हवा दो
उन गोलों को
जो धधकना चाहते हैं
मत रोको उन्हें
जो राख करना चाहते हैं
समाज विकृतियों को
राष्टï्र की विदू्रपताओं को
मत सींचों पानी
उन अंगारों पर
जो लहकना चाहते हैं
उड़ेलना चाहते हैं आग
सियासी शतंरजबाजों के मंसूबों पर
जो अपने निर्माताओं को
मोहरा से अधिक
कुछ भी नहीं समझते
पर्दाफाश
मत करो उनका
जो दिल जोडऩे की
साजिश कर रहे हैं
घृणित है
जो बेनकाब हैं
बे-आबरू हैं
अश्लील इतने की
शब्द की पकड़ से बाहर
जो पर्दें में है
कुछ तो सकुमन देते हैं
बढऩे दो
इन नाखूनों को
जो भविष्य की तलवार हैं
सोचो सिर्फ इतना
जाति और धर्म के व्यूह को
कैसे तोड़ पाओगे
राष्टï्र की जड़ता पर
कहाँ करोगे पहला चोट
मत काटो
इन नाखूनों को
इनमें भविष्य की
आाशाएं बँधी हैं।
रविवार, 2 जनवरी 2011
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