गुरुवार, 4 जून 2009

आगे-आगे देखिये, होता है क्या?

- विपिन बादल

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, ‘परिवर्तन ही संसार का नियम है। अंगे्रजी में भी कहा गया है ‘नथिंग बट चेंज इज परमानेंट‘। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि परिवर्तन ही जीवन है। हमारे चारों तरफ हो रहे नित नये परिवर्तन भी यही नि’शकर्’ा देेते हैं। अब ये बात जुदा है कि ये परिवर्तन सकारात्मक है या नकारात्मक। मगर प्रशासनिक अमला और राजनीति के क्षेत्र में ये बदलाव बहुत कम ही देखने को मिलता है। पिछले कुछ दशकों में अधिकारी वर्ग, पुलिस, पत्रकारिता और राजनीतिज्ञों की मानसिकता इतनी जड़ हो चुकी है कि सुखद परिवर्तन के आसार दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता।
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की अप्रत्याशिात और पार्टी की ही नजर में अकल्पनीय जीत के बाद तो चुनाव के निहितार्थों की अपने-अपने ढंग से व्याख्या की तो मीडिया में झड़ी ही लग गई। कोई लिखकर तो कई बोलकर चुनावी निहितार्थ को कवितार्थ में तब्दील करता ही दिखा। प्रसन्नता की वजह सबकी थी, अलग-अलग कारणों से कोई केन्द्र में अरसे बाद लगभग स्थिर सरकार के गठन पर खुश था तो कोई मोल भाव करने वाले क्षेत्रीय दलों के धराशायी होने से उत्साही तो किसी को केन्द्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के मजबूत होने की खुशी। किन्तु सबको समान रूप् से इस बात का राहत और हर्श था कि इस लोकसभा चुनाव में भाजपा अपेक्षित परिणाम न ला सकी और कांग्रेस से बुरी तरह पिछड़ गई। बस इस एक तथ्य ने देश के सभी कथित बुद्धिजीवियों को मानों संजीवनी प्रदान कर दी थी। इस खुशी को जाहिर करने में क्या मीडिया, क्या कथित सेकुलर बिरादरी कोई पीछे नही रहना चाहता था। यहाॅ तक कि वामपंथी विचारधारा के मानस पुत्र चाहें और मीडिया में हों या कहीं और धर्मनिरपेक्षता का झंडा लपेटे हो, पशिचम बंगाल से केरल तक वामपंथियों के धराशायी होने का शोक मनाने से अधिक भाजपा की हार का जशन मनाने में ही सराबोर रहे।
कुछ न्यूज चैनल तो चुनाव के दौरान इस तरह खबरों का प्रसारण कर रहे थे मानों वे किसी खास राजनीतिक पार्टी द्वारा प्रायोजित न्यूज चैनल हो। मतगणना के दौरान ज्यों-ज्यों परिणामों के रूझान भाजपा के विपरीत जा रहे थे त्यों-त्यों खबर प्रस्तोता (एंकर्स) के न सिर्फ चेहरे की दमक बढ़ती जा रही थी बल्कि उनके सम्पूर्ण शरीर की बढ़ रही थिड़कन से ऐसा लग रहा था कि अब वे शायद ठुमका लगाना भी शुरू कर देंगे। अंग-प्रत्यंग का यह लचीलापन देखते ही बनता था। एक चैनल के एंकरों को तो पार्टी विशोश की कसीदा गढ़ते अपने ही शब्द कम पड़ते नजर आ रहे थे और वे भाजपा के पराजय को ठीक से व्यक्त न कर पाने की अकुलाहट में शब्दों के टोटके में फॅसते नजर आ रहे थे। तभी तो भाजपा की बुरी तरह पराजय के जैसे शब्द उन्हें संतोश प्रदान नहीं कर रहा था और वे एक ही सांस में घो’ाणा करने लगे कि ‘भाजपा ने घुटने टेके‘। यह तो गनीमत रही कि उन्होंने यह नहीं कहा कि भाजपा लगी गिड़गिड़ाने, मांगी एक-दो सीटों की भीख। शायद अति उत्साह के अफरातफरी में उनके जेहन में यह शब्द आया ही नही होगा न ही पीछे से कनफुकवा निर्देश ऐसा मिला होगा। एक चैनल की प्रतिनिधि तो चुनावों के चरम मौके पर जब कुछ चरणों का चुनाव भी बीत चुका था, प्रियंका वाड्रा के लॅान की मखमली घास पर बैठकर उनकी स्तुति-पुराण में व्यस्त रही। इस लंबे (संभवतः प्रायोजित) कार्यक्रम में प्रियंका की अपनी दादी इंदिरा से तुलना कर उनके पसंद की साड़ी तक का विस्तृत विवरण सलीके से प्रस्तुत किया गया। परन्तु चुनाव के दौरान भारतीय परिधान में दिखने वाली प्रियंका का मतदान के वक्त का ड्रेस जिसने भी देखा वह राजनीतिक हस्तियों और मीडिया के फरेब में अपने को उलझा और दगा ही महसूस करता रहा।
खैर जिन लोगों ने लगभग दो दशक के बाद कांग्रेस का ऐतिहासिक उत्थान पर कविता और कसीदा गढ़े थे उनका यह दावा भी था कि अब कांग्रेस गठबंधन की लगभग बहुमत वाली पार्टी बगैर किसी मोल-भाव और क्षेत्रीय दलों के शर्तों से मुक्त होकर केन्द्र को स्थिरता प्रदान करेगी और सहयोगी भी अपनी बात कांग्रेस पर थोपने की स्थिति में नहीं रहेंगे। परन्तु यह दावा 15 दिन भी कायम नहीं रह सका। देश ने एक बार फिर सत्ता के सौदागर सहयोगियों के शर्तों के खनक में सत्ता में शामिल गठबंधन की प्रमुख पार्टी कांग्रेस और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेेचारगी को देखा। छुटमैये सहयोगी दलों के अलावा अपने ही पार्टी के सांसदो ने सोनिया और मनमोहन सिंह के रातों की नींद हराम कर दी थी। एक तरफ द्रमुक की वजह से मंत्रीमंडल के गठन में अनाव”यक विलम्ब हुआ तो दूसरी तरफ मंत्रीमंडल के प्रथम चरण में शामिल नहीं किये जाने से भन्नायें नेशनल कांफ्रेस के नेता फारुख अब्दुल्ला ने अफ्रीका जाकर मैच देखने का ही फैसला कर लिया। उनके पुत्र और जम्मू क”मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी कांग्रेस को नसीहत दे डाली। फायर ब्रंाड ममता की ‘अग्निशिाखा‘ वाले तेवर से भी निपटना कांग्रेस आलाकमान के लिए आसान नहीं था। अंततः सहयोगियों के दबाव में सरकार के ‘मजबूत‘ मुखिया मनमोहन सिंह और पार्टी सुप्रीमों सोनिया गंाधी को झुकना ही पड़ा। किन्तु बात यहीं खत्म नहीं हुई, सहयोगी माने तो अपने ही दल के सांसद रूठ गये। मंत्री पद पर इतना मोल-भाव और दबाव की राजनीति हुई कि इस मंदी के दौर में भी सरकार को ‘जम्बो कैबिनेट‘ का गठन करना पड़ा। फिर भी केन्द्रीय मंत्री और राज्यमंत्री पर मामला उलझ ही गया। केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पहली बार शामिल कुछ लोगों को उन मंत्रियों से भी उॅचा दर्जा दिया गया है जो पहले भी मंत्री रह चुके हैं। ऐसे ही एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने अपना दर्जा नीचे होते देख मंत्री पद की शपथ लेने से ही इंकार कर दिया। आखिर मरता नेतृत्व क्या करता!
उन्हें खुश करने के लिए पूर्व घो’िात कैबिनेट मंत्री मीरा कुमार से इस्तीफा लेकर उन्हें लोकसभा अध्यक्ष के रूप में नामित कर दिया गया। इस एक चाल से पार्टी ने कई निशाने साध लिये। पहला तो नाराज चल रहे राज्यमंत्री के कैबिनेट मंत्री के रूप में मंत्रीमंडल में शामिल होने का दरवाजा खुल गया, दूसरा लोकसभा अध्यक्ष के रूप में दलित महिला को चुनकर वाहवाही अलग बटोर गई। इसके पीछे एक और मकसद दलित वोट को फिर से पार्टी की ओर आकर्शिात करने का भी है। ताज्जुब है कि चाटुकार कथित बिरादरी को पार्टी की हास्यास्पद दयनीय स्थिति नहीं दिखी। वे उसी रंग में रंगकर दलित महिला केा लोकसभा अध्यक्ष बनाये जाने का कसीढ़ा गढ़ने में मशगूल हो गये हैं।
चुनावी निशकर्श के महीना भर के अन्दर इतने सारे उलटफेर निराश करने वाले हैं। इससे प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के निर्णय लेने की कमजोरी एक बार फिर सतह पर आ गई है। एक ऐसे समय में जब कांग्रेस बहुत हद तक केन्द्र में निर्णायक भूमिका में है, उसकी दुलमुल नीति, निर्णय क्षमता में लचरपन और पार्टी सांसदों तथा सहयोगियों के सामने मिमियाने की स्थिति ने देश की जनता के बीच कोई शुभ संकेत नहीं दिया है। अभी तो खैर शुरूआत है, आगे-आगे देखिये होता है क्या?



लेखक द लास्ट सन्डे मैगजीन में सलाहकार संपादक हैं .

1 टिप्पणी:

admin ने कहा…

वही होगा, जो मंजूरे खुदा होगा।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }