गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

पत्रकारिता के लिए डिग्री नहीं है जरूरी

इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की भीड़ ने पत्रकारिता कॉलेज और इंस्टीच्यूटों की बल्ले-बल्ले कर दी है। जिसे देखिए, ग्लैमर और रूतबा के लिए इन संस्थानों में जा घुसता है और येन-केन प्रकारेण कुछ दिनों बाद एक डिग्री हाथ में लेकर बाजार में निकल जाता है। अपने लिए नौकरी खेाजना। और यहीं से उसकी असली पत्रकारिता शुरू होती है। हाथ में डिग्री आना एक बात है और उसके सहारे अपने को स्थापित करना दूसरी। बतातें चले कि आज जितने भी मीडिया के बड़े नाम हैं किसी के पास पत्रकारिता की कागजी डिग्री नहीं है, जबकि वे लोग चलती-फिरती मीडिया संस्थान हैं, जिनके सान्निध्य मात्र से पत्रकारिता आ जाती है।
तमाम पत्रकारीय सिद्घांतों पर बाजार किस कदर हावी होता है, इसका मुजाहिरा पत्रकारिता से अधिक कहीं नहीं दिखेगा। डिग्री हासिल करने के क्रम में बताया जाता है कि पत्रकारिता में जनपक्षीय सरोकार होता है, लेकिन जब विज्ञापन आ जाने से जनपक्षीय सरोकार से जुड़े खबर को हटाकर वहां अदद विज्ञापन चस्पा कर दिया जाता है, तो डिग्रीधारी बेजुबान हो जाते हैं। जिस संस्थान (अखबार, पत्रिका आदि) के बल पर वह अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानते हुए इतराते हैं, उसका मास्टरहेड ही जब बाजार के आगे झुकता है तो भला डिग्रीधारी की रीढ़ की हड्डी कैसे मजबूत रह सकती है। जब संस्थान के मालिक किसी राजनीतिक दल की पैरोकार करते हैं और उसके विरोध की खबर संपादक द्वारा दबा दी जाती है तो पत्रकारिता का कौन सा सिद्घांत वहां लागू होता है। कॉलेजों में तो यह नहीं सिखाया जाता है? वहां तो मानवीय सरोकारों की घूंटी पिलाई जाती है।
यदि आप 'एÓ ग्रेड के संस्थान में हैं तो ठीक। यदि 'बीÓ और 'सी Ó श्रेणी के संस्थानों में पत्रकारिता करना चाहते हैं तो रोज नई मुसीबत। 'सीÓ ग्रेड का तो फिर भी एक सिद्घांत होता है स्वहित। तथाकथित लोगों की रायशुमारी में पीतपत्रकारिता ही उसकी नियति होती है, फिर भी उसका दृष्टिïकोण एकांगी होता है - पैसा कमाओ। डराओ या धमकाओ या फिर ब्लैकमेलिंग करों, लेकिन कमाओ।
अंतद्र्वंद की स्थिति 'बीÓ गे्रड के संस्थानों में होती है। यहां नियुक्ति से लेकर कामकाज के स्तर पर कुछ भी स्पष्टï नहीं होता है। नियुक्ति में यदि आपके साथ किसी महिला की उम्मीदवारी है तो आपका न होना निश्चित मानिए। महिला से संपादक को और भी कई प्रकार के काम लेने की सोच होती है। अपना स्टेटस सिंबल भी तो दिखाना है। आपकी नियुक्ति इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप किस प्रदेश से हैं? आपकी जाति क्या है? आपकी विचारधारा कौन सी है? बिहार के लोग बिहारियों को प्रश्रय देंगे तो कायस्थ जाति के लोग कायस्थों को ही नौकरी देंगे। पत्रकारिता में ब्राह्मïणवाद तो पुरानी बात है ही। यदि आप पर भगवा विचार हावी है तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने वाले कभी आपको अपने साथ नहीं रखेंगे? यकीन मानिए, दिल्ली से निकलने वाली एक साप्ताहिक पत्रिका में कायस्थों का बोलबाला इस कदर हैं कि औरों की वहां गुंजाइश ही नहीं है। वहीं, एक संपादक नये प्रोजेक्ट की तैयारी में जुटे हैं और उनकी पहली प्राथमिकता इस बात को लेकर है कि उम्मीदवार ब्राह्मïण हो। वैसे भी संपादकों का महिला प्रेम तो आदिकाल से चला आ रहा है। भला, ये बातें तो पत्राकारिता के कॉलेजों में नहीं बताई-सिखाई जाती है। जब आपकी नियुक्ति हो भी जाती है तो 'बीÓ ग्रेड के संस्थानों में कारण हर दिन युद्घ लडऩे जैसा है। कारण, ये तथाकथित सिद्घांतों के पैरोकारों भी होते हैं और साथ में अनैतिक रूप से पैसा भी कमाना चाहते हैं। संपादकीय और प्रबंधकीय दृष्टिïकोण में सामंजस्य नहीं हो पाता। नतीजन, संपादकीय टीम को आर्थिक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।
हमारे कुछ मित्र कहते हैं कि फलां-फलां संस्थानों में महिलाओं का शोषण होता है। उनको यह बताता चलंूं कि हमारी भी कुछ महिला मित्र हैं। कुछ सामान्य तो कुछ अतिसुंदर। हालंाकि, यह दोस्ती का पैमाना नहीं है मेरे लिए। कुछ संस्थानों में कुछेक महिलाओं को केवल उनके सुडौल-मांसल शरीर के कारण नियुक्ति हुई है तो उन्हें उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी न... आज से करीब तीन वर्ष पूर्व एक संस्थान में मैं भी गया था इंटरव्यू देने। पहली बार संपादक बने सज्जन ने हालांकि मेरी लेखनी की तारीफ की, लेकिन मौका दिया सुडौल-मांसल-नवयौवना को। तय खुद करें? कुछ दिन बाद उसी महिला ने संपादक पर शोषण का आरोप लगाया और चलती बनी...एक नई मंजिल की ओर....
इसका मतलब यह नहीं कि हरेक महिला इसी फर्में की होती हैं। शोषण तो पुरूष पत्राकारों का भी होता है। कई वरिष्ठ पत्रकारों को कलम थामें वर्षों हो गए हैं। लेकिन आज भी पत्रकार बने हैं। एक सज्जन तो नए-नए लड़कों को नौकरी देने का आश्वासन देकर तो कभी जरूरतमंदों को आर्थिक लाभ का भरोसा देकर स्टोरी कराते हैं और केवल उसमें अपना नाम चिपका देते हैं। क्या यह बात पत्रकारिता के कोर्स में बताई जाती है।
यकीनन, आप कहेंगे नहीं। तो फिर क्यों अपने माँ-बाप के धन को बर्बाद करें एक डिग्री के लिए। जिसकी कोई अहमियत नहीं है। जब जुगाड़तंत्र के सहारे ही आगे बढऩा है।

3 टिप्‍पणियां:

करण समस्तीपुरी ने कहा…

आपका आलेख मेरे जख्म पर मरहम जैसा लगा........... ! सत्य वचन !! धन्यवाद !!!

arvind ने कहा…

bahut satik likha hai aapne. lekin dukh ki baat hai ki media bhi baajarbaad ke prabhav me hai.isake to aise hi parinaam aayeng. isaka jabab sirf swasth patrakaarita hai.

deepti angrish ने कहा…

umda....puri bhadas aapne udal di. thodi se meri bhi udal dete to bhadas damdar ho jati.