शनिवार, 17 जनवरी 2015

जिताएगा कौन , मुद्दा कि नेता ?



दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीख का ऐलान होते ही तमाम राजनीतिक दल चुनावी एक्सप्रेस पर सवार हो चुके हैं। आरोपो-प्रत्यारोपों के बीच नेताओं का पाला बदलने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। आप से भाजपा में। आप से कांग्रेस में। भाजपा से आप में। इसके साथ ही चुनावी समय में अस्तित्व में आने वाले कई राजनीतिक दलों का चरित्र भी ऐसा ही देखा जा रहा है। इस सबके बीच दिल्ली की जनता के मूड का अंदाजा मुकम्मल तौर पर किसी को नहीं हो रहा है। आखिर चुनाव जिताएगा कौन ? मुददा या फिर नेता ?
पहली नजर में यही लग रहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला भारती जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच है। हालांकि, कई विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस नेताओं की उपस्थिति इसे त्रिकोणीय मुकाबला में बदल रही है। राजनीतिक गुणा-भाग करने वाले भी इस बात को कह रहे हैं कि इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटों में इजाफा होगा। तो ऐसे में यह सवाल उठता है कि कांगे्रस किसके कोटे से सीट झटकेगी ? किरण बेदी के भाजपा में आने और उनके तेवर से यह तय है कि भाजपा उनको ही बतौर मुख्यमंत्री मान कर चल रही है, तो भाजपा को सीटों की नुकसान की गुंजाइश नही ंके बराबर है। तो यह माना जाए कि कांग्रेस आप के लिए वोटकटुआ की भूमिका में होगी ?
बीते कई महीनों से चुनावी मोड में आ चुकी आप ने तमाम मुददों को लेकर दिल्ली की जनता को अपने पक्ष में करने की शंुरुआत कर दी। लेकिन सबसे अहम की आप के चुनावी पोस्टरों से जनलोकपाल जैसे शब्द ही गायब हो गए। जिसको लेकर वह राजनीति में आई थी। जब आप अपने मूल धुरी को ही तिलांजलि दे रही है, तो जनता किस कदर उस पर भरोसा करेगी, यह सहज की कल्पना योग्य है। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में फिनिक्स वाली जज्बे की जरुरत है। कांग्रेस आलाकमान को मानो सांप सूंघ गया है, वह तो दिल्ली प्रदेश के भरोसे बैठा दिख रहा है। ऐसे में भारत की पहली आईपीएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता किरण बेदी की भाजपा में एंट्री होती है। भाजपा के मंच से अपने पहले ही संबोधन में किरण बेदी ने यह ऐलान कर दिया कि वह ‘मिशन मोड’ में है। अब यह भाजपा संगठन की जिम्मेदारी बनती है कि वह चुनावी मोड और मिशन मोड के बीच गुणात्मक अंतर को कितना बेहतर तरीके से अंगीकार कर पाती है। यदि भाजपा वाकई किरण बेदी के मिशन मोड के अनुरुप कार्य करती है, तो दिल्ली के सत्तारोहण में भाजपा को किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए।
सवाल बहुत हैं, पर उनके उत्तर नदारद हैं। दिल्ली की मूलभूत समस्या पानी, बिजली की है। भाजपा और आप इसको लेकर अपने-अपने तरीकों से जनता से वादे कर रही है। पहले कहा गया कि आप के अरविंद केजरीवाल के बनिस्पत जनता के सामने भरोसा जताने और जीतने लायक किसी दूसरे राजनीतिक दल के पास कोई चेहरा नहीं दिखता। यही अविश्वास विगत विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा का मुख्य कारण रहा। इस बार कांग्रेस ने कोई चेहरा तो पेश नहीं किया, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति और स्वस्ति जानकार किरण बेदी को अपना महारथी बनाया है। भाजपा के बारे में कहा जा रहा था कि विजय गोयल, हर्षवर्धन, सतीश उपाध्याय और जगदीश मुखी को मुख्यमंत्री पद की लालसा है। चारों एक-दूसरे की राह में शूल बिछाएंगे, लेकिन मोदी ने जैसे ही बेदी को  आगे किया, चारों नेता एक मंच पर आकर किरण बेदी को फूलों का गुलदस्ता थमा बैठे। मन में चाहे कितना भी कलुष हो, दिल्ली की जनता ने फूलों का गुलदस्ता देखा है न....
इसमें किसी को कोई शक नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके ‘भाग्यशाली सिपहसालार’ अमित शाह महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड फतह करने के बाद दिल्ली के लिए अपने तरकश का हर तीर आजमाएंगे। शायद यही वजह है कि भाजपा जब हरियाणा-महाराष्ट्र की जीत पर जश्न में डूबी थी, मोदी ने जम्मू-कश्मीर जाने का ‘मास्टरस्ट्रोक’ खेला था। झारखण्ड में मोदी-शाह की जोड़ी ने तमाम अंदेशा को किनारे कर सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया, उसके बाद दिल्ली में भाजपा उत्साह और उम्मीदों से लबरेज हो गई है। प्रदेश भाजपा में संघ के विश्वस्त माने जाने वाले सांसद प्रभारी प्रभात झा भी हैं, जो किलेबंदी करने के लिए जाने जाते हैं।
माना जा रहा है कि इस बार का विधानसभा चुनाव ऐसे माहौल में हो रहा है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता के रूप में उभरे हैं। उनकी पार्टी भाजपा को केंद्र के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड और जम्मू-कश्मीर में अप्रत्याशित सफलता मिली है। हालांकि, दिल्ली की की स्थिति इन दोनों राज्यों से थोड़ा अलग है। यहां क्षेत्रीय अस्मिता जैसी बात कोई विशेष मायने नहीं रखता है। दिल्ली पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है। यहां विभिन्न क्षेत्र, भाषा, संस्कृति के लोग निवास करते हैं। यहां राजनीतिक दौड़ में करीब-करीब देश भर में पिछड़ चुकी कांग्रेस के लिए आत्मविश्वास पाने का सुनहरा मौका है। कांग्रेस हमेशा से पिछड़ों, गरीबों, अल्पसंख्यकों के लिए राजनीति करने का दावा करती रही है। खास बात यह है कि ये सभी मुद्दे दूसरे राज्य में हमेशा से हिट होते रहे हैं। पार्टी की केंद्रीय और प्रादेशिक संगठन एकजुट होकर अगर यहां बेहतर प्रदर्शन करती है, तो वह इस पार्टी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक तरह से संजीवनी का काम करेगा।
दिल्ली में चुनावी मुद्दों के लेकर विभिन्न दलों में होड़ बढ़ेगी। केंद्र में जिस तरह भाजपा को अकेले अपने बूते बहुमत की सरकार बनाने में सफलता मिली, स्थिरता का वही नुस्खा वह दिल्ली के लोगों के सामने भी पेश कर रही है। उसने बिना किसी गठबंधन के सभी 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का मन बनाया है।



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