शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

मेरी बिल्ली मुझसे ही म्याऊं


बिहार में सियासी पारा आसमान पर है। एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीयू विधायक दल के नेता नीतीश कुमार राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश कर चुके हैं तो वहीं मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने राज्यपाल से मुलाकात के बाद नीतीश के नेता चुने जाने पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। अब गेंद राज्यपाल के पाले में है और उनका एक फैसला बिहार की सियासत में नई लकीर खींच सकता है।  इसके साथ ही बिहार में चल रही राजनीतिक उठापटक दर्शा रही है कि पद का मोह व्यक्ति को किस हद तक ले जा सकता है। एक, जिसे मुख्यमंत्री पद लॉटरी खुलने की भांति मिला था अब वह पद नहीं छोड़ने पर उतारू है और इसके लिए अपनी ही पार्टी के विरोध में झंडा बुलंद कर रहा है तो दूसरी ओर एक ऐसा व्यक्ति है जोकि आठ माह पहले जिस नैतिकता के नाम पर पद छोड़ कर गया था वह कोई ऐसा पुख्ता कारण नहीं बता पा रहा है कि क्यों वह इस पद पर वापस आना चाहता है।
130 विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश ने साफ किया कि उन्हें जल्द से जल्द सरकार बनाने का न्योता मिलना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता है तो विधायकों की खरीद फरोख्त को बढ़ावा  मिल सकता है। नीतीश के साथ पहुंचे लालू यादव की आरजेडी के 24 विधायक भी जेडीयू के साथ हैं। ऐसे में लालू ने नीतीश को तुरंत सीएम बनाए जाने के साथ ही समर्थन की चिट्ठी राज्यपाल को सौंपने की बात कही। नीतीश कुमार के खेमे ने मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को पार्टी से बर्खास्त भले कर दिया हो लेकिन मांझी इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं हैं। राज्यपाल से मिलने के बाद सीएम जीतनराम मांझी ने नीतीश के विधायक दल के नेता चुने जाने को ही अवैध करार दे दिया। उन्होंने ये भी भरोसा जताया कि जब राज्यपाल उन्हें बहुमत साबित करने के लिए कहेंगे, वो ऐसा करने में सक्षम हैं। सियासी सुगबुगाहट ये भी है कि पीएम से मिलने के बाद मांझी के हौसले बुलंद हैं और वो भी अपने साथ बहुमत के जरूरी आंकड़े जुटाने का दम भर रहे हैं।
दरअसल, पिछले साल लोकसभा चुनावों में जनता दल युनाइटेड की करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से खुद इस्तीफा इसलिए दे दिया था क्योंकि उन्हें पता था कि पार्टी में उनके इस्तीफे की मांग उठेगी। शिवानंद तिवारी ने इसकी शुरुआत की भी लेकिन उन्हें जल्द ही चुप करा दिया गया। मधेपुरा से लोकसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी अध्यक्ष शरद यादव भी नीतीश से नाराज बताये जा रहे थे हालांकि वह नीतीश को पद से हटाने जैसा साहस नहीं दिखाते लेकिन फिर भी इससे पहले की इस्तीफे की मांग बलवती हो, नीतीश ने खुद ही श्नैतिकताश् की मिसाल बनते हुए हार की जिम्मेदारी ली और मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया। हालांकि जब मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश ने जीतन राम मांझी का चयन किया तब यह साफ हो गया था कि वह रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाना चाहते हैं। मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी में नीतीश कुमार के बाद कई और तगड़े दावेदार थे लेकिन नीतीश ने उनको कमान इसलिए नहीं सौंपी कि कहीं वह आगे चलकर उनके लिए ही संकट ना पैदा कर दें। नीतीश ने उस समय बड़ी चतुराई से एक ऐसे व्यक्ति (जीतन राम मांझी) का चयन किया जोकि उनके लिए राजनीतिक रूप से चुनौती खड़ी करने की हैसियत नहीं रखता था। साथ ही मांझी को मुख्यमंत्री पद देकर महादलित वोटों को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता था। लेकिन नीतीश की चतुराई खुद उन पर और पार्टी पर भारी पड़ गयी। मुख्यमंत्री पद पर आते ही मांझी अकसर विवादित बयान देते गये और प्रशासन के लचर होते जाने के समाचार पार्टी की छवि पर असर डालने लगे। यही नहीं जब मांझी को यह भान हो गया कि नीतीश अब उनको हटाकर खुद मुख्यमंत्री पद पर आना चाहते हैं तो वह बागी भी हो गये और पार्टी के भीतर का झगड़ा सड़कों पर आ गया।
देखा जाए तो, नीतीश ने मांझी को आसान मोहरा समझ कर बड़ी भारी गलती की थी। उन्होंने सोचा था कि वह उनके इशारे पर ही काम करेंगे तथा इस दौरान वह (नीतीश) जनता परिवार को एकजुट करने और पार्टी संगठन को मजबूत करने में थोड़ा ध्यान लगाएंगे। वह कुछ सफल होते भी दिखे क्योंकि राज्य विधानसभा उपचुनाव में जद-यू ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और भाजपा को करारी मात दी। इसके बाद से नीतीश मुख्यमंत्री पद पर वापस आने की जुगत भिड़ाने लगे। उनके नाम पर जब राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव भी राजी हो गये तो उनका हौसला बढ़ गया। उन्हें अन्य नेताओं ने भी यही सलाह दी कि इस वर्ष होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में यदि भाजपा से मुकाबला करना है तो नेतृत्व उन्हें ही संभालना होगा। अब सही समय का इंतजार होने लगा लेकिन समय आने पर मांझी उसी नाव में छेद करने पर उतारू हो गये जिसका उन्हें खिवैया बनाया गया था।
बहरहाल, मांझी ने जो रुख अख्तियार किया है उसे नैतिक आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि चाहे जो भी कारण रहा हो, उनकी राजनीतिक हैसियत को बढ़ाने का काम नीतीश कुमार ने ही किया और नीतीश के चाहने पर ही वह मुख्यमंत्री पद पा सके। अब यदि पार्टी नयी रणनीति के हिसाब से मुख्यमंत्री पद पर नीतीश कुमार की वापसी चाह रही है तो उन्हें नीतीश के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए था। उनके बागी तेवर उनका राजनीतिक कैरियर चैपट भी करवा सकते हैं। फिलहाल तो उन्हें भाजपा की सहानुभूति प्राप्त होती नजर आ रही है जबकि वह मुख्य विपक्षी दल होने के नाते मांझी सरकार की काफी आलोचना करती रही है। बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी चाहते तो बिहार की दलित-उत्पीड़ित जनता के पक्षधर और सेक्युलर-लोकतांत्रिक सियासत के तरफदार नेता बनकर एक नया इतिहास रच सकते थे। लेकिन बीते कुछ महीनों के दौरान उनके काम, बयान और गतिविधियों पर नजर डालें तो निराशा होती है। उन्होंने दलितों के बीच चुनावी-जनाधार पैदा करने की कोशिश जरूर की, पर दलित-उत्पीड़ितों के मुद्दों और सरोकारों के लिए कुछ खास नहीं किया। ले-देकर वह बिहार के कुछ सवर्ण-सामंती पृष्ठभूमि के दबंग नेताओं के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संरक्षण-समर्थन में उभरते ‘दूसरे रामसुदंर दास’ नजर आए। अगर उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के रास्ते पर चलने की कोशिश की होती, तो नीतीश कुमार या शरद यादव उनके खिलाफ मुहिम छेड़ने का साहस नहीं कर पाते। लेकिन कुर्सी पर बने रहने और जिस नीतीश ने उन्हें मुख्यमंत्री नामांकित किया, को चिढ़ाने और नीचा दिखाने के लिए वह भाजपा के शीर्ष पुरूष और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं, राज्य के छोटे-मोटे भाजपा नेताओं का भी अभिनंदन करने लगे।
वैसे, संवैधानिक आधार पर मांझी का यह कहना भी सही है कि विधायक दल की बैठक बुलाने का अधिकार सिर्फ मुख्यमंत्री को है लेकिन यदि विधायक अपने नेता के प्रति अविश्वास व्यक्त करते हुए नया नेता चुन लें तो उसमें कुछ गलत नहीं है। नीतीश कुमार को सिर्फ जद-यू विधायक दल का ही नहीं बल्कि राजद, माकपा और कांग्रेस विधायकों का भी समर्थन प्राप्त है, ऐसे में उन्हें सरकार बनाने से रोकना उचित नहीं होगा। हालांकि इस मुद्दे पर राज्यपाल अपने विवेक के अनुसार निर्णय करेंगे कि वह मुख्यमंत्री मांझी के विधानसभा भंग करने के प्रस्ताव को मानें अथवा जद-यू के उस पत्र पर गौर करें जिसमें नीतीश को नया नेता चुनने की जानकारी और सरकार बनाने के लिए निमंत्रण देने का आग्रह किया गया है। इस पूरे प्रकरण में भाजपा को बहुत सतर्कता से आगे कदम बढ़ाना होगा। मांझी की सरकार को समर्थन देना उसके लिए घाटे का सौदा साबित हो सकता है क्योंकि इसी वर्ष विधानसभा चुनाव हैं। नीतीश को रोकने का कोई भी गलत प्रयास जनता में सही संदेश नहीं पहुंचाएगा और बाद में नीतीश इसको भुना भी सकते हैं। यदि मांझी भाजपा में शामिल होकर जद-यू सरकार के खिलाफ बिगुल बजाएं तो शायद यह भाजपा के लिए फायदेमंद रहे। बहरहाल, यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि जनता ने तो पांच साल तक सरकार चलाने का जनादेश दिया था लेकिन राजनीतिक कारणों से आज प्रदेश को राजनीतिक अस्थिरता की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। वैसे मांझी जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तभी उन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए था कि इस पद पर उनकी अस्थायी नियुक्ति है क्योंकि नीतीश कुमार नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने और फिर वापस पद पर आने का काम पहले भी करते रहे हैं। केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान एक रेल दुर्घटना के बाद उन्होंने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था लेकिन दो माह बाद पद पर वापस आ गये। इसी प्रकार केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर अल्पमत वाली बिहार सरकार के मुखिया बने और जब सरकार गिर गयी तो वापस केंद्र में आ गये।
इस सबके बीच एक सवाल उठना लाजमी है, अगर मांझी सचमुच दलित-उत्पीड़ित अवाम के हमदर्द रहे हैं, तो बिहार में ऐसे समुदायों के लिए चले कार्यक्रमों के प्रति उनका रवैया क्या था? शायद ही इस बात पर किसी तरह का विवाद हो कि बिहार जैसे राज्य में भूमि-सुधार दलित-उत्पीड़ित समुदायों के पक्ष का सबसे प्रमुख एजेंडा है. आजादी के तुरंत बाद ही बिहार में भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करने की कोशिश की गई । लेकिन ताकतवर नेताओं की एक लाबी ने इसे नहीं होने दिया। क्या जीतनराम मांझी के ‘दलित-एजेंडे’ में भूमि सुधार जैसा अहम मुद्दा शामिल है? क्या अब तक के अपने कार्यकाल में मांझी ने भूमि सुधार की बंदोपाध्याय रिपोर्ट को पटना सचिवालय की धूलभरी आलमारियों से बाहर निकालने की एक बार भी कोशिश की? अगर नहीं, तो कहां है उनका दलित-एजेंडा? दलित-एजेंडा सिर्फ भाषणबाजी नहीं हो सकता! ऐसी भाषणबाजी तो दलित समुदाय से आने वाले पहले के नेता भी करते रहे हैं।  क्या अमीरदास आयोग को फिर से बहाल करने के बारे में कभी विचार किया? इसका गठन कुख्यात रणवीर सेना के राजनीतिक रिश्तों की जांच के लिए हुआ था लेकिन भूस्वामी लाबी के दबाव में पूर्ववर्ती सरकार ने उस आयोग को ही खत्म कर दिया। राज्य के मुख्यमंत्री और दलित नेता के तौर पर मांझी की बड़ी परीक्षा शंकरबिघा हत्याकांड के सारे अभियुक्तों के स्थानीय अदालत द्वारा छोड़े जाने के फैसले पर भी होनी थी।

कोई टिप्पणी नहीं: