शनिवार, 13 जून 2015

... तो सफल रही मोदी की कूटनीति

नरेंद्र मोदी दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि मुद्दा चाहे कितना भी पेंचिदा हो, यदि नेक इरादे से समाधान ढूंढा जाए, तो रास्ता निकल सकता है और आपसी बातचीत एवं सहमति से जटिल से जटिल मुद्दों पर आगे बढ़ा जा सकता है।


जब हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति के निर्धारण की बात करते हैं तो हमें पंडित जवाहर लाल नेहरू की संसद में कही इस बात पर गौर कर लेना चाहिए। उनका कहना था- श्अंततरू विदेश नीति आर्थिक नीति का परिणाम होती है। हमने अब तक कोई रचनात्मक आर्थिक योजना अथवा आर्थिक नीति नहीं बनाई है....जब हम ऐसा कर लेंगे....तब ही हम इस सदन में होने वाले सभी भाषणों से ज्यादा अपनी विदेश नीति को निर्धारित कर पाएंगे।श् इससे एक महत्वपूर्ण बिंदु का संकेत मिलता है कि भारत की विदेश नीति, हमारे देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। इसकी विशेषता एक निरंतरता है और इसमें किसी भी समय पर आमूलचूल परिवर्तन (रैडिकल चेंजेस) देखने को नहीं मिलते हैं। अमूमन लोग अपने से छोटों से प्रगाढ़ संबंध बनाना जरूरी नहीं समझते हैं। पड़ोसी हो, तब भी नहीं। हर कोई अपने समकक्ष या अपने से बड़े और ताकतवर से दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता है। लेकिन भारतीय सत्ता की राजनीति में जब से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का पर्दापण हुआ है, आमतौर पर सोची-समझी जाने वाली बातों को बड़े फलक पर देखा गया है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह से लेकर बीते एक साल में नरेंद्र मोदी ने अपने पड़ोस के तमाम छोटे देशों का दौरा किया। संबंधों में नई ऊष्मा लाने के लिए खुद आगे आए। भूटान हो, तिब्बत हो, म्यांमार हो या बांग्लादेश। हमारा हर पड़ोसी देश हमारे लिए किसी भी सुदूर बड़े देश से अधिक महत्वपूर्ण है। गौर करें, भूटान से शुरू करते हुए नरेंद्र मोदी अब तक पाकिस्तान छोड़कर अपने सभी निकट पड़ोसी देशों में जा चुके हैं और सभी जगहों पर रिश्तों की नई संभावना उन्होंने जगाई है। हालांकि उन्हें कहीं कोई निश्चित सफलता मिली नहीं है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनय के अपने पहले वर्ष में उनका रिपोर्ट कार्ड बुरा भी नहीं है।
छले दो दशक के दौरान भारत की बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत के चलते देश की सरकारों ने विदेश नीति को नया आकार देने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। पर इसके साथ यह भी देखा गया है कि पूर्ववर्ती यूपीए शासन के दौरान विदेश नीति को अप्रभावी रूप में भी पाया गया है और बाहरी सुरक्षा चुनौतियों का माकूल जवाब नहीं दिया गया है। वर्ष 2014 के आम चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और इसके नेता नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता संभाली। भारत की समूची विदेश नीति में जहां कुछ बदलावों की उम्मीद की जा सकती है तो भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा था कि देश की सरकार सदियों पुरानी अपनी श्वसुधैव कुटुम्बकमश् की परम्परा के जरिए कुछ बदलावों को लाने की कोशिश करेगी।
भाजपा के घोषणा पत्र में कहा गया था कि भारत को अपने सहयोगियों का एक संजाल (नेटवर्क) विकसित करना चाहिए। आतंकवाद को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति होगी और क्षेत्र में नए भू-सामरिक खतरों का सामना करने के लिए श्नो फर्स्ट यूजश् (पहले हमला न करने की) परमाणु नीति की समीक्षा होगी। मोदी को जितना बहुमत मिला है, लोगों की उनसे उतनी ही ज्यादा उम्मीदें हैं। भाजपा का पिछला रिकॉर्ड और मोदी के आर्थिक मोर्चे पर काम करने वाले नेता और एक कट्टरपंथी राष्ट्रवादी छवि के चलते देश के लोग अधिक सक्रिय विदेश नीति की लोग उम्मीद करते हैं। पर मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। इस अर्थ यह भी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था से भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और घटिया बुनियादी सुविधाओं को समाप्त करना ही होगा। इस बात की संभावना है कि भारत, रूस के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना चाहेगा। नई दिल्ली और मॉस्को के बीच सहयोग का एक लम्बा इतिहास रहा है, जो कि शीत युद्ध के शुरूआती वर्षों से शुरू हुआ था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया बांग्लादेश दौरा यूं तो कई मायनों में महत्वपूर्ण है। हालांकि, इस दौरे की सबसे अहम बात यह रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि मुद्दा चाहे कितना भी पेंचिदा हो, यदि नेक इरादे से समाधान ढूंढा जाए, तो रास्ता निकल सकता है और आपसी बातचीत एवं सहमति से जटिल से जटिल मुद्दों पर आगे बढ़ा जा सकता है। पाकिस्तान और चीन के लिए भी बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा करार एक सपष्ट संकेत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छह और सात जून को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बांग्लादेश के दौरे पर रहे। मोदी-ममता की यह जोड़ी दोनों देशों के बीच संबंधों की संभावना का एक सर्वथा नया पन्ना खोलने की कोशिश करती दिखी, जिसमें ये दोनों काफी हद तक सफल भी रहे। वैसे, ऐसी एक संभावना तब भी बनी थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2011 में बांग्लादेश पहुंचे थे, लेकिन तब ममता बनर्जी ने उनके साथ बांग्लादेश जाने से इन्कार कर, सारी संभावनाओं पर पानी फेर दिया था। इस बार हालात कुछ अलग थे। मोदी और ममता, दोनों यह जान रहे हैं कि उनकी स्थानीय राजनीति की मांग है कि वे इस अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक पहल में साथ रहें। तभी तो तमाम विश्लेषकों ने इस सच को स्वीकार किया कि मोदी-ममता के साथ ने भारत-बांग्लादेश के बीच संबंधों के बीच नया पन्ना खुलवाया, जिससेएशियाई राजनीति को नए सिरे से आकार देने का ऐतिहासिक अवसर भारत को मिला।
पिछले वर्षों में भारत सरकार ने अपने इन छोटे पड़ोसियों के बारे में एक ही नीति बना रखी थी-जितना मिले, उसमें खुश रहो जितना न मिले, उस बारे में तुम जानो, तुम्हारी किस्मत जाने! इस अंधनीति का परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश हो या नेपाल या म्यांमार या श्रीलंका, सभी जगहों पर चीन ने पैठ बना ली। हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि पड़ोस में किया गया हर निवेश क्या नकद वापस लाता है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह भविष्य के कितने दरवाजे खोलता है। बांग्लादेश-भारत सड़क संधि का एक नया मौका हमारे सामने है। आज कोलकाता और अगरतला के बीच की हर व्यापारिक गतिविधि को 1,650 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। यह सड़क बन जाएगी, तो यह दूरी मात्र 350 किलोमीटर की होगी। न सिर्फ भारत के विभिन्न इलाकों में माल पहुंचाने में सहूलियत हो जाएगी, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया तक माल पहुंचाना सरल हो जाएगा। इसका दूसरा फायदा यह होगा कि इस पूरे क्षेत्र की गतिविधियों पर भारत सीधी नजर रख सकेगा और उसे किसी हद तक नियंत्रित भी कर सकेगा। आतंकवादियों की घुसपैठ, तस्करी आदि पर नजर रखने के साथ-साथ पाकिस्तान और चीन को किसी हद तक इस चतुर्भुज से अलग-थलग करने में भी भारत कामयाब हो जाएगा और उनकी फौजी गतिविधियों की टोह भी ले सकेगा। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना हमारे प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आई थीं, उन्होंने अपना प्रतिनिधि भेजा था। इसके और जो भी कारण रहे हैं, एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि नेपाल की तरह बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति की मांग है कि वहां के नेता भारत का पिछलग्गू नजर न आएं। हालांकि, कई मौकों पर शेख हसीना ने यह जताया है कि भारत उसका स्वाभाविक मित्र है।
बांग्लादेश दौरे में पड़ोसी देशों को साथ लेकर चलने की नरेंद्र मोदी की मंशा साफ झलकी है। ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा केवल देश में ही नहीं, मोदी की विदेश नीति में भी झलका है। ढाका में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत और बांग्लादेश एक साथ मिलकर आगे बढ़ सकते हैं। कोई छोटा और बड़ा नहीं है। भारत और बांग्लादेश दोनों बराबर हैं। मोदी यह संदेश देने में भी सफल हुए हैं कि एक उद्देश्यपूर्ण और समस्या-निराकरण की नीति अपनाकर दक्षिण एशिया की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन लाया जा सकता है। सार्क देशों को एकजुट करने और समस्याओं से मिलकर लड़ने की नरेंद्र मोदी की इच्छाशक्ति यह दर्शाती है कि वह इस पूरे क्षेत्र में एक बदलाव लाने का माद्दा रखते हैं।
जब चीन की बात आती है तो हमें सोचना होगा कि आर्थिक और सैन्य दृष्टि से भारत कमजोर है और मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों ना हों और उन्होंने दूसरे दलों के नेताओं की इस बात को लेकर कितनी ही आलोचना की हो कि वे चीन के दुस्साहस को अनदेखा कर रहे हैं, लेकिन खुद मोदी भी पेइचिंग से लड़ाई मोल लेना नहीं चाहेंगे। चीन को एक वैश्विक शक्ति उसकी आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है और इस कारण से मोदी चाहेंगे कि भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत हो। अर्थव्यवस्था उनका टॉप एजेंडा इसलिए भी रहेगी क्योंकि ज्यादातर भारतीयों ने उन्हें इसलिए चुना है कि वे गरीबों की हालत में सकारात्मक परिवर्तन लाएंगे। इसलिए वे चाहेंगे कि देश के गरीब वर्ग की माली हालत में सुधार हो। मोदी की विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण चिंता पाकिस्तान होगा लेकिन वह भी इस्लामाबाद के साथ नाटकीय रूप से सख्त रुख अपनाने के पक्ष में नहीं होंगे। वे पहले ही लोगों को अपने शपथग्रहण में पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित कर चैंका चुके हैं, लेकिन वे यह बात भलीभांति समझते हैं कि पाकिस्तान के साथ लगातार होने वाले टकरावों के कारण वे देश की अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान नहीं दे सकेंगे। अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई होती है तो यह परमाणु युद्ध में भी बदल सकती है, लेकिन आतंकवादी हमले ऐसा विषय हैं जिनके कारण उन पर बहु्त ज्यादा दबाव होगा। उन्हें निर्णयात्मक होना होगा क्योंकि उन्हें आतंकवादियों को संदेश भी देना होगा कि वे भारत में गड़बड़ी फैलाने से बाज आएं। यह बात उनकी अपील का प्रमुख हिस्सा होगी।
नई दिल्ली चाहता है कि चीन के पूर्वी हिस्से में उसका एक मजबूत साथी हो और वह इस भूमिका के लिए जापान को सभी तरह से उचित पाता है। अपनी आर्थिक और तकनीकी ताकत के चलते जापान समुचित भी है क्योंकि टोक्यो और नई दिल्ली चीन को एक बड़ी सुरक्षा समस्या समझते हैं। भारत एक और एशियाई देश, ताइवान, के साथ अपने संबंध मजबूत रखना चाहेगा क्योंकि यह चीन के क्षेत्रीय दावों और मंशा को लेकर सशंकित रहता है। विदित हो कि कुछ समय पहले ही दक्षिण चीन महासागर में दोनों देशों के बीच झड़पें हुई हैं। लेकिन, विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी से और भी बड़े परिवर्तनों की इच्छा रखने वालों को निराशा हाथ लगेगी। हालांकि मोदी मानते हैं कि भारत एक वैश्विक ताकत है लेकिन देश यह दर्जा तब तक हासिल नहीं कर सकेगा जबतक कि वह आर्थिक मोर्चे पर अपनी मजबूती नहीं दर्शाता है। इसलिए अगर मोदी कोई बड़े परिवर्तन करते हैं तो वे देश के घरेलू मोर्चे पर करने होंगे, विदेशी मोर्चे पर नहीं।
भले ही कांग्रेस पार्टी पंडित नेहरू की विरासत पर दावा कर रही हो लेकिन नरेंद्र मोदी अपने तरीके से देश की इस पुरानी पार्टी को चुनौती देने में व्यस्त हैं। उनको भले ही पंडित नेहरू की 125वीं जयंती के आयोजन पर कांग्रेस ने आमंत्रित नहीं किया हो लेकिन बाकियों की तुलना में वह नेहरू की विरासत को अधिक पुख्ता तौर पर निर्धारित करने की कोशिश कर रहे हैं। और जिस विरासत को सत्ता में आने के बाद वह धीरे-धीरे समाप्त कर रहे हैं वह है विदेशनीति की गुटनिरपेक्ष विचारधारा। विचाराधारात्मक नारों से इतर वह बिना किसी अवरोध के सभी वैश्विक शक्तियों के साथ संबंध बनाने में मशगूल हैं। राष्ट्रों की विदेश नीतियों में सरकारें बदलने के साथ आमूलचूल परिवर्तन नहीं आता लेकिन आम चुनाव में प्रचंड बहुमत मिलने के बाद मोदी को विदेश नीति की प्राथमिकताओं और लक्ष्यों को पुनर्निर्धारित करने का अवसर मिला है। विदेश नीति के मोर्चे पर वह पहले से ही सक्रिय दिखे हैं। पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय संबंधों में नई गति के स्पष्ट संकेत दिखे हैं और नई दिल्ली अपनी क्षेत्रीय प्रोफाइल का पुनरुद्धार करने के लिए नए सिरे से बल दे रही है। पाकिस्तान को छोड़कर सभी पड़ोसी नई आशा के साथ भारत को देख रहे हैं। क्रियान्वयन के मसले पर भारतीय विश्वसनीयता की समस्या को पहचानते हुए मोदी सरकार ने पड़ोसियों के साथ नए प्रोजेक्टों की घोषणा करने के बजाय लंबित परियोजनाओं को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित किया है।

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