शुक्रवार, 12 जून 2015

दलितों के भरोसे भाजपा ?

भाजपा के साथ रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े और दलित नेता या पार्टियां भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

सुभाष चन्द्र 

बिहार में अभी चुनाव का ऐलान भी नहीं हुआ है, लेकिन सियासी घमासान चरम पर है। इस घमासान में सबकी नजरें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राज मांझी पर है। पहले भी कहा गया कि इस चुनाव में मांझी के पास कई विकल्प हैं, लेकिन आखिरकार उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का साथ लेना बेहतर समझा। पहले रामबिलास पासवान, फिर उपेंन्द्र कुशवाहा और अब जीतन राम मांझी - भाजपा को लगता है कि दलित की ये तिकड़ी उसे चुनावी वैतरणी पार करा देगी। 
असल में, लालू यादव और नीतीश कुमार के गठजोड़ को धूल चटाने के लिए भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। इसी कड़ी में दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और नीतीश के धुर विरोध और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी मांझी की मुलाकात 11 जून, 2015 को हुई। लालू और नीतीश के विरोधी गुट को मात देने की उम्मीद में भाजपा को जीतनराम मांझी के तौर पर नया साथी मिल गया है। इसके अलावा सरकार में मंत्री उपेंद्र सिंह कुशवाहा ने भी अमित शाह से मुलाकात की, यानी भाजपा बेहद संजीदा होकर अपने प्लान बिहार को परवान चढ़ाने में में जुट गई है।
दरअसल, फिलहाल चुनावी वैतरणी पार करने के लिए हर किसी को एक ही शख्स पतवार नजर आ रहा है, और वो है - जीतन राम मांझी। सियासी गलियारों में सवाल भी उठा था कि आखिर ऐसा क्यों है? जवाब मिला, चूंकि मांझी के साथ बहुत सारे प्लस प्वाइंट हैं। मांझी ऐसे नेता हैं जो कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू तीनों ही पार्टियों में रह चुके हैं। इतना ही नहीं, वो इन तीनों पार्टियों की सरकारों में मंत्री भी रह चुके हैं। उसके बाद मुख्यमंत्री बने। वैसे मांझी के ताकतवर होने की तात्कालिक वजह उनका दलितों के नेता के रूप में उभरना है। ऐसे में हर पार्टी को लगता है कि जिस किसी को भी मांझी का समर्थन मिलेगा वो बीस तो पड़ेगा ही। अब ये मांझी पर ही निर्भर करता है कि वो किसे अपना दामन देते हैं या किसका दामन थामते हैं? पहले कहा गया था कि चाहें तो लालू के साथ हो लें। लालू का कहना था कि सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए सेक्युलर दलों को एकजुट होना चाहिए और इसी वजह से वो मांझी को साथ लेना चाहते हैं। उसके बाद आरजेडी से निकाले गए मधेपुरा सांसद राजेश रंजन यानी पप्पू यादव ने बिहार में तीसरे मोर्चे का प्रस्ताव रखा था। पप्पू यादव चाहते थे कि उनका जनक्रांति अधिकार मोर्चा, मांझी का हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और कांग्रेस मिलकर तीसरा मोर्चा खड़ा करें और जनता को एक मजबूत विकल्प दें। पप्पू शुरू से ही मांझी के हिमायती रहे हैं। लालू से पहले ये पप्पू यादव ही थे, जो मांझी को जनता परिवार में भी शामिल किए जाने की वकालत कर रहे थे। 
उसके बाद हवा चली, जिसका तासीर यह बता रही थी कि मांझी चाहें तो भाजपा के साथ गठबंधन कर लें। मांझी को यह विकल्प सबसे मुफीद लगा। जिस तरह उपेंद्र कुशवाहा और राम विलास पासवान भाजपा के साथ हैं, उसी तरह मांझी भी एक पॉलिटिकल एक्सटेंशन हो सकते हैं। आखिरकार हुआ भी यही। 
वर्तमान की हकीकत यही है कि साल भर पहले समाज के फर्श पर बैठे मांझी आज राजनीति के अर्श पर पहुंच चुके हैं। कहने का मतलब ये कि जिस मांझी के पास 2014 में लोक सभा चुनाव लड़ते वक्त कदम कदम पर फंड की कमी आड़े आ रही थी - उनकी ओर अब हर तरफ से मदद के हाथ बढ़े चले आ रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा और मांझी दोनों बिहार की सियासत में भाजपा के भविष्य की उजली तस्वीर की आस हैं। एक तरफ हैं एनडीए के सहयोगी और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा तो दूसरी ओर नीतीश के धुर विरोधी में तब्दील हो चुके जीतन राम मांझी। अब तो जीतन राम मांझी ने भी साफ कर दिया कि बिहार की चुनावी वैतरणी में वो एनडीए की नैया में सवार रहेंगे। बहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन ने नीतीश कुमार पर जमकर जुबानी हमले किए। उन्होंने कहा है कि नीतीश भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। अमित शाह से मुलाकात में मांझी ने कहा कि बिहार में आगामी चुनाव में एनडीए के पार्ट बनेंगे, हर हाल में नीतीश हारेंगे। हालांकि भाजपा ने सीटों का बंटवारा हुए बिना सूबे की 178 सीटों पर प्रचार शुरू कर दिया है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वो किसी नेता को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करे या नहीं।
माना जा रहा हैकि बिहार में छह फैक्टर भाजपा के पक्ष में हैं। भाजपा के पक्ष में पहला सबसे बड़ा फैक्टर है, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता। दूसरा, केंद्र में भाजपा की सरकार होना। वो कहेगी कि विकास के लिए बिहार में भी भाजपा सरकार की जरूरत है। तीसरा , भाजपा का सांगठनिक ढांचा, जो बाकी सभी पार्टियों से मजबूत स्थिति में है। चैथा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो बिहार के कई इलाकों में काफी मजबूत है, वो चुनाव में भाजपा के पक्ष में काम करेगा। पांचवां कारण है, आर्थिक संसाधन के मामले में भी भाजपा दूसरी पार्टियों से काफी आगे रहेगी।  छठवाँ है, भाजपा के साथ रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े और दलित नेता या पार्टियां भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा को भी इसका अंदाजा रहा होगा कि लालू-नीतीश का गठबंधन होगा। दोनों चाहे कितनी भी बयानबाजी करें, लेकिन दोनों को कहीं न कहीं पता था कि ये गठबंधन होने वाला था। नीतीश कुमार, लालू यादव और सुशील मोदी सभी के लिए ये निर्णायक लड़ाई है। इस चुनाव की जीत-हार से इन सबके राजनीतिक भविष्य की दिशा तय होगी।

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