अनुभा मकान के दूसरे तल्ले में अपनी सहेलियों से घिरी बैठी है। नीचे उसके विवाह की तैयारियां हो रही थीं पर वह इससे बेपरवाह खामोश बैठी सामने दीवार की ओर देख रही थी जिस पर बकरी को ले जाते हुए एक कसाई का चित्र उभर-उभर कर आता था।
तब वह लगभग आठ साल की थी। एक बकरी ने बच्चा जना था। बर्फ-सा सफेद और रेशम सा नर्म। वह बच्चा उसे बहुत प्यारा लगता था। उसे वह हमेशा गोद में उठाए रहती। रात को साथ ही सुलाती। जब बड़ी हुई तो उसे मैदान में चराने ले जाने लगी। तभी एक दिन लाल आंखें और लंबी मूंछों वाला एक भयानक आदमी देखा। बापू से मोल-भाव किया। जेब से निकाल कर कुछ नोट बापू को दिए और उसे लेकर चलता बना। रोटी रह गई थी वह। उस दृश्य से बचने के लिए उसने अपना ध्यान उधर से हटा लिया और दरवाजे में से सामने पहाड़ों की ओर देखने लगी।
इन पहाड़ों के पीछे दूर कहीं दिल्ली है और उसके मानसपटल पर उस महानगरी में बिताए दिनों की याद उभर आई। सर्दियों की एक उदास शाम थी। बहन-बहनोई बच्चों सहित डिस्पेंसरी गए थे। क्वार्टर का दरवाजा अंदर से बंद किए अंगीठी के पास बैठी वह स्वेटर बुन रही थी। अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। उठकर उसने दरवाजा खोला। सामने चौबीस-पचीस साल का एक गोरा स्वस्थ 'स्मार्टÓ नौजवान खड़ा था।
पंडित मुंशीराम जी हैं घर पर?
नौजवान की बोली में पहाड़ी बोली का पुट था जिससे अनुभा जान गई थी कि वह भी उन्हीं के ही इलाके का है।
जी...नहीं... डिस्पेंसरी गए हैं, उसने उत्तर दिया।
आएं तो कहना... कल मिश्रटोला सुधार सभा की बैठक है। जरूर बोल देना...
मिश्रटोला सामुदायिक भवन में 'मिश्रटोला सुधार सभाÓ की बैठक हो रही थी। प्रांगण में तीस-चालीस आदमी दरी पर बैठे थे। अनुभा भी बहन के साथ बाहर धूप में बैठी देख रही थी। एक के बाद दूसरा आदमी उठकर बोल रहा था। किसी ने कहा, हमारे मुहल्ले में एक अच्छा स्कूल होना चाहिए। किसी ने कहा यहां सबसे जरूरत पक्की सड़क एवं नाला की व्यवस्था होनी चाहिए। किसी ने कहा यहां एक अस्पताल होना चाहिए। अनुभा कुछ ऊब सी गई थी। तभी वह नौजवान जो पिछले दिन घर आया था बोलने के लिए खड़ा हुआ। अनुभा के कान अकस्मात उधर लग गए।
वह कह रहा था- हमने बहुत-सी समस्याओं पर विचार किया लेकिन एक समस्या है जिस पर हममें से किसी का भी ध्यान नहीं गया है। वह है हमारे इलाके में औरतों की बेहद बुरी दशा। उनसे गुलामों की तरह काम लिया जाता है। उच्च शिक्षा की बात ही क्या, अधिकतर लड़कियों को प्राइमरी तक की शिक्षा भी नसीब नहीं हेाती। यही नहीं, बहुत से गरीब घरों में अभी भी आजादी के इतने वर्ष बाद भी लड़कियों को भेड़-बकरियों की तरह खरीदा बेचा जाता है। लगभग दस मिनट तक वह बोलता रहा और जब उसने बोलना बंद किया तो लोगों ने तालियां पीटीं। इसके बाद सबने प्रण लिया कि वे इस समस्या को हल करने में सभी की हर प्रकार की सहायता करेंगे।
अनुभा को संजू की बातें बहुत अच्छी लगीं। वह उसे बधाई देने के अवसर खोज रही थी। आखिर एक दिन उसे अवसर मिल ही गया। उसकी बहन को लड़का हुआ था और इसी सिलसिले में वह बधाई देने आया था।
बधाई हो... दरवाजा पार करते हुए चेहरे पर मधुर मुस्कान लाते हुए उसने कहा
आपको भी ... अनुभा ने कुर्सी सरकाते हुए उत्तर दिया। बैठिए... वह कुर्सी पर बैठ गया था। कई क्षणों तक कोई कुछ बोला नहीं। फिर अनुभा ने झिझकते हुए कहा- आपने उस दिन बहुत अच्छी बातें कहीं... बहुत ही अच्छी...
तुम्हें पसंद आईं?
बहुत। अनुभा की झिझक अब कुछ कम हो गई थी। आप सोलह आने सच बोलेे। औरतों की दशा तो हमारे यहां जानवरों से भी बदतर है। काम की बात नहीं, काम तो करना चाहिए लेकिन आज के जमाने में जो भी भेड़-बकरियों की तरह...
बहन को ही देखिए... यह कहते हुए उसका गला भर आया।
संजू भी उदास हो उठा। उसने कहा- बिलकुल ठीक लेकिन अगर अधिक देर तक यह जुल्म नहीं चल सकता। जैसे-जैसे स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार होता जाएगा, वैसे-वैसे उनमें जागृति आती जाएगी और औरतें अपनी दशा सुधारने के लिए आगे आएंगी।
तुम पढ़ी हो अनुभा...?
जी नहीं... हमारे गांव में स्कूल ही कहां है?
तुम्हें पढऩा चाहिए। पढ़-लिखकर ही कोई इनसान बनता है। अच्छा अब चलूं। फिर कभी मिलूंगा...
और दूसरे ही दिन वह बाजार से हिंदी बोध किताब खरीद लाई थी। महीने भर की कठिन मेहनत के बाद वह एक-एक शब्द जोड़कर किताब पढऩे लायक हो गई थी। संजू को उसकी प्रगति देखकर आश्चर्य होता था। वह कहता- तुम्हारा दिमाग बहुत तेज है अनुभा। एक साल में ही तुम रत्न और भूषण क्या प्रभाकर तक पास कर सकती हो।
लेकिन प्रभाकर पास करना अनुभा के भाग्य में कहां लिखा था। चार माह में ही वह दिल्ली में अनचाही हो गई और उसका बहनोई उसे गांव छोडऩे चल दिया। जाते समय संजू ने कहा था- भूल मत जाना अनु... याद रखना कि दिल्ली में भी तुम्हारा कोई है। अनुभा के मुंह से एक सर्द आह फूट पड़ी थी।
सहसा नीचे शोर मचा। बारात आ गई थी। सब लोग अपना-अपना काम छोड़कर बारात देखने भाग खड़े हुए। अनुभा के पास बैठी सहेलियां भी उठकर चल दी। अनुभा अकेली रह गई।
बाजे बजने का स्वर क्रमश: तेज होता जा रहा था। अनुभा की छाती में एक अजीब सी हलचल उठी मानो भीतर बहुत भीतर कोई तेज आरी से चीर रहा हो। बाजे-गाजे... खुशियां किसलिए...?
जिस दिन कसाई उस बकरी को ले गया था, उस दिन तो कोई खुशियां नहीं मनाई गईं थीं? कोई बाजे नहीं बजे थे। तो क्या वह वास्तव में ही बकरी है? उसने खुद से सवाल किया और उसकी नजरों के सामने कुछ दिन पहले का एक दृश्य घूम गया।
दिल्ली से लौटने के कोई एक महीने भर बाद की बात है। उस दिन घर में कुछ मेहमान आए थे। उसे नए कपड़े पहन कर उनके लिए चाय लेकर जाना पड़ा था। चाय देते समय उसने महसूस किया था कि एक जो कि उम्र में उसके बापू से कोई आठ-दस वर्ष ही कम होगा, उसकी ओर विशेष ध्यान से देख रहा है। बिलकुल उसी तरह जिस तरह उस कसाई ने बकरी के उस बच्चे को देखा था। चाय देकर लौटते समय बातें सुनने के लिए वह दरवाजे से सटकर खड़ी हो गई थी। एक मेहमान कह रहा था- बहुत सुंदर है और स्वस्थ भी। पांच हजार और विवाह के खर्चे अलग...ठीक...।
वह तिलमिला उठी थी। वह बकरी नहीं है कि उसका मूल्य डाला जाए। यह जुल्म वह कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। उसका विरोध करेगी। कई दिन तक खाना न खाने के कारण वह सूख कर कांटा हुआ यह शरीर माथे पर का यह जख्म संजू को केवल एक पत्र लिखने के अपराध में पीठ पर छडिय़ों के निशान क्या जाहिर करते थे सब? लेकिन वह कुछ नहीं कर सकी और अब तो कुछ करने का समय ही कहां था। बारात दरवाजे पर आ चुकी थी।
बारात खाना खाने बैठी थी। अचानक अंदर से उड़ती-उड़ती एक खबर आई कि लड़की का कुछ अता-पता नहीं है। तलाश शुरू हो गई। नदी, नाले, बेडिय़ां जहां कहीं भी ऐसी दशा में एक गरीब बेसहारा लड़की शरण ले सकती थी, सभी देखे जाने लगे लेकिन अनुभा कहीं भी नहीं मिली। तीसरे दिन डाक से अनुभा के बापू को उसका एक बैरंग खत मिला। टूटी-फूटी हिंदी में उसमें जो कुछ लिखा था, वह इस प्रकार था -
प्यारे बापू। मैं जा रही हूं क्योंकि मैं भेड़-बकरी नहीं हूं। जिसे खरीदा बेचा जाए। मैं स्त्री हूं और स्त्री की तरह रहना चाहती हंू। बापू घबराना नहीं। तुम्हारी अनुभा कोई ऐसा काम नहीं करेगी जिससे खानदान की इज्जत बिगड़ जाए। ऐसा काम करने से पहले वह मर जाएगी। एक तेज चाकू उसने अपने पास रख लिया है। बापू कहीं जाकर मैं नौकरी कर लंूगी। पढ़ूंगी और अपनी जिंदगी को अच्छा बनाने की कोशिश करूंगी। तुम चिंता न करना....
तुम्हारी अनु।
-सतीश चंद्र झा
गुरुवार, 4 मार्च 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
ंअच्छी कहानी है। मानवीय संवेदनाओं को उकेरेने में सक्षम। लेखक को बधाई। एक अच्छी कहानी के लिए।
aaj bhi jadtar ladkiyon ki yahi kahani hai. mudda purana hokar bhi samsaamik hai.acchi aur bhavnatmak kahani hai.
beautiful...theme purani hai per accha tana bana buna hai. pehli line thodi aur touching honi chayr thi....taki padne ka mann kare aur tartmay bana rahe
deepti angrish
एक टिप्पणी भेजें