शुक्रवार, 8 जून 2012
ऐसा क्यों ?
एक बार मैंने उन्हें कह दिया तुम मेरी जि़न्दगी हो! बहुत ख़ुश हुईं!! खनकती आवाज़ में बोलीं, 'शुक्रिया!Ó आज भी उनकी आवाज कानों में रस घोलती है। कितना अपनापन था। आज भी देह सिहर उठा, जब फोन रिसीव किया था। लगा वही हैं। लेकिन थी नहीं। कॉल सेंटर से फोन था। मन हुआ, सुनता ही रहूं। काश!
आज वह याद आ रही है, जब नहीं वह नहीं है। इंसानी फितरत है, जब कोई पास में नहीं होता है, तभी उसकी अहमियत जान पड़ती है। यह आभास आज हो रहा है। तब नहीं हुआ था। मन कचोट जाता है, स्मरण मात्र से। लेकिन कर भी क्या सकता हूं? उनसे जुड़ी तमाम बातें एक-एक करके मानस पाटल पर अंकित होती चली जा रही है। लगता है कल की ही बात है।
वास्तव में करीब एक दशक पूर्व हमारी पहली मुलाकाम एक छोटे से कस्बे में हुई थी। उम्र में मुझसे चंद साल बड़ी रही होंगी। आज तक उम्र नहीं पूछा। लड़कियों का उम्र नहीं पूछते भाई। मुलाकात होती गई और समय बीतता गया। यह तो समयचक्र है, जो हर वक्त चलायमान रहता हैै और उसी के वशीभूत प्राणी समझता है कि वह बदल गया हैै। लेकिन वास्तव में समय बदलता है, साथ ही नयी जिम्मेदारियां और प्राथमिकताएं आ जाती हंै। और मानव को उसे गाहे-बगाहे स्वीकार करना होता है। जिसने समय की इस नियति को स्वीकार नहीं किया है, समय उसका अस्तित्व ही मिटा देता है। समयचक्र की उसी गति में मैं बदल गया और बदल गया मेरा परिवेश। बदल गई हैं मान्यताएं । जिसे मैं अपने जीवन का सिद्घांत समझता था, जिनको अपना अराध्य मान लिया था, वह भी तो बदल गया है। याद आ रहा है, वह पड़ाव जहां आकर आकर दोनों के राह जुदा हुए। कसमें खाईं थी रहगुजर होने का। लेकिन...सामाजिक डर के कारण निभा नहीं सका। विजातीय होने से समाज का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। सामने से तो साहस था, मैं ही भीरू निकल गया।
फिर, उस मोहपाश से किसी तरह निकल पाया था। औपचारिक शिक्षा पूरी करते ही महानगर आ पहुंचा। यह रहने के संग पुराने रिश्ते छीजते गए। संवेदनाएं कम होती रहीं। प्राथमिताएं बदलती गईं। जिनके बिना पहले रहना मुश्किल होता, उनकी याद मुश्किल से ही आती। शायद यह मानवीय गुण है। आम आदमी की। जि़न्दगी में भी जैसे-जैसे महत्व एवं उपयोगिता बढ़ती जाती है, व्यक्ति उत्तेजनारहित और शांत होता जाता है। खनक! सिक्कों की खनक तो सुनी ही होगी आपने। सिक्के, मूल्य वाले तो होते हैं एक, दो, पांच के, पर आवाज ज़्यादा निकालते हैं। वहीं दस, बीस, पचास, सौ, पांच सौ और हज़ार के नोट शांत होते हैं, ख़ामोश रहते हैं, क्योंकि उनका मूल्य अधिक होता है। इसी तरह जि़न्दगी में भी जैसे-जैसे महत्व एवं उपयोगिता बढ़ती जाती है, व्यक्ति उत्तेजनारहित और शांत होता जाता है। नए जिम्मेदारियां उसे फुरसत ही नहीं लेनी देती।
सच तो यह भी है कि जि़न्दगी में हर कोई सफलता की ऊँचाई प्राप्त करना चाहता है। पर हम कितनी ऊँचाई प्राप्त कर सकते हैं, तब तक नहीं जान पाते जब तक हम उड़ान भरने के लिए अपने पंख नहीं फैलाते। मगर इसके साथ एक दिक्कत भी है। हम अपने पुराने जमीन से दूर होते जाते हैं। कुछ ऐसा ही तो हुआ था। जीवन को बेहतर बनाने की कवायद में वह स्मृति के किसी स्याह कोने में चली गईं थी। अचानक आज फोन की आवाज से बेतरतीब चित्र उभरने लगे।
उसका एक-एक कहा शब्द याद आने लगा। याद आता है उसकी सादगी, उसकी मौसिकी की न$फासत और नजाकत भी। प्रेम में टूटी हुई, बिखरी हुई- खुदï्दार स्त्री। वास्तव में उसकी बातों में एक अजीब सी चहचहाट थी जो अपने मद्घिम-मद्घिम सुरों में सोते हुओं को जगाने का काम करती थी। उसमें रूमानियत भी थी और गहरी ऐंद्रिकता भी, पर कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि सामने की दुनिया सिफऱ् एक सपना हैै। अपनी सूक्ष्म यथार्थपरकता के कारण ही मुख्य रूप से स्त्री और प्रेम को आधार बनाकर उसकी कही बातें आज भी जेह्न में आती हैं,
कितनी परिपक्व थी उसकी सोच। कभी-कभार झुंझलाती थी मुझ पर या स्वयं पर ? समाज की रूढि़वादी मान्यताओं पर? अथवा कार्यक्षेत्र की चकाचौंध भरी भागम-भाग जि़ंदगी और गलाकाट प्रतिस्पर्धा पर, जिसके मारे हुए हम दोनों ही थे? दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप चलता था, लेकिन वैयक्तिगत स्तर पर नहीं, समूह के आधार पर। मैं महिला को कोसता तो वह पुरुष को। कारण, हम दोनों कमोबेश एक ही सोच के थे। फिर भी दोस्ती थी...............।
कई बार तो गिरने से संभाला था। शुक्रिया भी तो नहीं कहा था। आखिर, गंगा में स्नान करने के बाद भला कोई यह कहता है, ''शुक्रिया माँ गंगे, तूने मेरा पाप धो डाला।ÓÓ जि़न्दगी का हर हिस्सा एक समान नहीं होता। कुछ करड़-मरड़ की आवाज़ वाला, तो कुछ कड़वे-कसैले स्वाद वाला, वहीं कुछ मुलायम तो कुछ कठोर पल वाला। जब भी परेशान होता तो वह कहा करती थी, सुंदर जि़न्दगी बस यूं ही नहीं हो जाती। इसे रोज़ बनाना पड़ता है अपनी प्रार्थनाओं से, नम्रता से, त्याग से एवं प्रेम से!
उस पल तो शांत हो जाता था। लेकिन आज मन की ज्वाला शांत नहीं हो रही। दशक बीत चुके हैं। आज फिर से उसका साथ पाने को मन आतुर हो रहा है। आखिर क्यों? मन में एक हूक-सी उठती है। जबाव मिलता है- भीरूता का यही परिणाम होता है। जब वह थी तो उसका महत्व समझ नहीं पाया और जब आज वह नहीं है तो उसका पुराण पाठ स्मृति में कर रहा हूं। यह मानवीय लक्षण है। जब कोई हमारे पास नहीं होता,तो हम बड़ा ख़ाली-ख़ाली महसूस करते हैं, अकेलापन का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों से जि़न्दगी के मतलब बदल जाते हैं। ऐसे लोग हमारे हृदय तंतुओं को छूते हैं। उनके आस-पास रहने से हममें मधुर भावनाओं का संचार होता है। जि़न्दगी में हम विभिन्न प्रकार के लोग से मिलते हैं। कुछ लोग अन्य की तुलना में हमारे ज़्यादा प्रिय हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? शायद वह हमारे किस्मत में नहीं होते। हमारी करनी का फल नियति देता है। जिसका कद्र तुमने नहीं किया, वह तुमसे आगे निकल जाएगा। तुम्हारे पास पछतावे के अलावे कुछ नहीं होता।
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