बुधवार, 5 जनवरी 2011

कलम के कौशल से खिड़कियों में तब्दील आइने

कृपाशंकर


विश्वविख्यात चित्रकार पिकासो ने एक बार कहा था, 'मैं कोई दृश्य पेंट करता हूं जो बहुत खूबसूरत है, बाद में उसे मिटा देता हूं। थोड़ी देर के बाद वह अत्यंत सुंदर हो जाता है।Ó ठीक इसी तरह लेखक को उसकी रचना केे सौंदर्य का बांध लेखन के बाद ही चलता है और कभी-कभी तो यह सुंदरता लेखक नहीं, पाठक जांचता-परखता है। शब्दों और कथानक के माध्यम से उसे कसौटी पर कसता है। सही निर्णय तो वही करता है। नासिरा शर्मा की कहानियों में यह बात स्पष्ट रूप से झलकती है कि कलम के कौशल से सारे आइने खिड़कियों में तब्दील हो गए हैं। ऐसा अन्य लेखकों में बहुत कम देखने को मिलता है। बेशक, नासिरा शर्मा ने स्त्री-विमर्श पर अपने किरदारों के माध्यम से समय-समय पर काफी कुछ कहा है। पिछले दशक से वैसे हिन्दी कथा साहित्य में, पत्र-पत्रिकाओं में काफी कहा-सुनी होती रहती है। इस प्रकार की प्रस्तुतियों से यह पता नहीं चलता है कि जिस नारी की चर्चा हो रही है वह कौन है? उसकी शिक्षा का स्तर क्या है? वह अशिक्षित है या 'कÓ 'खÓ अथवा 'अलिफÓ 'बेÓ से परिचित है। बस नारी-नारी की रट लगाकर विमर्श का ताना-बाना तैयार हो जाता है और लेखक को नारीवादी होने की सौगात मिल जाती है। और तो और, कतिपय कलम की साहित्यिक दुकानदारी नारी-विमर्श के ही बल पर चल रही है।
आमतौर पर हिंदी के लेखकों पर आरोप लगता रहा है कि वे जीवन की कड़वी सच्चाइयों और गंभीर विषयों की अनदेखी करते रहे हैं। मृगमरीचिका में पाठकों को रखने का जैसे उन्होंने अनुबंध कर रखा हो।
हालांकि, यदा-कदा इसका अपवाद भी मिलता रहा है। उसी अपवाद की एक कड़ी नासिरा शर्मा के हाथों में भी है। गद्य साहित्य के हरेक विधा में दखल रखने वाली नासिरा शर्मा हिंंदी की चर्चित लेखिका हैं। हिंदी साहित्य की उर्वर भूमि इलाहाबाद से सरोकार रखने वाली नासिरा शर्मा को साहित्य विरासत में मिला। फारसी भाषा व साहित्य में एमए. करने के साथ ही हिंदी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। वह ईरानी समाज और राजनीति के अलावा साहित्य कला व सांस्कृतिक विषयों की विशेषज्ञ हैं।
हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार कमलेश्वर के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'सारिकाÓ के नवलेखन अंक, 1975 में नासिरा शर्मा की पहली कहानी 'बुतखानाÓ छपी थी। 'बुतखानाÓ एक ऐसे इनसान की कहानी है जो एक कस्बे से दिल्ली आया था। वह तनाव भरी जिंदगी में एक ताज्जुब-सा संबल था। कहानी का एक अंश देखिए , 'सुबह कब होती, धूप कब निकलती, उसे पता न चलता। आकाश का एक छोटा-सा टुकड़ा नजर आता। एक दिन गर्दन टेढ़ी करके उसने बड़े परिश्रम से आकाश की नीलाहट को देखा। देखना भी तो कितना कठिन है, चारों ओर तो एक-सी ऊंची इमारतें हैं। वह भी इतनी सटी हुई कि रमेश को सदा लगता कि वह एक-दूसरे के कान में फुसफुसा कर जाने कौन-सी कहानी कहकर, दुख बांटना चाहती है।....Ó यहां से जो इनकी लेखन यात्रा शुरू हुई, वह कभी रुकी नहीं। अव्वल तो यह कि कहानी अपने कथ्य, शिल्प और भाषा की प्रांजलता और प्रौढ़ता के द्वारा इसका तनिक भी आभास नहीं होने देती कि यह लेखिका की पहली कहानी है। रचना की परिपक्वता गजब की है। इस कहानी में महानगरीय आपाधापी, यांत्रिकता और सबसे अधिक उन स्थितियों को उकेरा गया है जिनमें मनुष्य की संवदेना समाप्त होती जाती है। कहानी में अभाव है, टूटती अपेक्षाएं हैं, कस्बे के सीधे सादे मनुष्य के संवेदनहीन बुत में तब्दील हो जाने की विवशता है।
सच तो यह है कि कथा साहित्य लिखने वाले और पढऩे वाले को जिंदगी की बारीक जानकारी होनी चाहिए। बिना जानकारी के लिखना और पढऩा दोनों अधूरा रहता है। नासिरा शर्मा के लेखकीय स्वभाव में व्यक्ति और समाज को भली प्रकार जानने-परखने की ललक है। यह ललक ही उनके लेखन को समृद्ध बनाती है। वे केवल लिखने के लिए नहीं लिखतीं। कोई एक अंदरूनी ताकत है जो उनसे लिखवा लेती है। यह सधी हुई लेखन की पहचान है। कभी-कभी तो बच्चे के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातों की तहरीर तैयार हो जाती है। उसे देख-पढ़ कर आश्चर्य भी होता है और अच्छा भी लगता है। अपनी रचना प्रक्रिया की बात करते हुए वह कहती हैं, 'कभी-कभी गर्म चाय डालने से जैसे कांच का गिलास चटक जाता है, कुछ उसी से मिलता जुलता अनुभव मुझे तब होता है जब कोई वाक्य, किसी का कहा-सुना मुझे गहरे भेदकर मेरी पुख्ता जमीन को दरका जाता है और शब्दों का गर्म लावा फूटकर एकाएक सफेद पन्नों पर फैल जाता है।Ó नासिरा शर्मा के कहानी संकलन 'बुतखानाÓ का लब्बोलुबाब भी ऐसा ही है। सोलह दीर्घकथाओं और तेरह लघुकथाओं को समेटे इस संकलन के संवादों में चिंतन के साथ सर्वथा नये आयाम खुलते हैं। विचारों की लडिय़ाँ तैयार होती हैं। स्वाभाविक रूप से कलम की नोक से उतरे हुए वाक्य बहुत कुछ कहते हैं। वह स्वयं भी कहती हैं, 'इन कहानियों में व्यक्त परिस्थितियों का कोई ऐतिहासिक संदर्भ तलाश करना जरूरी नहीं क्योंकि ये सारे विषय ऐसे हैं जिसमें आज की नस्ल अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। उसमें सपनों की सरसराहट, भावुकता की गुदगुदाहट, प्रेम की चाहत नहीं है बल्कि ठोस स्थितियाँ, संवेदना का निरंतर शुष्क होते जाना, प्रेम भाव का स्थायी रूप से किसी भी रिश्ते न ठहर पाने की खीज और घबराहट भरी जिजीविषा है कि कल क्या होगा?...Ó
वास्तविकता यह है कि लेखक चुनाव करने में माहिर होता है। इस चुनाव में रुचि, अभिरुचि और परिवेश सभी काम करते हैं। नासिरा शर्मा के जीवन का अधिकांश हिस्सा शहरों में बीता है पर गाँव से भी वह अपरिचित नहीं हैं। उनकी अनुभूतियों की परिधि दूर-दूर तक फैली हुई है। असल बात यह है कि अपनी सारी रचनाओं में वे इनसान की तकलीफों की साक्षी बनती प्रतीत होती हैं। उनकी कहानियों में उभरी घटनाएँ उनकी फस्र्ट हैंड नॉलेज पर आधारित हैं। वह अपनी रचनाओं की इमारत दोयम दर्जे की सहायक सामग्री से नहीं तैयार करतीं। यही वजह है कि उनमें प्रतीति और विश्वास की भरपूर चमक है। पाठक जैसे-जैसे रचना की अंतर्यात्रा करता है, यह चमक और चटख होती जाती है। बीच में पाठक को कहानी के अंत का अहसास नहीं होता। इसे नासिरा शर्मा के शिल्प-विधान की खूबी कहा जा सकता है। बंबइया सिनेमा में कहानी के परिणाम का पता पर्दे के दृश्यों से काफी पहले चल जाता है लेकिन नासिरा शर्मा की कहानियों के साथ ऐसा नहीं है। चूंकि, वह मूलत: और अन्तत: साहित्यकार हैं इसलिए नतीजे तक धीरे-धीरे पहुँचती हैं। एक झटके से सारा दृश्य चाक्षुष नहीं होता। लेखिका को हमेशा, हर क्षण यह ध्यान रहता है कि यह मजमून किसके लिए लिखा जा रहा है। यही वजह है कि उनका कलाम हमेशा 'अलर्टÓ रहता है। उन्हें इस बात का पक्का पता होता है कि कोई भी नक्शा जिंदगी का सफर नहीं है। सफर में तो तलवे घिसने पड़ते हैं। तब कहीं जाकर मंजिल मिल पाती है। नारी-विमर्श के सिलसिले में अपने साक्षात्कारों में, छोटे-मोटे लेखों में जो कुछ और जितना कहा है, उसके संदर्भ में कुछ द्रष्टव्य हैं। नासिरा शर्मा स्वयं एक नारी हैं। उनका लालन-पालन संभ्रांत परिवार में हुआ है। जन्मना मुस्लिम होने के साथ उन्होंने हिन्दू (ब्राह्म्ïाण) के साथ प्रेम विवाह किया । इस क्रांतिकारी कदम का लाभ उन्हें जीवन जीने में कितना मिला है, यह तो वही जानें पर दोहरे अनुभव और जानकारी से लेखन में एक सुथरापन आया है, साथ ही उनका दायरा भी विस्तृत हुआ है।
वर्तमान समाज पुरातनता, परंपरा और आधुनिकता के झंझावतों से दो-चार हो रहा है। उसका चित्रण इसी संकलन की कहानी 'नमकदानÓ में हुआ है। कहानी का अंश देखिए,
''रेशमा ! जिंदगी उसूल की किताब नहीं है।ÓÓ जफर ने कहा।
''मान लेती हूं मगर उसूल के बिना जिंदगी, जिंदगी नहीं होती।ÓÓ... (पृष्ठ संख्या 5 )
'अपनी कोखÓ का अंश देखिए, 'कितने पौधे धरती में जड़ पकड़ लेते हैं और लहलहा उठते हैं। कुछ सूख जाते हैं। खेती को अनाज में बदलने के लिए कुछ तो कुर्बानी देनी पड़ती है। कभी माल की कभी जान की, कभी इच्छा की...?Ó
'क्या मैं अपनी इस इच्छा की कुर्बानी दे दूं... इच्छाएं तो बनती बिगड़ती लहरें हैं। उनका वजूद ही क्या, मगर तालाब का, नदी का, समुद्र का, यहाँ तक कि कुएँ तक का एक यथार्थ है और यथार्थ ही जीवन है। मुझे इच्छापूर्ति के भंवर से निकलना होगा और यही मेरी परीक्षा होगी, यही मेरी साधना होगी, यही मेरा यथार्थ होगा।Ó साधना अपने को मन मस्तिष्क के ऊहापोह से निकालने में कामयाब हो गई और संवेदना एक बिंदु पर जाकर अटक गई कि लड़के-लड़कियों में भेद करने वाला यह समाज तब तक बलवान बना रहेगा जब तक नारी उसके इशारे पर चलती रहेगी। कोख उसकी है, वह चाहे तो बच्चा पैदा करे और न चाहे तो न पैदा करे। चयनकर्ता वही है।... (पृष्ठ संख्या - 27)
इन संवादों और प्रसंगों को देखने के बाद निश्चित तौर पर कहा जाएगा कि नासिरा शर्मा ने अपनी रचनाओं को मानवीय संवदेनाओं विशेषकर नारी मन को जबदरस्त तरीके से उकेरा है। पिछले कुछ वर्षों से स्त्री विमर्श चर्चा में है लेकिन हिंदी कथा साहित्य में यह कोई नया विषय नहीं है। प्रेमचंद की निर्मला हो या जैनेंद्र की सुनीता, यशपाल की शैल हो या अज्ञेय की रेखा, नारी अस्मिता का सवाल अपनी संपूर्णता एवं विविधता में कथा साहित्य के केंद्र में रहा है लेकिन आज की वरिष्ठ एवं नई पीढ़ी की लेखिकाओं ने स्त्री की इस पुरुषरचित छवि पर सवाल खड़े किए हैं। आजादी के बाद हिंदी कथा साहित्य में उभरते नई कहानी आंदोलन में स्त्री जीवन से जुड़े सवाल उठाए गए। उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, मृणाल पांडे, मंजुल भगत, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया और प्रभा खेतान जैसी दर्जनों महिला कथाकारों ने पुरुष वर्चस्ववादी चौहद्दियों को तोडऩे का साहस किया। इस दौर में लिखे साहित्य में एक तरफ सामाजिक परंपराओं एवं आर्थिक शिकंजे में कैद स्त्री की छटपटाहट दर्ज है तो दूसरी तरफ है आधुनिकता की सीढ़ी लांघती स्त्री की उड़ान। बेशक, समाज बदल रहा है तो यथार्थ की जटिलताएं भी बढ़ी हैं और उसी हिसाब से स्त्री जीवन की चुनौतियां भी। स्त्री की जटिलताओं को समझने की जागरूकता बढ़ी है और बहुतेरी दिशाएं भी खुल रही हैं। सो, आधुनिक कथा साहित्य में परंपरागत पुरुषवादी फ्रेम को तोड़कर स्त्री के भीतरी व्यक्तित्व को पूरी निधड़कता से खोला जाने लगा है।
बुद्धिजीवियों का कहना है कि स्त्री या नारी मात्र कह देने से बात स्पष्ट नहीं होती। वस्तुत: इसमें कई परतें हैं। एक नारी वह है जो वंश वल्लरी को आगे बढ़ा रही है। एक वह है जो भाई के हाथ में राखी बांध रही है। एक नारी वह भी है जो आगे परिजनों की समृद्धि और सुख के लिए दुआएँ माँग रही है। कभी-कभी तो दुखियारी नारी की आँखों में गंगा-यमुना उमड़ती देख कर लगता है कि प्रकृति ही अपने कीमती मोती लुटाने को विवश है। अशिक्षा के अंधेरे में डूबी हुई नारी, स्वजनों से प्रताडि़त और तिरस्कृत नारी भी इसी धरती पर समाज में है। इस परिस्थिति में नारी विमर्श के पहले इस बात का खुलासा होना चाहिए कि किस नारी पर बात हो रही है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम उजाले में और उजाला फेंक रहे हैं। उन अंधी गलियों की ओर किसी कलम या विचार का ध्यान नहीं जा रहा जो सदियों से गाढ़ी कालिमा से ओत-प्रोत हैं। वहाँ तरक्की की किरणें नहीं पहुंच पातीं। लेखक यदि जहालत और पिछड़ेपन के घुप्प अंधेरे को अपने विचारों की रोशनी से नहीं भेद सकता तो उसका सारा प्रयास बेमतलब और बेमानी हैं। कभी-कभी तो अंधेरे और उजाले का कंट्रास्ट भी आकर्षण का कारण बनता है और लेखक तो समय का पारखी और द्रष्टा होता है। वह अंधेरा, उजाला, ज्ञान-अज्ञान को और इनके फर्क को भली भांति जानता है। नासिरा शर्मा इन तथ्यों से भी परिचित है।
किसी भी लेखक के पास जीवन का जितना अधिक अनुभव होता है, उसके कहानी का फलक उतना ही बड़ा होता है। कई देशों की यात्रा कर चुकीं नासिरा शर्मा के पास विभिन्न देशों और वहां के समाजों की गहरी समझ है। कई समाजों को करीब से देखने के कारण उनका रचना संसार कभी समद्ध हुआ है। सो, लेखिका के सोच का दायरा बड़ा है जिसमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्टï्रीय वस्तु-विधान झलक मारता है। इस संकलन से अलग 'संगसारÓ कहानी ईरान की प्रथा या कुप्रथा पर सवालिया निशान लगाते हुए जन्म लेती है। इसकी कहानियों से लेखकीय प्रस्तुति का दायरा बढ़ता है और पाठक के लिए कलम एक सनातन बात रेखांकित करती है-'तो फिर भेजने दो उन्हें लानत उस सूरज पर जो जमीन को जिंदगी देता है, उस मिट्टी पर जो बीज को अपने आगोश में लेकर अंकुर फोडऩे के लिए मजबूर करती है और इस कायनात पर जिसका दारोमदार इन्हीं रिश्तों पर कायम है जिसमें हर वजूद दूसरे के बिना अधूरा है।Ó यह कथन कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी सत्य रहेगा। जब अनुभव करते-करते समय राहगीर को आवाज देने लगता है तब ऐसे कथन कलम से झरने शुरू हो जाते हैं। यही वह उपलब्धि है जो रचनाकार की दृष्टि को शाश्वतता प्रदान करती है।
नासिरा शर्मा की कहानियों को पढ़कर अहसास होता है कि सफर शुरू करने से पहले उन्हें पक्का पता होता है कि जाना कहां है। यही वजह है कि उनके किरदार अपने ठीक गंतव्य की ओर हमेशा आगे बढ़ते दिखते हैं। पाठक विचारों के घालमेल झेलने से बच जाता है। यह बात 'मरियमÓ, 'दूसरा चेहराÓ, 'सिक्काÓ, 'घुटनÓ और 'बिलाबÓ कहानियों में देखी जा सकती है। 'बुतखानाÓ में लेखिका ने जिन तेरह लघुकथाओं का समावेश किया है, वह अप्रतिम है। कोई यह कह सकता है कि नासिरा शर्मा की कहानियों में अतीत ज्यादा है। सच तो यह भी है कि हिंदुस्तान का कोई भी साहित्य अतीत से अलग नहीं हो सकता । प्रो. शमीम हनफी ने अपने एक लेख में कहा था, 'सबके सब हाल को अपने-अपने माजी या अपनी तारीखी बसीरत की रौशनी में बनने वाली जरूरतों के मुताबिक मनचाही शक्ल देना चाहते हैं।Ó इसी प्रकार यूनिस डिसोजा ने कहा था कि तारीख की जिस रूदाद से हम वाकिफ हैं उसका बड़ा हिस्सा छापे जाने के लायक नहीं है वह तो अंधेरे में एक लंबी चीख जैसा है। अमूमन यही चीख साहित्य में सिसकियों की शक्ल ले लेती है। सिसकियों की तो फिर भी आवाज होती है लेकिन आह व आँसू की आवाज नहीं हेाती है। उसके प्रकट होने के अनेक रूप होते हैं बस जरा नजदीक से देखने व समझने की जरूरत होती है। इसकी पारखी नजर व मार्मिक समझ नासिरा शर्मा में बखूबी है। नासिरा के कहानी संसार में स्त्री की भावनाओं और संवदेनाओं का इतना मार्मिक चित्रण है कि पाठक उनकी कहानियों में स्वयं की झलक देखता है, नारी की भावनाओं की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति से नासिरा ने मुस्लिम समाज में उत्पन्न नारी के अस्तित्व की अस्मिता प्रदान की और जीवन की तमाम जटिलताओं के चर्चित वर्ण ने उनकी लेखनी को भाषा का संस्कार दिया। उनकी कहानियों की पृष्ठभूमि में स्त्री की न केवल छाया रही बल्कि उनके लेखन में स्त्री मुख्यत : मुस्लिम नारी एक प्रतिबिंब के रूप में नजर आती है। कहानियों में घटनाओं को साथ लेकर, किरदारों के भीतरी और बाहरी जीवन को दर्शाती हुई जीवन के निहित पहलुओं को उजागर करती नासिरा की कहानियों का दायरा इतना विस्तृत, असीम और इतना अधिक आयाम वाला है कि साहित्य की कोई भी विधा इससे अछूती नहीं रह सकती। बुतखाना कहानी संग्रह की कहानी 'गुमशुदा लड़कीÓ में तक्कन द्वारा परंपरावादी दूल्हन की अधूतरी तलाश है। जाने कितनी लड़कियों की तलाश के बाद उसे अपनी सपनों की हसीना के खो जाने को अनकहा गम है। 'बिलावÓ की सोनामाटी की बेटी मैना की इज्जत उसके पति बलवीर द्वारा लूटने के साथ यही हादसा सोनामाटी के चेहरे पर दूसरी मौत का हार स्थायी भाव बनकर ठहर जाती है। उसकी दृष्टिï में ये सब बलवीर हैं, जिन्हें वह किसी कीमत पर जीतने नहीं देगी। दरअसल, यह आक्रोश पूरी तरह स्त्री जाति के शोषण के विरोध में उठा हाथ है। 'शर्तÓ में पार्वती की पढ़ाई इसलिए नहीं कराई जाती है कि उसके भावी ससुराल वाले ऐसा नहीं चाहते। लेकिन ससुराल में प्रताडि़त पार्वती अपने स्तर से शिक्षा के अर्थ को व्यापकता प्रदान करती है। अपनी मालकिन से खाना बनाना सीखकर वह ढाबा खोलती है। कहानी में शिक्षा के प्रचलित अर्थ से हटकर स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता का महत्व दिखाया गया है जबकि 'मरियमÓ यौन कुण्ठाओं से ग्रसित पात्र के अकेलेपन और उदासी की मनोवैज्ञानिक स्तर की रचनाएं है।
नासिरा शर्मा ने अपनी कहानियों के माध्यम से खान-पान तथा आचार-व्यवहार की जिन पुरानी मान्यताओं को प्रस्तुत किया है वे धार्मिक आवरण के रूप में भी अपनी जड़े जमाए रखती हैं। यह पवित्रतावाद भी तत्वाद और फएडामेंटलिज्म का ही एक रूप है, जो समाज को बांटने का कार्य करता है और मानवीयता भी तार-तार होती है। इसी संग्रह में अलग-अलग कलेवर और तेवरों के संग होते हुए भी तेरह लघुकथाओं का आत्मा कमोबेश इसी सोच की है। 'नजरियाÓ, 'खौफÓ, 'उलझनÓ और 'अभ्यासÓ को पढऩे के बाद पाठक के मन में किसी प्रकार का कोई शक-सुबहा नहीं रह जाता। संकलन की अंतिम लघुकथा 'पनाहÓ का अंश देखिए, 'अकाल, बाढ़, आंधी, तूफान और भूकंप से बचते-बचाते जब वे घर पहुंचे तो दूसरे दिन सांप्रदायिक दंगे में मार डाले गए!Ó एक पंक्ति में पूरी एक कथा। बेजोड़। साथ ही, इन कहानियों के शिल्प कौशल की बात न की करें तो ही बेहतर। कारण, शिल्प कौशल तो रचना का साधन होता है, साध्य नहीं। जब और जहां कोई लेखक शिल्प-कौशल को साध्य मानने पर उतारू हो जाता है तो रचना का ताना-बाना ढीला पडऩे लगता है। नासिरा शर्मा जीवन की मार्मिक अनुभूतियों की कथा लेखिका हैं। जहां आदमी और उसकी आदमीयत है वहां जिंदगी और उसका मर्म है। मर्म का आलेखन ही रचना को मार्मिक और जीवंत बनाता है। लेखन में सजगता और सतर्कता ही उसे सर्वप्रिय बनाती है। नासिरा शर्मा की रचनाओं का पहला ड्राफ्ट अंतिम नहीं होता। अनेक सोच-विचार, चिंतन-अनुचिंतन के बाद ही वह प्रकाशन योग्य बनता है और पाठकों के सामने आता है। इस शैली पर किसी पूर्ववर्ती और समकालीन लेखक की छाप या छाया की प्रतीति नहीं होती। उनका आत्मचिंतन ही उनके लेखन का आधार बनता है और बनता आया है। यह विशेषता उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। अपना घर, परिवार, व्यक्ति, समाज और देश जटिल समस्याओं का पुंज है। इन समस्याओं पर नासिरा शर्मा ने बड़ी बारीकी से सोचा है, विचार किया है। इन्हीं समस्याओं को आधार बनाकर कहानियों की इमारत खड़ी की गयी है। इसीलिए यह इमारत अपनी लगती है। यूं तो लेखिका के तमाम कहानी संग्रह, उपन्यास और अन्य रचनाएं हैं लेकिन बुतखाना विशेष है। इसके माकूल कारण हैं। दरअसल, इस कहानी संग्रह में लेखिका की पहली कहानी से लेकर पच्चीस वर्षों के रचना प्रक्रिया का अक्स मिलता है। बानगी है। मानवीय जीवन में क्षरित होते मूल्य और संवेदनाएं, मनुष्य की दुश्चिंताएं, अभाव, टूटन, वेदना, और जिंदगी की कड़वाहटे भी हैं। यूं कहें कि इस संग्रह में मानवीय जीवन रूपी कैनवस पर निजी अनूभूतियों के सहारे तमाम सरोकारों को उकेरने का भरसक प्रयास किया गया है।
अब तक दस कहानी संकलन, छह उपन्यास, तीन लेख-संकलन, सात पुस्तकों के फारसी से अनुवाद, 'सारिकाÓ, 'पुनश्चÓ का ईरानी क्रांति विशेषांक, 'वर्तमान साहित्यÓ के महिला लेखन अंक तथा 'क्षितिजपारÓ के नाम से राजस्थानी लेखकों की कहानियों का संपादन नासिरा शर्मा ने किया है। इनकी कहानियों पर अब तक 'वापसीÓ, 'सरजमीनÓ और 'शाल्मलीÓ के नाम से तीन टीवी सीरियल और 'मांÓ, 'तड़पÓ, 'आया बसंत सखिÓ,'काली मोहिनीÓ, 'सेमल का दरख्तÓ तथा 'बावलीÓ नामक छह फिल्मों का दूरदर्शन के लिए निर्माण भी किया जा चुका है। 2008 में उपन्यास 'कुइयांजानÓ की लेखिका को इंदु शर्मा कथा सम्मान दिया गया और साथ में यू.के. कथा सम्मान से सम्मानित किया गया। कुइयां, अर्थात वह जलस्रोत जो मनुष्य की प्यास आदिम युग से ही बुझाता आया है। आमतौर पर हिंदी के लेखकों पर आरोप लगता रहा है कि वे जीवन की कड़वी सच्चाइयों और गंभीर विषयों की अनदेखी करते रहे हैं लेकिन नासिरा शर्मा की पुस्तक 'कुइयांजानÓ इन आरोपों का जवाब देने की कोशिश के रूप में सामने आती है। पानी इस समय हमारे जीवन की एक बड़ी समस्या है और उससे बड़ी समस्या है हमारा पानी को लेकर अपने पारंपरिक ज्ञान को भूल जाना। फिर इस बीच सरकारों ने पानी को लेकर कई नए प्रयोग शुरू किए हैं जिसमें नदियों को जोडऩा प्रमुख है। बाढ़ की समस्या है और सूखे का राक्षस हर साल मुंह बाए खड़ा रहता है। इन सब समस्याओं को एक कथा में पिरोकर शायद पहली बार किसी लेखक ने गंभीर पुस्तक लिखने का प्रयास किया है। यह तकनीकी पुस्तक नहीं है, बाकायदा एक उपन्यास है लेकिन इसमें पानी और उसकी समस्या को लेकर एक गंभीर विमर्श चलता रहता है।
नासिरा शर्मा अपने समय की सर्वाधिक चर्चित और सशक्त रचनाकार हैं। उन्होंने देश-विदेश के जनमानस से विचारपूर्ण साक्षात्कार किया है। उसकी पीड़ा और दु:ख-दर्द को केवल देखा और महसूस ही नहीं किया, उस पर अपनी कलम भी चलाई है। उनकी निष्ठा संवेदनाओं के साथ है। मानव द्वारा मानव को दी गई पीड़ा की बर्बरता के खिलाफ आवाज उठायी है। यह आवाज किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं है। जहां अवसाद है, उत्पीड़पन है, प्रताडऩा है वहां आप नासिरा शर्मा को खड़ी पायेंगे। इतना ही नहीं, उनकी लेखनी दर्द और समस्या को अपने लेखन में रूप दे रही होगी। वे प्रकृत्या एक दबंग और सहिष्णु महिला हैं जो जाति और मजहब के कठघरे से बाहर निकल आयी हैं। साहित्य उनका जीवन है, रचना उनकी सांस है।
नासिरा शर्मा अपनी किसी रचना को मील का पत्थर नहीं मानती। उनके अनुसार, 'मैं सोच नहीं सकती क्योंकि मैंने कुछ ज्यादा नहीं लिखा है।Ó वह कहती हैं, 'देखिए, अभी तक जो लिखा है उससे मैं मुतमईन तो हुई हूं पर यह नहीं कहूंगी कि यहीं अंत नहीं है। मैं नये तरीके से लिखना चाहती हूं, जिसमें नये अनुभव हों और नयी बातें हों। अक्सर कुछ चीजें मुझे परेशान करती हैं कि ये रोने वाली कहानियां कब तक लिखी जायेंगी? ठीक है किसी ने कहा है कि हमारे दु:ख के गीत हैं वे बड़े मीठे गीत हैं। मैं सोचती हूं, जो मेरा समाज है वह एक अजीब तरह से करवट ले रहा है। अब मुझे किरदार उठाने में थोड़ी गहरी नजरों से देखना पड़ेगा, या मेरा अपना सिटी है इलाहाबाद, वहां की जिंदगी हो। जैसे जो गुंडे हैं वे किन हालात में ऐसा करने पर मजबूर हुए उनको बाहर उठाने में मैं कुछ कर सकूं।Ó
जिंदगी फूलों की नरम और खुशबूदार सेज नहीं है। हालांकि, ऐसा हो नहीं पाता पर आदमी को, मानव मात्र को दूसरों की करुण कथाएं सुनने का अवकाश निकालना चाहिए। लेखक का काम केवल इतना ही नहीं है कि वह यथार्थ का हृदय-विदारक चित्रण करे बल्कि उसे ऐसा परिवेश रचना चाहिए जिससे किसी भी आहत को देखकर उससे मिलकर आंखें नम हो सकें। यही परस्परावलंब की भावना ही साहित्य के उद्देश्य को पूरा करती है।
नासिरा शर्मा की रचनाओं में एक ओर तो इन्द्रधनुषी रंगत है, दूसरी ओर पाठकों के मन को अपनी ओर खींचने की ऊर्जा है। उनके लेखन में शब्दों का अपव्यय नहीं होता। वाक्यों की बनावट और बुनावट उनकी अपनी है। वह उर्दू की आवश्यक शब्दावली से संवलित है। शब्द प्रयोगों की चातुरी से उनकी भाषा जानदार और धारदार बन गयी है। यह विशिष्टता उन्हें अपने समकालीनों से एकान्तत: अलग करती है। रवींद्र्रनाथ टैगोर ने कहा था कि शब्दों के एक नहीं अनेक 'शेड्सÓ होते हैं। लेखक को उन 'शेड्सÓ की सही पहचान होनी चाहिए। यकीनी तौर पर नासिरा शर्मा इस सच से सौ फीसदी बावस्ता रखती हैं।

1 टिप्पणी:

करण समस्तीपुरी ने कहा…

बहुत सुन्दर आलेख. कथा, कथा इतिहास, कथा-क्रम की बारीकियां और अनेक उपयोगी उद्धरण...... सच मे एक अद्वितीय अनुभव रहा. धन्यवाद !!