शनिवार, 8 जनवरी 2011

विश्व प्रसिद्घ कहानियों का नाट्य लेखन


वर्तमान में मौलिक हिंदी नाटकों का लेखन अपेक्षाकृत कम हो रहा है। इसकी वजह चाहे जो भी हो। इन स्थितियों में अधिकांश नाटककार प्रसिद्घ कहानियों के नाट्य रुपांतरण के महत्व को समझते हुए उसको अपने रंग-रूप में ढालकर हिंदी रंगमंच को आसन्न खतरों से बचाए हुए हंै। वैसे में जब रंगमंचीय दृष्टिï से हिंदी नाटकों में विभिन्न प्रकार के प्रयोग हो रहे हैं, तो कहानियों के नाट्यरुपांतरण को मौलिक रचना मानना भी अतिश्योक्ति नहीं कही जाएगी। कारण, यह नाटक की कमी को पूरा कर रही हैं। ये नवप्रयोग सामयिक और सनातन प्रश्नों से मुठभेड़ करते हुए अपनी सार्थकता भी सिद्घ करते हैं। वास्तव में पिछले दो दशकों में नाट्यलेखकों और नाट्य निर्देशकों ने अपनी सक्रियता से हिंदी रंगकर्म को और समृद्घ ही किया है।
इसके अलावा, सच यह भी है कि प्रसिद्घ कहानियों की श्रेणी में वे ही कहानियां आ पाती हैं, जो सनातन मूल्यों, सामाजिक सरोकारों से आबद्घ होती हंै और रचनाकार अपनी लेखनी से समाज को चिंतन पर मजबूर करता है, समाज को अक्स दिखाता है। प्रसिद्घ रंगकर्मी और निर्देशक प्रो. विद्याशंकर द्वारा 'ओवरकोट तथा अन्य नाटकÓ निकोलोई गोगोल, लु शून, प्रेमचंद और सआदत हसन मंटो की चर्चित कहानियों को केंद्र बिंदु मानकर लिखे गए नाटकों का संग्रह है। पिछले ढाई दशकों से अभिनय, नाट्य-लेखन और निर्देशन के क्षेत्र में अपनी सक्रियता का एहसास विद्याशंकर ने इस संग्रह में भी दिलाया है। कहानी (श्रव्य विधा) से नाटक (दृश्य विधा) में परिवर्तन के क्रम में रचनाकार को रंचमंचीय संयोजन और प्रस्तुति के हिसाब से कई संशोधन और परिवर्तन करने पड़ते हैं। सो, उन्होंने कथाक्रम को जोडऩे के लिए सूत्रधार की कल्पना की और उसके मुंह से उन वक्तव्यों का कहलावाया जो अपेक्षित था।
उल्लेखनीय है कि इन नाटकों का मंचन लेखक द्वारा कई बार किया जा चुका है। नाट्यरुपांतरण के बाद मंचन के दौरान निर्देशक को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, उसका पर्याप्त विवरण इस नाटक संकलन में है। कहानी से इतर भी रंगमंच की जरूरत को देखते हुए इसमें नए पात्रों के मुख से वह कहलवाया गया है जिसका जिक्र कहानी में नहीं था। दरअसल, मंचन के दौरान दर्शकों को बंाधे रखना कलाकार के साथ लेखक-निर्देशक के कौशल पर भी निर्भर करता है। पात्रों के संवादों को जिस बखूबी के साथ लेखक ने सजाया है, वह सराहनीय है। इस लिहाज से विद्याशंकर डा. शंकर शेष, डा. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विजय तेंदुलकर, डा. धर्मवीर भारती और मोहन राकेश की न्यू क्लासिकल करेक्टर की खोज वाली दिशा में आगे बढ़ते दिखाई देते हैं। दरअसल, परिवेश में रंगमंच पर लाने की कल्पना ही रोमांच पैदा करती है।
'राग भैरवÓ,'कसाईबाड़ाÓ,'महाभोजÓ,'जमीनÓ,'सौगातÓ जैसी कहानियों का नाट्यरूपांतरण करने और आठ नाटकों के सृजनकर्म को पूरा करने के बाद लेखक ने निकालोई गोगोल का 'ओवरकोटÓ, लु शून का 'नया सालÓ, प्रेमचंद का 'मंदिर-मस्जिदÓ और सआदत हसन मंटो के 'टोबा टेक सिंहÓ कहानी का नाट्यरुपांतरण किया है। 'ओवरकोटÓ में उस शोषित वर्ग को दिखाया गया है जो अपनी एक छोटी सी इच्छा को भी पूरा करने में असमर्थ होता है। शोषक वर्ग उसका मजाक उड़ाता है। सो, वह एक भूत के माध्यम से अपना प्रतिशोध लेता हुआ दिखाई पड़ता है। 'नया सालÓ के केंद्र में एक ऐसा शख्स है जो कन्फ्यूशियसवादी साहित्य से प्रभावित है और उसका परिवार उसके साहित्य और उसके तर्कों से तंग हैं। बावजूद इसके, पारिवारिक मर्यादा को तवज्जो दी जाती है। कुंठाग्रस्त व्यक्ति किस प्रकार से सामाजिक सौहाद्र्र को बिगाडऩे की कोशिश करता है , कभी धर्म के नाम पर तो कभी संवेदनाओं की आड़ लेकर और वह आखिरकार अशांति-हिंसा का दामन थामता है, इसका चित्रण करता हुआ 'मंदिर-मस्जिदÓ समाज को एक नई दिशा देने का काम करता है। 'टोबाटेक सिंहÓ राष्टï्रीय अखण्डता के स्वर से लबरेज है। पागलखाने में ही सही, जिस प्रकार से पागलों का आपसी संवाद है, वह एक अलग चिंतन से कम नहंी है। सियासी आलंबरदारों ने जिन बिंदुओं पर बहस-मुबाहिसा नहीं की, लाहौर पागलखाने में बंद किए गए चंद पागल उन मसलों पर गौर फरमाते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद कौमी एकता किस कदर छिन्न-भिन्न हुई थी और आम जनता किस कदर उसमें पाटन की मानिंद पीस रही थी, उसका बखूबी एहसास मंटो ने अपनी कहानी में दिलाया। यकीनन, ये चारों नाटक सामाजिक सरोकारों के ताने-बाने में गुंथे हुए हैं जिसका असर विश्वव्यापी है।

पुस्तक - ओवरकोट तथा अन्य नाटक
लेखक - प्रो. विद्याशंकर
प्रकाशक - शिल्पायन
वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली - 32
मूल्य - 150 रुपए

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