गुरुवार, 19 अगस्त 2010

अपनों ने दगा दी

एक पुराना गीत है, 'दुश्मन न करे दोस्त ने जो काम किया है, जिंदगी ार का गम ईनाम दिया है... कुछ इसी तरह आज ाारतीय सेना के कुछ जांबाज गुनगुनाने को विवश हैं। कारगिल युद्ध में देश का झंडा बुलंद किया था, लेकिन जब उनके महिमा की व्याख्या की जा रही थी तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया। कारगिल युद्ध के दौरान जब देश के वीर जवान अपनी जान की परवाह किए बिनाा दुश्मन से लोहा ले रहे थे, उसी समय एक जंग और खेली जा रही थी। इस बार वार करने वाले हाथ अपने ही थे। देश के उन वीर जवानों ने यह सोचा भी न होगा कि उनके अपने सीनियर अफसर उनके साथ दगाबाजी कर देंगे। एक खबर के अनुसार सीनियर अफसरों ने अपने जूनियर अफसरों की बहादुरी का सच सिर्फ इसलिए छिपा दिया कि कहीं वे उनसे आगे न निकल जाएं। बात भले ही सास-बहू के किसी नाटक सरीखी लगे, लेकिन हकीकत में यह भारतीय सेना का ही घिनौना चेहरा है। यह किसी हैरत से कम नहीं कि हिमायल की चोटियों पर जब जवान अपनी जान की बाजी लगा रहे थे, उस समय सेना के कुछ वरिष्ठ अफसरों ने अपने जूनियर अफसरों की बहादुरी को सिर्फ इसलिए छिपाया ताकि उन्हें बहादुरी के लिए मेडल और तरक्की न मिल सके। 'प्रथम इम्पैक्टÓ के पास मौजूद दस्तावेज तो यही बयां करते हैं। ऐसा ही आरोप सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दूसरे अधिकारी और एक पुस्तक के लेखक पर लगाया। प्रथम दृष्टïया में इसे ट्रिब्यूनल ने भी सही माना और आदेश दिया कि इस इतिहास को फिर से लिखा जाए, लेकिन भारत सरकार ने फिलहाल इसे मना कर दिया है।
दरअसल, 1999 में पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध की कहानी में सेना के अफसरों ने छेड़छाड़ की थी। आम्र्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने इस मामले में एक पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल को दोषी पाया है। सेना के इस अधिकारी ने अपने जूनियर ब्रिगेडियर रैंक के एक अधिकारी की उपलब्धियों को कम करके दिखाया था। ट्रिब्यूनल ने रिटायर्ड ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह को प्रतीकात्मक प्रमोशन देने और कारगिल वॉर के इतिहास को फिर से लिखने को कहा है, लेकिन यह सिर्फ सिंह की कहानी नहीं है। इसी तरह की कई याचिकाएं ट्रिब्यूनल में पेंडिंग पड़ी हैं।
यह मामला तब सामने आया जब कारगिल वॉर में 70 इन्फेंट्री ब्रिगेड का नेतृत्व करने वाले ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर उनके प्रदर्शन को कम करने का दिखाने का आरोप लगाया था। रक्षामंत्री ए.के. एंटनी ने जब आम्र्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल का गठन किया तो यह मामला हाईकोर्ट से ट्रिब्यूनल भेज दिया गया था। तब 15 कॉर्प के जनरल ऑफिसर कमांडिंग (जीओसी) लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल की रिपोर्ट से सिंह न केवल वॉर मेडल पाने से वंचित रह गए थे, बल्कि उनका प्रमोशन भी रुक गया था। ट्रिब्यूनल ने इस मामले में किशन पाल को दोषी पाते हुए सिंह मेजर जनरल का प्रतीकात्मक प्रमोशन देने और बटालिक सेक्टर में उनके प्रदर्शन को पूरे रेकॉर्ड्स के साथ सही तरह से दर्शाने का निर्देश दिया है।
ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह ने बटालिक सेक्टर से सबसे पहली बार पाकिस्तानी घुसपैठ होने की आशंका व्यक्त की थी लेकिन कथित रूप से लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने उनको अनदेखा कर दिया। करगिल युद्ध के बाद कुछ समय तक ब्रिगेडियर सिंह की बहादुरी के किस्से सुनाए जाते रहे, सेना ने भी अधिकृत रूप से उनकी तारीफ की, लेकिन बाद में लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने जो रिपोर्ट लिखी, उसमें ब्रिगेडियर सिंह की उपलब्धियों को छोटा करके बताया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनका नाम महावीर चक्र के लिए भेजा गया था, लेकिन उन्हें मिला सिर्फ विशिष्ट सेवा मेडल। इसके अलावा मेजर जनरल के रूप में उनका प्रमोशन भी नहीं हो सका था। अपने फैसले में जस्टिस ए.के. माथुर और लेफ्टिनेंट जनरल नायडू ने कहा है कि लेफ्टिनेंट जनरल पाल की रिपोर्ट पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ट्रिब्यूनल में अपने ऑर्डर में लिखा है कि सालाना गोपनीय रिपोर्ट भी लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने भेदभाव पूर्ण लिखी थी।
बताया जाता है कि ब्रिगेडियर सिंह ने युद्ध के एक साल के भीतर अपनी शिकायत दर्ज करवा ली थी, मगर पाल उसके साथियों ने दस साल तक यह फाइल दबा कर रखी। वह तो रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सेना के सारे विवाद सेना के भीतर ही निपटाने के लिए आम्र्ड फोर्स ट्रिब्यूनल का गठन कर दिया और वहां से सच का खुलासा हुआ। ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि कारगिल युद्ध में बहादुरी दिखाने वाले तीन और अधिकारियों के साथ अन्याय हुआ है। ब्रिगेडियर सुरेंदर सिंह ने ही सबसे पहले घुसपैठ की जानकारी दी थी और उस समय वे कारगिल में 121 बिग्रेड के कमांडर थे। उन्होंने भी शिकायत की थी कि उनकी चेतावनी को नजरअंदाज किया गया और इससे सेना को भारी नुकसान हुआ। इस सही शिकायत से नाराज होकर ब्रिगेडियर सुरेंदर सिंह को तो नौकरी से ही निकाल दिया गया। कारगिल युद्ध के ग्यारह साल बाद अब एक एक बात सामने निकल कर आ रही है कि कैसे घुसपैठ की रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया गया और उसके बाद सेना की रणनीति गलत तरीके से बनाई गई। लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने इस रिपोर्ट को दबा कर तब तक रखा जब तक वास्तव में हमला नहीं हो गया। और तो और लेफ्टिनेंट जनरल पाल की नीयत इतनी खराब थी कि उन्होंने ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह को मेजर जनरल पद पर पदोन्नत होने से रोक दिया। ब्रिगेडियर अब एक निजी विमान सेवा में काम करते हैं और पाल भी रिटायर हो चुके हैं।
गौरतलब है कि कारगिल युद्ध जब पूरे चरम पर था तो तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडीज ने 48 घंटे में जीत का दावा किया था, मगर यह लड़ाई 80 दिन चली और भारत के कुल 55 अधिकारी और सैनिक मारे गए। उस समय लेफ्टिनेट जरनल निर्मल चंद्र विज, जो बाद में सेनाध्यक्ष बने और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अध्यक्ष के तौर पर कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल किए हुए हैं, डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस थे। अब कम लोगों को याद है कि सेना अधिकारी के नाते जनरल विज भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की एक बैठक में भाजपा मुख्यालय में जाकर सीमा की हालात की जानकारी देने गए थे, जो एक अक्षम्य अपराध है।
गौरतलब है कि प्राधिकरण की रिपोर्ट में कहा गया है कि कारगिल का इतिहास लिखने वाले लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने दूसरे लेफ्टिनेट जरनल एच एम खन्ना को वरिष्ठ समीक्षा अधिकारी बनाया था और रिकॉर्ड में हेरा-फेरी की थी। जिस समय घुसपैठ चल रही थी, उस समय एक युद्ध अभ्यास किया गया था। उसमें ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह दुश्मन सेना के कमांडर बने थे और इस अभ्यास के बाद उन्होंने बटालिक कारगिल, द्रास और मश्कोह सेक्टरों मे घुसपैठ के तौर तरीकों की जानकारी दी थी। उन्होंने यह भी बताया था कि इन घुसपैठियों में 600 पाकिस्तानी सैनिक भी होंगे। उस समय भी लेफ्टिनेंट जनरल पाल ने इस रिपोर्ट को मजाक बताया था, जबकि जुब्बार और खुलबार पहाड़ों के पास से दुश्मनों के हथियार भी बरामद हो चुके थे। संभवत: जनरल पाल के इसी झूठे भुलावे में जॉर्ज फर्नांडीज ने 48 घंटे में जीत की घोषणा कर दी थी। इन्फेंट्री डीवीजन-3, 15 कोर के ब्रिगेडियर अशोक दुग्गल खुलबार इलाके में तैनात थे और उन्होंने भी इस जानकारी की पुष्टि की थी, मगर मेजर जनरल वीएस बदवार ने रिपोर्ट को गलत बताया था। बाद में भी ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह का नाम महावीर चक्र के लिए भेजा गया लेकिन जनरल पाल ने एक झूठी समीक्षा रिपोर्ट लिख कर उन्हें मामूली विशिष्ट मैडल ही मिलने दिया।
सेना ने कारगिल की लड़ाई के अपने पुराने इतिहास पर कायम रहते हुए फैसला किया है कि वह अवकाश प्राप्त ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह के मामले में सुनाए गए निर्णय पर सैन्य न्यायाधिकरण में पुनरीक्षण याचिका दायर करेगी। सेना का साफ कहना है कि उसने कारगिल की लड़ाई के इतिहास से कोई छेड़छाड़ नहीं की है। सेना की कानूनी एजूटेंट ब्रांच ने सोच विचार कर तय किया है कि सैन्य न्यायाधिकरण के उस फैसले के खिलाफ पुनरीक्षण याचिका दायर की जाए जिसमें ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह के मामले को सही पाते हुए यह आभास दिया गया था कि सेना ने रिकॉर्ड में हेराफेरी की और ब्रिगेडियर सिंह को पदोन्नति से वंचित किया। सेना इस बात का भी खंडन कर रही है कि ब्रिगेडियर सिंह के नाम की सिफारिश महावीर चक्र के लिए की गई थी। सूत्रों के अनुसार सेना न्यायाधिकरण के सामने कारगिल की लड़ाई का गोपनीय इतिहास पेश करेगी, जिससे एक मेजर जनरल की टिप्पणियों की विसंगतियां जाहिर होती हैं।
यह सही है कि किताब पर आपत्ति एक अधिकारी ने की है, लेकिन दर्जनों ऐसे कारगिल शहीद के परिवार है, जिन्हें अन्यान्य तरीकों से उपेक्षित किया गया है। किसी को उसके हक की पेंशन नहीं दी जा रही है तो किसी को आवंटित पेट्रोल पंप तक नहीं मिला। ऐसे में वह परिवार आज भी सरकार की ओर टकटकी लगाए बैठा है। हल्द्वानी जिले के कालाढुंगी चकलुवा के राम सिंह धड़ा निवासी सिपाही मोहन चंद्र जोशी 19 वर्ष की आयु में मात्र सवा साल की सेवा में ही ऑपरेशन विजय का हिस्सा बने। कुमाऊं रेजिमेंट की फस्र्ट नागा यूनिट का गौरव बने मोहन ने 10 से 20 जून 1999 तक द्रास सेक्टर में पाक सेना को धूल चटाई। इस दौरान वह शहीद हो गए। उनके माता-पिता का वर्ष 1996 में ही निधन हो गया था। चार भाइयों में से दूसरे नंबर के मोहन थे। उनके बड़े भाई गणेश दत्त जोशी कहते हैं कि मोहन के बलिदान पर हमें ही नहीं, पूरे देश को गर्व है। शहीद मोहन के परिजनों को हालांकि, आठ कमरों के दो पक्के मकान और काशीपुर में एक पेट्रोल पंप समेत 10 लाख रुपये की धनराशि मिल गई है, मगर मोहन के छोटे भाई योगेश का कहना है कि सरकार की ओर से एक मृतक आश्रित को नौकरी देने की बात भी कही गई थी, लेकिन सैनिक कल्याण बोर्ड और संबंधित विभागों के कई चक्कर लगाने के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगा।
सरोवर नगरी नैनीताल के होनहार सैन्य अधिकारी मेजर राजेश अधिकारी भी कारगिल की लड़ाई में शहीद हो गए थे। 1965 में जन्मे राजेश के पिता का जल्दी निधन हो गया। माता मालती अधिकारी के संघष भरे लालन-पालन के बाद राजेश को सेना में कमीशन मिल गया। अदम्य कौशल के लिए राजेश को 1996 में महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 1999 में उन्हें कारगिल युद्ध में भेजा गया, जहां पाक फौज से लड़ते हुए वह 29 मई 1999 को वीरगति को प्राप्त हो गए। इधर, उत्तराखंड राज्य गठन के बाद उनकी बूढ़ी मां मालती अधिकारी राजेश स्मृति स्मारक के लिए राजनेताओं तथा शासन प्रशासन के अधिकारियों के आगे चक्कर काटती रहीं, पर आज तक स्मारक का निर्माण नहीं हो सका। काफी जद्दोजहद के बाद इस वर्ष नैनीताल स्थित जीआईसी का नामकरण कारगिल शहीद मेजर राजेश अधिकारी के नाम पर किया गया। उनकी बूढ़ी मां मालती अधिकारी को अभी भी जांबाज सैन्य अधिकारी शहीद राजेश की स्मृति में शहीद स्मारक बनने का इंतजार है। पिथौरागढ़ जिले के लामागड़ गांव में 1981 में जन्मे जीवन खोलिया चार भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। कुमाऊं रेजीमेंट के इस सिपाही ने 11 जनवरी 2001 में मात्र 23 वर्ष की आयु में कारगिल युद्ध के दौरान सियाचिन ग्लेशियर में पाकिस्तानियों से लोहा लेते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। शहीद जीवन खोलिया के परिजन आज भी शासन-प्रशासन और नेताओं के वादाखिलाफी से आहत हैं। और तो और, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में प्रशासनिक उपेक्षा के चलते कारगिल शहीद इश्तियाक खां के परिवार वाले भूखों मरने को विवश थे। पिछले वर्ष इस शहीद की मां तहरनिशा को 2,500 रुपये माहवार मिलने वाली पेंशन प्रशासनिक लापरवाही की वजह से पिछले सात महीने तक नहीं मिली। आय का एकमात्र साधन पेंशन नहीं मिलने से शहीद की मां और छोटा भाई जुनैद खां गांव के लोगों से भीख मांग कर अपना पेट भर रहे थे। जब काफी हो-हल्ला हुआ तो कुछ माह का पेंशन दिया गया था। दरअसल, ऐसे एक नहीं ढेरो मामले हैं।

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