विवाह के कुछ बरस बीत जाने पर पत्नी का उतना ख्याल ही कहाँ रह पाता है। जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते आपसी प्रेम कहां नेपथ्य में चला जाता है, पता ही नहीं चलता। आपसी संबंधों में नई गरमाहट लाने के लिए मैंने छुट्टïी ली था। सरकारी नौकरी में इतनी तो सहूलियत है कि एलटीसी मिलती है। मतलब सरकारी खर्च में परिवार के साथ मौज-मस्ती करने का मौका। भला कैसे छोड़ सकता था।
यूं भी एक जगह रहते-रहते मन ऊब जाता है। नए जगह, नए लोग, मन को लुभाते हैं। और, सबसे बढ़कर पत्नी का साथ। पत्नी की इच्छा थी समुद्र देखें और मेरे मन में लालसा की सोमनाथ और द्वारकाधीश के दरबार में चलूं। सो, नई दिल्ली से अहमदाबाद के लिए राजधानी एक्सप्रेस में सवार हुआ। स्टेशन से खुलते ही चंद मिनटो में ट्रेन अपनी रफ्तार को हासिल कर चुकी थी। जैसे-जैसे ट्रेन आगे भागता, मैं भी कभी अतीत तो कभी कल्पनाओं के आकाश में गोते लगाता। कितने सुहाने दिन थे, जब मधु मेरे जीवन में आई थी। हर पल का ख्याल रखती। मुझे क्या अच्छा लगता है और कौन-सी चीज नापसंद है, मुझसे अधिक उसे पता थी। मगर अब तो वह मुझसे अधिक शौर्य का ख्याल रखती। मुझे तो औपचारिकतावश ही...।
चंद मिनट ही बीते होंगे कि ट्रेन में चाय सर्व होने लगा। चाय की चुस्की के संग मैंने मधु से बात करनी शुरू की। मगर, उसकी दिलचस्पी मुझमें नहीं दिखी। उसकी निगाहें तो जैसे शौर्य को ही तलाश रही थी। अचानक वह सीट से उठी और टॉयलेट की ओर गई। कुछ पल बीतने के बाद मधु आई और उसके पीछे शौर्य। मुझे अंदर से खीझ हुई। शायद, मधु को इसका आभास हो गया। वह धीरे से बोली, 'क्यों परेशान होते हैं? कुछ दिनों में मैं धीरे-धीरे शौर्य से अलग हो जाऊंगी।Ó मुझे उन दोनों के प्रेम की जानकारी यूं तो सात वर्ष पहले ही हो गया था। लेकिन, शादी के नौ वर्ष बाद भी मैं मधु को अपने से अलग नहीं देखना चाहता था। शायद यही पति की कमजोरी होती है कि उसकी पत्नी किसी दूसरे को उससे अधिक तवज्जो देने लगती है तो पति खुन्नस खाने लगता है। मैं इसी गुन-धुन में था।
तेज गति से चल रही टे्रन की खिड़की से जब बाहर देखता तो मन बहल जाता। मगर, दूसरे ही पल सामने वाली सीट पर बैठे शौर्य को देखता, मन गुस्सा से भर जाता। कर भी तो कुछ नहीं सकता था। आखिर, मधु शौर्य से बेइंतहा मुहब्बत जो करने लगी थी। पत्नी के साथ सात फेरों का वचन जो लिया था। पत्नी को हरसंभव खुश रखने का कोशिश करता। लेकिन यह क्या? दूसरे की खुशी में मेरी अपनी ईच्छा खत्म होने को थी। भला कोई पुरुष यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि उसकी पत्नी उसकी अनदेखी कर किसी और को... तभी पेंट्रीकार वाले खाने का ऑर्डर लेने आए। मैंने नानवेज का ऑर्डर दिया तो पत्नी ने वेज थाली का। अरे, यह क्या? मधु तो इससे पहले जब भी मेरे साथ ट्रेन में सफर करती, वह नानवेज ही खाती थी। मगर, आज उसे क्या हो गया है?
तपाक से मैंने पूछा, 'आज वेज थाली क्यों?Ó
'शौर्य नानवेज नहीं खाना चाहता...उसने ट्रेन में चढ़ते ही मुझसे बोल दिया था...तुम खा लो...Ó
मैंने तुरंत वेटर को आवाज लगाई और अपना मेन्यू चेंज कराया। नॉनवेज की जगह, वेज थाली। जीवनसंगिनी का साथ जो निभाना था।
खाना खाया। अब, सोने का वक्त था। मेरा साइड लोअर था। मधु का सामने में नीचे का और शौर्य मिडिल बर्थ पर था। ट्रेन किसी स्टेशन पर आकर लगी थी। पता चला कि पिंक सिटी जयपुर है। टे्रन ने सीटी दी और कुछ मिनट में अपने गंतव्य की ओर पूरे रफ्तार में बढ़ चली। हौले-हौले ट्रेन के हिचकोले में चैन की नींद कहाँ आ पाती है। कमपार्टमेंट में दूसरे लोग भी थे। लेकिन सबसे अधिक सुंंदर मधु ही थी। कोई उससे बात नहीं कर रहा था। मेरे अवाले केवल शौर्य ही था तो उससे गप्प कर रह था। अमूमन लोग सुंदर स्त्री से जल्दी बात नहीं करने में ही अपनी बुद्घिमानी समझते हैं। आखिर, सुंदरी क्या सोचेगी? सामने वाले के बारे में क्या ख्यालात होंगे उसके...आदि-आदि। मैं तो उलझन में था...आखिर लोग चुप्प हैं तो हैं, मधु क्यों औरों के बातचीत में दिलचस्पी नहीं ले रही है? कॉलेज के दिनों में तो वह हर वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेती और अव्वल आती। पुरुष और महिला में हर स्तर पर समानता की वकालत करती। लेकिन यह क्या? आज तो ट्रेन के इस कमपार्टमेंट में उसकी हिस्सेदारी महज 12.5 फीसदी थी। आठ बर्थ में वह अकेली नारी जाति का प्रतिनिधित्व कर रही थी।
यही सब सोचते-सोचते कब नींद लग गई, पता नहीं चला। कुछ देर बाद कानों में मधु के हँसने की आवाज सुनाई पड़ी। नींद खुल गई। कलाई पर नजर दिया तो पता चला कि सुबह के पाँच बजे हैं। इतनी जल्दी क्यों उठ गई मधु? घर में तो कभी नहीं जल्दी उठती...अरे यह क्या? उसके गोद में शौर्य अपना सिर रखकर आराम फरमा रहा है। दोनों आपस में तल्लीन है़। दूसरे की सुध-बुध ही नहीं। अपने में अलमस्त। द्वेष की भावना से मेरा मन भर गया। इधर के वर्षों में तो मधु ने मुझे इस प्रकार अपने साथ नहीं रखा। हाँ, शादी के शुरूआती दिनों में जरूर इस प्रकार का सान्निध्य मिला था। लेकिन, जब से शौर्य मधु के जीवन में आया है...
मैं तो गुस्से में आग बबूला हुआ जा रहा था। मगर कर भी क्या सकता था? मधु को नाराज नहीं कर सकता था। तभी पेंट्रीकार वाले चाय-चाय की आवाज लगाने लगा। झट से एक चाय के लिए। 'अरे, कैसी चाय बनाते हो?Ó
'क्या हुआ, सरÓ
'चाय में चीनी तक नहीं है?Ó
'नहीं सर, चीनी तो है। हो सकता है कम हो। मैं अभी और लेकर आता हूं।Ó
चायवाला तो चला गया। लेकिन, मेरे अचानक क्रोध को जैसे मधु जान गई थी। वह सरक कर मेरे पास आई।
'क्या हुआ तुम्हें?Ó
'तुम जाओ यहां से। जाकर शौर्य का ख्याल रखोÓ
'...ओह, तो जनाब को शौर्य से दिक्कत हो रही है। अरे, मैं उसका ख्याल नहीं रखूंगी तो कौन रखेगा।Ó
मुस्की के संग मधु अपने सीट पर चली गई। बैग से एक टिफिन निकाला। 'कुछ नाश्ता कर लो....Ó
'नहीं मुझे भूख नहीं।Ó
'मैं घर से बनाकर लाई हूं।Ó
'नहीं खाना मुझे...।Ó
मधु, टिफिन को फिर से बैग में रखने लगी। तो शौर्य ने रोक लिया।
आँख मिलते हुए कहा, 'माँ, मुझे खाना है।Ó
अगले ही पल जैसे, मुझे मधु के बात का एहसास हो गया। सच ही तो कह रही है कि वह ख्याल नहीं रखेगी तो कौन रखेगा। मैं तो नाहक ही अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर द्वेष की भावना मन में पाल रहा था।
मंगलवार, 29 मार्च 2011
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