देश के स्वभामिमान पर जब स्वहित हावी हो जाता है तो पूर्व स्थापित मान्यताएं छीजते चले जाते हैं। एक-एक कर पुराने गौरवशाली इतिहास पर वर्तमान कालिख पोतता चला जाता है। नतीजन, राष्टï्र व समाज संक्रमण काल से गुजरता है। उन परिस्थितियों में भविष्य का स्पष्टï चित्र नहीं उभर पाता है। आखिर, जब महात्मा गांधी की भूमि पर गोधरा कांड होता हो, पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने वाले बाल गंगाधर तिलक के प्रदेश में क्षेत्रवाद आग उगल रहा हो, जवाहर लाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व अतीक अहमद सरीखें लोगों के हाथों में जाता दिखे तो चिंता होना स्वभाविक है।
भारत को आजादी मिले छह दशक से अधिक का समय हो चुका है। उम्र के हिसाब से बात की जाए तो यह वह उम्र होती है कि जब इनसान अपने जीवन के तमाम रंग देख चुका होता है। बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, गृहस्थजीवन आदि। इनसान को प्रौढ़ माना जाता है, लेकिन हमारा देश तो आज भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक और तकनीकी स्तर पर बेशक नए आयाम गढ़े गए हों, वैचारिक स्तर पर देश अधोमुखी हुआ है। शायद यही वजह है कि जिस आजादी को हासिल करने के लिए लोगों ने तिरंगे का सहारा लिया, आज तिरंगे पर हथियार हावी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सर्वोच्च संस्था संसद में बैठने के लिए आजादी के मतवालों ने तिरंगा लेकर आंदोलन किया तो वर्तमान में संसद के अंदर पहुंचने के लिए बाहुबली नेता एके-47 सरीखें हथियारों का सहारा लेते हैं। यह संक्रमण नहीं तो और क्या? एक नहीं ढेरों उदाहरण हैं। अव्वल तो यह कि देश के उच्चतम न्यायालय ने भी इस प्रकार के मामलों की सुनवाई में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच के आदेश नहीं दे सकता है। शीर्ष कोर्ट ने इसकी जिम्मेदारी जांच एजेंसियों पर डाली है। मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग के खिलाफ दायर आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले की सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया।
काबिलेगौर है कि देश के प्रथम राष्टï्रपति राजेंद्र प्रसाद जिस क्षेत्र से आते थे, उस सीवान का प्रतिनिधित्व मो. शहाबुद्दीन करते हैं। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में देश को सुचारु ढंग से चलाने के लिए नीति-निर्धारण करने में महत्वूर्ण भूमिका निभाई तो आज शहाबुद्दीन बंदूक के बल पर अपने मन की चलाता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का संसदीय क्षेत्र फूलपुर इस बात पर इतराता था कि उसने देश को पहला प्रधानमंत्री दिया, लेकिन आज क्या हाल है? बाहुबली और कई मामलों में वांछित अतीक अहमद को लोग डरकर वोट देते हैं। नेहरू-गांधी की विरासत की मलाई खा रही सोनिया की कांग्रेस अतीक अहमद को नेहरू जी की लोकसभा सीट फूलपुर से प्रत्याशी बनाती है। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विरोध का बिगुल फंूकने वाले बरेली के मंगल पांडे को हर कोई जानता है। आज बलिया सहित उसके पड़ोसी जिलों की क्या दशा है? बेशक, समाजवादी विचारधारा के चंद्रशेखर ने कई वर्षों तक बलिया का प्रतिनिधित्व किया हो, लेकिन हर कोई जानता है कि उनकी दबंगई के चलते इलाके में कोई उनके विरोध में चंू तक नहंीं कर सकता था। बलिया के पड़ोसी जिले गाजीपुर के अफजल अंसारी के कारनामों से हर कोई वाकिफ है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर कराए जाने वाले आम चुनाव में अंसारी किस प्रकार की व्यवस्था का मुजाहिरा करते हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है।
विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा गुजरात अपने सपूत महात्मा गांधी को लेकर मुदित होता रहा है। उसी गुजरात में जब मानवता को कलंकित करने वाली गोधरा जैसी घटना घटती है और प्रदेश के मुखिया नरेंद्र मोदी का नाम भी घसीटा जाता है तो गांधी की विरासत शर्मशार होती है। अनेकता में एकता का रंग भरने के लिए महाराष्टï्र के कद्दावर नेता लोकमान्य बाल गंगधार तिलक ने गणेश महोत्सव का शुभारंभ किया। यह तिलक का ही प्रभाव था कि पूरे देश के लोग एक झंडे के नीचे आकर स्वंत्रतता के लिए आंदोलित हुए थे। पिछले कुछ समय से उन्हीं तिलक के महाराष्टï्र में पहले बाल ठाकरे और अब राज ठाकरे क्षेत्रवाद के नाम पर लोगों को लील रहे हैं। सऊदी अरब से एक मुसलमान आकर हिंदुस्तानी बनता है। जो पहले सर्वहारा था, महात्मा गांधी के कहने मात्र से विशुद्घ शाकाहारी बनता है और भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में आगे बढ़कर जिम्मेवारी लेता है। देश का पहला शिक्षा मंत्री बनकर शैक्षणिक सुधार करता है, लेकिन आज के मुसलमान धर्म के नाम पर सांप्रदायिक हो जाते हैं जिसका लाभ राजनीतिक दल उठाते हैं। आखिर, इसके लिए तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपना सर्वस्व न्यौछावर नहीं किया था? लोगों के मन में सवाल उठता है कि मक्का से आकर मौलाना अबुल कलाम आजाद को भारत को सर्वांगीण रूप से समझते हैं, लेकिन भारतीय होकर भी कश्मीर के यासीन मलिक सरीखे नेता अलगाववाद की राजनीति करते हैं।
पड़ोसी मुल्क किसी प्रकार से राष्टï्रीय अखंडता को आहत न कर सके, इसके लिए कश्मीर के राजा हरि सिंह ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया। उसी कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद जैसे नेता भी हैं जो अपनी बेटी महबूबा के लिए आतंकवादियों के सामने घुटने टेक देते हैं। देश के गृहमंत्री के कर्तव्य को पूरी शिद्दत के साथ वल्लभ भाई पटेल ने निर्वहन कर आने वाली पीढिय़ों को संदेश देनेे की कोशिश की थी। उनकी विरासत को उनके बाद के लोग संभाल नहीं पाए। राजग के शासनकाल में देश के तात्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी कंधार कांड में आतंकवादियों के सामने झुकते हैं तो यूपीए के समय शिवराज पाटिल मुंबई हमले में अपनी अक्षमता का सार्वजनिक मुजाहिरा करते हैं।
गणराज्य क्या होता है, यह वैशाली ने बताया था। लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा देने वाले वैशाली में मुन्ना शुक्ला, सूरजभान सरीखे बाहुबली अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हैं। 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दंूगाÓ का जयघोष पश्चिम बंगाल से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया था। आजादी मिलने के करीब तीन दशक बाद भी वहां के किसान और गरीबों को वाजिब हक नहीं मिला। परिणाम नक्सलवाड़ी आंदोलन। नक्सलवाद का उदय। बीतते समय के साथ नक्सलवाद अपने मूल उद्देश्यों से भटकता गया और विदेशी अतताइयों के संपर्क में आता रहा। परिणाम आज सबके सामने हैं। देश के प्रधानमंत्री सहित गृहमंत्री देश की स्वतंत्रता-अखंडता के लिए बड़ा समस्या मानते हैं और सेना की मदद ली जाती है। शस्य-श्यामला पंजाब की धरती ने भगत सिंह को दिया। उसी पंजाब की धरती से भिंडरवाले जैसों ने बंदूक थाम ली। हालात इस कदर बिगड़ गए कि पवित्र धार्मिक स्थल पर भी सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। आखिर, बंदूक का बोलबाला जो हुआ। गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि चुनावों में बिहार के जेल में बंद कामेश्वर बैठा चुन लिए जाते हैं। कौन हैं कामेश्वर बैठा? ...उस विचारधारा के बूते उभरा एक ऐसा नाम जो हमारी संसदीय राजनीति, लोकतंत्र की पवित्र मतदान व्यवस्था का कट्टर विरोधी रहा है। आज जिसकी पहचान ही उग्रवादी हिंसा, खून-खराबा तक सिमट गई है। समझ नहीं आता कि वह कौन सा फार्मूला है जो रातों-रात न सही, चंद हफ्ते-महीने में पूरे लोकसभा क्षेत्र में इतना बड़ा जनाधार तैयार कर दे कि एक कैदी सांसद बन जाए। इसी प्रकार चतरा से नामधारी जी जीतते हैं। राज्य की विधानसभा चलाने का लंबा अनुभव रहा। शेरो-शायरी में ऐसे माहिर कि विपक्षी विधायकों को भी लोहा मनवाते रहे सदन में, लेकिन जनता में छवि हमेशा दलबदलू की रही। वैसे भी, भूखे पेट जब ईश्वर तज दिए जाते हैं तो कवियों-शायरों की क्या पूछ?
भारतीय महिलाओं को इस पर नाज होता है कि उनके सामने सरोजिनी नायडू जैसी महिला इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा चुकी हैं। आज उन्हें इस बात को लेकर कष्टï भी होता है कि नायडू के प्रदेश में ही मायावती सरीखी महिला भी हैं जो कहने को तो दलित की बेटी हैं, लेकिन करोड़ों की माला पहनती हैं। मायावती की राजनीतिक पार्टी बसपा में कितने धनबली और बाहुबली हैं, किसी से छिपा नहीं है। काबिलेगौर है कि देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश उत्तरप्रदेश में बाहुबलियों का बोलबाला है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े बदमाशों की एक लिस्ट देखी जाए तो अतीक अहमद (फूलपुर, इलाहाबाद), मुख्तार अंसारी (गाजीपुर अब मऊ से विधायक), रघुराज प्रताप सिंह (विधायक, कुंडा, प्रतापगढ़), धनंजय सिंह (विधायक, रारी, जौनपुर), हरिशंकर तिवारी (हारे विधायक, चिल्लूपार, गोरखपुर) सामने आतेे हैं। इन पांचों की हैसियत यह है कि निर्दल चुनाव जीतते हैं या जीतने का माद्दा रखते हैं। यह सूची सिर्फ उनकी है जिनकी चर्चा पूरे प्रदेश में होती है।
ये तो चंद उदाहरण हैं। हाल इस कदर बदतर हैं कि भारतीय चुनाव व्यवस्था तीन 'सीÓ यानी करप्शन (भ्रष्टाचार), क्राइम (अपराध) और कैश (धन) से प्रभावित है। अगर पिछले चुनावों के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 1996 में देशभर में 70 सांसद एवं 100 विधायक ऐसे थे, जिनकी पृष्ठभूमि दागी थी जबकि 14वीं लोकसभा में 132 सांसद दागी पृष्ठभूमि के हैं जिन पर मुकदमें चल रहे थे। इसका मतलब यह हुआ कि पिछले 10 वर्षों में इस संख्या में 89.88 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 14वीं लोकसभा में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनकर आने वाले 17.7 प्रतिशत सांसद दागी हैं। भारतीय जनता पार्टी में ऐसे सांसदों की संख्या 20 प्रतिशत है जबकि इस मुद्दे को लेकर भाजपा अक्सर ही संसद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करती रही है। राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी का प्रतिशत तो और भी ज्यादा है। जिन पर चल रहे मुकदमें में उन्हें सजा हो सकती है, ऐसे सांसदों का दलवार विश्लेषण चौंकाने वाला है। राजद में ऐसे सांसदों की संख्या 34.8 प्रतिशत है जबकि बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में क्रमश: 27.8 और 19.44 प्रतिशत ऐसे सांसद हैं। हालांकि, यह कोई तात्कालिक घटना नहीं है। इस स्थिति तक पहुंचने में कई दशक लगे हैं। 1930 के दशक में कांग्रेस पर कब्जा करने के लिए बड़े पैमाने पर फर्जी सदस्य बनाने एवं तोडफ़ोड़ की घटनाएं सामने आई थीं। 1937 के चुनावों के बाद बनी प्रांतीय सरकारों में भी भ्रष्टाचार की शिकायतें मिली थीं। इसे भारतीय राजनीति में अपराधीकरण का प्रस्फुटन माना जा सकता है। वैसे अपराधीकरण के वर्तमान स्वरूप की शुरुआत 70 के दशक में हुई थी। इसकी जानकारी 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग की ओर से पेश की गई रिपोर्ट से मिलती है। रिपोर्ट में कहा गया था कि चुनावों से पहले राजनीतिक दल मतदाताओं के विचारों को प्रभावित करने के लिए उन्मुक्त तरीके से गुंडे-बदमाशों का प्रयोग करने लगे हैं। राजनीति में अपराधीकरण का अगला चरण तब शुरू हुआ, जब अपराधी राजनीति में प्रवेश कर चुनाव लडऩे लगे। 70 से 90 के दशक तक स्थितियां कितनी बदतर होती गईं, इसका अनुमान नरसिंहराव सरकार के कार्यकाल में गठित वोहरा समिति की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। यह समिति राजनीतिज्ञों और अपराधियों के सांठगांठ की जांच के लिए गठित की गई थी। हालांकि, समिति की रिपोर्ट को प्रकाशित नहीं होने दिया गया था जिसमें इस बात का खुलासा किया गया था कि किस प्रकार अपराधियों व माफियाओं ने धनबल और बाहुबल विकसित कर नेताओं व सरकारी कर्मचारियों के साथ मजबूत गठबंधन बना लिया है।
1 टिप्पणी:
schchai byan ki hai aap ko sadhuvad nirntr aise mudde uthate rhe hm log apna krtvy krte jaye yhi dhrm hai
meri shubhkamnayen hai
dr. ved vyathit
एक टिप्पणी भेजें