महाराष्ट्र की राजनीति में ढलान पर पहुंच चुके बाल ठाकरे की छटपटाहट अब सामने आने लगी है। किसी की सोच से भी परे होगा कि ठाकरे परिवार का कोई सदस्य शिवसेना छोड़कर धुर विरोधी कांग्रेस में शामिल हो सकता है। लेकिन ऐसा हो रहा है। बाल ठाकरे की बहू स्मिता ठाकरे ने भगवा कैंप छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने का फैसला कर लिया है।
हालिया घटनाक्रम में बाल ठाकरे की बहू स्मिता ठाकरे ने कहा , ' मैं सोनिया गांधी और राहुल गांधी की बड़ी प्रशंसक बन गई हूं और चाहती हूं कि देश के लिए जो अच्छा काम वे कर रहे हैं , मैं उसका हिस्सा बनूं।Ó स्मिता के इस चौंकाने वाले फैसले के पीछे दो कारण हैं। पहला , स्मिता ठाकरे को लगता है कि शिवसेना अपनी संकुचित नीतियों के जरिए महाराष्ट्र के लोगों का अहित कर रही है। दूसरा , परिवार के भीतर वह खुद को अलग - थलग महसूस कर रही हैं। उनका कहना है कि मैं यह घुटन अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती और इसलिए कांग्रेस में शामिल होने का फैसला किया है। कांग्रेस के पास राष्ट्रीय और वैश्विक सोच है और मैं इस पार्टी की विचारधारा से सहमत हूं। Óसच तो यही है कि अभी स्मिता ने आरोप लगाया कि उन्हें राज्यसभा में भेजने का वादा किया गया था लेकिन यह पूरा नहीं हुआ और पेशे से पत्रकार भरत कुमार राउत को राज्यसभा में भेजा गया। इतना ही नहीं, विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट देने का वादा किया गया था लेकिन यह भी नहीं निभाया गया। और तो और सामना के लिए लिखे उनके लेख को , अखबार के संपादक बाल ठाकरे ने अस्वीकार कर दिया , जबकि उनका एक लेख पहले ही सामना में छप चुका था। बकौल स्मिता, 'मुझे संदेश मिल गया था कि अब यहां मेरी कोई जगह नहीं है और मैंने वह आर्टिकल वहीं पर फाड़ कर फेंके दिया। मेरे लिए शिवसेना से अलग होना आसान नहीं है लेकिन अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा है।Ó स्मिता का कहना है कि वह राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस नेताओं के संपर्क में हैं और पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल होना बस एक औपचारिकता रह गई है। इस सिलसिले में वह जल्दी ही सोनिया और राहुल गांधी से मुलाकात कर सकती हैं। कहा जा रहा है कि कांग्रेस के लिए ठाकरे परिवार के किसी सदस्य का पार्टी में शामिल होना , बड़ा अचीवमेंट होगा। ऐसा कहा जा रहा है कि स्मिता ठाकरे को पार्टी में कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।
दरअसल, शिवसेना - भाजपा शासन के दौरान स्मिता ठाकरे अहम पावर सेंटर थीं और आला अधिकारियों से लेकर व्यापार से जुड़े लोग उनके आगे - पीछे घूमते रहते थे। उस समय यह कहा जाता था कि स्मिता अपने ससुर बाल ठाकरे के सबसे करीब हैं। उन्होंने बाल ठाकरे के दूसरे करीबी लोगों पर खुद को हाशिये पर भेजने का आरोप लगाया है। स्मिता बाल ठाकरे के बड़े बेटे जयदेव की पत्नी हैं। स्मिता कहती हैं कि मुझे गर्व है कि मैं मराठी हूं और घर पर मराठी में ही बात करती हूं लेकिन मैं यह भी चाहती हूं कि समय के साथ मराठी भी बदलें। आज के जमाने में अंग्रेजी को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। चीन के लोग भी यह बात जानते हैं। मैं चाहती हूं कि मराठी सिर्फ पी । एल . देशपांडे का साहित्य न पढ़ें बल्कि प्रेमचंद और दूसरी भाषाओं के साहित्यकारों को भी पढ़ें। त्वरित टिप्पणी करते हुए उद्धव ठाकरे के बारे में स्मिता ने कहा कि मुझे लगता है कि बालासाहब ने उन्हें बहुत जल्दी , बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी। यह जिम्मेदारी देने से पहले उन्हें राजनीति में और ट्रेनिंग देनी चाहिए थी।Ó
सच तो यही है कि बीते दिनों विधानसभा चुनाव में शिकस्त के बाद उन्होंने शिवसेना के मुखपत्र सामना में मराठी मानुस को जमकर खरी-खोटी सुनाई। बाला साहब ने उन्हें गद्दार तक कह डाला और फिर सचिन तेंदुलकर उनके निशाने पर आ गए। यही नहीं अब बाल ठाकरे के समर्थकों ने भी इसी राह पर चलते हुए एक टी।वी.चैनल के कार्यालय पर हमला कर दिया। सचिन ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्हें मराठी होने पर गर्व है,लेकिन वे पहले भारतीय हैं और मुंबई हर भारतवासी की है सचिन के इस बयान पर मुंबईवासियों को शायद ही कोई एतराज हो मगर बाल ठाकरे को यह मराठी अस्मिता के खिलाफ लगता है। दरअसल, महाराष्ट्र की राजनीति में क्षेत्रवाद और भाषावाद के बल पर ठाकरे ने जो मुकाम हासिल किया था वह धीरे-धीरे दरकने लगा है। बाला साहब की आभा अब मंद पडने लगी है। भतीजे राज ठाकरे से अलग होने के बाद एक-एक करके कई कद्दावर नेता उनका दामन छोडते जा रहे हैं। बेटे उद्धव से जिस करिश्माई प्रदर्शन की उन्हें उम्मीद थी,वह भी पूरी नहीं हुई है। इसलिए कभी वह भावनात्मक हो जाते हैं तो कभी उग्र रूप धारण करने का प्रयास करते हैं। बाला साहब ने 1950 में 'फ्री प्रेस जनरल से काटरूनिस्ट के तौर पर अपने कैरियर की शुरूआत की। उनके काटरून 'संडे टाइम्स ऑफ इंडियाÓ में भी जगह पाते रहे, 1960 के दौर में ठाकरे ने काटरून वीकली 'मार्मिकÓ का प्रकाशन किया, जिसके माध्यम से सही मायने में उन्होंने क्षेत्रवाद की राजनीति में कदम रखा। बाला साहब अपने काटरूनों के जरिये गैरमराठी खासकर गुजराती और दक्षिण भारतीयों पर प्रहार करते रहे। 19 जून, 1966 को शिवसेना के अस्तित्व में आने के बाद प्रहार के उनके तरीके में बदलाव आया। महाराष्ट्र में हिंसक राजनीति की शुरूआत यहीं से मानी जा सकती है। बाला साहब के तौर-तरीकों की वजह से देश में उनकी छवि भले ही हिटलर की बनी,लेकिन महाराष्ट्र में उन्हें एक ऐसे शेर के रूप में देखा जाने लगा जिसकी दहाड में बडे-बडों को हिलाने का माद्दा था। 1995 में शिवसेना-भाजपा गठबंधन का सत्ता में आना साफ तौर पर इस बात का सुबूत था कि महाराष्ट्र की जनता को उनसे कोई गिला-शिकवा नहीं है। स्थानीय लोगों को तवज्जो देने का जो मुद्दा उन्होंने उठाया उस पर वे हमेशा कायम रहे। उन्होंने मराठियों को नौकरियों में प्राथमिकता देने की वकालत की,इसके लिए हिंसक प्रदर्शन किए। बांग्लादेशियों को देश से बाहर निकालने और हिंदुओं से आत्मघाती दस्ते तैयार करने की बातें करके ठाकरे ने शिवसेना की पहचान पूर्णत: हिंदूवादी संगठन के रूप में बनाई,लेकिन बाद के दौर में उनकी कार्रवाइयों का दायरा इतना विस्तृत हो गया कि लोगों को इस संगठन और बाला साहब के व्यक्तित्व को पचाने में असहजता होने लगी। वेलेंटाइन-डे के विरोध से लेकर हर छोटी बात पर बखेडा खडा करने की शिवसैनिकों की आदत से खासकर युवा वोट बैंक छिटककर ठाकरे से दूर चला गया और रही सही कसर परिवारिक कलह ने पूरी कर दी। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के बीच की तनातनी ने पार्टी को तो कमजोर किया ही,ठाकरे के विरोधियों को भी उन पर कटाक्ष करने के कई अवसर प्रदान किए। राज ठाकरे ने जब शिवसेना से निष्क्रिय लोगों को निकाले जाने की मांग और 'सामनाÓ के संपादक संजय राउत की सार्वजनिक तौर पर आलोचना की तो पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे ने उनका भरपूर समर्थन किया। राणे को भी कभी शशिवसेना से निष्कासन का दर्द झेलना पडा था। 2005 में राज और उद्धव ठाकरे के बीच विवाद चरम पर पहुंच चुका था और 2006 आते-आते सुलह की सारी संभावनाएं भी शिथिल पड र्गई।नतीजतन, 9 मार्च, 2006 को राज ठाकरे ने 'महाराष्ट्र नवनिर्माण सेनाÓ के रूप में नई पार्टी का गठन किया। पार्टी गठन के वक्त राज ठाकरे के पास न तो नए मुद्दे थे और न ही नई विचारधारा। उन्होंने केवल उन्हीं रास्तों पर आगे बढम्ने में भलाई समझी जो उन्हें चाचा यानी बाल ठाकरे ने दिखाए थे। राज ने एक तरह से शिवसेना के शुरूआती दिनों को फिर से पुनजीर्वित किया। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने मराठी हितों की बात उठाई, जिसको खासा समर्थन भी मिला। कुल मिलाकर कहा जाए तो विधानसभा चुनावों में शिवसेना को नुकसान पहुंचाने में राज ठाकरे बहुत बडम हाथ रहा। आज की स्थिति में अगर देखें तो राज ठाकरे का नाम और कद बाल ठाकरे की तुलना में ज्यादा बडा हो गया है। उन्होंने चाचा द्वारा फैंके गये मराठी मानुस के कार्ड का बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल करके राज्य में अपने लिए अच्छी खासी जमीन तैयार कर ली है। यह उनके बढते कद का ही असर है कि अमिताभ बच्चन सरीखे कलाकार भी उनसे माफी मांगने में नहीं हिचकिचाते। ं
कुछ वक्त पहले एक टीवी कार्यक्रम में अमिताभ ने राज से माफी मांगी थी। निर्माता निर्देशक करण जौहर तो बाकायदा राज ठाकरे के दरबार में हाजिरी लगाकर उनसे माफी मांगकर आए थे। उनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने 'मुंबईÓ को 'बॉम्बेÓ कह दिया था। राज को कट्टर मराठियों के साथ-साथ युवा वर्ग का भी समर्थन प्राप्त है। जेट एयरवेज मामले से इसकी तस्दीक हो चुकी है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने भारतीय संस्कृति की दुहाई देकर अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है,जो युवाओं को नागवार गुजरे। संभव है कि आने वाले वेलेंटाइन-डे पर वे प्यार करने वालों की शिवसेना से हिफाजत का कोई नया शिगूफा छेडे। राज ठाकरे के बहुत थोडे अंतराल में इतनी प्रसिद्धि हासिल करने के पीछे राज्य की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस और एनसीपी का भी बहुत बडा हाथ है। दोनों दल अच्छी तरह जानते हैं कि भतीजे को प्रोत्साहन देकर चाचा को कमजोर बनाया जा सकता है।
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