सोमवार, 19 जनवरी 2015

उम्मीदों की दिल्ली



पूरे देषवासियों के लिए दिल्ली एक प्रतीक है। दिल्ली एक उम्मीद है उनके भविष्य के लिए । पूरे देष की सत्ता यहां से संचालित होती है। अनेकता में एकता का भाव लिए दिल्ली का मिजाज समावेषी है। बिना भेदभाव किए दिल्ली सबका स्वागत करती है। दिल्ली का चरित्र गंगा-जमुनी तहजीब का है। हर वर्ग, हर संप्रदाय, हर विचारधारा के लोग यहां निवास करते हैं। ऐसे में दिल्ली का राजनीतिक मिजाज भला एक कैसे हो सकता है ? यहां न तो क्षेत्रीय अस्मिता पर जनता को बरगलाया जा सकता है और न जाति के नाम पर।
असल में, यही सबसे बड़ी मुष्किल है राजनीतिक दलों के लिए। जब हम  दिल्ली विधानसभा चुनाव की बात करते हैं, तो विधानसभा की कुल जमा 70 सीटों को फतह करना हर राजनीतिक दल के लिए मुष्किलों भरा होता है। दिल्ली में विधानसभा पर 15 सालों तक कांग्रेस ने कब्जा किया। उसके बाद महज 49 दिन के लिए आम आदमी पार्टी ने अपना राग छेड़ा। बीते एक साल के राष्ट्रपति षासन का दंष झेल रही दिल्ली इस बार कैसा जनादेष देगी, इसको लेकर सियासी दलों की संासें अभी से फूली हुई हैं।
यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि ‘आप’ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, तो कांग्रेस पहचान की। भाजपा अपनी राजनीतिक पूंजी पर पकड़ बनाए रखना और मोदी के कद के सहारे उसमें इजाफा करने की ख्वाहिश रखती है। क्योंकि दिल्ली लोकसभा की सातों सीटों पर भाजपा का कब्जा है। क्या भाजपा दिल्ली विधानसभा में बहुमत हासिल करने वाली है? ये सवाल अब लोगों के जेहन में तैर रहे हैं। बहरहाल, दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव देश के रोचक चुनावों में से एक होंगे। जरा याद कीजिए, एक रेडियो विज्ञापन में अरविंद केजरीवाल एको साउंड यानी अनुगूंज के सहारे आह्वान करते हुए किसी बुजुर्ग महिला को आश्वस्त कर रहे हैं कि माता जी गलती  हो गई, मगर हम कहीं गए नहीं थे। मैं आ रहा हूं, आपकी सेवा के लिए। वहीं, भाजपा के विज्ञापन में दो दोस्त सुन न, सुना न टाइप की बातें करते हुए आम आदमी पार्टी को नौटंकीबाज बता रहे हैं कि यार इस बार तो बिल्कुल नहीं।
टिकट तो टिकट अब विज्ञापन भी लोगों की कैटगरी के हिसाब से बन रहा है। भाजपा के एक रेडियो विज्ञापन में बिहारी टाइप भोजपुरी हिन्दी का प्रयोग हुआ है। जात-पात की तरह पूर्वांचल दिल्ली की राजनीति का वोटबैंक है, जो इसका क्षेत्रीयकरण करने में लगा है। वहीं कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी की खिंचाई करते हुए इस लड़ाई में तीसरा कोण बनने का प्रयास कर रही है। दिल्ली में इस बार यहां के लोग नोटिस कर रहे होंगे कि कैसे विज्ञापनों-होर्डिंग्स में कांग्रेस ने वापसी की है। साल भर पहले मैदान से गायब होर्डिंग के जरिये कांग्रेस की वापसी कुछ चैकाती तो है। कांग्रेस के नारे हैं विकास की डोर कहीं छूट न जाए। हम भाईचारे की राजनीति करते हैं, सांप्रदायिकता की नहीं। कई जगहों पर यह नारा लिखा है कि इस बार सोच समझ कर वोट देना। किसी के बहकावे में मत आना। जैसे 15 साल तक कांग्रेस को चुनने वाली जनता को किसी ने बहका लिया था। उसने बिना सोचे समझे कांग्रेस को तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया।
असल में, भाजपा के लिए तो विषेषकर दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतना प्रतिष्ठा से जुड़ गया है। दिल्ली में यदि भाजपा की सरकार नहीं बनी, तो यकीन मानिए इसी वर्ष के अंत में बिहार और अगले वर्ष उत्तर प्रदेष में परचम लहराना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। लिहाजा, भाजपा कोई भी दांव बेकार नहीं होने देना चाहती। बीते एक साल में आम आदमी पार्टी सियासी दांव-पेंच बखूबी सीख चुकी है। उसके कमतर नहीं आंका जा सकता है। कांग्रेस से सामने अपने अस्तित्व की लड़ाई है। तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों की नजर भी दिल्ली पर है। क्योंकि यदि भाजपा के चुनावी रथ का पहिया एक बार फिर दिल्ली में रूकता है, तो बिहार और उत्तर प्रदेष का राजनीतिक किला फतह करना भाजपा के लिए दुष्कर हो जाएगा।

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