बुधवार, 7 जुलाई 2010

पानी पीओगे तो मरोगे...

जल ही जीवन है... यह हम भारतीयों के लिए सूक्ति वाक्य बन चुका है, लेकिन प्रदूषित होने पर यही जल मौत का कारण भी बनता है। जब इसमें आर्सेनिक, नाइट्रेट और फ्लोराइड जैसे जहरीले पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती है तो इनसान मौत से भी बदतर जीवन जीने को विवश हो जाता है जरूरी.
बाबर ने अपने बाबरनामा में एक जगह लिखा है कि हिंदुस्तान में चारों तरफ पानी ही पानी दिखाई देता है। यहां जितनी नदियां, मैंने कहीं नहीं देखीं हैं। यहां वर्षा इतनी जोरदार होती है कि कई-कई दिनों तक थमने का नाम नहीं लेती। बाबर के इस लेख से ज्ञात होता है कि पानी के मामले में यह मुल्क कभी आत्मनिर्भर था, लेकिन अब तो वह बूंद-बूंद पानी के लिए तड़प रहा है। जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश कम हो रही है और जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। लिहाजा, भू-जल स्तर गिरता जा रहा है। पानी की जो उपलब्धता है, वह भी पीने लायक नहीं बचा है। कहीं आर्सेनिक, कहीं नाइट्रेट, कहीं फ्लोराइड तो कहीं आयरन घुला है। तथाकथित हरित क्रांति और औद्योगिक क्रांति ने मानव जीवन के मूल आधार पानी को इस तरह विषैला बना दिया है कि इसे पीने से बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। जो पानी जीवनदायी रहा है, प्रदूषण की वजह से आज लोगों का जीवन लील रहा है। कई मामलों में तो यह इनसान को मौत से भी बदतर जिंदगी जीने को मजबूर कर रहा है।
केेंद्रीय भूजल आयोग की रपट बताती है कि देश में 19 राज्यों के 184 जिलों के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा उचित सीमा 1.5 मिलीग्राम से ज्यादा है। वहीं देश के चार राज्यों के 26 जिलों के भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा उचित सीमा 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक है। फ्लोराइड के खतरे के मामले में राजस्थान सबसे ऊपर है और यहां के 32 जिले पानी में इस समस्या से पीडि़त हैं। पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला पानी में आर्सेनिक होने का सबसे ज्यादा शिकार है। बिहार का भोजपुर देश भर में सबसे अधिक आर्सेनिक प्रभावित जिलों में से एक है। पिछले वर्ष बिहार में कराए गए एक सर्वे में 15 जिलों के भू-जल में आर्सेनिक के स्तर में खतरनाक वृद्धि दर्ज की गई थी। समस्तीपुर के एक गांव हराईछापर में भूजल के नमूने में आर्सेनिक की सर्वाधिक मात्रा 2100 पीपीबी पाई गई, जबकि भारत सरकार के स्वास्थ्य मानकों के अनुसार पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तो इसे 10 पीपीबी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के तीन जिलों के 7 ब्लॉकों के 69 गांवों के भूजल में आर्सेनिक पाए जाने की पुष्टि हुई है। पूर्वांचल के बलिया, मऊ, गाजीपुर और सोनभद्र के 11 ब्लाकों में स्थित 140 गांवों के भूजल में कहीं आर्सेनिक, कहीं आयरन तो कहीं फ्लोराइड घुले हैं। इसी तरह झारखंड के 68 गांव, असम में नौ ब्लॉक, मणिपुर में चार जिले और छत्तीसगढ़ के चार गांव ऐसे पाए गए हैं, जिनमें भू-जल आर्सेनिक के कारण प्रदूषित हो चुका है। इसके अलावा गंगा के तराई क्षेत्र में रहने वाले लगभग 66 मिलियन लोग आर्सेनिक की चपेट में हैं।
पानी बिहार, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और गुजरात सहित देश के विभिन्न हिस्सों में लोगों की जिंदगी बर्बाद कर रहा है। पंच दरियाओं की धरती पंजाब का पानी अब इतना जहरीला हो चुका है कि अगर अब भी हम न चेते तो यह जीवन देने की बजाय, जीवन ले लेगा। इसकी भी वजह है पानी में बढ़ता केमिकल। मालवा के पानी में तो केमिकल पहले ही काफी मात्रा में मिल चुका है और अब दोआबा और माझा में भी पानी प्रदूषित हो चुका है। पंजाब देश में हरित क्रांति के वाहक के रूप में जाना जाता है, लेकिन इसी हरित क्रांति का नतीजा है कि आज पंजाब का पानी पीने लायक नहीं बचा है। ग्रीनपीस द्वारा जारी एक अध्ययन में बताया गया है कि पंजाब के भूजल में सिंथेटिक नाइट्रोजन की मात्रा निर्धारित मात्रा से बहुत ज्यादा है। ग्रीनपीस ने अपने अध्ययन में पाया है कि पंजाब के भूजल में नाइट्रेट की मात्रा 50 एमजी प्रति लीटर हो गई है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्धारित मानक से बहुत ज्यादा है। ग्रीनपीस ने जिन 18 गांवों का अध्ययन किया है उसमें आठ से अधिक गांव के पानी में नाइट्रेट की मात्रा निर्धारित मानक से ज्यादा पाई गई है। इतिहास प्रसिद्ध हरियाणा के शहर पानीपत में भी पानी का यही हाल है। शहर के डाई हाउस संचालक चोरी-छिपे जहरीले पानी को भू-गर्भ में पहुंचाकर पानी को विषैला बना रहे हैं। रोजाना करीब 32 लाख लीटर जहरीला पानी जमीन के अंदर पहुंच रहा है और शहर का पेयजल दिनोंदिन विषैला होता जा रहा है। यूं, देश में कुल होने वाले जहरीले कचरे के उत्पादन की श्रेणी में सात राज्यों में गुजरात का स्थान सबसे ऊपर है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गुजरात के हिस्से में 52 लाख टन कचरा उत्पन्न होता है, जो 29 फीसदी है। गुजरात के बाद दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र 25 फीसदी और आंध्र प्रदेश 9 फीसदी के सात तीसरे नंबर पर है। झारखंड के जादूगोड़ा से होकर बहने वाली सुवर्ण रेखा नदी यहां की लाइफ लाइन कही जाती है, लेकिन कारखानों में यूरेनियम धोए जाने का बाद गंदा पानी इसी सुवर्ण रेखा में ही फेंका जाता है। कुछ गरीब यही पानी पीने को भी मजबूर हैं। नदी पर पुल नहीं। इसे पार करने के लिए पानी से होकर आना मजबूरी है। इससे यहां लोग चर्म रोग और अन्य जलजनित बीमारियों के शिकार होते हैं।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में लोग उल्टी-दस्त से परेशान हैं। इसकी वजह है दूषित पानी। भोपाल के 14 गैस प्रभावित इलाकों में तकरीबन 25,000 लोग जहरीला पानी पीने को मजबूर हैं। अभी हफ्ते भर पहले चित्रकूट जिले में जहरीला पानी पीने से बेजुबान पशुओं की मौत हो गई। राजस्थान में झुलसा देने वाली गर्मी के कारण तालाब और जलाशय तेजी से सूख रहे हैं। जो बचा खुचा पानी है, वह भी प्रदूषित है। इनसान तो कुछ हद तक एहतियात बरत लेता है, लेकिन जानवरों को क्या पता किस तालाब पानी पीएं अथवा नहीं। पिछले दिनों प्रदेश के मशहूर रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के पास बरान जिले के शाहाबाद गांव में पानी की कमी होने से पिछले तीन दिनों में 13 बंदर मर गए। इसी तरह बाड़मेड़ में पानी की वजह से यहां 22 चिंकारा हिरणों की मौत हो गई।
इन सबके बीच बिहार की हालिया घटनाएं चौंकाने वाली हैं। यहां भोजपुर जिले के बीहिया के अजय कुमार, शाहपुर के परशुराम, बरहरा के शत्रुघ्न और पीरो के अरुण कुमार भले ही अलग-अलग इलाकों हों, लेकिन इनमें एक बात समान है। समानता यह है कि इनके बच्चों की आंखों की रोशनी नहीं है। इनके साथ ही सोलह और दूसरे परिवारों में जन्मे नवजात शिशुओं की आंखों में भी जन्म से ही रोशनी नहीं है और इसकी भी वजह जानलेवा आर्सेनेकि ही है। भोजपुर जिले में पिछले महीने 50 ऐसे बच्चों के मामले मीडिया में छाए रहे, जिनकी आंखों का नूर कोख में ही चला गया। मामले को जोर-शोर से उठाने वाले आरा के विख्यात नेत्र विशेषज्ञ डॉ. एसके केडिया बताते हैं, 'जन्मजात अंधेपन के दो मामले लगभग छह महीने पहले मेरे अस्पताल में आए थे। उस समय मुझे कुछ गलत नहीं लगा था, लेकिन जब इस तरह के मामले पिछले तीन महीने में नियमित अंतराल पर मेरे पास आने शुरू हुए तो मुझे धीरे-धीरे यह एहसास हुआ कि यह एक नई चीज है। मेरे 20 साल के कैरियर में जन्मजात अंधेपन के मामले इतनी बड़ी संख्या में कभी नहीं आए।Ó काबिलेगौर है कि इस मामले सहित देश में उपलब्ध पेयजल में आर्सेनिक की बढ़ती मात्रा और उसके दुष्प्रभाव को लेकर सांसद प्रभात झा ने संसद में सरकार का ध्यान आकृष्टï किया। इस पर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने संसद के माध्यम से देश को समझाने का प्रयास किया कि मामला गंभीर है और सरकार इसके दुष्प्रभावों को कम करने की दिशा में प्रयत्नशील है।
दरअसल, भारत में 'हरित क्रांतिÓ की शुरुआत के समय यानी 1960 से ही खेती के लिए रासायनिक उर्वरकों का भारी मात्रा में इस्तेमाल किया गया। खेती का यह मॉडल तथा केेंद्र्र और राज्य सरकारों द्वारा रासायनिक उर्वरकों तथा इसकी फैक्ट्रियों को दी जाने वाली सब्सिडी की वजह से देश भर में कृषि कार्य के लिए रसायनों का भारी मात्रा में इस्तेमाल हुआ। कीटनाशकों के इस अंधाधुंध उपयोग की वजह से पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचा ही, पानी और मिट्टी को भा इसने विषैला बना दिया। रही सही कसर देश में स्थापित कारखानों ने पूरी कर दी। विभिन्न शोधों से ज्ञात हो चुका है कि पेयजल और कृषि उत्पादों में नाइट्रेट का स्तर नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के अधिकाधिक इस्तेमाल से बढ़ता है। नाइट्रोजन युक्त उर्वरक का बड़ा हिस्सा पौधे अवशोषित नहीं कर पाते और यह मिट्टी की ऊपरी सतह पर ही रह जाता है। यहां से वह पर्यावरण, जलस्रोतों, भूजल, नदियों-नहरों में जाता है और पानी को संक्रमित बनाता है। खेतों में काम कर रहे किसानों और मजदूरों के छोटे-छोटे बच्चे इन खेतों के आसपास बने कुओं से पानी पीते हैं और नाइट्रेट प्रभावित हो जाते हैं। धीरे-धीरे पेयजल और सब्जियों आदि के जरिए रसायनों की अधिक मात्रा बच्चों के शरीर में चली जाती है और ब्लू-बेबी सिंड्रोम तथा कैैंसर जैसी घातक बीमारियों का कारण बनता है। विशेषज्ञों के अनुसार सूनी और सूखी धरती से जब पानी बहुत नीचे चला जाता है तब पानी कम, खतरनाक केमिकल ज्यादा मिलने लगते हैं। तभी पानी में फ्लोराइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक और अब तो यूरेनियम भी मिलने लगा है। जब पानी आसमान से बरसता है तब उसमें कोई जहर नहीं होता। जब बारिश का पानी झीलों, तालाबों, नदियों में इक_ा होता है तब हमारे पैदा किए गए कचरे से प्रदूषित हो जाता है। पहले पानी झीलों, तालाबों, नदियों से धरती में समा जाता था, लेकिन अब पानी के परंपरागत स्रोत हम धीरे-धीरे बंद करते जा रहे हैं। ऐसे में सूखी होती धरती की कोख अब पानी नहीं, जहर उगल रही है। धरती की खाली होती कोख जहर उगल रही है तो माओं की कोख जन्मांध संतानें। यह नहीं होना चाहिए, लेकिन क्या होना चाहिए, यह सवाल हर इनसान के लिए बेहद अहम है। सच तो यही है कि आज जो पानी हम पी रहे हैं, वह कहीं कैंसर, बच्चों में सेरेब्रल पाल्सी तो कहीं शारीरिक-मानसिक विकलांगता बांट रहा है। मां के गर्भ में ही बच्चों से आंख छीन लेने वाले पानी की एक नई सच्चाई सामने आने वाली है। हालांकि, यह सच अभी आना बाकी है कि असली कारण क्या हैं, लेकिन जो भी हैं वे पानी और पर्यावरण प्रदूषण के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ेंगे। इसके साथ यह भी एक कड़वा सच है कि इन सब के पीछे इनसान ही जिम्मेदार है।
भारत में कुल मृत्यु के 7.5त्न मृत्यु का कारक जहरीला पानी ही है । विश्व स्वाथ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2007 में 16 लाख लोगो की मोत दुसित पानी के सेवन से हुई है । जबकि यह संख्या इस साल मई तक 7 लाख 80 हजार तक जा पहुंची है । रिपोर्ट कह रहे है की इन मोंतो के पीछे भूजल में बढ़ रही द्घद्यशह्म्द्बस्रद्ग और आर्सेनिक की मात्रा है जो लगातार बढ़ रही है। देश में लगभग 600 जिले है और इन में से तकरीबन 200 जिलो के चापाकल से लिए गए नमूने के पानी में द्घद्यशह्म्द्बस्रद्ग और आर्सेनिक की मात्रा उचित सीमा से ज्यादा पाए गए है । सबसे ज्यादा आर्सेनिक तो पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में पाए गए है । अगर राज्यवार चर्चा करे तो सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य राजस्थान है जिसके 32 जिले इसकी चपेट में है जबकि गुजरात के 18 जिले ,उडीसा के 17 जिले और बिहार के 12 जिलो की स्थिति लगातार बिगड़ रही है । बहरहाल इस जहर को रोकने के प्रयास भी किए जा रहे है लेकिन सरकारी प्रक्रिया का जटिल जंजाल इसकी गति को धीमा कर रहा है। इसलिए स्वस्थ भविष्य के लिए हमें स्वयं इसका हल ढूँढना होगा ।वक्त है अब सामूहिक प्रयास का, जिसके अंतर्गत अब न सिफऱ् भूजल को शुद्ध करने की जरुरत है बल्कि वर्षा जल को जमा कर और परिष्कृत कर उसका अधिक से अधिक उपयोग कैसे हो -इस पर भी व्यापक बहस की जाए तथा बेहतर वैज्ञानिक उपकरण खोजे जाए । इसके आलावा रिवर्स ओस्मोसिस की प्रक्रिया को शुरू कर भी इस संसाधन को जहर बनने से रोका जा सकता है ।

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