रविवार, 10 अप्रैल 2016

सियासी ‘शिल्पकार’ कैसे साधेंगे राजनीति को?





आखिरकार वही हुआ, जिसकी चर्चा बीते कई दिनों से थी। जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया। कोई नया चेहरा नहीं, बल्कि पार्टी ने अपना सर्वमान्य नेता और सोशल इंजीनियरिंग के ‘चाणक्य’कहे जाने वाले नीतीश कुमार को राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया। न किसी ने चूं-चपर की और न ही विरोध किया। अब, नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री का दायित्व निर्वहन करते हुए संगठन को भी बेहतर और रचनात्मक-सकारात्मक बनाने की दिशा में पटना से लेकर दिल्ली तक आएंगे-जाएंगे। दोहरी जिम्मेदारी जो मिली है। यह जिम्मेदारी अगले लोकसभा चुनाव में एक बड़े फलक पर होगी। अतीत की घटनाओं को वर्तमान की राजनीति को देखकर यही कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार की यह ताजपोशी उन्हें ‘मिशन-2019’ के लिए प्लेटफार्म मुहैया कराएगी। कारण, नीतीश राजनीति में रूकने का नाम नहीं है।
बिहार में उनकी प्रशासनिक और राजनीतिक उपलब्धियों ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर गैर-भाजपाई गठबंधन बनाने का सक्षम राजनेता साबित किया है। बिहार विधानसभा चुनाव के बाद की जद(यू) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बिहार के भाजपा-विरोधी गठबंधन के राजनीतिक प्रयोग की राष्ट्रीय स्तर पर संभावना की तलाश के लिए न केवल अधिकृत किया, बल्कि उन्हें परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री के भावी उम्मीदवार के तौर पर पेश भी कर दिया। यह उनकी राजनीति की राष्ट्रीय स्वीकृति की मुखर अभिव्यक्ति थी। राष्ट्रीय नेता के तौर नीतीश कुमार का यह उत्कर्ष अनायास या अप्रत्याशित नहीं है। इन टिप्पणी के साथ पटना के राजनीतिक हलके में शिद्दत से सवाल भी किए जा रहे हैं, यह इतना सहज था क्या? अब औपचारिक तौर पर वह गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी राजनीति से इतर प्रधानमंत्री पद के भावी और ताकतवर उम्मीदवार बन कर उभर रहे हैं। यह बात अब रहस्य नहीं रही कि चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल और बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मंच के जनता दल में विलय का मूल प्रेरक तत्व नीतीश कुमार की राजनीति ही रही।
असल में, शरद यादव ने ही अगले जेडीयू अध्यक्ष के लिए नीतीश कुमार का नाम सुझाया है। इस संबंध में शरद यादव, नीतीश कुमार, केसी त्यागी, आरसीपी सिंह और प्रशांत किशोर की बैठकें भी हो चुकी थी। हालांकि, सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार के अध्यक्ष पद को संभालने के बाद तो ‘एक व्यक्ति दो पद’ की नैतिकता का सवाल उठेंगे ही। जेडीयू के वरिष्ठ नेता और पार्टी प्रवक्ता केसी त्यागी ने तो अपनी ओर से पहले ही साफ कर दिया था कि शरद यादव जनता दल-यू के लगातार तीन बार अध्यक्ष रह चुके हैं। पिछली बार जब 2013 में वे अध्यक्ष बने थे, तब पार्टी के संविधान में संशोधन करना पड़ा था, क्योंकि पार्टी के संविधान के मुताबिक कोई दो ही बार अध्यक्ष बन सकता है। इस बार उन्होंने स्वयं ही मना कर दिया और मुझसे कहा कि मैं यह बयान जारी करूं कि वे अब चौथी बार के लिए तैयार नहीं हैं। जेडीयू के बिहार प्रदेश अध्यक्ष बशिष्ठ नारायण सिंह ने भी नीतीश कुमार को इस पद के लिए सर्वथा उपयुक्त बताया था।
सियासी बियावान में यह भी चर्चा है कि जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद राज्यसभा शायद ही जा पाएं शरद यादव। कहीं उनकी दुर्गति भी पार्टी के वयोवृद्ध नेता जॉर्ज फर्नांडीस की तरह तो नहीं हो जाएगी? माना जा रहा है कि नीतीश कुमार के साथ काफी नजदीक आए अजित सिंह को तो राज्यसभा भेजने की तैयारी पूरी कर ली गई है। दूसरे सीट पर प्रशांत किशोर का जबर्दस्त दावा बताया जा रहा है।
बिहार की राजनीति को जानने-बूझने वाले इस सच को बेहतर तरीके से समझते हैं कि दूसरी राजनीतिक पार्टियां जहां जात पांत की रोटी सेंकने में व्यस्त रहीं, वहीं सोशल इंजीनियरिंग के जादूगर नीतीश कुमार एक सिरे से विकास का मुद्दा लेकर चुनाव मैदान में डटे रहे। लक्ष्य केंद्रित निशाना साधने के लिए बिहार की राजनीति में ‘चाणक्य’ के नाम से मशहूर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सूबे में राजग का चुनावी परचम लहरा कर अपने विशेषण को एकबार नहीं, तीन बार सही ठहराया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1974-1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज रहे नीतीश कुमार उस समय समाजसेवी एवं राजनेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के काफी करीबी रहे थे। पटना के राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान से विद्युत अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) की शिक्षा के साथ ही नीतीश कुमार जेपी आंदोलन में कूद पड़े। वर्ष 1985 में नीतीश कुमार पहली बार बिहार विधानसभा के सदस्य चुने गए। इसके बाद 1987 में उन्हें युवा लोकदल का अध्यक्ष बनाया गया।
1989 में बिहार जनता दल के सचिव बने और उसी साल लोकसभा चुनाव में लोकसभा सदस्य चुने गए थे। राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद 1990 में पहली बार नीतीश कुमार केंद्रीय मंत्रीमंडल में बतौर कृषि राज्यमंत्री की हैसियत से शामिल हुए। वर्ष 2000 में नीतीश कुमार केवल सात दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बने। सात दिन बाद उनको त्यागपत्र देना पड़ा। उसी साल वे फिर से केंद्रीय मंत्रीमंडल में कृषि मंत्री बने। मई 2001 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में नीतीश कुमार केंद्रीय रेलमंत्री रहे।
2004 के लोकसभा चुनाव में बिहार की बाढ़ और नालंदा से चुनाव लड़े, लेकिन बाढ से चुनाव हार गए। नंवबर 2005 में राष्ट्रीय जनता दल की बिहार में पंद्रह साल पुरानी सत्ता को उखाड़ फेकने में सफल हुए और मुख्यमंत्री बने। 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में अपने विकास कार्यों के आधार पर भारी बहुमत से गठबंधन को विजयी बनाया और पुन: मुख्यमंत्री बने। 2014 में लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। और 22 फरवरी 2015 को पुन मुख्यमंत्री बने। वर्तमान में भी बिहार के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित कर रहे हैं।
बिहार में चुनाव में एक समय ‘धर्म’ और ‘जाति’ की बयार बहा करती थी और राजनीतिक पार्टियों की रोटी सेंकने का यह बड़ा एजेंडा हुआ करता था, लेकिन नीतीश को ‘विकास’ के नाम पर जनता को भरोसे में लेने का श्रेय जाता है। सत्ता विरोधी लहर को बेदम करते हुए राममनोहर लोहिया की सामाजिक विचारधारा के झंडांबरदार और जेपी आंदोलन में बढ़ चढकर हिस्सा लेने वाले नीतीश 2005 के चुनावों में 15 वर्षों ं के लालू राबड़ी शासन को खत्म किया था। सोशल इंजीनियरिंग के माहिर नीतीश ने हालांकि अति पिछड़ा और महादलित का नारा देकर बिहार के बड़े वर्ग को अपने पक्ष में गोलबंद किया। सादगी पसंद और जमीनी नेता नीतीश को बिहार की आधुनिक राजनीति का ‘शिल्पकार’ भी माना जाता है।

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