राजनीतिक सत्ता सामाजिक बदलाव का एक औजार जरूर है, लेकिन क्या यह व्यक्तियों को सत्ता में बदल देने का भी औजार है? इसे हमारे देश के तमाम राजनेताओं ने साबित किया है कि सत्तातंत्र की लगाम हाथ लगते ही उनकी दिशा अपने स्वार्थों और नफे-नुकसान के हिसाब से तय होने लगती है। बिहार में लालू प्रसाद के 'ध्वंस-युगÓ के बाद संपूर्ण क्रांति की ही जमीन पर उगे नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार के बीते चार साल में सामाजिक विकास या शैक्षिक सुधार के सवाल पर बने तमाम आयोगों का जिस तरह इस्तेमाल हुआ या उनका जो हश्र हुआ, उसे देखते हुए भुमि सुधार आयोग की सिफारिशों के खारिज किये जाने पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सत्ता में आते ही अमीरदास आयोग को भंग करने के बाद यह दूसरी बार है जब नीतीश कुमार ने खुले तौर पर यह बताने की कोश्शि की है कि उनकी सामाजिक विकास दृष्टि और राजनीति असल में क्या है?
नीतीश कुमार ने 'बदल गया बिहारÓ के सुर वाले नारे को 'सूचनाÓ के रूप में पेश किया और महज सूचक बनकर समूचे मीडिया जगत ने इसे देश-समाज के सामने परोस दिया। 'विकास वोट के लिए कोई मुद्दा नहीं हैÓ - यह वह शिगूफा है, जो शायद कभी लालू प्रसाद की जुबान से फिसला था। तो बिहार में मौजूदा विकास-राग के दौर में क्या लालू प्रसाद के उस जुमले को अपने असर के साथ लौटने में महज तीन महीने लगे? क्या कारण है कि 'शाइनिंग इंडियाÓ और 'फील गुडÓ की तर्ज पर 'बदल गया बिहारÓ का प्रचार उपचुनावों में कारगर नहीं रहा? तो भला नीतिश सरकार कैसे आश्वस्त हो सकती है कि आगामी विधानसभा चुनाव में उसका झंडा बुलंद होगा? कुछ विश्लेषकों की निगाह में भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट और उसे लागू करने की अफवाह से नीतीश सरकार ने मतदाताओं को डरा दिया कि वह जमीन पर जोतदारों को हक देने जा रही है! इस निष्कर्ष को सामने रखने वाले लोग दरअसल नीतीश कुमार को यह बताना चाहते थे कि अगर राज्य के भूपतियों यानी जमींदारों को छेड़ा गया तो उसके नतीजे ऐसे ही होंगे। सच तो यह भी है कि अमीरदास आयोग या बंद्योपाध्याय समिति की सिफारिशों का हश्र तो महज कुछ नमूने हैं.। भौतिक विकास के पर्याय के रूप में सड़क, अपराध-भ्रष्टाचार से मुक्ति, सामाजिक विकास के लिए अति पिछड़ों और महादलितों के लिए विशेष घोषणाएं और परिवारवाद से कथित 'लड़ाईÓ - ये ऐसे मुद्दे रहे हैं, जो पिछले तीन-चार साल से कुछ लोगों को रिझाते रहे हैं। मगर थोड़ा करीब जाते ही यह साफ हो जाता है कि इन कुछ प्रचार-सूत्रों को किस तरह हकीकत को ढकने या उसे दफन कर देने का औजार बनाया गया है! इसी दौर में एक और महत्वपूर्ण 'मिशनÓ जारी है, जिसमें सामाजिक यथास्थितिवाद पर हमला करने वाले किसी भी सोच को बड़े करीने से किनारे लगाया जा रहा है। कुछ समय पूर्व पटना में बिहार की ब्रांडिंग में मीडिया की भूमिका विषय पर गोष्ठी हुई थी। यह प्रसंग दिलचस्प इसलिए है कि क्या मीडिया का काम किसी राज्य की 'ब्रांडिंगÓ करना है, या फिर उसकी प्राथमिकताओं में जनता की जगह राज्य आ गया है। यों बिहार में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने और तीन महीने में सब कुछ ठीक कर देने की मुनादी के कुछ ही समय बाद से मीडिया को सब कुछ गुडी-गुडी दिखायी देने लगा था। ऐसे में सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या यह सचमुच सब कुछ ठीक हो जाने का संकेत था, या खुली आंखों पर एक ऐसा चश्मा चढ़ जाना था जिसके पार वही दिखायी देता है जो हम देखना चाहते हैं?
इसके उलट यह जरूर हुआ है कि बिहार में अपनी मांगों को लेकर पिछले तीन-चार सालों में आंदोलन करने वाले किसी भी वर्ग या समूह की शामत आ गयी है। विरोध प्रदर्शनों को लाठियों, पानी के फव्वारों या गोली के सहारे कुचल देना नीतीश सरकार की खासियत बन चुकी है। पुलिस शिक्षकों से लेकर 'आशाÓ की महिला कार्यकर्ताओं तक पर पूरी ताकत से लाठियां बरसाती है। लेकिन यह सुशासनी लाठी 'विकासÓ की नयी ऊंचाइयों की ओर अग्रसर भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं चलती।
तमाम दावों के उलट व्यवहार में भ्रष्टाचार की कितनी नयी परतें तैयार हुईं हैं, इस सच का अंदाजा पंचायत से लेकर प्रखंड और जिला स्तरीय कार्यालयों और पुलिस थानों की गतिविधियों को देख कर ही लगाया जा सकता है। स्कूलों से लेकर आंगनवाड़ी केंद्रों तक का जिला अधिकारी या वरिष्ठ अधिकारियों के औचक निरीक्षण का मतलब कितना ड्यूटी सुनिश्चित करना है और कितना कमाई करना, इसे नजदीक से देखे बिना समझना मुद्गिकल है।
यों भी, अगर सरकार सड़कें बनवाने पर खास जोर दे रही है तो यह राज्य के नागरिकों पर मेहरबानी किस तरह है? दूसरे, राज्य उच्च पथों जैसे राज्य के अधीन कुछ को छोड़ कर बाकी सड़कों के मामले में राज्य सरकार की भूमिका महज कार्य कराने तक सीमित है। जबकि राष्ट्रीय उच्च पथों और ग्रामीण इलाकों की सड़कों के निर्माण और विकास के लिए केंद्र सरकार सीधे तौर पर वित्तीय सहायता देती है। इसके अलावा घोषित और प्रचारित दावों के विपरीत राज्य में काफी कम सड़कें बनीं हैं, और जो बनी भी हैं वे काफी घटिया स्तर की हैं। ज्यादातर सड़कों पर कोलतार की परत चढ़ा कर उन्हें देखने में सुहाने लायक बना दिया गया, जिसकी उम्र दो से चार महीने से ज्यादा की नहीं होती।
इतिहास के कुछ पन्नों को शायद इसलिए नहीं भूला जा सकता क्योंकि न्याय सुनिश्चित होने तक उन्हें भूलना भी नहीं चाहिए. राजनीति की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन सवाल है कि इसकी कीमत क्या हो।
4 टिप्पणियां:
इतिहास के कुछ पन्नों को शायद इसलिए नहीं भूला जा सकता क्योंकि न्याय सुनिश्चित होने तक उन्हें भूलना भी नहीं चाहिए. राजनीति की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन सवाल है कि इसकी कीमत क्या हो। .....bahut accha likhate hai aap. subhakamanaye.
सुभाष चंद्र साहब, आप ब्लॉग चलाते हैं। इतना तो ध्यान रखना चाहिए कि आप जो सामग्री छाप रहे हैं, उसे और लोग भी देख रहे होंगे।
यह जनसत्ता में पहले फिर मोहल्ला और कुछ और जगहों पर प्रकाशित लेख -बदलते बिहार का वितंडा- का संक्षिप्त हिस्सा है। आपने कहीं नाम भी उल्लेख नहीं किया कि कोई शिकायत नहीं करूं। खैर, आगे कहीं से सामग्री लेते समय न्यूनतम ईमानदारी जरूर बरतें।
यह दर्ज करना रह गया कि यह मेरा, यानी अरविंद शेष का लेख है।
hke iri lkwi ;hkabnkeh ahk
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