शनिवार, 15 मई 2010

जाति पूछो हर इंसान की

सदियों से कहा जाता रहा है, 'जाति न पूछो साधु कीÓ लेकिन आज के राजनेता हर आम-ओ-खास का जाति पूछने की जिद पर अड़े हैं और सरकार यह कार्य कर रही है। लोकसभा में जाति आधारित जनगणना पर अधिकांश दलों को एकमत देखकर केंद्र सरकार इसके लिए तैयार हो गई है। भारत सरकार ने जातीय आधार पर जनगणना करने का निर्णय किया है, वह बुद्घिजीवियों की रायशुमारी में दुर्भाग्यपूर्ण हैं। कारण स्पष्टï हैं, जातिगत समीकरण को इष्टï मानने वाले नेताओं को यह सुविधा हो जाए कि उनके जातियों की संख्या अमुक चुनाव क्षेत्र में कितनी है। अक्सर हम बात करते है की जातिवाद का अंत होना चाहिए...जाति प्रथा समाज के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है...फिर देखने को मिलता है जाति के आधार पर आरक्षण । क्या ये जाति प्रथा को बढावा नही देती ? हमारे नेता वोट बैंक बनाने के लिए जाति को आधार बनाकर कई तरह का खेल हमारे साथ खेलते हैं.....
जाति को जनगणना में शामिल करने के पक्ष में यह भी तर्क है कि जिन पिछड़ी जातियों के उत्थान पर हर साल हजारों करोड़ रूपए खर्च किए जाते हैं, उसका सही आकलन भी जरूरी है। मंडल कमीशन के अनुसार पिछड़ी जातियों यानी ओबीसी की आबादी देश की कुल आबादी का 52 फीसदी है। लेकिन हाल में कराए गए सरकारी सर्वे के आंकड़े इससे अलग हैं। नेशनल सेंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक देश की कुल आबादी में ओबीसी का हिस्सा 35 फीसदी है। केन्द्र के ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाल के सर्वे के मुताबिक भी गांवों में ओबीसी की आबादी 38.5 फीसदी है। सबसे ज्यादा 54 फीसदी ओबीसी तमिलनाडु में हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में ओबीसी की संख्या 52 फीसदी और बिहार में महज 37 फीसदी है। यह आंकड़ा गांवों का है। इसमें शहरी आबादी को अगर जोड़ दिया जाए तो कुल आबादी में ओबीसी का अनुपात और थोड़ा कम होगा। सवाल है कि इन आंकड़ों में से किस पर भरोसा करें- मंडल कमीशन पर जिसने 1931 की जनगणना को आधार बनाकर 52 फीसदी आंकड़ा बताया था या फिर नेशनल सेंपल सर्वे या ग्रामीण विकास मंत्रालय पर।
दरअसल, जिन कल्याणकारी योजनाओं को लछित करके ये सारी कवायद की जा रही हैं उन्हें पहले से ही संविधान में उल्लेखित किया जा चुका हैं। काबिलेगौर है कि नरेगा जो अब मनरेगा हो चूका हैं उसके क्रियान्वयन की जाच करा ली जाये। इसमें समाज के सबसे निचले तबके को जाति धर्म से ऊपर उठ कर रोजगार उपलब्ध करने की व्यवस्था हैं, क्या सिर्फ आकड़ो का खेल नहीं हो रहा हैं। जितनी संख्या में रोजगार मांगने वालो को उनके घर के समीप उपलब्ध होने चाहिए थे उतना मिल पा रहा हैं। आखिरकार ये राजनेता क्या चाहते हैं, देश को जाति पातीमें बाटकर मानसिक रूप से गुलाम बनाये रखा जाये। राष्ट्रीयता की भावना का क्या होगा। आतंकवाद से , बीमारियों के जंजाल से , नक्सल वाद से, बढती बेरोजगारी से कैसे निपटेगे। सिर्फ बिहार की चर्चा करे तो यहाँ 96 फीसदी किशोरिया रक्ताल्पता से पीडि़त हैं। 90 फीसदी गर्भवती व् शिशुवती माताए अकाल मौत के कगार पर खड़ी रहती हैं। कमजोर मानव कैसे जीडीपी के विकास दर को बढऩे में अपना योगदान दे सकते हैं । इन राजनेताओ के दिमाग को क्या होगया हैं। पता नहीं। जातीय आधार पर विकास के साधन जरुरत मंदों के बीच पहुचने की कवायद की जाति हैं तो वो क्या हैं जिस नीति के तहत करोडो -अरबो रूपये की सब्सिडी उद्योगपतियों को दे दी जाती हैं। आखिर कैसे भारत की परिकल्पना की जा रही हैं। भारत की जो जनता आतंक के विरुद्ध मोमबतिया जलाने एक साथ निकल पड़ती हैं उसे इसप्रकार के गैर जिम्मेदराना निर्णयों के खिलाफ भी सामने आना चाहिए। भारतीय मिडिया से इस बात की उमीद करना बेमानी हैं की वो जनमत तैयार करने में अपना योगदान दे। उसे नेताओ और सत्ता की चाकरी करने से फुरसत नहीं हैं। कितने भी बड़े तीसमारखा हो वो इस बात को समझते हैं की जिस सिस्टम के वो हिस्सा बन चुके हैं उनमे अपनी बात रखना भी कितना मुश्किल भरा कार्य हो गया हैं। आवाज कही से भी उठती हो उसे अपना स्वर प्रदान करना चाहिए। अम्बेडकर हो या लोहिया , गाँधी हो या नेहरु सबने जातिविहीन समरस समाज की कल्पना की हैं । इसे जनगणना कराकर, ऐसी कमरे में बैठ कर योजनाये बनाने से हासिल नहीं किया जा सकता।

2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

kab bahar niklengi hum es jaativaad ke dansh se....
Jaati na puchho sadhu ki pooch lijiye gyan... mol karo talwaar ki pade rahan do myan.... Dohe ko saarthak bana diya aapne apni prastuti mein...
Kash har insaan samjh pata yah sab...
Saarthak prastuti ke liye dhanyavaad.

दिलीप ने कहा…

sahab ye jatiyan kabhi hamara peecha nahi chodegi...kitna bhi padh le aaj bhi chunaav me apni jaati wale ko hi vote dene jaate hain...yahi to hamare pichdepan ka saboot hai...bada achcha aalekh