रविवार, 26 दिसंबर 2010

लाहौर छूटा अब दिल्ली न छूटे!

- सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक


अमृता रेडियो धीमा कर, कैसे-कैसे गीत लगा देते हैं आकाशवाणी वाले।Ó कोई नब्बे बरस की कौशल्या, झुकी कमर, हाथ में लाठी लिए, धरती पर लाठी की खट-खट-खट की ध्वनि गीत में ताल-सी बज उठती है, जैसे कोई रेडियो को थपथपा रहा है।
'क्या कहा दादी मां? ये गाने रेडियो में नहीं दूरदर्शन पर आ रहे हैं। दादी मां! टीवी पर।Ó करीब चालीस बरस की पोती, अमृता ने अपनी दादी को बताया।
'हां, मर जानी! जैसा नाम तैसा काम। मुझे समझ में नहीं आता तुम्हारा दूरदर्शन।Ó मुंहफट कौशल्या ने पीढिय़ों के बीच के अंतर को समझाने के लिए प्रतिक्रिया व्यक्तकी।
'दादी मां! अब पुराना जमाना नहीं रहा। रेडियो के साथ अब टीवी देखने का प्रचलन है। आधुनिक युग है दादी मां, माडर्न टाइम।Ó अमृता ने दादी को छेड़ते हुए कहा।
'हां-हां, मालूम है। मैं भी बहुत माडर्न थी अपने जमाने में। चुनरी वाले लाहौरी ल_े की सलवार-कुर्ता पहनती थी। जो मेरे अंदर दिखता था, वही बाहर दिखता था। तेरे दिल्ली वाले तो दिल की बात जुबां पर ला ही नहीं पाते। पतलून पहले खिसक जाती है। शउर ही नहीं है। हुंह!Ó तुनककर दादी सोफे पर लुढ़क जाती है।
गाने खत्म होते ही टीवी पर खबरें आनी शुरू हो गईं। 'लाहौर के अनारकली बाजार में बम फटने से सत्रह लोगों की जान गई। इस धमाके के पीछे आतंकवादियों का हाथ था। लाहौर में कफ्र्यू लगा दिया गया है। एक आतंकी पकड़ा गया है।Ó दादी के मन में मानो आग लग गई। अपना शहर जलता देख किसे दुख नहीं होता। दादी ने कहा, 'साडे लाहौर विच बम। हाय राम! यह क्या हो रहा है? क्या होगा इस दुनिया का, जिधर देखो उधर बम? बम न हुए पटाखे हो गए। ये कलमुंहे आतंकी चाहते क्या हैं?Ó गहरी सांस भरकर कौशल्या ने कहा।
'जानती हो अमृता! मेरे बाऊजी की अनारकली बाजार में कपड़ों की बहुत बड़ी दुकान थी। हम लोग तांगे से लाहौरी गेट से अनारकली बाजार में प्रवेश करते थे। पान बाजार, कपडों का बाजार, किताबों की दुकानें, फूलों की दुकानें, किराने की दुकानें। न जाने क्या-क्या मिलता था वहां। चल टीवी की आवाज तेज कर जरा।Ó
कौशल्या आंखें बंद करके गौर से सुनते हुए ध्यानमग्न हो गई। कौशल्या लाहौर की गलियों में पली और बड़ी हुई थी। लाहौर में वह अपनी सखियों के साथ सावन के झूले झूलती, लोहड़ी और बैसाखी मनाती, गिद्दा डालती, ऐश करती। उसे चांद, सुल्ताना, शबनम, रज्जो, फूलन और सितारा के संग गुड्डे-गुडिय़ों काब्याह रचाना याद है और वही शहर बेहाल हो रहा है।
देश का बटवारा क्या हुआ, कौशल्या का परिवार ही बट गया। उसके दो बेटे रतन और नरेश लाहौर में ही रह गए थे। वह छोटे बेटे केवल को लेकर जैसे-तैसे दिल्ली पहुंची थी, उसी की बेटी है अमृता। कौशल्या की हालत उस नारी जैसी थी, जिसके दोनों पांव जल चुके हों। बटवारे की आग का अलाव अभी भी सीमाओं पर जल रहा है। लाहौर में उसकी स्थिति जंगल के पशु-सी थी, जिसमें भीषण आग लगी हो और जान बचाना मुश्किल था। दादी-पोती टीवी पर नजर गड़ाए थीं, तभी दरवाजे की घंटी बजी। अमृता ने दरवाजा खोला। पड़ोस की कमला ने आते ही कहा, 'लाहौर में आतंक की आग लगी है।Ó
'हां, मौसी जी, बड़ी बुरी बात है।Ó अमृता ने हामी भरी। 'इसमें क्या बुरी बात है? लाहौर में आग लगी है, कोई दिल्ली में तो नहीं लगी है।Ó कमला ने आक्रोश जताया।
अमृता संयमित होकर बोली,'मौसी जी, तुसीं जो कह रहे हो, वो तो हुई इक गल्ल, पर तुसीं सोचो, जे इक पड़ोसी के यहां आग लगेगी, तो दूसरे को तो दु:ख होगा ही। फिर आग, पानी और आतंक का क्या भरोसा?Ó अमृता ने कमला को बैठने के लिए स्टूल आगे बढ़ाते हुए कहा।
'सीमा पार तो हमारे दुश्मन हैं, फिर तुम्हारी हमदर्दी मुझे समझ नहीं आ रही।Ó कमला का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था।
'मौसी जी, तुसीं ध्यान से सुनो। आज जो समस्या सीमा पार की है, वह हमारी भी समस्या है। आज स्थानीय समस्या वैश्विक समस्या भी है। आज ग्लोबलाइजेशन का दौर है मौसी जी।Ó अमृता ने प्रभाव डालने की पूरी कोशिश की। ग्लोबलाइजेशन तो सभी समझते हैं।
'वह तो ठीक है, पर दस्सो असीं की करिए?Ó मानो कमला ने अमृता के तर्क के आगे हथियार डाल दिए हों। कमला ने टीवी पर नजर डालते हुए कहा, 'देख, यही आतंकी पकड़ा गया है। आवाज तो तेज कर।Ó
अमृता ने आवाज तेज की। सभी ध्यान से टीवी देखने लगे। समाचार आ रहे थे 'आतंकी ने बताया कि उसे आतंकवादी शिविर में बताया गया था कि यदि वह हमले करेगा, तो उसे जन्नत में जगह नसीब होगी और वहां कई कुंआरी लड़कियों से ब्याह होगा। हमले के लिए उसके परिजनों को पांच हजार डॉलर दिए जाएंगे।Ó
टीवी सुनकर कौशल्या बोली, 'साला, अपनी मां को अनाथ और विधवा करके स्वर्ग जाएगा। मुझे मिल जाए, तो पहले मैं सोटी से उसका इलाज करूंगी। घुमाकर ऐसे मारूंगी कि वह कुछ नहीं कर पाएगा। मुझसे पूछो कैसे सारा जीवन अपने दो बेटों के बिना बिताया। न जाने कैसे होंगे वे? बड़ा आया बंदूक और बम चलाने वाला। मेहनत-मजूरी करके, हल चलाकर कुछ पैदा करके इज्जत की जिंदगी जिए, तब मैं जानूं। ऐसे ही आबादी ज्यादा और साधन कम हैं। आम आदमी के लिए गुजारा करना मुश्किल है। ये अधर्मी कैसे फुसलाते हैं भोले-भाले बच्चों को। ये धर्मी हैं या पाखंडी? आदमी की शक्ल में चांडाल। राम! राम!Ó कौशल्या न जाने क्या बोलती रही।
'दादी, काहे को अपना पारा हाई करती हो। आपका ब्लड प्रेशर बढ़ेगा, हम सब परेशान होंगे।Ó अमृता ने कहा।
'अमृता! तू नहीं जानती। इन युवा आवारों, कामचोरों को कभी फुसलाकर और कभी जबर्दस्ती, धर्म और न जाने कैसे-कैसे सब्जबाग दिखाकर आम जनता का खून चूसने छोड़ देते हैं। और ये अपने भाई-बहनों का कत्ल करने से भी नहीं हिचकते।Ó कौशल्या के सीने में आज भी आग है।
'दादी! जानती हो, सीमाओं पर सेना की हलचल होने लगी है। हे भगवान! कहीं युद्ध न छिड़ जाए।Ó अमृता ने टीवी पर चल रहे समाचार की ओर संकेत किया। 'फिर हमारे मुल्क हथियार खरीदेंगे। आधी जनता तो पहले से ही बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की चिंता में खप रही है। ऊपर से हथियार खरीदने में जनता का वह पैसा लगेगा, जो शिक्षा और स्वास्थ्य पर लग सकता था।Ó कौशल्या बुद्धिजीवी की तरह बातें कर रही थी।
'दादी मां! तुम्हें नेता होना चाहिए।Ó अमृता ने व्यंग्य में कहा।
'बस चुपकर। सभी नेता बन जाएंगे, तो घर कौन संभालेगा। साडा लाहौर वाला घर छूट गया। बड़ी मुश्किल से दिल्ली में घरौंदा बनाया है।Ó कौशल्या अमृता के सिर पर हाथ रखते हुए बोली।
अब कमला बोली, 'छोड़ो भी कौशल्या लाहौर की बातें। हमारी दिल्ली...चांदनी चौक सबसे अच्छे हैं। हम मरते दम तक यहां रहेंगे। क्या कमी है हमारी दिल्ली में? फिर मिलेंगे, अब मैं चलती हूं। दूध लाना है।Ó कहकर वह चलने को हुई।
कमला की बातों से सहमति जताते हुए कौशल्या बोली, 'कमला, लाहौर जरूर छूट गया, पर दिल्ली नहीं छोड़ूंगी, चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए।Ó
अमृता बोली, 'ऐसा नहीं कहते दादी मां...Ó
'मौसी, जरा रुको सरसों का साग बना है। बस मक्की की रोटी सेंकनी है। जानती हो, दादी ने बनाया है अपने लाहौरी हाथों से।Ó
कमला ने जवाब दिया, 'नहीं-नहीं, अब मैं चलूंगी। सुनो तुम अपना बर्तन भी दे दो। मैं दूध लेने जा रही हूं।
'हां मौसी! क्यों नहीं, पर मक्की की रोटी मत भूलना मौसी जी...Ó ॥॥॥



सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोकÓ पिछले 20 बरसों से नार्वे से हिंदी-नार्वेजीय भाषा की पत्रिका स्पाइल दर्पण का संपादन कर रहे हैं। वह हिंदी के सुपरिचित कथाकार है। प्रवासी लेखकों में अग्रणी 'शरद आलोकÓ ने 'नंगे पांवों का सुखÓ और 'नीड़ में फंसे पंखÓ (कविता संग्रह) और 'अर्धरात्रि का सूरजÓ और 'प्रतिनिधि प्रवासी कहानियांÓ (कहानी संग्रह) हिंदी साहित्य को दिए हैं। दो नार्वेजीय काव्य संग्रहों की रचना करने के अलावा हेनरिक इबसेन के नाटकों और स्कैंडिनेवियाई साहित्य का हिंदी में अनुवाद भी आपने किया है।

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