जहां इस करारी हार के बाद भाजपा को कांग्रेस बने बगैर ईमानदारी से आत्ममंथन करना होगा, सत्ता के दंभ से बचना होगा, वहीं आम आदमी पार्टी को भी सत्ता के नशे से बचने के डोज अभी से लेना शुरू कर देना चाहिए। नहीं तो जैसा कि आदरणीय स्व. राजेन्द्र माथुर जी लिखते थे - सत्ता में आने के बाद हर पार्टी कांग्रेस बन जाती है।
अब तक दिल्ली की राजनीति में माना जाता रहा कि यहां पर स्थानीय लोगों का ही बोलबाला है, लेकिन हालिया विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार से जनादेश आया और अरविंद केजरीवाल नए नायक बनकर उभरे, उसने एक नहीं कई मिथकों को धूल-धूसरित कर दिया। मसलन, दिल्ली की राजनीति में दिल्ली के बाहर के लोगों का बोलबाला नहीं है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय है। कांग्रेस में अभी भी जान बाकी है। पूर्वांचल के लोगों यहां वोट बैंक से अधिक कुछ भी नहीं हैं। गरीब और आम आदमी की बात नहीं सुनी जाती है। ऐसे एक नहीं, कई मिथक बन चुके थे। गंभीर चिंता का विषय....पूरी दिल्ली अराजक हो गई है..तो क्या दिल्लीवालों को जंगल में शिफ्ट हो जाना चाहिए? किस्मत दरवाजे पर आकर दस्तक दे रही थी लेकिन कमबख्त दिल्लीवालों ने बदनसीब के ही साथ जाने का फैसला किया। अभद्रता, कुसंस्कार, घमंड ,बड़बोलेपन और नकारात्मतक सोच पर जीत हुई शिष्टाचारी, संस्कारी, विनम्रता, मृदुभाषी और सकारात्मक सोच की....चाणक्य बार-बार पैदा नहीं होते...चाणक्य को चंद्रगुप्त मौर्य और उसके मुट्ठी भर विश्वासी साथियों पर भरोसा था...कलियुग के चाणक्य ने तो चंद्रगुप्त को ही आउटसोर्स कर लिया था....पैराशूट कल्चर, जमीनी कार्यकर्ताओं को जूते की नोंक पर रखने की प्रवृति और अति आत्मविश्वास के साथ घमंड के मिश्रण ने कांग्रेस जैसी पार्टी को कहीं का नहीं छोड़ा....अब बीजेपी की भी बारी है....अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं करके बाहर वालों को सिर आंखों पर बिठाया था बीजेपी के चाणक्य ने। बीजेपी और कांग्रेस दोनों को सबक सीखना चाहिए....केजरीवाल के 67 विधायक...और पूरी दिल्ली का नायक अरविंद केजरीवाल..
कुछ लोग दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत को राजनीति का महाक्रांति और भाजपा तथा कांग्रेस के अध्याय की समाप्ति की जो तस्वीर पेश कर रहे हैं उसका अभी कोई अर्थ नहीं है। आआपा की शानदार और ऐतिहासिक जीत है, भाजपा की अब तक की सबसे बड़ी हार है, कांग्रेस के पास तो कुछ बचा ही नहीं......। लेकिन इसकी सीमाओं को भी समझना होगा। दिल्ली जैसे एक मेट्रो शहर के राज्य में संगठन बनाना और इसे मीडिया में प्रचार दिलवाना जितना आसान है उतना ही दूसरे राज्यों में नहीं है।
गौर करें। आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली के बाहर रहते हैं। कौशांबी में, जो गाजियाबाद में है। आप का मुख्य कार्यालय भी कौशांबी में ही है। भाजपा को इस चुनाव में मुंह की खानी पड़ी है। नेता विपक्ष के लायक भी वह संख्याबल हासिल नहीं कर पाई। कांग्रेस का नामोनिशान मिट गया। गरीब और पूर्वांचल-उत्तरांचल की बात करने वाले लोेगों ने अपनी ताकत दिखा दी।
यह कहें कि अरविंद केजरलीवाल ने नरेंद्र मोदी की आंखों से काजल चुरा ली, तो कोई दिल्ली के परिप्रेक्ष्य में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। नरेंद्र मोदी ने स्वयं को इस मुकाबले के लिए प्रस्तुत किया। अमित शाह और तमाम दिग्गजों की मौजूदगी के बाद भी वो इस मुकाबले में छाए रहे। किरण बेदी को रणनीतिक तौर पर उतारे जाने का फैसला भी उनकी मंजूरी या सोच के बिना तो नहीं ही हुआ था। खुद अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके लगातार विस्तार पाते आभामंडल से सीधा मुकाबला करने से डर रहे थे। वो चाह ही रहे थे कि ये मोदी बनाम केजरीवाल ना हो। दिल्ली के लोग दिसंबर 2013 से ही कह रहे हैं कि पीएम मोदी और सीएम केजरीवाल। पर फिर भी नरेंद्र मोदी खुद सीधे मुकाबले में उतरे और केजरीवाल जीते। खुद मोदी जी अगर इसे स्वीकार करते हैं तो वो अधिक विनम्र और बड़े नेता बनकर उभरेंगे। नहीं तो कांग्रेस की ही परंपरा का पालन होगा जहां प्रचार की पूरी कमान संभालने के बाद भी राहुल गांधी कभी हार के लिए जिम्मेदार नहीं होते। केजरीवाल कह कर उनकी आंख से काजल चुरा कर ले गए हैं।
इस जीत ने आम आदमी पार्टी को तो जिताया है लोकतंत्र को भी जितया है और उसे परिपक्व भी किया है। देश का वोटर स्थानीय और राष्ट्रीय चुनावों में कितना साफगोई से फर्क कर पाता है ये उसने बता दिया है। ये भी कि जनता माफ करना भी जानती है। जैसे लोकसभा चुनावों में तमाम आरोपों और गुजरात दंगों के दाग हवा में उछाले के जाने के बाद भी मोदी जी को पूर्ण बहुमत दिया। दिल्ली में तो 7-0 कर दिया। ऐसे ही जनता ने अरविंद केजरीवाल को भी माफ कर दिया। मोदी-शाह के विजय रथ के सामने घुटने टेके खड़ी कांग्रेस को केजरीवाल और उनके साथियों से सबक लेना चाहिए और इस लोकतंत्र की ताकत में अधिक भरोसा करना चाहिए। आम आदमी पार्टी ने जमीनी कार्य से इस ताकत का फायदा उठाया। उन्हें ऐसी सफलता मिलेगी ये खुद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा।
बात भाजपा की। आखिर 10 फरवरी ने भाजपा के अंदर और बाहर कौन से बदलाव किए ? भाजपा के समर्थकों, ‘नेताओं’ और ‘बड़े नेताओं’ सबके लिए 10 फरवरी का दिन टर्निंग प्वॉंइट बन गया। 10 फरवरी ने यह भी तय कर दिया कि भाजपाको अभी की तरह बेधड़क, बेलौस लीडरशिप अब नहीं मिल सकती, क्योंकि देश के अन्य ताकतवर क्षत्रप, जो अभी तक नेपथ्य में थे, वो सर उठाएंगे। ये 10 फरवरी इसलिए भी अहम है, क्योंकि इसी तारीख को तय हो गया कि भाजपा अगले चुनावों में क्या रणनीति बनाएगी ? बड़ा सवाल है कि क्या दिल्ली में किरन बेदी की तरह देश के अन्य हिस्सों में कोई बोल्ड कदम उठा पाएगी भाजपा ? क्या भाजपा की ये लीडरशिप मौजूद भी रहेगी?ऐसा माना जा रहा है कि किरन बेदी को लाने के लिए भाजपा की तय लाइन तोड़ने की वजह से शाह-मोदी पहले से ही अंदरूनी तौर पर घिरे हुए हैं। ऐसे में उनके इस दांव के फेल होने को विपक्षी नेता महज चूक मानकर जाने नहीं देने वाले। बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में चुनाव को देखते हुए ये नेता खुद को अगुवा की दौड़ में शामिल करना चाहेंगे। मौजूदा दौर में भले ही कमजोर से दिखने वाले ये चेहरे अगर एकसाथ आ गए, और उन्होंने आरएसएस का समर्थन हासिल कर लिया। तो मोदी-शाह के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। ऐसे में भले ही चेहरे न बदले जाएं, लेकिन उनके फैसलों में हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। फिर वो खुलकर किसी किरन बेदी को सीएम पद का चेहरा नहीं बना पाएंगे, और न ही किसी शाजिया, धीर, अश्विनी, कृष्णा तीरथ जैसे नेता को निर्विवादित तरीके से पार्टी में स्थापित कर पाएंगे। क्योंकि तब शाह-मोदी का हाथ पकड़ने के लिए उनके हाथ मजबूत हो चुके होंगे, जो अभी नेपथ्य में रहकर अपनी पारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
बिना किसी लाग-लपेट के कहें तो दिल्ली में भाजपा की हार का मलतब है, मोदी-शाह लीडरशिप से पहले की एक्टिव लीडरशिप के ताकतवर होने की पूरी संभावना। इसके अलावा दूसरी पीढ़ी की लीडरशिप भी अपनी उभार के लिए जोर डालेगी। यहां से इन गुटों में टकराव की पूरी-पूरी संभावना नजर आती है। आडवाणी खेमा जो लोकसभा चुनाव से 6 महीनों तक पूरी तरह से हावी था, उसे नरेंद्र मोदी ने पीछे ढ़केल दिया था। वो राजनाथ की मदद से खुद फ्रंट पर आए, और लगातार चुनाव दर चुनाव फतह करते रहे। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा, तो उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण किले उत्तर प्रदेश के घेरेबंदी की कमान अमित शाह के हाथों में दी। अमित शाह के बनाए समीकरणों में भाजपा ने सभी दलों का सफाया कर दिया। इसका इनाम नरेंद्र मोदी ने उन्हें ‘मैन ऑफ द मैच’ बताकर दिया और सरकार गठन के साथ ही उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया। और जो भी चेहरे दौड़ में थे, उन्हें नेपथ्य में ढकेलते हुए बहुतों को तय मंत्रालय से बेदखल कर दिया गया, तो बहुतों को कोई कुर्सी ही न मिली। वो चेहरे जो भाजपा की रीढ़ हुआ करते थे, अंधेरे में डूब गए।
दिल्ली में युवक युवतियों के डांस और गीत टीवी चैनलों के टीआरपी के लिहाज से सुन्दर विजुअल हैं। उसे बार-बार दिखाने से लोगों के बीच माहौल बनता है। यही उत्तर प्रदेश में नहीं हो सकता। कुछ शहरों में आप कर सकते हैं, पर गांवों में कैसे? दूसरे राज्यों में भी यही स्थिति है। उ. प्र. के 80 लोकसभा क्षेत्रों में एक-एक सभाये करनेे के लिए कम से कम दो महीना चाहिए।
आआपा ने अभी तक कोई दूरगामी गंभीर राजनीति विचार, प्रशासनिक व आर्थिक सोच भी सामने नहीं रखा है। दिल्ली को आधार बनाकर आआपा लोगांे को आकर्षित कर सकती है। पर यह विविधताओं से भरा देश है। दिल्ली की तरह एकरुप समस्या वाहे शहर में उसको चिन्हित करना व उसे मुद्दा बनाना जितना आसान है उतना ही दूसरे राज्यों के संदर्भ में नहीं है। हां, भाजपा को अपनी कार्यसंस्कृति और निर्णय प्रक्रिया पर गहन विमर्श में बदलाव करने की आवश्यकता इस परिणाम ने अवश्य उत्पन्न किया है। नहीं करेंगे तो दूसरे राज्यों में खामियाजा भुगतेंगे।
कांग्रेस को अपनी नीति, रणनीति, नेतृत्व, मुद्दे पर कहीं ज्यादा गहन मंथन और आमूल बदलाव का साहस दिखाना होगा, अन्यथा उसकी और दुर्दशा होगी। कांग्रेसियों के एक बड़े वर्ग ने भाजपा को हराने के लिए अपनी पार्टी की जगह आआपा को मत देने की जो रणनीति अपनाई वह उसके लिए आत्मघाती था। लेकिन उसे यह देर से समझ में आयेगी। पर किसी दृष्टि से यह परिणाम भारत में किसी बड़े परिवर्तन का सूचक नहीं है। जो दल इस परिणाम से अपने पुनरोदय की उम्मीद लगाये हैं उनको इससे बहुत कुछ ठोस नहीं मिलने वाला।
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