हमेशा यह कर्त दिया जाता है कि हर सफल पुरूष के पीछे किसी न किसी महिला का हाथ होता है। सही है। लेकिन शायद मैं अपने आपको भाग्यवान समझता हूं कि मुझे एक नहीं पांच महिलाओं का साथ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं सफल हूं। सफलता के कई परिभाषाएं हैं। लेकिन मैं मेरा जिस पेशे से सरोकारा है, उसमें खूब से खूबत्तर की तलाश में सरगर्दा रहना निहायत जरूरी है।
भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि यदि पांच कन्न्याओं का प्रात: स्मरण किया जाए तो आपके सभी पापकर्म नष्टï हो जाते हैं। ये हैं - अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती और द्रौपदी। गाहे-बेगाहे मैं भी इनका स्मरण करता हंू। साथ में गंगा स्नान भी। आखिर, मोबाइल झूठ बोलने का प्रैक्टिस जो कराता रहता है।
खैर, मैं जिक्र कर रहा था, उन महिलाओं का जिन्होंने मुझे प्रभावित किया। मेरे सोच और मेरे कर्म को बदलने का कार्य किया। अपने सुभिता के लिए कोई भी नाम रख लिया जाए। वास्तविक नाम देना मुझे सहज नहीं लगता, कारण किसकी सोच कैसी होगी, कहना मुश्किल है। केवल समय और प्रसंग की सही लग रहा है। यहां यह बताता चलंू कि इसमें एक को छोड़कर कोई भी मेरे खून के संबंधी नहीं है, लेकिन यकीन मानिए जब संबंध संवेदनाओं और आत्मीयता के आधार पर बनते हैं तो वह खून पर भी भारी पड़ता है। कुछ ऐसा ही हाल आज की तारीख में मेरा है।
वर्ष 1994-95 का समय। जब मैं मैट्रिक कर रहा था। किशोरावस्था में था और यौवनावस्था आने को आतुर थी। शारीरिक बदलाव के साथ मानसिक स्तर पर काफी हलचलें तेज हो जाती हैं, इस समय। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण सहज गुण-धर्म जान पड़ता है। सोलहवें साल को यूं ही कवि-लेखकों ने अलमस्त नहीं कहा, यह अब जान पा रहा हूं। उस समय तो बस, बह जाने का मन करता था। उसी दरम्यान, एक महिला का आगमन होता है। धीरे-धीरे मैं उनकी ओर झुकता चला गया। शायद वह भी मेरी ओर। दोनों के बीच कोई भी ऐसी बात नहीं होती, जो हम-दोनों को पता नहीं चले। वह पहले के स्वभाविक संबंध, मसलन, माँ, बहन, भाभी आदि पर भारी पड़ती गईं। कई बार गिरने की स्थिति आई, लेकिन हर बार वह आगे बढ़कर संभाल ली। बैठकर समझाती। उससे बातें करना अच्छा लगता। स्थिति ऐसी कि मैं उसकी कोई बात काट नहीं सकता। मैं जिसे किशोरावस्था का प्यार समझने का भूल कर रहा था, वह वास्तव में महज आकर्षण था। बड़े सलीके से उसने यह बात समझाई। यह आज समझ पा रहा हूं।
इसके बाद दूसरी आती हैं। जब मैं इन्टर पास करने को था। यानी परीक्षा समाप्त हो चुके थे और रिजल्ट का इंताजार था। यौवनावस्था का खुमार अपने पूरे शबाब पर था। हालांकि, सामने वाली विजातीय और शादीशुदा थी। फिर भी उनके मोहपाश में बंधने से खुद को रोक नहीं पाया। और न ही मन को कभी दुत्कारा कि, ऐ भाई, जरा संभल कर। सोच लें, फिर आगे बढ़। भला उस समय यह भान ही कहां रहता है। चूंकि, वह शादीशुदा थी इसलिए उनसे मेल-जोल, बातचीत करने से किसी को कोई शंका नहीं हेाती। हममें बातें ख्ूाब होती। कभी सबके सामने तो कभी अकेले में। मैं उनपर लटटू था, तो वह भी मेरे अस्तित्व का इनकार करने की स्थिति में नहीं थी। लेकिन, वह थी समझदार। मुझसे अधिक। कई बार जब हदें पार करने की स्थिति बनती, तो वह टोकती। लोकलाज में ठीक नहीं है। मेरे अपने कुतर्क होते और उनके अपने तर्क। कई बार मैं शब्दों की राजनीति करने में सफल होकर इठलाता तो कई बार उनके तर्क के समाने बेबस। लेकिन, उनका साथ जितना रहा, बेहतरीन रहा। आज भी।
इसके बाद आ गया दिल्ली। जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां संवेदना नहीं है। शुरूआत में लगा। लेकिन अब ये बात नहीं कह सकता। क्योंकि आगे जिन तीन महिलाओं का साथ मिला, वह तो दिल्ली में ही न... और आधार बना संवेदना। तो फिर संवेदनहीनता की बात करनी बेमानी है।
दिल्ली में मेरी दूसरी नौकरी थी। क्षेत्र वही था, लेकिन संस्थान दूसरा। मैं पहले से उस संस्थान में था। बाद में उनका आना हुआ। शुरूआत में बातें न के बराबर होती। लेकिन बीतते समय के संग बातें खूब होने लगी। कार्यालय में, कार्यालय से बाहर और कई बार तो बस स्टॉप पर बैठकर घंटो। हर बस और लोग को आते-जाते देखता और अगले ही पल अपने में मशगूल। कभी-कभार उनके घर भी जाना होता। हालांकि, वह पेंइंग गेस्ट थी, बावजूद इसके नाश्ता-चाय में कोई दिक्कत नहीं होती। साथ तो था ही। पहली बार लगा कि प्रेम हो गया है। आखिर, दिल्ली तो बच्चा ही जी। काश... उस समय यह गीत कानों में सुनाई पड़ती। दूसरे के सहारे शायद हमलोग अपने प्रेम की बातें करते। न चाहते हुए भी रकीब था। ईष्र्या स्वभाविक है। इससे इनकार नहीं कर सकता। जब वह ऑफिस में मेरे बगल की कुर्सी पर बैठकर कार्य करती तो उनके अंगुली की हल्की सी जुबिंश मुझे अंदर तक झकझोर देती। जब वह खुले बालों के संग आती, तो कयामत लगती। शुरू में वह जींस पहनती, लेकिन मेरे पसंद जानने के बाद उसने उसके बाद कभी मेरे सामने जींस-टॉप पहना हो, मुझे याद नहीं। यही तो होता है, प्यार। जब हम एक-दूसरे के सोच का सम्मान देते हैं। सोच एक थे, लेकिन हम एक न हो सके। मन को कसक आज भी है। वह तो तैयार हो जाती। मैंने ही पहल नहीं की। साहस नहीं हुआ। प्रेम तो साहस मानता है। मैं जिस पारिवारिक पृष्ठभूमि से हूं, वहां विजातीय विवाह करना अपराध माना जाता है और इसी अपराध बोध से आज तक ग्रसित हूं। उनकी शादी हो गई। निमंत्रण भी आया। लेकिन स्वगत भावनाओं ने जाने की इजाजत नहीं दी। शादी हो गईं। उसके बाद मुलाकात हुई। वह खुश लगीं। और क्या चाहिए। प्रेम लेने का नहीं, देने का नाम है। यह आज जान पाया। जब उनसे फोन पर बातें होती हैं।
समय बदलता गया। जिस संस्थान में हमदोनों थे, उनके नहीं होने के बाद मैंने भी वह संस्थान छोड़ दिया। एक वर्ष बाद इंटरनेट की लत लगती चली गईं। शायद यह मेरी कर्मगत मजबूरी भी है। इंटरनेट पर चैटिंग, अंजानों से करना, अच्छा लगता गया। इसी दौरान एक अनजान मिली। इंटरनेट पर बातें अच्छी करती। हालंाकि, 'चुप्पÓ कहने का उन्हें शौक है। बात-बात में चुप्प। होगा उनका स्टाईल। एक दिन अपने मित्र से मिलने गया, हालंाक वह उनका भी कार्यालय था। दोस्तों से बात हुई तो उनका जिक्र किया। सामने खड़ी, वह बोली मैं हूं। लेकिन ये क्या? जिससे मैं अच्छी बातें करता था, वह इन कपड़ों में। जो मुझे पसंद नहीं थी। लेकिन भला मेरा क्या वश? उनकी जिंदगी, उनका शौक, उनका स्टाइल। मेरा दखल देना, सही नहीं था। किसी भी दृष्टिïकोण सो। उस मुलाकात के बाद मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान हुआ। अब नेट के अलावे सेल पे भी बातें होती गईं। इसी बीच उनका कुछ आ गया। किसी को मैंने उनके लिए बोला, उसने पूछा कौन है? तुम्हारे प्रदेश की तो नहीं है? क्या शादीशुदा है?
मैंने तुरंत जबाव दिया, मेरी बड़ी बहन है। धर्म बहन। सामने वाला चुप। उनका काम हो गया। इसके बाद मैंने बातों-बातों में ही उनसे पूछा, क्या आप शादीशुदा हैं, तो उन्होंने कुछ दिन बाद अपने पति परमेश्वर से मिलाया। आज उनके साथ मधुर संबंध हैं। कारण, वह घर बुलाकर मेरे पसंद की चीज जो खिलाती हैं। अब, भाई-बहन का रिश्ता जो ठहरा। सबसे मधुर और प्रगाढ़ रिश्ता। बिना किसी राग-लपेट के।
अब, पांचवीं। जिसने मेरे हर सोच को बदलकर रख दिया। उनके समुदाय के प्रति और समाज के प्रति। देखने का बिलकुल अलग नजरिया। प्रोफेशन में हैं, लेकिन है इमोशनल। एक दिन यूं ही अपने वर्तमान ऑफिस मैं बैठा था, मोबाइल बजा। एक पुराने मित्र ने एक महिला की झंकृत स्वर लहरी से सामना कराया। आवाज कानों को इतनी प्यारी लगी कि नाम पूछना ही भूल गया। केवल उसने अपने ईमेल दिया, वही याद रहा। ईमेल के माध्यम से उनका नाम जाना। बातें होती गईं। बातें अच्छी करती। विशेषकर मनोवैज्ञानिक। जबकि उसने कभी मनोविज्ञान को पाठ्यक्रम में पढ़ा नहीं। पढ़ाई कि पूरे 'पैसे की भाषा मेंÓ यानी इकॉनॉमिक्स और फोरेन ट्रेड में। लेकिन है मनोवैज्ञानिक। वह जिस समुदाय से आती है, उसके बारे में कहा जाता है कि वे केवल स्वार्थ की बात करना जानते हैं, मतलब निकल जाने के बाद पहचानते नहीं है। लेकिन यह लड़की बिलकुल उलट है। संबंधों के निर्वहन में विश्वास करती है। दिल्ली में रहते हुए 'गिव एण्ड टेकÓ रिलेशन में विश्वास नहीं करती। संवेदना के आधार पर बने संबंधों को विशेष अहमियत देती है। इसी संवेदना ने कई बार उसका जीना भी मुहाल किया है। कुछ पल के लिए वह हिली जरूर है। लेकिन आज भी अपने कर्मपथ पर निर्बांध गति से आगे बढ़ रही है। दिल्ली में पली-बढ़ी , वह जब भी मिली तो सलीके के लिबास में। मैं तो उसके हर सोच का कायल हूं। जब भी मानसिक अंर्तद्वंद की स्थिति आती है तो उससे पूछ बैठता हूं, उसका जबाव सुकून देता है।
अब, पांचवीं। जिसने मेरे हर सोच को बदलकर रख दिया। उनके समुदाय के प्रति और समाज के प्रति। देखने का बिलकुल अलग नजरिया। प्रोफेशन में हैं, लेकिन है इमोशनल। एक दिन यूं ही अपने वर्तमान ऑफिस मैं बैठा था, मोबाइल बजा। एक पुराने मित्र ने एक महिला की झंकृत स्वर लहरी से सामना कराया। आवाज कानों को इतनी प्यारी लगी कि नाम पूछना ही भूल गया। केवल उसने अपने ईमेल दिया, वही याद रहा। ईमेल के माध्यम से उनका नाम जाना। बातें होती गईं। बातें अच्छी करती। विशेषकर मनोवैज्ञानिक। जबकि उसने कभी मनोविज्ञान को पाठ्यक्रम में पढ़ा नहीं। पढ़ाई कि पूरे 'पैसे की भाषा मेंÓ यानी इकॉनॉमिक्स और फोरेन ट्रेड में। लेकिन है मनोवैज्ञानिक। वह जिस समुदाय से आती है, उसके बारे में कहा जाता है कि वे केवल स्वार्थ की बात करना जानते हैं, मतलब निकल जाने के बाद पहचानते नहीं है। लेकिन यह लड़की बिलकुल उलट है। संबंधों के निर्वहन में विश्वास करती है। दिल्ली में रहते हुए 'गिव एण्ड टेकÓ रिलेशन में विश्वास नहीं करती। संवेदना के आधार पर बने संबंधों को विशेष अहमियत देती है। इसी संवेदना ने कई बार उसका जीना भी मुहाल किया है। कुछ पल के लिए वह हिली जरूर है। लेकिन आज भी अपने कर्मपथ पर निर्बांध गति से आगे बढ़ रही है। दिल्ली में पली-बढ़ी , वह जब भी मिली तो सलीके के लिबास में। मैं तो उसके हर सोच का कायल हूं। जब भी मानसिक अंर्तद्वंद की स्थिति आती है तो उससे पूछ बैठता हूं, उसका जबाव सुकून देता है।
इससे मिलकर ही लगता है कि प्रेम जब भी करें संवदेना के आधार पर। प्रेम का अर्थ काम नहीं है। संबंध को व्यापक बनाएं। तुच्छ नहीं। कुछ संबंधों को बिना नाम दिए भी आप अपनत्व का अनुभव कर सकते हैं।
2 टिप्पणियां:
jo bhi sach aur suljha hua hai badhai.
aapka blog pdha kafi achcha lga. aap bahut emotional prani hain. paanch mahilaon ka dakhal lekin mujhe to lagta hai aap ka dakhal paanch mahilaon mein. lagta hai aapko maa bahan ka pyar nahi mila, isliye shuru se mahilaon ke prati aapka jhukav kuchh jyada hai... aapki saflata mein in mahilaon ka hi haath hoga... nichay hi aap bahut safal prani honge... kash mere bhi life mein paanch paanch purushon ka dakhal hota... kya main aapke jeevan mein dakhal de saktiin hoon?
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