बीनती हूँ तुमसे अपने सपने
लेकर उन्हें आकाश में भरती हूँ उड़ान
उन्मुक्त स्वतंत्र
तुम्हारी ढेर साराी प्रेम हिदायतों के साथ
जहाँ सितारों को हथेलियों में भरकर
उनसे लिखती हूँ बादलों पर
एक श्वेत कविता
''तुम मेरे संवदेना पुरूष होÓÓ
टटोलती हूँ इन शब्दों को अपने भीतर
प्रचंड वेग से घुमड़ती रक्त शिराओं
के संग अवशेष बन चुकी
उन ख्वाहिशों में जो जाहिर करती
हैं आइनें का पीलापन
पीलापन शनै:शनै: छाने
लगता सम्पूर्ण वजूद पर,
तब जैसे जिन्दगी ढल जाती है
एक मुजस्समे में,
कभी-कभी
वह पीलापन समेट लेते हो तुम
अपने दामन में, डाल देते हो उन्हें
मुझसे बहुत दूर ब्रह्माण्ड के
दूसरे छोर पर, फिर देते हो
मुझे एक नयी लालिमा
नयी किरन
नया दौर।
(यह कविता डा. वाजदा खान की है। मैंने पढ़ी, मुझे काफी अच्छी लगी सो, अपने ब्लॉग पर आपके लिए भी लगा दिया। )
4 टिप्पणियां:
उनसे लिखती हूँ बादलों पर
एक श्वेत कविता
''तुम मेरे संवदेना पुरूष हो....
कवयित्री ने तो महज एक पंक्ति में पूरा आकाश ही समेट लिया है. बहुत सुन्दर रचना ! बधाई !!
wakai achhi kavita hai, jo samvedna ko jhakjhorti v hai aur tatolti v hai. sushil dev
bahut khub.........
bahut badhiya
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