बुधवार, 14 जनवरी 2015

दिल्ली में पूरबिये: वोटर से अधिक कुछ भी नहीं...




दिल्ली में पूर्वांचल की तादाद भले ही लाखों में हों, लेकिन आज भी उन्हें दोयम दर्जे का माना जाता है। राजनीतिक दलों के लिए तो यह जनसंख्या केवल और केवल वोटर हैं। इसके अलावा कुछ भी नहीं। दिल्ली में पूरबिये की हालात वही है, जो पूरे देष के चुनावी राजनीति में मुसलमानों की है, जिनकी याद और बात केवल चुनाव के दौरान ही की जाती है। दिल्ली में सबसे अधिक समय तक सरकार में रहने वाली कांग्रेस हो या इस बार सत्ता हासिल करने को आतुर दिख रही भाजपा, दोनों की प्रमुख राजनीतिक दलों ने पूर्वांचल के लोगों को, जिन्हें बोलचाल की भाषा में पूरबिया कहा जाता है, केवल वोट बैंक ही माना है। वैसे तो पूर्वांचली लोगों की उपस्थिति दिल्ली के कोने-कोने में है, लेकिन यहां कि सात में से चार लोकसभा और दो दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटों पर वे निर्णायक भूमिका में होते हैं।  
कहने के लिए यह कहा और सुना जाता है कि दिल्ली की राजनीति अल्पसंख्यक, दलित और पूरबिये तय करते हैं, लेकिन आज तक इन्हें मुकम्मल हक नहीं मिला है। ये तीनों वर्ग बीते दिसंबर के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के वोट बैंक माने जाते थे। इन्हीं के बूते कांग्रेस ने लगातार 15 साल भाजपा को दिल्ली की सत्ता से दूर रखा। बीते विधानसभा चुनाव में जब इस वर्ग का बड़ा भाग आम आदमी पार्टी के साथ चला गया तो कांग्रेस न केवल सत्ता से बाहर हो गई, बल्कि उसकी भारी पराजय हुई। आप ने न केवल दिल्ली की 70 सीटों में से 28 सीटें जीत लीं बल्कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। इस सच से भला कौन इनकार कर सकता है कि यदि कांग्रेस को मुसलिमों का साथ न मिलता तो उसे आठ सीटें भी न मिलतीं। दिल्ली में अल्पसंख्यक वोट करीब 15 फीसद हैं। उनका मतदान का औसत दूसरी बिरादरी के मुकाबले काफी ज्यादा होता है। 
दिल्ली के सातों लोकसभा सीटों में सबसे ज्यादा करीब 22 फीसद अल्पसंख्यक दिल्ली उत्तर पूर्व सीट पर हैं। उसके बाद चांदनी चैक में 18 फीसद, पूर्वी दिल्ली में 16 फीसद, उत्तर पश्चिम दिल्ली में 13 फीसद, दक्षिणी और नई दिल्ली में दस-दस फीसद और पश्चिम दिल्ली में करीब सात फीसद अल्पसंख्यक हैं। गरीब बस्तियों और पूरबियों में आप को ज्यादा समर्थन मिला। कांग्रेस का मूल वोटर आप के साथ हो गया। पुरबियों के वोट तो चुनाव को हर इलाके में प्रभावित करेंगे ही लेकिन चुनाव नतीजों में सबसे बड़ी भूमिका अल्पसंख्यकों की रहने वाली है। वे कांग्रेस या आप में से जिसके साथ जाएंगे उसी से भाजपा का मुकाबला होगा। एक बड़ा खतरा और भी है कि अगर आखिर तक दोनों दल में भ्रम बना रहा तो कहीं सभी सीटों पर उनके वोट बंट जाएगा और भाजपा की एक तरफा जीत हो जाए।
दिल्ली में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में पहली बार पूर्वांचली कांग्रेस और भाजपा से अपना सियासी हक मांग रहे हैं। हक की आवाज उठने के बाद राजधानी में रह रहे पूर्वांचल के अनुमानित 40 से 45 लाख लोग और उनमें से करीब 30 लाख वोटरों को देखते हुए विभिन्न दलों में उन्हें अधिक से अधिक अहमियत देने की कवायद चल रही है। कवायद करने वाले दलों में आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल यूनाइटेड आदि भी शामिल हैं। इन दिनों पूर्वांचली विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए आंख का तारा बने हुए हैं। 
वैसे तो चुनाव करीब आते ही पूर्वांचलियों पर राजनीतिक पार्टियां डोरे डालना शुरू कर देती हैं। कोई स्वास्थ्य बीमा कराने का लाभ देने, मकान देने की बात करता है, तो कोई अनाधिकृत कॉलोनियों को नियमति करने का भरोसा दिलाता है। लेकिन 1993 से हाशिए पर चल रहे पूर्वांचल के लोग अब शायद दिल्ली के नेताओं के तिलिस्म को समझ गए हैं। तभी पूर्वांचलियों द्वारा दिल्ली की राजनीति में पूरी भागीदारी की बात उठाई जाने लगी है। जानकारों का मानना है कि दिल्ली में पूर्वांचली राजनीति जिस ओर भी करवट लेगी, कुछ न कुछ अनहोनी जरूर होगी। दिल्ली की राजनीति के बारे में जानकारी रखने वाले पर्यवेक्षकों का मानना है कि इस बार इतना तो तय है कि पूर्वांचलवासियों को स्थानीय राजनीति में उचित भागीदारी नहीं देने का खामियाजा पार्टियों को भुगतना पड़ेगा। यही कारण है कि 40 लाख पूर्वांचलवासियों की संख्या बल को देखते हुए भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने-अपने पक्ष में हवा बनाने की पहल कर दी है। उन्हें अपने पाले में लाने की कसरत के चलते तथ्य और आंकड़े जुटाए जा रहे हैं। दिल्ली विधानसभा बुराड़ी , लक्ष्मीनगर, विकासपुरी, किराड़ी , बवाना, जनकपुरी, पटेलनगर, गोकुलपुरी, पटपड़गंज, शाहदरा, घोंडा, सीमापुरी, मुस्तफाबाद, संगम विहार, द्वारका, मटियाला, तिमारपुर आदि करीब दो दर्जन से अधिक सीटों पर पूर्वांचल के वोटरों की संख्या सबसे अधिक है। दिल्ली के कुल एक करोड़ 12 लाख वोटरों में से 30 लाख से अधिक वोटर पूर्वांचल के हैं। इसके बावजूद विधानसभा में उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। पिछले चुनाव यानी 2009 में कांग्रेस ने पश्चिमी दिल्ली लोकसभा सीट से महाबल मिश्र को टिकट दिया था, जबकि भाजपा ने पूर्वांचल कोटे के किसी को टिकट नहीं दिया था, जिसकी परिणति हार के रूप में मिली। एक पूर्वांचली वरिष्ठ भाजपा नेता की मानें, तो 2008 में विधानसभा चुनाव में पूर्वांचलवासियों की उपेक्षा का परिणाम मिलने के बावजूद भाजपा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में गलती दोहराई।  
कहने को दिल्ली देश की राजधानी है, लेकिन यहां की अवैध-अनधिकृत कालोनियां उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड के निवासियों से बनी है। इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद पूर्वांचलियों की पहचान एक मतदाता से अधिक नहीं है! दिल्ली की जनसंख्या में दक्षिण भारतीय लोगों की संख्या बामुश्किल एक से दो प्रतिशत है, लेकिन उनके संगठन स्कूल संचालित करते हैं, उन्होंने तमिल संगम जैसे बौद्धिक बहस के केंद्र बना रखा है, जगह-जगह उनके समाज के मंदिर हैं जहां प्रतिदिन समाज के लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं-जिसके कारण दिल्ली में उनकी पहचान एक स्वस्थ्य और विकसित समाज की बन चुकी है। दूसरी तरफ पूर्वांचल का समाज है। वैसे तो दिल्ली में बसने वाले पूर्वांचलवासियों का कोई अधिकृत सरकारी डाटा नहीं है, लेकिन रेलवे के आंकड़ों पर नजर डालें तो हर वर्ष छठ पर्व में करीब 33 लाख लोग बिहार-उप्र जाते हैं। इसके अलावा काफी बड़ी संख्या में पूर्वांचली दिल्ली में भी छठ के लिए रुक जाते हैं। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद पूर्वांचल के लोगों का न तो अपना स्कूल है, न ही उन्होंने किसी तरह के बौद्धिक बहस का कोई केंद्र ही स्थापित किया है और न ही नेतृत्व के स्तर पर ही वह पंजाबी-बनिया समाज की तरह अपनी पहचान स्थापित कर पाए हैं। पूर्वांचल की इस दशा का बहुत बड़ा कारण खुद पूर्वांचल के लोग ही हैं। दिल्ली में हर साल श्विश्व भोजपुरी सम्मेलनश् जैसे कई आयोजन तो होते हैं, लेकिन इसका मकसद भी स्वस्थ्य-सकारात्मक होने की जगह केवल नाच-गाने पर ही टिका होता है। यही कारण है कि पूर्वांचल केवल वोट बैंक बन कर रहा गया है, वोट हासिल करने वाले की हैसियत में अभी भी वह ठीक ढंग से नहीं आ पाया है। पिछले 15 साल से केंद्र व राज्य में सत्तासीन रही कांग्रेस पार्टी को दिल्ली नगर निगम से लेकर लोकसभा चुनाव तक केवल महाबल मिश्रा का परिवार ही दिखता रहा है। उसी परिवार से एक नहीं, कई-कई लोगों को टिकट देकर कांग्रेस अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री करती रही है।
अब, उत्तर पूर्वी दिल्ली से भाजपा सांसद मनोज तिवारी, जो खुद पूर्वांचल से आते हैं, कहते हैं कि पूर्वांचल (झारखंड, बिहार एवं उत्तरप्रदेश) के लोगों को शत-प्रतिशत न्याय नहीं मिला है। दिल्ली में पूर्वांचल के लोगों की संख्या अच्छी है, लेकिन राजनीति में उनको स्थान नहीं मिला पाता है। हमारी अगली लड़ाई पूर्वांचल के लोगों को न्याय दिलाने की है। हम पार्टी स्तर पर इसकी मांग करेंगे। दिल्ली में कम से कम  20 सीट तो मिलनी ही चाहिए। 

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