भारतीय संस्कृति त्याग की संस्कृति रही है। ईशावास्य उपनिषद् का सूत्र वाक्य ही है - तेन त्यक्तेन भुज्जीथा मा गृध: कस्यस्विद् धनम। त्रेता, द्वापर में यह संस्कृति बरकरार रही। कलियुग में रजनीश ओशो आते हैं और एक किताब लिखते हैं संभोग से समाधि की ओर...। किताब व्यापक सामाजिक-आध्यात्मिक विमर्शों की पड़ताल करती है, उसकी व्याख्या करती है। इन सबसे इतर एक बाबा वर्ग तैयार हुआ है, जिसका मकसद है जैसे-तैसे प्रसिद्धि हासिल करना, फिर अपना स्वर्ग तैयार करना और खुद ईश्वर बन जाना। कोई इसे भौतिकता का नाम देता है तो कोई आधुनिकता का। कें द्र में भोग ही होता है। सही साधु समाज में आता है समाज के लिए लेकिन आज के साधु-संत समाज में आते हैं अपनी इच्छापूर्ति के लिए। कोई भगवा चोला धारण करता है, कोई श्वेत धवल वस्त्र तो कुछ लोग थ्री पीस सूट में मोटिवेटर की भूमिका में आकर अपना साम्राज्य चलाते हैं।
भारतीय संस्कृति में साधु-संत और विचारक का होना कोई नई बात नहीं है। यह सनातन है। वैदित युग से लेकर आधुनिक साहित्य-संस्कृति भी इसका बखान करते हैं। हमारी इस पवित्र भूमि में एक से बढ़कर एक साधु-संत और विचारक हुए हैं, लेकिन बदलते समय व परिवेश में इनके आचरण-व्यवहार में अंतर आया है। वह भी अधोगामी। समाज और लोग हक्के-बक्के हैं कि ये क्या हो रहा है? अचानक हमारे समाज को धर्म और धार्मिकता की आड़ में कौन धूल-धूसरित कर रहा है? साथ में आज के आधुनिक विचारक धन के बल पर कौन सा संदेश देना चाहते हैं? ओशों ने काफी वर्ष पहले एक पुस्तक लिखी थी 'संभोग से समाधिÓ। पुस्तक का लब्बोलुवाब भारतीय संस्कृति को ही महिमामंडित करता है, लेकिन आज के सो कॉल्ड साधु-संत 'समाधिÓ से 'भोगÓ की ओर जा रहे हैं।
शास्त्रसम्मत बात की जाए तो ध्येय वस्तु के ध्यान में जब साधक पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे 'समाधिÓ कहा जाता है और 'भोगÓ से तात्पर्य कामेच्छा, आधुनिक भौतिक सुख-सुविधा से लगाया जाता है। गौर करने योग्य है कि साधु संत पहले एक साधक की तरह ज्ञानार्जन करते हैं, फिर समाज में आकर अपने मत का प्रचार करते हैं। इसे उनकी समाधि कहा जा सकता है, लेकिन कुछ समय बाद ही जब उनका नाम होने लगता है, वह धीरे-धीरे अपना एक आश्रम जो कि उनके साम्राज्य की तरह होता है, बनाते हैं और फिर सांसारिक सुख-सुविधा में इस कदर लिप्त होते चले जाते हैं कि उन्हें वास्तविक स्थिति का भान ही नहीं रहता है। पिछले दिनों पुलिस हिरासत में आए बेंगलुरू के स्वामी नित्यानंद और दिल्ली के इच्छाधारी संत इसके ताजा उदाहरण हैं। पुलिसिया जांच से यह जाहिर है कि स्वामी नित्यानंद लोभ के वशीभूत होकर अमेरिका आदि देशों के लिए सोना का तस्करी भी करते थे।
सच तो यह है कि स्वामी नित्यानंद एक नाम नहीं बल्कि बाजारवाद की चपेट में आया एक विचारधारा को प्रतिरूपित करता है। जो दिखता है वह एक सच है और जो भगवा चोले के अंदर नहीं दिखता वह दूसरा सच है। सच दोनों हैं। किसी को भी झुठलाया नहीं जा सकता। ठीक इसी सोच से आधुनिक समाज के हाईफाई मोटिवेटर भी प्रभावित है। मंचों से अच्छी बातें वे तभी करते हैं जब आयोजनकर्ता उनके जेब में लाखों-करोड़ों रुपए का चेक पहले थमा देता है या देने का आश्वासन देता है। अव्वल तो यह है कि न तो साधु और न ही मोटिवेटर इस रकम को अपनी फीस मानते हैं। इस बिरादरी के लिए यह 'दान और डोनेशनÓ होता है। हैरत की बात तो यह है कि ये साधु और मोटिवेटर किसी सूरत में इसे फीस नहीं मानते।
प्राय: हरेक नामचीन संतों ने अपने-अपने आश्रम बना रखें हैं। साथ ही, उसको ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत भी करवा रखा है। इसका लाभ उन्हें दान लेने में होता। दान करने का लाभ यह है कि दानदाता आयकर अधिनियम 80जी के तहत छूट का हकदार होता है। यह कहना नहीं है कि इन ट्रस्टों के दानदाता किस समुदाय-वर्ग से आते हैं और उनके आय का स्रोत कैसा होता है? आयकर के वकील सुनील मिश्रा कहते हैं कि तमाम काले धन के मालिक विभिन्न ट्रस्ट में दान देकर लोगों की नजर में पुण्य के भागी बनते हैं, समाज में एक अपनी स्वच्छ छवि बनाना चाहते हैं साथ ही आयकर देने से भी बच जाते हैं। ट्रस्ट के नाम पर बहुत ही बारीक खेल खेला जाता है, जिसे आमजन नहीं समझ पाता। राष्टï्रीय राजधानी क्षेत्र सहित विदेशों में भी महर्षि महेश योगी ने ट्रस्ट के नाम पर अकूत संपत्ति इक_ïा कर ली है। इसी तरह स्वामी रामदेव भी पतंजलि योग पीठ को ट्रस्ट का रूप दे चुके हैं। यह अच्छी बात है कि वहां लोगों को योग और आयुर्वेंद के नाम पर इलाज मिलता है, लेकिन सदस्यता शुल्क के रूप में लाखों-करोड़ों लेने का क्या मकसद है? पतंजलि योगपीठ की दवाएं भी काफी महंगी हैं। अव्वल तो यह कि गाहे-बेगाहे स्वामी रामदेव अपने बात के समर्थन में प्रसिद्ध दवा कंपनी फाइजर का जिक्र करते हैं, जिसका कुल कारोबार भारत के सालाना बजट से कहीं अधिक है।
सच तो यह भी है कि आजकल धर्म के साथ योग जोड़कर कुछ बाबाओं ने योग की मल्टीनेशनल कंपनी खड़ी कर ली है। प्रचीन काल से योग भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। स्वयं श्रीकृष्ण को बहुत बड़ा योगी कहा जाता है। हमारे देश में महान योगी संत हुए हैं, लेकिन योग का जैसा बाजारीकरण आज हो रहा है, पहले कभी नहीं हुआ। योग से लाइलाज बीमारी तक का दावा करने में भी लोग नहीं हिचक रहे हैं। बाबा लोग योग को धंधा बनाकर एक-एक आसन को ऐसे बेच रहे हैं, जैसे पिज्जा हट वाले तरह-तरह का पिज्जा बेचते हैं। कुछ बाबाओं की मिलने की फीस 25 हजार रुपये है। पहले फीस जमा कराएं, फिर समय लें और तब जाकर बाबा जी मिलते हैं। धन कुबेर बने बैठे इन बाबाओं के समाज के उत्थान में क्या योगदान है? समाज की समस्याओं को दूर करने के लिए इन बाबाओं ने क्या प्रयास किए हैं? धर्म ने नाम पर लोगों को बहकाने के अलावा देश में शांति सद्भाव बढ़ाने के लिए इन बाबाओं ने क्या किया है? आज भारत की आबादी में 65 फीसदी हिस्सा युवा वर्ग का है। उनको सही दिशा देने की इन बाबाओं की क्या योजना है? जिस देश में ये बाबा पैदा हुए, उसकी माटी के लिए इन्होंने आज तक क्या किया? ऐसे अनगिनत सवाल है, जिनके जवाब इन बाबाओं के पास नहीं हैं।
1 टिप्पणी:
बहुत सही कहा आपने
सच तो यह भी है कि आजकल धर्म के साथ योग जोड़कर कुछ बाबाओं ने योग की मल्टीनेशनल कंपनी खड़ी कर ली है। प्रचीन काल से योग भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। स्वयं श्रीकृष्ण को बहुत बड़ा योगी कहा जाता है। हमारे देश में महान योगी संत हुए हैं, लेकिन योग का जैसा बाजारीकरण आज हो रहा है,
उत्तम आलेख !
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