रविवार, 6 सितंबर 2015

कहां से आए चाणक्य?


 बिहार की आबादी प्रतिशत में काफी कम ब्राह्मण देश की अस्सी प्रतिशत जगहों पर कैसे बैठे हैं? विधानसभा में इनकी संख्या आबादी प्रतिशत से अधिक कैसे है ? इसे कैसे उखाड़ फेंका जाए? इसके कौन-कौन कारक हैं ? बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया, उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था।


सुभाष चंद्र 

बेशक पुराण-शास्त्रों और समाज में ब्राह्मण को विशिष्ट मान्यता दी गई है। हिंदुस्तान की राजनीति में भी इनका काफी वर्चस्व रहा, लेकिन नब्बे के दशक आते-आते इनकी शक्ति क्षीण होती गई और ये हाशिए पर धकेल दिए गए। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रदेशों में कभी सत्ता की धुरी ब्राह्मण ही रहे, लेकिन दोनों प्रदेशों में आज ये दलित और अन्य जातियों से काफी पीछे हैं। भले ही आज भी ब्राह्मण नेता हों, लेकिन पहले वाली आदर-सत्कार उन्हें नसीब नहीं है। आखिर क्यों? नब्बे के दशक में जैसे ही बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद का चेहरा उभरता है, जातीय राजनीति में सत्ता की सियासत से ब्राह्मणों को पूरी तरह से बाहर कर दिया जाता है। बरबस ही आज सवाल उठ रहा है कि क्या चाणक्य की कर्मभूमि में ब्राह्मणों की राजनीति का अवसान काल है ? 
असल में, उत्तर प्रदेश के साथ ही बिहार में मंडल के दौर से, बिहार के संदर्भ में कहें कि कर्पूरी ठाकुर के समय से ही तिलक तराजू ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का विरोध पहले चरम पर पहुंचा और अब यह सत्ता का कारक है। बिहार की आबादी में केवल 7 प्रतिशत की भागीदारी है ब्राह्मणों की। इसमें मतदाताओं की संख्या और भी कम हो जाएगी, क्योंकि लगभग हरेक परिवार के सदस्य प्रवासी जीवन जी रहे हैं। हालांकि, डॉ. जगन्नाथ मिश्र जैसे नेता आज हौसला नहीं छोड़े हैं। उनका कहना है कि राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। तमिलनाडु को देखिए, वहां दलित राजनीति होती है, लेकिन दलितों की नेता तो जयललिता ही हैं न! फिर बिहार में ऐसी स्थिति क्यों नहीं हो सकती है? जयललिता ब्राह्मण हैं, लेकिन दलितों की नेता हैं। बकौल राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नेता जयनारायण त्रिवेदी, ‘देखिए ब्राह्मणों ने हमेशा से चाणक्य की भूमिका निभाई है और भविष्य में भी वे इस भूमिका में सक्रिय रहेंगे। चाणक्य के बगैर सत्ता चल ही नहीं सकती।’
यहां हम यह बता दें कि लोकसभा चुनाव में जैसे ही बिहार में जदयू की दुर्गति हुई, उसके बाद आनन-फानन में नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी छोड़ी और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। मांझी के मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण को शामिल नहीं किया गया था। बिहार की राजनीति में यह आजादी के बाद का पहला मंत्रिमंडल था, जिसमें एक भी ब्राह्मण नहीं रहा। इसके बाद भला कोई भी ब्राह्मण नेता क्या कहेगा? यहां सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार जिस कुर्मी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं वो 3 प्रतिशत है, तो 7 प्रतिशत वाले ब्राह्मण का यह हाल क्यों ? आपको बता दें कि बिहार की राजनीति में 2011 की जनगणना के अनुसार, यादव 13 प्रतिशत, कुर्मी 3 प्रतिशत, कोइरी 4 प्रतिशत, कुशवाहा 2 प्रतिशत और तेली 3 प्रतिशत सहित अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग 17 प्रतिशत, महादलित 10 प्रतिशत, पासवान और दुसाध 6 प्रतिशत, मुस्लिम 16.5 प्रतिशत, आदिवासी 1.3 प्रतिशत, भूमिहार 6 प्रतिशत, राजपूत 9 प्रतिशत और कायस्थ 3 प्रतिशत हंै।  कभी बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव,नीतीश कुमार ओर रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था।अभी तक का हालात ऐसा है कि सभी पार्टी ब्राह्मण को साथ लाने में डर रहे हैं कि इससे कहीं बाकी जाति उनसे दूर न हो जाएं ।
अतीत की ओर चलें, तो हमें पता चलता है कि कांगे्रस में 30 के दशक में कायस्थों का वर्चस्व था। उसके बाद राजपूत और भूमिहार का दौर आया। कांगे्रस में जब बिखराव आया और इंदिरा कांग्रेस बनी, तो ब्राह्मणों का कद बढ़ा। इंदिरा गांधी ने ब्राह्मणों के साथ पिछड़े, दलितों व मुसलमानों को मिलाकर सत्ता की सियासत के लिए एक नया समीकरण बनाया जो हिट हुआ। इसे लेकर सवर्णों की ही दूसरी जातियों में ब्राह्मणों से ईर्ष्या बढ़ी। बिहार के संदर्भ में बात करें, तो जयप्रकाश नारायण आंदोलन के समय ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया गया था।  एक नारा चला था- लाला, ग्वाला और अकबर के साला वाली जाति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि जातीय राजनीति और ब्राह्मणों के अवसान से यदि किसी को सर्वाधिक नुकसान हुआ है, तो वह कांग्रेस पार्टी है। बिहार के साथ उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस का सच इसी के करीब है। बिहार प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं प्रेमचंद्र मिश्र। वे कहते हैं कि जिस दिन ब्राह्मण फिर से कांग्रेस के साथ आ जाएंगे, उसी दिन से उनका भाग्य बदल जाएगा। 
ब्राह्मण हमेशा से अपनी सामाजिक कूटनीतिक राजनीतिक संरचना और उसकी उपयोगिता के कारण दूसरों का ध्यान खींचता आ रहा है। यही कारण है कि कल तक ब्राह्मणों के खिलाफ सर्व समाज में जहर उगलने वाले आज अपनी रणनीतियां पलटकर इनका समर्थन पाने के लिए, इनके आगे-पीछे भाग रहे हैं। बिहार में कुछ जो चर्चित ब्राह्मण नेता हुए, उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके प्रजापति मिश्र, ललित नारायण मिश्र, विनोदानंद झा, जगन्नाथ मिश्र, विंदेश्वरी दुबे, केदार पांडेय, भागवत झा ‘आजाद’ आदि का नाम लिया जाता है। ये सभी कांग्रेसी रहे। समाजवादी नेताओं में रामानंद तिवारी एक बड़े नाम हुए, लेकिन उनकी पहचान ब्राह्मण नेता की नहीं रही, बाद में उनके बेटे शिवानंद तिवारी राजनीति में आए। भागवत झा ‘आजाद’ की राजनीतिक फसल उनके बेटे कीर्ति झा ‘आजाद’ के सांसद बनने की है। यह अलग बात है कि वे अपने पिता के विपरीत भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। भले ही 3 बार सांसद बने, लेकिन मंत्री पद अब तक नसीब नहीं हुआ है। डॉ. जगन्नाथ मिश्र खुद कई बार मुख्यमंत्री रहे, बाद में अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत नीतीश कुमार के सहारे चमकाते रहे। अब जगन्नाथ मिश्र और उनके बेटे जीतन राम मांझी खेमे में हैं। जदयू खेमे में एक संजय झा का नाम बीच-बीच में आता रहा, लेकिन कोई भी बड़ा सम्मान उन्हें अब तक नहीं मिला है। ललित नारायण मिश्र के परिवार से उनके बेटे विजय मिश्र जदयू से विधान परिषद के सदस्य हैं। विजय मिश्र के भी बेटे ऋषि मिश्र जदयू के कोटे से ही विधायक हैं, लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी में उनकी हैसियत भी बस एक विधान पार्षद या विधायक भर की है।
बहरहाल, प्रेमचंद्र मिश्रा का जो दुख है, उससे कई राजनीतिक विश्लेषक भी इत्तेफाक रखते हैं। चाणक्य को एक प्रतीक मानकर बार-बार ब्राह्मणों को श्रेष्ठ रणनीतिकार बताया जाता रहा है। बिहार में कई ब्राह्मण नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री और मंत्री रहकर लंबे समय तक राज किया है, आज वहां ओबीसी राजनीति के उभार के बाद अतिपिछड़ों व दलित-महादलितों की राजनीति के उभार के दौर में ऐसा क्या हो गया कि सवर्ण समूह की तो हैसियत बढ़ी, लेकिन ब्राह्मण अनुपयोगी होते गए। विश्लेषकों का कहना है कि बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों को एक सिरे से बाहर कर देने का मसला महत्वपूर्ण नहीं है। नीतीश कुमार पहले तो सवर्णों के लिए सवर्ण आयोग बनाकर अपनी राजनीति साधने में लगे हुए थे, लेकिन जीतन राम मांझी भी सवर्णों के लिए अलग से आरक्षण का पासा फेंक चुके हैं। चूंकि, कमान फिर से नीतीश के हाथ में है, अब भाजपा भी साथ नहीं है, लिहाजा अगड़ी जातियों को एक सवर्ण समूह में बदलने के बाद ब्राह्मणों का नुकसान सबसे ज्यादा हुआ है। 
आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ताल ठोंक रही है। गिने-चुने ब्राह्मण नेता इसके साथ हैं। भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ब्राह्मण समुदाय से जरूर हैं, लेकिन पार्टी में दबदबा नहीं बना पाए हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता अश्विनी चौबे, फिलहाल ब्राह्मण बहुल संसदीय क्षेत्र बक्सर से सांसद हैं।  सच यह भी है कि बिहार से वर्तमान समय में दो सांसद ब्राह्मण हैं और दोनों भाजपा के ही हैं।
 देश भर के अगड़ों की तरह बिहार में भी अगड़े वर्ग द्वारा मतदान का औसत और जातियों के मुकाबले कम रहता है। इसकी वजह दूसरी जातियों के अपेक्षाकृत अगड़ों की अधिक संपन्नता है। समृद्ध लोग गरीबों के मुकाबले कम मतदान करते हैं। साथ ही दूसरी जातियों के मुकाबले वो अधिक संख्या में प्रवासी होते हैं और बाहर रहने की वजह से मतदान नहीं कर पाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि हर अगड़ा भाजपा के नाम पर वोट देता है। पिछड़ों की राजनीति करने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल के जो चार सांसद 2009 में चुने गए थे, उनमें लालू को छोड़ तीनों अगड़ी जाति के थे। 
असल में, 1980 में जन्म के बाद से ही भाजपा की पहचान अगड़ी जातियों की रही। अपने दम पर वह पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों का वोट नहीं खींच पाई। 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में और 2009 के आम चुनाव में बिहार में जदयू-भाजपा को मिली भारी जीत का सबसे बड़ा कारण ये था कि उसका गठबंधन एक सफल जातीय समीकरण पर अमल कर पाया था। बतौर मुख्यमंत्री नीतीश ने यादवों के अलावा पिछड़ी जातियों को अतिपिछड़ा का, पासवानों के अलावा दलितों को महादलित का, और सम्पन्न मुसलमानों के अलावा बाकी मुसलमानों को पसमंदा का दर्ज़ा देकर सरकारी सहायता देनी शुरू कर दी थी। इसके चलते 2010 में इस गठबंधन को अगड़ों के अलावा कई पिछड़ों और दलितों और कुछ मुसलमानों का भी वोट मिला। लेकिन जैसे ही जून 2013 में जब भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, तो यह गठबंधन टूट गया। मोदी की मुसलमान-विरोधी छवि का हवाला देते हुए नीतीश ने भाजपा से सत्रह साल पुराना नाता तोड़ लिया। जिस प्रकार से लोकसभा चुनाव में भाजपा का सफलता मिली, उससे पार्टी कार्यकर्ता उत्साहित हैं।

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