षा की चिंता और कई किस्म के सामाजिक दबाव। इन सबके बीच जीवन बिता रहे बुजुर्गों की बातों में इस बात का गर्व तो आपको हर समय मिल जाएगा कि उनके बेटे-बहू या बेटी-दामाद विदेश में रहते हैं। अगर वे अमेरिका या ब्रिटेन में रहते हों तो यह गर्व थोड़ा बढ़ भी जाता है। लेकिन उनसे पूछिए कि क्या यह गर्व उन्हें किसी किस्म की खुशी भी दे रहा है? आर्थिक रूप से थोड़ी संपन्नता जरूर आ जाती है लेकिन इसके साथ ही आती हैं कई किस्म की समस्याएं। प्रसिद्घ समाजशास्त्री श्रीनिवासन के अनुसार, 'आज का समाज बड़ी तेजी से बदल रहा है। इस बदलाव का पहला शिकार हुआ है परिवार। संयुक्त परिवार की अवधारणा लगभग खत्म हो गई है। एकल परिवार के बाद अब हम न्यूक्लियर परिवार की अवधारणा के साथ जी रहे हैं। ऐसे में अगर बच्चे अपने मां-बाप को छोड़ कर पलायन कर जाते हैं (चाहे यह पलायन अंतर्देशीय हो या अंतरराष्ट्रीय) तो मां-बाप के सामने बड़ी समस्याएं आती हैं। इसमें स्वास्थ्य की समस्याओं को सबसे ऊपर रख सकते हैं। बढ़ती उम्र में उन्हें नियमित स्वास्थ्य जांच और चिकित्सा की जरूरत होती है। लेकिन जिनके बच्चे बाहर हैं उन्हें इसके लिए भी दूसरों का मोहताज होना पड़ता है। भावनात्मक अकेलापन शारीरिक पीड़ा को ज्यादा बढ़ा देता है।Ó
असल में भारत में यह समस्या इसलिए भी बहुत ज्यादा है क्योंकि पारंपरिक रूप से भारत में माता-पिता को साथ रखने और उनकी सेवा करने का चलन रहा है। आखिर श्रवण कुमार का देश है यह। भारत में भी प्रवासी भारतीयों के बुजुर्गों ने इसका रास्ता खोज निकाला है। केरल से लेकर आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब तक प्रवासी भारतीयों के माता-पिता अपना संगठन बना रहे हैं। पैरेंट्स एसोसिएशन ऑफ एन.आर.आई. का विस्तार हो रहा है। ऑल इंडिया बॉडी के रूप में एसोसिएशन ऑफ पैरेंट्स ऑफ इंडियन रेजिडेंट्स ओवरसीज (ए.पी.आई.आर.ओ.) का गठन हुआ है। इन संगठनों ने उन जरूरतों की पहचान की है, जिनका सामना बुजुर्गों को रोजमर्रा की जिंदगी में करना होता है। सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के अलावा, स्वास्थ्य जरूरतें, वित्तीय आश्वस्ति, विदेश यात्राओं के इंतजाम आदि ऐसे मसले हैं, जिन पर ये संगठन बुजुर्गों की मदद करते हैं। तनाव दूर करने के उपाय इन संगठनों के द्वारा किए जाते हैं और भावनात्मक खालीपन को दूर करने के लिए भी ये संगठन काम करते हैं। लेकिन इन संगठनों के द्वारा किए जाने वाले उपाय तात्कालिक हैं। यह संक्रमण का दौर है।
शनिवार, 27 जून 2009
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