रविवार, 2 जनवरी 2011

भविष्य की आशा

हवा दो
उन गोलों को
जो धधकना चाहते हैं
मत रोको उन्हें
जो राख करना चाहते हैं
समाज विकृतियों को
राष्टï्र की विदू्रपताओं को
मत सींचों पानी
उन अंगारों पर
जो लहकना चाहते हैं

उड़ेलना चाहते हैं आग
सियासी शतंरजबाजों के मंसूबों पर
जो अपने निर्माताओं को
मोहरा से अधिक
कुछ भी नहीं समझते
पर्दाफाश
मत करो उनका
जो दिल जोडऩे की
साजिश कर रहे हैं
घृणित है
जो बेनकाब हैं
बे-आबरू हैं
अश्लील इतने की
शब्द की पकड़ से बाहर
जो पर्दें में है
कुछ तो सकुमन देते हैं
बढऩे दो
इन नाखूनों को
जो भविष्य की तलवार हैं
सोचो सिर्फ इतना
जाति और धर्म के व्यूह को
कैसे तोड़ पाओगे
राष्टï्र की जड़ता पर
कहाँ करोगे पहला चोट
मत काटो
इन नाखूनों को
इनमें भविष्य की
आाशाएं बँधी हैं।

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