जैसे-जैसे समाज विकास के पथ पर बढ़ता जा रहा है लोगों को धर्म के प्रति आस्था बढ़ती जा रही है। कहने को भारत धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन यहां के लोग धार्मिकता में विश्वास करते हैं। अब यात्राएं केवल धर्म के नाम पर नहीं हो रही हैं, बल्कि उसमें पर्यटन का भी तड़का लग चुका है। ऐसे में हर कोई अपने भगवान और तीर्थस्थान को प्रतिस्पर्धा के आकंठ में डूब कर नम्बर वन कहने लगा है।
जब सनातन परंपरा और स्वभाविक सोच पर बाजार और प्रतिस्पर्धा का आवरण चढऩे लगता है तो बड़े और छोटे की बात होने लगती है। बाजारवाद की असली लड़ाई भी तो इसी की है। सो, अब धार्मिक प्रवृत्ति के लोग भी अपने इष्टï और धार्मिक स्थलों को भी दूसरों से बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगे हैं। हिंदू धर्म के कुछ लोग वैष्णा देवी को पहले स्थान पर रखते हैं, कुछ तिरूपति बालाजी और रामेश्वर को। सिख धर्म को मानने वाले अधिसंख्य लोग स्वर्ण मंदिर को पहले पायदान पर मानते हैं तो कुछ लोग पटना साहिब को अपने तर्कों के सहारे प्रमुख बताते हैं। शिरडी के साईं बाबा तो अपने धनसंग्रह को लेकर सदैव चर्चा में बने ही रहते हैं। वहीं, पटना का हनुमान मंदिर अपने प्रसाद विक्रय को लेकर देश में वैष्णों देवी मंदिर के बाद दूसरे नंबर पर है।
इसी प्रकार, अपने महिमा को लेकर उज्जैन का महाकाल मंदिर, देवघर में बाबा बैद्यनाथ मंदिर, कोलकाता की दक्षिणेश्वरी महाकाली, सालासार के बालाजी , पुरी के जगन्नाथ जी आदि भी भक्तों को दूसरे देवताओं से अच्छे लगते हैं। इस्लाम धर्मांम्बलियों के लिए दिल्ली का जामा मस्जिद, लखनऊ का ईमामबाड़ा, देवबंद किसी भी तीर्थ पर भारी पड़ता है। इस सबके बीच सर्वधर्म समभाव रखने वाले लोगोंं के लिए तो अजमेर में चिश्ती का दरगाह, मुंबई में हाजी ली किसी स्वर्ग से कम नहीं है।
सच तो यह भी है कि छोटा और बड़ा की तुलना के लिए दो वजूद होना लाजि़मी है । इस सृष्टि के रचनाकार को अरबी भाषा में 'अल्लाहÓ कहते हैं । उसी को संस्कृत में 'भगवानÓ कहते हैं ।
'भग: सकलैश्वय्र्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवानÓ
-अर्थात जो समस्त ऐश्वर्य से युक्त वा भजने योग्य है वह भगवान है । दोनों एक ही रचनाकार के नाम हैं । इसके बावजूद दोनों नामों में एक अन्तर है। और नाम का अंतर ही लोगों की सोच को बदल देता है। काबिलेगौर है कि अरबी भाषा में अल्लाह पालनहार का निज नाम है जो केवल उसी मालिक के लिए लिखा और बोला जाता है । यह नाम किसी आदमी के लिए लिखना नाजायज़ है जबकि अरबी भाषा का ही नाम 'रहीमÓ है , यह उसका गुणवाचक नाम है । यह उस मालिक के गुण को व्यक्त करने के लिए भी आता है और बन्दों की रहमदिली को ज़ाहिर करने के लिए भी । संस्कृत साहित्य में उसका निज नाम 'ऊँÓ माना गया है । भगवान उसका गुणवाचक नाम है ।
हाल के दिनों में जम्मू में वैष्णा देवी की यात्रा को लेकर लोगों में रोमांच काफी बढ़ा है। पच्चीस वर्ष पहले तक वैष्णो देवी के लिए लोग दूर-दूर से कम आते थे, लेकिन अब तो हर वर्ष यात्रियों की भीड़ बेतहाशा बढ़ती जाती है। लोगों की मान्यता माँ वैष्णो देवी के प्रति काफी बढ़ी है। लिहाजा, प्रसाद विक्रय के मामले में यह हिंदुस्तान में किसी भी मंदिर से अव्वल है। भविष्य में हरेक वर्ष पवित्र वैष्णो देवी में करोड़ों तीर्थयात्रियों के पहुंचने की संभावनाओं को देखते हुए श्राइन बोर्ड ने बृहत योजना बनाई है और तृतीय गुफा मार्ग का निर्माण कार्य शुरू कर दिया है ताकि श्रृद्धालुओं को अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सुविधा हो। वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी मनोज द्विवेदी के अनुसार, वैष्णो देवी आने वाले तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए कई योजनाएं बनाई गई हैं और हमने तीसरे गुफा मार्ग का निर्माण शुरू कर दिया है। भविष्य में प्रति वर्ष एक करोड़ तक तीर्थ यात्रियों के पहुंचने की संभावनाओं को देखते हुए बोर्ड ने विस्तृत योजनाएं बनाई हैं।
मौजूदा समय में गुफा के अंदर भगवान के दर्शन के लिए केवल पांच सैकंड का समय मिलता है। इनमें से कईयों की शिकायत है कि उन्हें दर्शन ही नहीं हुए। तृतीय गुफा मार्ग के तैयार हो जाने से सभी श्रृद्धालुओं को कम से कम तीस सैकंड तक भगवान का दर्शन करने को मौका मिलेगा।
कहते हैं पहाड़ों वाली माता वैष्णो देवी सबकी मुरादें पूरी करती हैं। उसके दरबार में जो कोई सच्चे दिल से जाता है, उसकी हर मुराद पूरी होती है। ऐसा ही सच्चा दरबार है- माता वैष्णो देवी का। मान्यता तो यही है कि माता का बुलावा आने पर भक्त किसी न किसी बहाने से उसके दरबार पहुँच ही जाता है। हसीन वादियों में त्रिकूट पर्वत पर गुफा में विराजित माता वैष्णो देवी का स्थान हिंदुओं का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है, जहाँ दूर-दूर से लाखों श्रद्धालु माँ के दर्शन के लिए आते हैं। कथा के अनुसार जिस स्थान पर माँ वैष्णो देवी ने हठी भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान आज पूरी दुनिया में 'भवनÓ के नाम से प्रसिद्ध है। इस स्थान पर माँ काली (दाएँ), माँ सरस्वती (मध्य) और माँ लक्ष्मी पिंडी (बाएँ) के रूप में गुफा में विराजित है, जिनकी एक झलक पाने मात्र से ही भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। इन तीनों के सम्मिलित रूप को ही माँ वैष्णो देवी का रूप कहा जाता है। भैरवनाथ का वध करने पर उसका शीश भवन से 8 किमी दूर जिस स्थान पर गिरा, आज उस स्थान को 'भैरोनाथ के मंदिरÓ के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने माँ से क्षमादान की भीख माँगी। माता वैष्णो देवी ने भैरवनाथ को वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएँगे, जब तक कोई भक्त मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा।
अमृतसर... एक शहर का नाम, जिसकी पहचान है वहाँ के स्वर्ण मंदिर से। सुनहरी आभा लिए इस मंदिर को सिखों के सबसे पवित्र गुरुद्वारे का दर्जा दिया गया है। माना जाता है कि 16वीं शताब्दी में सिखों के चौथे गुरु रामदास ने एक तालाब के किनारे डेरा डाला, जिसके पानी में अद्?भुत शक्ति थी। इसी कारण इस शहर का नाम अमृत+सर (अमृत का सरोवर) पड़ा।
गुरु रामदास ने तालाब के मध्य एक मंदिर का निर्माण कराया, जो आज स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस शहर में अप्रैल माह में बैसाखी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इसी दिन गुरु गोविंदसिंह ने सिखों को योद्धा कौम में परिवर्तित करते हुए खालसा पंथ की स्थापना की थी। सरोवर को अमृत का दर्जा देने के पीछे भी एक रोचक कथा है। मान्यता है कि एक राजकुमारी जो अपने पिता से ज्यादा भगवान को महत्व देती थी। उसे पिता के क्रोध का सामना करना पड़ा। पिता ने उसकी शादी एक कोढ़ी से करवा दी। रामदास की भक्त यह राजकुमारी उनकी सेवा करने के लिए इस सरोवर के पास आई। इस बेरी के पेड़ के नीचे भरे पानी में स्नान करने के बाद उसका पति कोढ़मुक्त हो गया। राजकुमारी ने जब यह बात गुरु रामदास को बताई तो गुरूदेव ने प्रसन्नता से कहा- यही वह जगह है, जिसे मैं तलाश रहा था। यहीं हरमिंदर साहब की स्थापना की जाएगी। यही कारण है कि अमृतसर का नाम अमृतसर पड़ा । स्वर्ण मंदिर सिखों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। इसे हरि मंदिर भी कहते हैं। इसके गुम्बद पर शुद्ध स्वर्ण पत्तियों का आवरण है, जो धरती की ओर झुकी हुई हैं। इसका आशय यह है कि सिख दुनिया की समस्याओं के प्रति एक जागरूक कौम है। हरमिंदर साहब का गुरुद्वारा सरोवर के बीचोबीच बेहद खूबसूरती से बनाया गया है। यहाँ हर समय गुरुवाणी का गायन किया जाता है। यहाँ अरदास कर चुके लोगों का मानना है कि हरमिंदर साहब में आकर उन्हें अलौकिक शांति मिली है, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में 135 सहस्त्रमीटर दूर समुद्रतल से 13,600 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। गुफा 11 मीटर ऊँची है। अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है क्यों कि यहीं पर भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था। यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखो लोग यहां आते है। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढऩे के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
उत्तर भारत के दो तीर्थस्थलबद्रीनाथ एवं केदारनाथ संपूर्ण भारतवासियों के प्रमुख आस्था-केंद्र हैं। धामों की संख्या चार है, बद्रीनाथ, द्वारका,रामेश्वरम्एवं जगन्नाथपुरी।ये धाम भारतवर्ष के क्रमश:उत्तरी, पश्चिमी, दक्षिणी एवं पूर्वी छोरों पर स्थित है। बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ के कपाट शरद् ऋतु में बंद हो जाते हैं और ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में खुलते हैं। शेष तीन धामों की यात्रा पूरे वर्ष चलती रहती है। उत्तर के दो तीर्थस्थलबद्रीनाथ और केदारनाथ किन्हीं दृष्टियोंसे एक-दूसरे से भिन्न हैं। पहली भिन्नता तो यह है कि बद्रीनाथ धाम है और केदारनाथ तीर्थस्थलहै। दूसरी भिन्नता यह है कि बद्रीनाथ में विष्णु के विग्रह की पूजा होती है और केदारनाथ में शिव के विग्रह की पूजा। तीसरी भिन्नता यह है कि शीतकाल में बद्रीनाथ से भगवान विष्णु का विग्रह उठाकर ऊखीमठमें ले जाया जाता है। ऊखीमठमें भगवान की पूजा नहीं होती है। इसके विपरीत केदारनाथ में शिव का विग्रह यथावत् यथास्थान पर बना रहता है और कपाट बंद हो जाने पर विग्रह की पूजा नहीं होती है।
बद्रीनाथ क्षेत्र में बदरी(बैर) के जंगल थे, इसलिए इस क्षेत्र में स्थित विष्णु के विग्रह को बद्रीनाथ की संज्ञा प्राप्त हुई। किसी कालखंडमें बद्रीनाथ के विग्रह को कुछ अनास्थाशीलतत्वों ने नारदकुंडमें फेंक दिया। आदिशंकराचार्यभारत-भ्रमण के क्रम में जब यहां आए, तो उन्होंने नारदकुंडमें प्रवेश करके विष्णु के इस विग्रह का उद्धार किया और बद्रीनाथ के रूप में इसकी प्राण-प्रतिष्ठा की। बद्रीनाथ के दो और नाम हैं, बदरीनाथएवं बद्रीविशाल।
केदारनाथ में शिव के विग्रह की पूजा होती है। सामान्यत:शिव की पूजा शिवलिंगके रूप में होती है, पर केदारनाथ में शिव के विग्रह का स्वरूप भैंसेकी पीठ के ऊपरी भाग की भांति हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा आती है। महाभारत के बाद परिवारजनों के हत्याजनितपाप से मुक्ति के लिए पांडव प्रायश्चित-क्रम में भगवान शिव के दर्शन करना चाहते थे। भगवान शिव पांडवों से रुष्ट थे। वे उन्हें पापमुक्तनहीं करना चाहते थे। पांडवों की खोजी दृष्टि बचने के लिए भगवान शंकर ने महिष का रूप धारण कर लिया और महिष दल में सम्मिलित हो गए। भगवान शंकर को खोजने का काम भीम कर रहे थे। किसी तरह भीम ने यह जान लिया कि अमुक महिष ही भगवान शंकर हैं। वह उनके पीछे दौडा। भीम से बचने के क्रम में भगवान शंकर पाताल लोक में प्रवेश करने लगें। कहा जाता है कि पाताल लोक में प्रवेश करते हुए भगवान शंकर के पृष्ठ भाग को पकड लिया और उन्हें दर्शन देने के लिए बाध्य कर दिया। अंतत:भगवान शंकर के दर्शन से सभी पांडव पापमुक्तहो गए। इस घटना के बाद लोक में महिष के पृष्ठभाग के रूप में भगवान शंकर की पूजा होने लगी। केदारनाथ में महिष का पृष्ठभाग ही शिव-विग्रह के रूप में स्थापित है। यह घटना जिस क्षेत्र में हुई उसे गुप्त काशी कहा जाता है। बद्रीनाथ मंदिर के पास ब्रह्मकपालनामक एक स्थान है। यहां पितरोंके लिए पिंडदान किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिन पितरोंका श्राद्ध यहां हो जाता है, वह देवस्थितिमें आ जाते हैं। उन्हें गया अथवा अन्य स्थान पर पिंडदान की आवश्यकता नहीं होती।
इसी प्रकार शिर्डी के कण-कण में बसते हैं साँई । बेशक सांई भक्त सदियों पुराने नहीं है, लेकिन पिछले दशक में सांईं भक्तों की संख्या में बेतहाशा वृद्घि हुई है। कहते हैं आप जिससे प्रेम करते हैं, उससे संबंधित हर चीज, हर जगह आपको अच्छी लगने लगती है। कुछ ऐसा ही भक्त और भगवान का रिश्ता भी होता है। सच तो यही है कि हम सभी के आराध्य देव हमारे लिए सभी संकट हरने वाले व सबसे अच्छे होते हैं। उस आराध्य के दर्शन मात्र से ही मन पवित्र हो जाता है तथा मन नास्तिकता से आस्तिकता की ओर प्रवृत्त हो जाता है। कुछ ऐसा ही पावन स्थान है साँई बाबा का शिर्डी धाम, जहाँ के कण-कण में साँई बसता है। आम दिनों में भी साँई मंदिर व समाधि स्थल के दर्शन हेतु भक्तों की लंबी कतारें लगती है परंतु गुरुवार, दशहरा व अन्य त्योहारों पर यहाँ बाबा के दर्शन हेतु भक्तों का हुजूम उमड़ता है। कतारों हेतु बनाया गया चक्करदार रास्ता बाबा के दर्शनों की उत्सुकता को ओर अधिक बढ़ाता है। सोने के सिंहासन पर विराजित बाबा की चमत्कारी प्रतिमा का तेज देखते ही बनता है। ऐसा लगता है मानो वो मूर्ति अभी बोल पड़ेगी।
शिर्डी में साँई मंदिर ट्रस्ट द्वारा बनाई गई भोजनशाला सांप्रदायिक सद्भाव की बेहतर मिसाल है। यहाँ किसी भी प्रकार के भेदभाव के बगैर हजारों भक्त एकसाथ बैठकर भोजन ग्रहण करते हैं। यह भोजनशाला साँई बाबा मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महज 5 रुपए के टोकन पर आप भरपेट भोजन कर सकते हैं। यहाँ की सफाई व्यवस्था, विशाल भोजन कक्ष, पांडाल व मेजबानी देखते ही बनती है। जाति-धर्म का भेद भुलाकर बड़े ही प्रेम से भक्तजन यहाँ साँई के प्रसादस्वरूप भोजन ग्रहण करते हैं।
यूं तो मध्यप्रदेश में नर्मदा और क्षिप्रा के तट पर कई धार्मिक स्थल हैं जो अपने मान्यताओं और गौरवाशाली इतिहास के कारण लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। लेकिन, प्रदेश के हृदयस्थल पर उज्जैन का महाकाल मंदिर पूरे देश सहित विदेशियों के लिए भी विशेष महत्व रखता है। आखिर, आदिदेव कल्याणकारी जहां महाकाल की भूमिका में हों, उसको भला कोई कैसे नकार सकता है। तभी तो उज्जैन में धार्मिक पर्यटन की अत्यधिक संभावनाएं हैं, इसे देश के सबसे बड़े धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किए जाने पर सरकार विचार कर रही है। अगले वर्ष राजा विक्रमादित्य के राज्यारोहण के एक हजार वर्ष पूरे हो रहे हैं, सो, उज्जैन के साथ ही सारे मध्य्रपदेश में प्रदेश में विक्रमोत्सव मनाया जायेगा। ये विचार स्वयं प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हैं। दरअसल, भारतीय संस्कृति में उज्जैन का विशेष स्थान है। उज्जैन बाबा महाकाल की नगरी होने के साथ ही भगवान श्री कृष्ण की शिक्षा स्थली रही है। भगवान श्रीकृष्ण ने विश्व को प्रेम और कर्मयोग का सन्देश दिया। गीता जैसा महान ग्रंथ सारे विश्व को जीने का मार्ग बताता है। मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की है कि उज्जैन के विकास के लिये आगे आने वाले पाँच वर्षो में लगभग 1200 करोड़ रूपये के कार्य कराये जायेंगे।
यदि भारत के पूर्वी क्षेत्र की बात करें तेा देश का सबसे बड़ा रसोईघर पुरी के प्रसिध्द जगन्नाथ मंदिर का है । यहां भगवान जगन्नाथ को महाप्रसाद जिसे अब्धा कहा जाता है, चढ़ाने के लिए तकरीबन 500 खानसामें लगे हैं । 56 विभिन्न प्रकार पे महाप्रसाद चढ़ाने के लिए 300 हेल्पर इन खानसामों की मदद करते हैं । भगवान श्री जगन्नाथ को दिन में छह बार महाप्रसाद चढ़ाया जाता है । रसोई घर 32 कमरों से मिलकर बना है । इसमें 752 स्टोव और9 ख़् मिट्टी के बर्तन है । भोजन में 7 विभिन्न प्रकार के चांवल, चार प्रकार की दाल, नौ प्रकार की सब्जियां और अनेक प्रकार की मिठाईयां परोसी जाती है । मीठे व्यंजन तैयार करने के लिए यहां शक्कर के बजाय अच्छे किस्म का गुड़ प्रयोग में लाया जाता है । किन्तु आलू टमाटर और फूलगोभी का उपयोग मन्दिर में नहीं होता । जो भी भोजन यहां तैयार किया जाता है, उसका नाम जगन्नाथ वल्लभ, लाडू, माथपुली और इसी तरह के कई अन्य नाम रखे जाते हैं । किचन के सेवक बलभद्र महापात्र का कहना है कि देश में कहीं भी आप इस तरह का रसोई घर नहीं पा सकते । उन्होंने बताया कि1 ङ्क घंटे में यहां1 ङ्क लाख श्रध्दालुओं के लिए भोजन तैयार किया जा सकता है ।मंदिर के कुक ने कहा कि प्रसाद कितनी मात्रा में दिया जाएगा, इसका कोई बंधन नहीं है । एक और सेवक सुखदेव महापात्र ने कहा कि यह निर्धारित नहीं है कि प्रतिदिन कितना चांवल पकाया जाना है । उसने कहा कि यहां जो भी श्रध्दालु आते हैं, उन्हें भोजन दिया जाता है ।
कामाख्या मंदिर असम की राजधानी गुवाहाटी में है। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है। सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यंत महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं। इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था।
जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं।
देश के दक्षिण में स्थित रामेश्वरम धाम चारों धामों में मुख्य दर्शनीय स्थल है। यह पवित्र धाम समुद्री द्वीप पर स्थित है। बारह ज्योतिर्लिगों में रामेश्वरम की भी गणना होती है। मान्यता यह है कि प्रभु श्री राम ने इसे स्थापित किया था। मान्यता के मुताबिक, श्रीराम जब इस स्थान पर आए, तब उन्होंने सर्वप्रथम उप्पूर में गणेशजी की प्राण प्रतिष्ठा की थी। नवपाषाणम् में उन्होंने स्नान और नवग्रह-पूजन किया और देवीपत्तानम के वेताल-तीर्थ और पाम्बन के भैरव-तीर्थ में भी उन्होंने स्नान किया था। कहते हैं कि रामेश्वरम पहले भूमि से मिला हुआ था। किसी प्राकृतिक घटना के कारण इस अंतरीप का मध्य भाग दब गया और वहां पर समुद्र आ गया। यही रामेश्वरम द्वीप 15 किलोमीटर लंबा और 9 किलोमीटर चौड़ा है। यह भी कहा जाता है कि राम ने लंका जाने के लिए, जो सेतु बनवाया था, धनुष्कोटि लौटने पर विभीषण के आग्रह पर उसे धनुष की नोक से तोड़ दिया। इसलिए रामनाथपुरम से धनुष्कोटि तक का संपूर्ण क्षेत्र परम पवित्र स्थल माना जाता है। पहले इस क्षेत्र का नाम गंधमादन था, लेकिन कलियुग के आरंभ में यह पाताल लोक में समा गया। समुद्री द्वीप में स्थित रामेश्वरम में समुद्र का एक भाग बहुत ही संकीर्ण हो गया है, क्योंकि उस पर पाम्बन रेलवे स्टेशन के निकट रेलवे पुल है। यह पुल समुद्र में जहाजों के आने-जाने के समय ऊपर उठा दिया जाता है। ज्योतिर्लिग के दर्शन के लिए उत्तार भारतीय हमेशा रामेश्वरम आते रहते हैं। श्री रामेश्वर पर जल चढ़ाने के लिए जो तांबे या पीतल का पात्र यात्री अर्पित करते हैं, उसे मंदिर में लौटाया नहीं जाता।
रामेश्वरम में वर्ष भर उत्सव होते रहते हैं। रामनवमी पर रामोत्सव अतिमहत्वपूर्ण है। महाकवि तुलसी ने रामचरितमानस में इसका व्यापक वर्णन किया है-
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजिमम लोक सिघरिहहिं।
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति न पाइहि।
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संस्कार देइहि।
मम कृत सेतु जो दरसन करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।
इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में स्थित तिरुपति मंदिर भारत के सबसे अमीर मंदिरों में से एक माना जाता है। आए दिन यहां पर देश विदेश के भक्?त करोडों रुपयों का चढावा चढाते हैं। कुछ साल पूर्व यहां पर आकर बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्?चन ने 12 करोड रुपये का दान करके पूरे देश को चौंका दिया था। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि किसी भी समय पर यहां पर आप कम लोगों के रहने की उम्?मीद नहीं कर सकते। भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन के लिए यहां पर लोग दूर-दूर से लोग चलकर आते हैं। यहां पर जो लोग दान देते हैं वह एक पौराणिक मान्यता के अनुसार देते हैं। माना जाता है कि भगवान वेंकटेश्वरके चरणों में भक्तगण हीरे की थैली भी भेंट करते हैं। मान्यताओं के अनुसार जो भी यहां मांगा जाता है वह पूरा होता है। ये सात पहाडों वाला मंदिर सात पहाडों से मिलकर बना है तिरुपतिमंदिर तिरुमाला पहाड पर स्थित है । इन सातों पहाडों को शेषाचलमया वेंकटाचलमभी कहते हैं। तिरुमाला पहाड की चट्टानें पूरे विश्व में दूसरी सबसे पुरानी चट्टानें हैं। भगवान वेंकटेश्वरको विष्णु का अवतार भी माना जाता है। यह मंदिर समुद्र से 28सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित है। तिरुपति एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है, जहां भक्त अपने भगवान की एक झलक पाने के लिए घंटों लाइन में खडे रहते हैं। यह मंदिर तिरुपतिबालाजी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। अद्भुत वास्तुकला यह मंदिर आंध्रप्रदेश के चित्तूरजिले में स्थित है। इसे तमिल राजा थोंडेईमानने बनाया था। बाद के समय में चोल और तेलुगू राजाओं ने इसे और विकसित किया। यही वजह है कि इस पर द्रविडियन[तमिल] कला की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। सोना और हीरा जडि़त चढ़ावा तिरुमला तिरुपति देवस्थानम के खजाने में नियमित रूप से चढ़ते रहते हैं। पिछले कुछ सालों में ऐसे चढ़ावे कुछ ज्यादा ही आ रहे हैं। इनमें सोने का तोता से लेकर सुनहरी झींगा मछली तक हैं। वर्ष 2005 में तमिलनाडु के एक व्यवसायी ने एक कीमती सुनहरा मुकुट भेंट किया। इसमें कीमती अमेरिकी डायमंड जड़े हुए थे। वर्ष 2006 में भगवान वेंकटेश्वर को सबसे कीमती कुंडल [कर्णाभरानालु] चढ़ाया गया। इसे चेन्नई के एक भक्त अलगप्पा चेतियार ने चढ़ाया था। हीरों जडि़त इस गहने का मूल्य 1.01 करोड़ रुपये के करीब था। उन्होंने 50 लाख से अधिक की सोने की चेन देवी पद्मावती को भी भेंट की।
अप्रैल 2009 में जब विश्व आर्थिक मंदी के कारण परेशान था, तब एक सीमेंट कंपनी के मालिक ने भगवान वेंकटेश को 5 करोड़ रुपये का दस्ताना, कटि और वरद हस्तम भेंट किया। पुणे के एक व्यापारी ने हीरा जडि़त तोता और 'नागाभरणमÓ चढ़ाया जिसका मूल्य 1.5 करोड़ है। तीन साल पहले यूबी ग्रुप के अध्यक्ष विजय माल्या ने मंदिर पर सोने की परत चढ़ाने के लिए सात करोड़ रुपये दिए। पिछले साल जब सोने की कीमत आसमान छू रही थी तब हैदराबाद के एक व्यवसायी राजेंद्रन ने 1.7 करोड़ रुपये का लक्ष्मी हरम [सोने के सिक्कों का हार] चढ़ाया। बेंगलूर के एक अन्य व्यवसायी ने देवी पद्मावती को करीब एक करोड़ का हीरा जडि़त हार चढ़ाया। इतना ही नहीं इसके अलावा ढेरों छोटे-छोटे चढ़ावे चढ़े। सोने की चेन जैसे छोटे मोटे चढ़ावे मुंबई भेज दिए जाते हैं और वहां से उन्हें गला कर सिर्फ शुद्ध सोना मंगाया जाता है और उसे मंदिर के खजाने में जमा कर दिया जाता है। भगवान को चढ़ावे में चढ़ीं कुछ चीजें तो बहुत ही पुरानी और महत्वपूर्ण हैं।
दरगाह अजमेर शरीफ का भारत में बड़ा महत्व है। खास बात यह भी है कि ख्वाजा पर हर धर्म के लोगों का विश्वास है। यहाँ आने वाले जायरीन चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, ख्वाजा के दर पर दस्तक देने जरूर आते हैं ।यह स्टेशन से 2 किमी़. दूर घनी आबादी के बीच स्थित है । अंदर सफेद संगमरमरी शाहजहांनी मस्जिद,बारीक कारीगरी युक्त बेगमी दालान,जन्नती दरवाजा,बुलंद दरवाजा ओर 2 अकबरकालीन देग हैं इन देगों में काजू, बादाम, पिस्ता, इलायची, केसर के साथ चावल पकाया जाता है और गरीबों में बाँटा जाता है। प्रतिदिन हर धर्म-संप्रदाय के सैकड़ों लोग दरगाह में मन्नत मांगने आते हैं और मुराद पूरी होने पर अपनी हैसियत के अनुसार चादर चढ़ाते हैं। यहां मन्नत मांगने के साथ पवित्र धागा बांधने का तो रिवाज है, परंतु मुराद पूरी होने पर खोलने का नहीं। यहां प्रतिवर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश-विदेश से हजारों जायरीन जियारत पेश करने आते हैं। यह उर्स इस्लामी कैलेंडर के अनुसार रजब माह में पहली से छठी तारीख तक मनाया जाता है। छठी तारीख को ख्वाजा साहब की पुण्यतिथि मनाई जाती है। उर्स के दिनों में महफिलखाने में देश भर से आए कव्वाल अपनी कव्वालियों द्वारा ख्वाजा साहब के प्रति अपनी श्रद्धा पेश करते हैं। मान्यता है कि यदि जायरीन यहां आने से पहले हजरत निज़ामुद्दीन औलिया, दिल्ली के दरबार में हाजरी लगाता है तो उसकी मुराद यहां सौ फीसदी पूरी होती है। उर्स के मौके पर लाखों की संख्या में लोग चादर चढ़ाने अजमेर आते हैं, जिनके लिए सरकार विशेष प्रबंध करती है। जायरीनों के ठहरने, नहाने, शौच, चिकित्सा आदि के लिए युद्धस्तर पर कई दिन पहले से ही तैयारियां शुरू कर दी जाती हैं। बाजारों की सजावट इस दिन देखते ही बनती है। दरगाह और उसके आसपास फूल, इत्र और अगरबत्ती आदि की सुगंध महक उठती है। वास्तव में दरगाह शरीफ एक ऐसी पाक जगह है, जहां मनुष्य को खुद को जानने और समझने की शक्ति मिलती है तथा कुछ समय के लिए वह अपने सारे दुखों को भूल जाता है। लेकिन कुछ लोग यहा आकर अपने इस्लाम के खिलाफ् काम करते है। वो यहा आकर अपने आप को झुकाते है जो कि इस्लाम मै सख्त मनाहि है। इस्लाम मे अल्लाह के सिवाय किसी के सामने सज्दा करना पूरी तरह से मना है।
अजमेर से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है यह हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है यहां पर कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक भी आते हैं। हजारों हिन्दु लोग इस मेले में आते हैं। व अपने को पवित्र करने के लिए पुष्कर झील में स्नान करते हैं। इस समय यहां पर पशु मेला भी आयोजित किया जाता है, यह मेला विश्व प्रसिद्ध है इसे देखने के लिए विदेशी सैलानी बडी संख्या में पहुंचते हैं, यहां दुनिया के एक मात्र जगतपिता ब्रह्मा मंदिर ओर प्रजापति मन्दिर समेत कई छोटे बडे मंदिर हैं।
1 टिप्पणी:
बेहतर एवं लाभपूर्ण आलेख के लिए साधुवाद।
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