रविवार, 30 मई 2010

पांच महिलाओं का मेरे जीवन में दखल

हमेशा यह कर्त दिया जाता है कि हर सफल पुरूष के पीछे किसी न किसी महिला का हाथ होता है। सही है। लेकिन शायद मैं अपने आपको भाग्यवान समझता हूं कि मुझे एक नहीं पांच महिलाओं का साथ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं सफल हूं। सफलता के कई परिभाषाएं हैं। लेकिन मैं मेरा जिस पेशे से सरोकारा है, उसमें खूब से खूबत्तर की तलाश में सरगर्दा रहना निहायत जरूरी है।
भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि यदि पांच कन्न्याओं का प्रात: स्मरण किया जाए तो आपके सभी पापकर्म नष्टï हो जाते हैं। ये हैं - अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती और द्रौपदी। गाहे-बेगाहे मैं भी इनका स्मरण करता हंू। साथ में गंगा स्नान भी। आखिर, मोबाइल झूठ बोलने का प्रैक्टिस जो कराता रहता है।
खैर, मैं जिक्र कर रहा था, उन महिलाओं का जिन्होंने मुझे प्रभावित किया। मेरे सोच और मेरे कर्म को बदलने का कार्य किया। अपने सुभिता के लिए कोई भी नाम रख लिया जाए। वास्तविक नाम देना मुझे सहज नहीं लगता, कारण किसकी सोच कैसी होगी, कहना मुश्किल है। केवल समय और प्रसंग की सही लग रहा है। यहां यह बताता चलंू कि इसमें एक को छोड़कर कोई भी मेरे खून के संबंधी नहीं है, लेकिन यकीन मानिए जब संबंध संवेदनाओं और आत्मीयता के आधार पर बनते हैं तो वह खून पर भी भारी पड़ता है। कुछ ऐसा ही हाल आज की तारीख में मेरा है।
वर्ष 1994-95 का समय। जब मैं मैट्रिक कर रहा था। किशोरावस्था में था और यौवनावस्था आने को आतुर थी। शारीरिक बदलाव के साथ मानसिक स्तर पर काफी हलचलें तेज हो जाती हैं, इस समय। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण सहज गुण-धर्म जान पड़ता है। सोलहवें साल को यूं ही कवि-लेखकों ने अलमस्त नहीं कहा, यह अब जान पा रहा हूं। उस समय तो बस, बह जाने का मन करता था। उसी दरम्यान, एक महिला का आगमन होता है। धीरे-धीरे मैं उनकी ओर झुकता चला गया। शायद वह भी मेरी ओर। दोनों के बीच कोई भी ऐसी बात नहीं होती, जो हम-दोनों को पता नहीं चले। वह पहले के स्वभाविक संबंध, मसलन, माँ, बहन, भाभी आदि पर भारी पड़ती गईं। कई बार गिरने की स्थिति आई, लेकिन हर बार वह आगे बढ़कर संभाल ली। बैठकर समझाती। उससे बातें करना अच्छा लगता। स्थिति ऐसी कि मैं उसकी कोई बात काट नहीं सकता। मैं जिसे किशोरावस्था का प्यार समझने का भूल कर रहा था, वह वास्तव में महज आकर्षण था। बड़े सलीके से उसने यह बात समझाई। यह आज समझ पा रहा हूं।
इसके बाद दूसरी आती हैं। जब मैं इन्टर पास करने को था। यानी परीक्षा समाप्त हो चुके थे और रिजल्ट का इंताजार था। यौवनावस्था का खुमार अपने पूरे शबाब पर था। हालांकि, सामने वाली विजातीय और शादीशुदा थी। फिर भी उनके मोहपाश में बंधने से खुद को रोक नहीं पाया। और न ही मन को कभी दुत्कारा कि, ऐ भाई, जरा संभल कर। सोच लें, फिर आगे बढ़। भला उस समय यह भान ही कहां रहता है। चूंकि, वह शादीशुदा थी इसलिए उनसे मेल-जोल, बातचीत करने से किसी को कोई शंका नहीं हेाती। हममें बातें ख्ूाब होती। कभी सबके सामने तो कभी अकेले में। मैं उनपर लटटू था, तो वह भी मेरे अस्तित्व का इनकार करने की स्थिति में नहीं थी। लेकिन, वह थी समझदार। मुझसे अधिक। कई बार जब हदें पार करने की स्थिति बनती, तो वह टोकती। लोकलाज में ठीक नहीं है। मेरे अपने कुतर्क होते और उनके अपने तर्क। कई बार मैं शब्दों की राजनीति करने में सफल होकर इठलाता तो कई बार उनके तर्क के समाने बेबस। लेकिन, उनका साथ जितना रहा, बेहतरीन रहा। आज भी।
इसके बाद आ गया दिल्ली। जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां संवेदना नहीं है। शुरूआत में लगा। लेकिन अब ये बात नहीं कह सकता। क्योंकि आगे जिन तीन महिलाओं का साथ मिला, वह तो दिल्ली में ही न... और आधार बना संवेदना। तो फिर संवेदनहीनता की बात करनी बेमानी है।
दिल्ली में मेरी दूसरी नौकरी थी। क्षेत्र वही था, लेकिन संस्थान दूसरा। मैं पहले से उस संस्थान में था। बाद में उनका आना हुआ। शुरूआत में बातें न के बराबर होती। लेकिन बीतते समय के संग बातें खूब होने लगी। कार्यालय में, कार्यालय से बाहर और कई बार तो बस स्टॉप पर बैठकर घंटो। हर बस और लोग को आते-जाते देखता और अगले ही पल अपने में मशगूल। कभी-कभार उनके घर भी जाना होता। हालांकि, वह पेंइंग गेस्ट थी, बावजूद इसके नाश्ता-चाय में कोई दिक्कत नहीं होती। साथ तो था ही। पहली बार लगा कि प्रेम हो गया है। आखिर, दिल्ली तो बच्चा ही जी। काश... उस समय यह गीत कानों में सुनाई पड़ती। दूसरे के सहारे शायद हमलोग अपने प्रेम की बातें करते। न चाहते हुए भी रकीब था। ईष्र्या स्वभाविक है। इससे इनकार नहीं कर सकता। जब वह ऑफिस में मेरे बगल की कुर्सी पर बैठकर कार्य करती तो उनके अंगुली की हल्की सी जुबिंश मुझे अंदर तक झकझोर देती। जब वह खुले बालों के संग आती, तो कयामत लगती। शुरू में वह जींस पहनती, लेकिन मेरे पसंद जानने के बाद उसने उसके बाद कभी मेरे सामने जींस-टॉप पहना हो, मुझे याद नहीं। यही तो होता है, प्यार। जब हम एक-दूसरे के सोच का सम्मान देते हैं। सोच एक थे, लेकिन हम एक न हो सके। मन को कसक आज भी है। वह तो तैयार हो जाती। मैंने ही पहल नहीं की। साहस नहीं हुआ। प्रेम तो साहस मानता है। मैं जिस पारिवारिक पृष्ठभूमि से हूं, वहां विजातीय विवाह करना अपराध माना जाता है और इसी अपराध बोध से आज तक ग्रसित हूं। उनकी शादी हो गई। निमंत्रण भी आया। लेकिन स्वगत भावनाओं ने जाने की इजाजत नहीं दी। शादी हो गईं। उसके बाद मुलाकात हुई। वह खुश लगीं। और क्या चाहिए। प्रेम लेने का नहीं, देने का नाम है। यह आज जान पाया। जब उनसे फोन पर बातें होती हैं।
समय बदलता गया। जिस संस्थान में हमदोनों थे, उनके नहीं होने के बाद मैंने भी वह संस्थान छोड़ दिया। एक वर्ष बाद इंटरनेट की लत लगती चली गईं। शायद यह मेरी कर्मगत मजबूरी भी है। इंटरनेट पर चैटिंग, अंजानों से करना, अच्छा लगता गया। इसी दौरान एक अनजान मिली। इंटरनेट पर बातें अच्छी करती। हालंाकि, 'चुप्पÓ कहने का उन्हें शौक है। बात-बात में चुप्प। होगा उनका स्टाईल। एक दिन अपने मित्र से मिलने गया, हालंाक वह उनका भी कार्यालय था। दोस्तों से बात हुई तो उनका जिक्र किया। सामने खड़ी, वह बोली मैं हूं। लेकिन ये क्या? जिससे मैं अच्छी बातें करता था, वह इन कपड़ों में। जो मुझे पसंद नहीं थी। लेकिन भला मेरा क्या वश? उनकी जिंदगी, उनका शौक, उनका स्टाइल। मेरा दखल देना, सही नहीं था। किसी भी दृष्टिïकोण सो। उस मुलाकात के बाद मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान हुआ। अब नेट के अलावे सेल पे भी बातें होती गईं। इसी बीच उनका कुछ आ गया। किसी को मैंने उनके लिए बोला, उसने पूछा कौन है? तुम्हारे प्रदेश की तो नहीं है? क्या शादीशुदा है?
मैंने तुरंत जबाव दिया, मेरी बड़ी बहन है। धर्म बहन। सामने वाला चुप। उनका काम हो गया। इसके बाद मैंने बातों-बातों में ही उनसे पूछा, क्या आप शादीशुदा हैं, तो उन्होंने कुछ दिन बाद अपने पति परमेश्वर से मिलाया। आज उनके साथ मधुर संबंध हैं। कारण, वह घर बुलाकर मेरे पसंद की चीज जो खिलाती हैं। अब, भाई-बहन का रिश्ता जो ठहरा। सबसे मधुर और प्रगाढ़ रिश्ता। बिना किसी राग-लपेट के।
अब, पांचवीं। जिसने मेरे हर सोच को बदलकर रख दिया। उनके समुदाय के प्रति और समाज के प्रति। देखने का बिलकुल अलग नजरिया। प्रोफेशन में हैं, लेकिन है इमोशनल। एक दिन यूं ही अपने वर्तमान ऑफिस मैं बैठा था, मोबाइल बजा। एक पुराने मित्र ने एक महिला की झंकृत स्वर लहरी से सामना कराया। आवाज कानों को इतनी प्यारी लगी कि नाम पूछना ही भूल गया। केवल उसने अपने ईमेल दिया, वही याद रहा। ईमेल के माध्यम से उनका नाम जाना। बातें होती गईं। बातें अच्छी करती। विशेषकर मनोवैज्ञानिक। जबकि उसने कभी मनोविज्ञान को पाठ्यक्रम में पढ़ा नहीं। पढ़ाई कि पूरे 'पैसे की भाषा मेंÓ यानी इकॉनॉमिक्स और फोरेन ट्रेड में। लेकिन है मनोवैज्ञानिक। वह जिस समुदाय से आती है, उसके बारे में कहा जाता है कि वे केवल स्वार्थ की बात करना जानते हैं, मतलब निकल जाने के बाद पहचानते नहीं है। लेकिन यह लड़की बिलकुल उलट है। संबंधों के निर्वहन में विश्वास करती है। दिल्ली में रहते हुए 'गिव एण्ड टेकÓ रिलेशन में विश्वास नहीं करती। संवेदना के आधार पर बने संबंधों को विशेष अहमियत देती है। इसी संवेदना ने कई बार उसका जीना भी मुहाल किया है। कुछ पल के लिए वह हिली जरूर है। लेकिन आज भी अपने कर्मपथ पर निर्बांध गति से आगे बढ़ रही है। दिल्ली में पली-बढ़ी , वह जब भी मिली तो सलीके के लिबास में। मैं तो उसके हर सोच का कायल हूं। जब भी मानसिक अंर्तद्वंद की स्थिति आती है तो उससे पूछ बैठता हूं, उसका जबाव सुकून देता है।
इससे मिलकर ही लगता है कि प्रेम जब भी करें संवदेना के आधार पर। प्रेम का अर्थ काम नहीं है। संबंध को व्यापक बनाएं। तुच्छ नहीं। कुछ संबंधों को बिना नाम दिए भी आप अपनत्व का अनुभव कर सकते हैं।

शनिवार, 29 मई 2010

उमा-जसवंत को लेकर सौदेबाजी

संगठन संबंधी कामकाज का बोझ भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के लिए चुनौती बन रहा है। लिहाजा विदेश दौरे से लौटते ही गडकरी को संगठन से जुड़े कई अहम फैसले करना हैं।पहला फैसला राज्यसभा और विधान परिषद सीटों के लिए उम्मीदवारों के चयन का है। दूसरा काम राष्ट्रीय पदाधिकारियों के बीच कामकाज का बँटवारा करना है। इसके अलावा गडकरी के सामने उमा भारती और जसवंतसिंह की घर वापसी का मामला नए रूप में सामने रखा जा सकता है।गडकरी शुक्रवार को दिल्लीClick here to see more news from this city आ रहे हैं। शुक्रवार देर शाम संसदीय बोर्ड की बैठक हो सकती है। गडकरी को राज्यसभा और विधान परिषद के लिए उम्मीदवारों का चयन करना है। राज्यसभा सीट को लेकर भाजपा में खींचतान मची है। कई वरिष्ठ नेता राज्यसभा में जाने के लिए जोड़तोड़ में लगे हैं। वेंकैया नायडू, अरुण शौरी, राजीव प्रताप रूड़ी, नजमा हेपतुल्ला, हेमामालिनी, बीसी खंडूडी, मुख्तार अब्बास नकवी, संतोष गंगवार, अनिल जैन, तरुण विजय के नाम दौड़ में हैं। गडकरी के सामने दूसरी चुनौती केंद्रीय पदाधिकारियों के कामकाज का बँटवारा है। दो महीने बाद भी गडकरी अपने केंद्रीय पदाधिकारियों के बीच कामकाज का बँटवारा नहीं कर पाए हैं।इस बीच भाजपा से निष्कासित जसवंतसिंह और उमा भारती की घर वापसी की सुगबुगाहट है। इसे एक तबका राजनीतिक सौदेबाजी का भी नाम दे रहा है। सूत्रों के अनुसार पार्टी में जहाँ संघ समर्थक खेमा भारती की घर वापसी की कोशिश में लगा है तो जिन्ना प्रकरण के चलते संघ की आँखों की किरकिरी बने जसवंत की घर वापसी के लिए भी रास्ता बनाया जा रहा है। सूत्रों का कहना है कि यदि उमा पार्टी में आएँगी तो जसवंत भी आएँगे।जाति जनगणना पर राजग में फूट : जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर भाजपा नेतृत्व वाले राजग के घटक दलों में फूट पड़ गई है। इस मुद्दे पर जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने जहाँ जाति आधारित जनगणना की खुलकर वकालत की है, वहीं दूसरी ओर शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने जाति के आधार पर जनगणना का विरोध किया है। इस मामले को लेकर भाजपा में पहले से ही मतभेद हैं। पार्टी के अगड़े और पिछड़े नेता अलग-अलग सुरों में बोल रहे हैं।


साभार

शुक्रवार, 21 मई 2010

कालू राम की दिल्ली

कौन है कालू राम :
एक ऐसा इनसान जो जीवन के तमाम अनुभवों का देख चुका है। तमाम सिद्घांतों और नैतिकता पर 'जुगाड़ तंत्रÓ किस कसद हावी होता है, उसका प्रत्यक्ष गवाह है। देश के नौकरशाही-राजनेताओं की गठजोड़ में किस कदर आगे बढऩे के लिए 'यस सर...Ó जरूरी है, इसको भी बताता है।एक सामान्य सामाजिक परिवेश से दिल्ली आकर वह बड़े फलक में तमाम चीजों को देखने लगता है। समय के साथ उसकी सोच बदलती है। मान्यताएं बदल जाती है। अराध्य बदलते हैं। रिश्तों की परिभाषा बदल जाती है। नहीं बदलती है तो पैसों की माया? और इसी बल पर जीवन में तमाम चीजों को हासिल करता है कालू राम। लेकिन जीवन के उत्तरार्ध में उसे वास्तविक स्थिति का भान होता है। वह अपने जड़ों की ओर लौटना चाहता है। लेकिन नहीं लौट पाता है। जीवन के तमाम झंझावातों से रू-ब-रू होता है वह।

दिल्ली क्या है :
दिल्ली , आस-पास के कुछ जिलों के साथ भारत का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है। इसमें नई दिल्ली सम्मिलित है जो ऐतिहासिक पुरानी दिल्ली के बाद बसा था। यहाँ केन्द्र सरकार की कई प्रशासन संस्थायें हैं। औपचारिक रूप से नई दिल्ली भारत की राजधानी है। 1483 वर्ग किलोमीटर (572 वर्ग मील) में फैली दिल्ली भारत का दूसरा तथा दुनिया का आठवां सबसे बड़ा महानगर है। यहाँ की जनसंख्या लगभग 1.4 करोड है। यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषायें है: हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, और अंग्रेज़ी। दिल्ली का ऐतिहासिक महत्त्व उत्तर भारत में इसके स्थान पर है। इसके दक्षिण पश्चिम में अरावली पहाडिय़ां और पूर्व में यमुना नदी है, जिसके किनारे यह बसा है। यह प्राचीन समय में गंगा के मैदान से होकर जानेवाले वाणिज्य पथों के रास्ते में पडऩे वाला मुख्य पड़ाव था।यमुना नदी के किनारे स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है। यह भारत का अतिप्राचीन नगर है। इसके इतिहास की शुरुआत सिन्धु घाटी सभ्यता से जुड़ी हुई है। हरियाणा के आसपास के क्षेत्रों में हुई खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं। महाभारत काल में इसका नाम इन्द्रप्रस्थ था। दिल्ली सल्तनत के उत्थान के साथ ही दिल्ली एक प्रमुख राजनैतिक, सास्कृतिक एवं वाणिज्यिक शहर के रूप में उभरी। यहाँ कई प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतों तथा उनके अवशेषों को देखा जा सकता हैं। 1639 में मुगल बादशाह शाहजहाँ नें दिल्ली में ही एक चहारदीवारी से घिरे शहर का निर्माण करवाया जो1679 से 1857 तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रही। 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया। इन लोगों ने कोलकाता को अपनी राजधानी बनाया। 1911 में अंग्रेजी सरकार ने फैसला किया कि राजधानी को वापस दिल्ली लाया जाए। इसके लिए पुरानी दिल्ली के दक्षिण में एक नए नगर नई दिल्ली का निर्माण प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त कर नई दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् दिल्ली में विभिन्न क्षेत्रों से लोगों का प्रवासन हुआ, इससे दिल्ली के स्वरूप में आमूल परिवर्तन हुआ। विभिन्न प्रान्तो, धर्मों एवं जातियों के लोगों के दिल्ली में बसने के कारण दिल्ली का शहरीकरण तो हुआ ही यहाँ एक मिश्रित संस्कृति नें भी जन्म लिया। आज दिल्ली भारत की एक प्रमुख राजनैतिक, सास्कृतिक एवं वाणिज्यिक केन्द्र है।
कैसे हुआ इसका नामकरण :
इस नगर का नाम 'दिल्लीÓ कैसे पड़ा इसका कोई निश्चित संदर्भ नहीं मिलता लेकिन व्यापक रूप से यह माना गया है कि यह एक प्राचीन राजा 'ढिल्लुÓ से सम्बन्धित है। कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि यह देहली का एक विकृत रूप है, जिसका हिन्दुस्तानी में अर्थ होता है 'चौखटÓ,जो कि इस नगर के सम्भवत: सिन्धु-गंगा समभूमि के प्रवेश-द्वार होने का सूचक है। एक और अनुमान के अनुसार इस नगर का प्रारम्भिक नाम 'ढिलिकाÓ था। हिन्दी/प्राकृत 'ढीलीÓ भी इस क्षेत्र के लिये प्रयोग किया जाता था जो अन्तत: 'दिल्लीÓ बन गया।
महाकाव्य महाभारत काल से ही दिल्ली का विशेष उल्लेख रहा है। दिल्ली का शासन एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता गया। यह मौर्यों से आरंभ होकर पल्लवों तथा मध्य भारत के गुप्तों से होता हुआ 13वीं से 15वीं सदी तक तुर्क और अफगान और अंत में 16वीं सदी में मुगलों के हाथों में पहुंचा। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में दिल्ली में अंग्रेजी शासन की स्थापना हुई। 1911 में कोलकाता से राजधानी दिल्ली स्थानांतरित होने पर यह शहर सभी तरह की गतिविधियों का केंद्र बन गया। 1956 में इसे केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा प्राप्त हुआ। देश के उत्तरी भाग में स्थित दिल्ली पूर्व दिशा को छोडकर सभी ओर से हरियाणा राज्य से घिरी है, पूर्व में उत्तर प्रदेश की सीमा इससे लगती है। दिल्ली के इतिहास में 69वां संविधान संशोंधन विधेयक एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 में लागू हो जाने से दिल्ली में विधानसभा का गठन हुआ।
कृषिगेहूं, बाजरा, ज्वार, चना और मक्का यहां की प्रमुख फसलें हैं, लेकिन अब किसान अनाज वाली फसलों की बजाय फलों और सबिजयों, दुग्ध उत्पादन, मुर्गी पालन, फूलों की खेती को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। ये गतिविधियां खाद्यान्नों, फसलों के मुकाबले अधिक लाभदायक साबित हुई हैं।
उद्योगदिल्ली न केवल उत्तर भारत का सबसे बडा व्यावसायिक केंद्र है, बल्कि यह लघु उद्योगों का भी सबसे बडा केंद्र है। इनमें टेलीविजन, टेपरिकार्डर, हल्का इंजीनियरिंग साज-सामान, मशीनें, मोटरगाडियों के हिस्से पुर्जे, खेलकूद का सामान, साइकिलें, पी.वी.सी. से बनी वस्तुएं जूते-चप्पल, कपडा, उर्वरक, दवाएं, हौजरी का सामान, चमड़े की वस्तुएं, साफ्टवेयर आदि विभिन्न वस्तुएं बनाई जाती हैं।
नई सहस्राब्दी के लिए दिल्ली की नई औद्योगिक नीति के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक्स, टेलीकम्यूनिकेशन, साफ्टवेयर उद्योग तथा सूचना प्रौद्योगिकी को समर्थ सेवा बनाने वाले उद्योग लगाने पर बल दिया गया है। दिल्ली में ऐसी औद्योगिक इकाइयां लगाने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, जिनसे प्रदूषण नहीं फैलता और जिनमें कम कामगारों की आवश्यकता होती है। दिल्ली राज्य औद्योगिक विकास निगम ओखला स्थित व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र के भवन में रत्न, आभूषण और परख तथा मीनाकारी का एक प्रशिक्षण संस्थान खोल रहा है।
रिहाइशी और उद्योगों के लिए वर्जित क्षेत्रों में काम कर रही इकाइयों को दूसरे स्थानों पर ले जाने के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार ने 1,900 एकड़ भूमि बवाना, होलंबी कलां और होलंबी खुर्द तथा नरेला में नए औद्योगिक परिसर के विकास के लिए अधिग्रहीत की है। नरेला में 900 पलांट विकसित किए जा चुके हैं तथा 600 अन्य प्लांट तैयार किए जा रहे हैं। झिलमिल औद्योगिक क्षेत्र में 378 घरेलू फैक्ट्ररियां बनाने का काम पूरा हो चुका है। भोरगढ औद्योगिक संपदा के लिए 450 एकड़ भूमि का विकास किया जा रहा है। इसके अलावा एक विशाल औद्योगिक क्षेत्रों के विकास के लिए कंझावला/कारला में 652 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया।
सिंचाई और बिजलीदिल्ली के गांवों का तेजी से शहरीकरण होने की वजह से सिंचाई के अंतर्गत आने वाली खेती योग्य भूमि धीरे-धीरे कम होती जा रही है। राज्य में 'केशोपुर प्रवाह सिंचाई योजना चरण तृतीयÓ तथा 'जल संशोधन संयंत्र से सुधार एवं प्रवाह विस्तार सिंचाई प्रणालीÓ नामक दो योजनाएं चलाई जा रही है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्र में 350 हेक्टेयर की सिंचाई राज्य नलकूपों द्वारा और 1,376 हेक्टेयर की सिंचाई अतिरिक्त पानी द्वारा की जा रही है। इसके अलावा 4,900 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हरियाणा सरकार के अधीन पश्चिमी यमुना नहर द्वारा की जा रही है।
दिल्ली के लिए इसकी अपनी उत्पादन इकाइयों-राजघाट बिजली घर, इंद्रप्रस्थ स्टेशन और बदरपुर ताप बिजलीघर सहित गैस टरबाइन पर आधारित इकाई से 850-900 मेगावाट बिजली प्राप्त होती है। शेष बिजली उत्तर क्षेत्रीय ग्रिड से प्राप्त की जाती है। दिल्ली में कई बिजली उत्पादन इकाइयां शुरू करने की योजना है। इंद्रप्रस्थ एस्टेट में प्रगति कंबाइंड पावर प्रोजेक्ट स्थापित किया जा चुका है। 330 मेगावाट प्रगति पावर परियोजना निर्माणाधीन है और जल्दी ही चालू होने वाली है। इसके 100 मेगावाट वाले प्रथम चरण को परीक्षण के लिए शुरू कर दिया गया है। प्रगति ढ्ढढ्ढ के अंतर्गत गैस पर आधारित 330 मेगावाट तथा बवाना में लगाई जाने वाली 1000 मेगावाट की परियोजनाओं पर काम चल रहा है।
बिजली वितरण को सुचारू बनाने के लिए दिल्ली विद्युत बोर्ड का निजीकरण कर दिया गया है और दिल्ली की बिजली व्यवस्था अब देश की दो जानी मानी-संस्थाओं-बी.एस.ई.एस. तथा टाटा पावर (एन.डी.पी.एल) द्वारा देखी जा रही है।
परिवहनदिल्ली सडकों , रेल लाइनों और विमान सेवाओं के जरिये भारत के सभी भागों से भलीभांति जुड़ी हुई है। यहां तक तीन हवाई अड्डे हैं। इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए पालम हवाई अड्डा घरेलू उड़ानों के लिए तथा सफदरजंग हवाई अडडा प्रशिक्षण उड़ानों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। दिल्ली में तीन महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन भी हैं। ये दिल्ली जंक्शन, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के नाम से जाने जाते हैं। तीन अंतर्राष्ट्रीय बस अड्डे-कश्मीरी गेट, सराय काले खां और आनंद विहार में हैं।
दिल्ली शहर में बढ़ते वाहन प्रदूषण और यातायात की अस्त-व्यस्त स्थिति को देखते हुए भारत सरकार ने मास रैपिड ट्रांजिट प्रणाली लागू करने का निर्णय लिया। यह परियोजना कार्यान्वित की जा रही है और इसमें अति आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। मेट्रो रेल परियोजना दिल्ली में आ गई है। अब दिल्ली मेट्रो के प्रथम चरण में तीन मेट्रो कारीडोर हैं जो रिकार्ड समय में पूरे होकर काम भी करने लगे हैं। शाहदरा से रिठाला और दिल्ली विश्वविद्यालय से केंद्रीय सचिवालय के बीच लाइनें बिछ गई हैं और इन पर गाडियां भी चलने लगी हैं। बाराखंभा और द्वारका के बीच तीसरी लाइन भी चालू हो गई है। दिल्ली मेट्रो के द्वितीय चरण को भी स्वीकृत मिल गई है जिससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के यात्रियों को बेहतर संपर्क सुविधा प्राप्त हो सकेगी।
त्योहारमहानगर होने की वजह से यहां भारत के सभी प्रमुख त्योहार मनाए जाते हैं। इनके अलावा दिल्ली पर्यटन और परिवहन विकास निगम कुछ वार्षिक उत्सवों का भी आयोजन करते हैं। ये है: रोशनआरा उत्सव, शालीमार उत्सव, कुतुब उत्सव, शीतकालीन मेला, उद्यान और पर्यटन मेला, जहाने-खुसरो उत्सव तथा आम महोत्सव।
पर्यटन स्थल
जंतर मंतर, नई दिल्ली दिल्ली के प्रमुख पर्यटन केंद्रों में लालकिला, जामा मस्जिद, कुतुब मीनार, इंडिया गेट, लक्ष्मीनारायण (बिडला) मंदिर, हुमायूं का मकबरा और लोटस टैंपल आदि प्रमुख हैं। दिल्ली राज्य पर्यटन और परिवहन विकास निगम पर्यटकों को यहां के विभिन्न स्थानों की सैर कराने के लिए विशेष बस सेवाएं चलाता है। निगम ने पैरा सेलिंग, रॉक क्लाइंबिंग और बोटिंग जैसी साहसिक गतिविधियों के लिए सुविधाएं विकसित की हैं। निगम ने Óदिल्ली हाटÓ का विकास किया है, जहां काफी और विभिन्न राज्यों की खाद्य वस्तुएं एक जगह उपलब्ध हैं। दिल्ली के विभिन्न भागों में ऐसी ही 'हाटÓ बनाने की योजना है। निगम दिल्ली के अनेक भागों में 'कॉफी होमÓ भी चला रहा है। दिल्ली के दक्षिणी जिले में 'पंचेंद्रियों का पार्कÓ भी खुला है जो दिल्ली में आने वाले बहुत-से पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है।

कैसी है कालू राम की दिल्ली :
दिल्ली का वह स्थान जो अन्यान्य कारणों से सुर्खियों में रहता है, से वास्ता रहता है कालू राम का। सत्तर के दशक में वह पहली बार दिल्ली आता है तो यह भी उसके दूसरे घर जैसा लगता है। यहां के लोग भी निष्कपट जान पड़ते हैं। अस्सी के दशक में वह थोड़ा सांप्रदायिक होता है। नब्बे में आकर तो उस पर बाजार वाद हावी हो जात है। सूचना-क्रांति ने बेशक सर्वसंपन्न बना दिया लेकिन मानवीय संवेदनाएं छीजती चली गईं। आपसी रिश्तों की कोई अहमियत नहीं दिखाई पड़ते। कई लोग जो पहले अपने कहाते थे, स्वार्थ के वशीभूत होकर दूर होते चले गए। संतान भी अपने अहं की पूर्ति के बाद चलते बने। नहीं गईं तो उनकी अर्धांगिनी और एक मित्र। जिनको अहमियत नहीं देता रहा कालू राम।

गुरुवार, 20 मई 2010

समाधि से भोग का मार्ग

भारतीय संस्कृति त्याग की संस्कृति रही है। ईशावास्य उपनिषद् का सूत्र वाक्य ही है - तेन त्यक्तेन भुज्जीथा मा गृध: कस्यस्विद् धनम। त्रेता, द्वापर में यह संस्कृति बरकरार रही। कलियुग में रजनीश ओशो आते हैं और एक किताब लिखते हैं संभोग से समाधि की ओर...। किताब व्यापक सामाजिक-आध्यात्मिक विमर्शों की पड़ताल करती है, उसकी व्याख्या करती है। इन सबसे इतर एक बाबा वर्ग तैयार हुआ है, जिसका मकसद है जैसे-तैसे प्रसिद्धि हासिल करना, फिर अपना स्वर्ग तैयार करना और खुद ईश्वर बन जाना। कोई इसे भौतिकता का नाम देता है तो कोई आधुनिकता का। कें द्र में भोग ही होता है। सही साधु समाज में आता है समाज के लिए लेकिन आज के साधु-संत समाज में आते हैं अपनी इच्छापूर्ति के लिए। कोई भगवा चोला धारण करता है, कोई श्वेत धवल वस्त्र तो कुछ लोग थ्री पीस सूट में मोटिवेटर की भूमिका में आकर अपना साम्राज्य चलाते हैं।

भारतीय संस्कृति में साधु-संत और विचारक का होना कोई नई बात नहीं है। यह सनातन है। वैदित युग से लेकर आधुनिक साहित्य-संस्कृति भी इसका बखान करते हैं। हमारी इस पवित्र भूमि में एक से बढ़कर एक साधु-संत और विचारक हुए हैं, लेकिन बदलते समय व परिवेश में इनके आचरण-व्यवहार में अंतर आया है। वह भी अधोगामी। समाज और लोग हक्के-बक्के हैं कि ये क्या हो रहा है? अचानक हमारे समाज को धर्म और धार्मिकता की आड़ में कौन धूल-धूसरित कर रहा है? साथ में आज के आधुनिक विचारक धन के बल पर कौन सा संदेश देना चाहते हैं? ओशों ने काफी वर्ष पहले एक पुस्तक लिखी थी 'संभोग से समाधिÓ। पुस्तक का लब्बोलुवाब भारतीय संस्कृति को ही महिमामंडित करता है, लेकिन आज के सो कॉल्ड साधु-संत 'समाधिÓ से 'भोगÓ की ओर जा रहे हैं।

शास्त्रसम्मत बात की जाए तो ध्येय वस्तु के ध्यान में जब साधक पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे 'समाधिÓ कहा जाता है और 'भोगÓ से तात्पर्य कामेच्छा, आधुनिक भौतिक सुख-सुविधा से लगाया जाता है। गौर करने योग्य है कि साधु संत पहले एक साधक की तरह ज्ञानार्जन करते हैं, फिर समाज में आकर अपने मत का प्रचार करते हैं। इसे उनकी समाधि कहा जा सकता है, लेकिन कुछ समय बाद ही जब उनका नाम होने लगता है, वह धीरे-धीरे अपना एक आश्रम जो कि उनके साम्राज्य की तरह होता है, बनाते हैं और फिर सांसारिक सुख-सुविधा में इस कदर लिप्त होते चले जाते हैं कि उन्हें वास्तविक स्थिति का भान ही नहीं रहता है। पिछले दिनों पुलिस हिरासत में आए बेंगलुरू के स्वामी नित्यानंद और दिल्ली के इच्छाधारी संत इसके ताजा उदाहरण हैं। पुलिसिया जांच से यह जाहिर है कि स्वामी नित्यानंद लोभ के वशीभूत होकर अमेरिका आदि देशों के लिए सोना का तस्करी भी करते थे।

सच तो यह है कि स्वामी नित्यानंद एक नाम नहीं बल्कि बाजारवाद की चपेट में आया एक विचारधारा को प्रतिरूपित करता है। जो दिखता है वह एक सच है और जो भगवा चोले के अंदर नहीं दिखता वह दूसरा सच है। सच दोनों हैं। किसी को भी झुठलाया नहीं जा सकता। ठीक इसी सोच से आधुनिक समाज के हाईफाई मोटिवेटर भी प्रभावित है। मंचों से अच्छी बातें वे तभी करते हैं जब आयोजनकर्ता उनके जेब में लाखों-करोड़ों रुपए का चेक पहले थमा देता है या देने का आश्वासन देता है। अव्वल तो यह है कि न तो साधु और न ही मोटिवेटर इस रकम को अपनी फीस मानते हैं। इस बिरादरी के लिए यह 'दान और डोनेशनÓ होता है। हैरत की बात तो यह है कि ये साधु और मोटिवेटर किसी सूरत में इसे फीस नहीं मानते।

प्राय: हरेक नामचीन संतों ने अपने-अपने आश्रम बना रखें हैं। साथ ही, उसको ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत भी करवा रखा है। इसका लाभ उन्हें दान लेने में होता। दान करने का लाभ यह है कि दानदाता आयकर अधिनियम 80जी के तहत छूट का हकदार होता है। यह कहना नहीं है कि इन ट्रस्टों के दानदाता किस समुदाय-वर्ग से आते हैं और उनके आय का स्रोत कैसा होता है? आयकर के वकील सुनील मिश्रा कहते हैं कि तमाम काले धन के मालिक विभिन्न ट्रस्ट में दान देकर लोगों की नजर में पुण्य के भागी बनते हैं, समाज में एक अपनी स्वच्छ छवि बनाना चाहते हैं साथ ही आयकर देने से भी बच जाते हैं। ट्रस्ट के नाम पर बहुत ही बारीक खेल खेला जाता है, जिसे आमजन नहीं समझ पाता। राष्टï्रीय राजधानी क्षेत्र सहित विदेशों में भी महर्षि महेश योगी ने ट्रस्ट के नाम पर अकूत संपत्ति इक_ïा कर ली है। इसी तरह स्वामी रामदेव भी पतंजलि योग पीठ को ट्रस्ट का रूप दे चुके हैं। यह अच्छी बात है कि वहां लोगों को योग और आयुर्वेंद के नाम पर इलाज मिलता है, लेकिन सदस्यता शुल्क के रूप में लाखों-करोड़ों लेने का क्या मकसद है? पतंजलि योगपीठ की दवाएं भी काफी महंगी हैं। अव्वल तो यह कि गाहे-बेगाहे स्वामी रामदेव अपने बात के समर्थन में प्रसिद्ध दवा कंपनी फाइजर का जिक्र करते हैं, जिसका कुल कारोबार भारत के सालाना बजट से कहीं अधिक है।

सच तो यह भी है कि आजकल धर्म के साथ योग जोड़कर कुछ बाबाओं ने योग की मल्टीनेशनल कंपनी खड़ी कर ली है। प्रचीन काल से योग भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। स्वयं श्रीकृष्ण को बहुत बड़ा योगी कहा जाता है। हमारे देश में महान योगी संत हुए हैं, लेकिन योग का जैसा बाजारीकरण आज हो रहा है, पहले कभी नहीं हुआ। योग से लाइलाज बीमारी तक का दावा करने में भी लोग नहीं हिचक रहे हैं। बाबा लोग योग को धंधा बनाकर एक-एक आसन को ऐसे बेच रहे हैं, जैसे पिज्जा हट वाले तरह-तरह का पिज्जा बेचते हैं। कुछ बाबाओं की मिलने की फीस 25 हजार रुपये है। पहले फीस जमा कराएं, फिर समय लें और तब जाकर बाबा जी मिलते हैं। धन कुबेर बने बैठे इन बाबाओं के समाज के उत्थान में क्या योगदान है? समाज की समस्याओं को दूर करने के लिए इन बाबाओं ने क्या प्रयास किए हैं? धर्म ने नाम पर लोगों को बहकाने के अलावा देश में शांति सद्भाव बढ़ाने के लिए इन बाबाओं ने क्या किया है? आज भारत की आबादी में 65 फीसदी हिस्सा युवा वर्ग का है। उनको सही दिशा देने की इन बाबाओं की क्या योजना है? जिस देश में ये बाबा पैदा हुए, उसकी माटी के लिए इन्होंने आज तक क्या किया? ऐसे अनगिनत सवाल है, जिनके जवाब इन बाबाओं के पास नहीं हैं।

मंगलवार, 18 मई 2010

सीएम खड़ा बाजार में

लोकतंत्र में जब बहुमत किसी भी दल को नहीं मिलता है और गठबंधन की राजनीति में स्वार्थ टकराता है तो स्थिति कैसी विचित्र हो सकती है, उसका नायाब नमूमा झारखंड से बेहतर मुश्किल है। पिछले एक पखवाड़ें से भी अधिक समय से कभी समर्थन तो कभी समर्थन वापसी को लेकर जिस प्रकार के सियासी दांव चले जा रहे हैं, उसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि प्रदेश के राजनेता का ध्येय लोककल्याणकारी सरकार का गठन करना नहीं बल्कि अपने लिए एक अदद कुर्सी का इंतजाम भर करना रह गया है।
चूंकि यह प्रदेश प्राकृतिक संसाधनों से लैस है। सो, प्रदेश में कार्यरत खनन माफिया भी अपने-अपने समर्थकों के बल पर सरकार गठन की प्रक्रिया को प्रभावित कर रहे हैं। आखिर, व्यापारियों को सरकार से पचासों काम कराने को होते हैं। तभी तो सियासी हलको में यह खबर उठने लगी है कि झारखंड का झमेला सुलझाने में राजनीतिक दल नाकाम हो चुकी है और अब खान माफिया यह तय करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहा है कि अपने हित सुरक्षित करने के लिए वह किसकी सरकार बनाने में मदद करे। ऐसी स्थिति में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में सरकार झामुमो-भाजपा गठबंधन की बनें अथवा झामुमो-कांग्रेस गुट का, पैसे का बोलबाला होगा। विधायकों की खरीद-फरोख्त एक बार फिर होगी। ऐसे में इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता है कि जो व्यापारी वर्ग सरकार बनाने में मदद करेगा, वह किसी प्रकार का अनैतिक आर्थिक लाभ नहीं उठाएगा। ऐसे में अपने गठन के नौ वर्ष बाद भी स्थायीत्व की बाट जोहता प्रदेश लूट-खसोट का नया केंद्र बनकर उभरेगा।
प्रदेश के राजनीतिक हालात जता रहे हैं कि सरकार का गठन बगैर किसी औद्योगिक घराने के समर्थन के नहीं बनेगा। इसके अपने कारण भी है। प्रदेश में टाटा जैसे औद्योगिक घराने जब चुनाव में अपना काउंटर औपचारिक रूप से खोल देते हैं और हैसियत के हिसाब से प्रत्याशियों को लिफाफा बांटते हैं तो वर्तमान में मामला सरकार गठन का है। इस श्रेणी में केवल टाटा ही नहीं, कई दूसरे औद्योगिक घराने में भी हैं। जिनका प्रत्यक्ष और परोक्ष हित सरकार गठन से लेकर उसके स्थायीत्व तक का है।
कुछ समय पूर्व मधुकोड़ा प्रकरण में जब जांच एजेंसियों ने फाइलों को ख्ंागालना शुरू किया तो कई घरानों के नाम आते गए। अभी के हालात में जो भी सरकार बनेगी, उसके स्थायीत्व को लेकर कुछ भी कहना आसान नहीं होगा। सो, कहा जा रहा है कि औद्योगिक घराने अपने निवेश को यथाशीघ्र वसूलना चाहेगी। राजनीतिक गतिरोध का एक कारण यह भी है कि भाजपा के एक विधायक एक औद्योगिक घराने की राजनीति कर रहे हैं, वह यह नहीं चाहते कि किसी भी प्रकार उनके घराने का आर्थिक हित की अनदेखी की जाए। ऐसे में राजनीतिक प्रेक्षक प्रदेश में एक बार फिर से लूट-खसोट की संभावना जता रहे हैं। सच तो यह भी है कि जब बाजार ही तय करेगा कि प्रदेश का मुखिया कौन होगा तो वहां लोककल्याण और सिद्घांत आदि की बात करनी बेमानी है।

शनिवार, 15 मई 2010

जाति पूछो हर इंसान की

सदियों से कहा जाता रहा है, 'जाति न पूछो साधु कीÓ लेकिन आज के राजनेता हर आम-ओ-खास का जाति पूछने की जिद पर अड़े हैं और सरकार यह कार्य कर रही है। लोकसभा में जाति आधारित जनगणना पर अधिकांश दलों को एकमत देखकर केंद्र सरकार इसके लिए तैयार हो गई है। भारत सरकार ने जातीय आधार पर जनगणना करने का निर्णय किया है, वह बुद्घिजीवियों की रायशुमारी में दुर्भाग्यपूर्ण हैं। कारण स्पष्टï हैं, जातिगत समीकरण को इष्टï मानने वाले नेताओं को यह सुविधा हो जाए कि उनके जातियों की संख्या अमुक चुनाव क्षेत्र में कितनी है। अक्सर हम बात करते है की जातिवाद का अंत होना चाहिए...जाति प्रथा समाज के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है...फिर देखने को मिलता है जाति के आधार पर आरक्षण । क्या ये जाति प्रथा को बढावा नही देती ? हमारे नेता वोट बैंक बनाने के लिए जाति को आधार बनाकर कई तरह का खेल हमारे साथ खेलते हैं.....
जाति को जनगणना में शामिल करने के पक्ष में यह भी तर्क है कि जिन पिछड़ी जातियों के उत्थान पर हर साल हजारों करोड़ रूपए खर्च किए जाते हैं, उसका सही आकलन भी जरूरी है। मंडल कमीशन के अनुसार पिछड़ी जातियों यानी ओबीसी की आबादी देश की कुल आबादी का 52 फीसदी है। लेकिन हाल में कराए गए सरकारी सर्वे के आंकड़े इससे अलग हैं। नेशनल सेंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक देश की कुल आबादी में ओबीसी का हिस्सा 35 फीसदी है। केन्द्र के ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाल के सर्वे के मुताबिक भी गांवों में ओबीसी की आबादी 38.5 फीसदी है। सबसे ज्यादा 54 फीसदी ओबीसी तमिलनाडु में हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में ओबीसी की संख्या 52 फीसदी और बिहार में महज 37 फीसदी है। यह आंकड़ा गांवों का है। इसमें शहरी आबादी को अगर जोड़ दिया जाए तो कुल आबादी में ओबीसी का अनुपात और थोड़ा कम होगा। सवाल है कि इन आंकड़ों में से किस पर भरोसा करें- मंडल कमीशन पर जिसने 1931 की जनगणना को आधार बनाकर 52 फीसदी आंकड़ा बताया था या फिर नेशनल सेंपल सर्वे या ग्रामीण विकास मंत्रालय पर।
दरअसल, जिन कल्याणकारी योजनाओं को लछित करके ये सारी कवायद की जा रही हैं उन्हें पहले से ही संविधान में उल्लेखित किया जा चुका हैं। काबिलेगौर है कि नरेगा जो अब मनरेगा हो चूका हैं उसके क्रियान्वयन की जाच करा ली जाये। इसमें समाज के सबसे निचले तबके को जाति धर्म से ऊपर उठ कर रोजगार उपलब्ध करने की व्यवस्था हैं, क्या सिर्फ आकड़ो का खेल नहीं हो रहा हैं। जितनी संख्या में रोजगार मांगने वालो को उनके घर के समीप उपलब्ध होने चाहिए थे उतना मिल पा रहा हैं। आखिरकार ये राजनेता क्या चाहते हैं, देश को जाति पातीमें बाटकर मानसिक रूप से गुलाम बनाये रखा जाये। राष्ट्रीयता की भावना का क्या होगा। आतंकवाद से , बीमारियों के जंजाल से , नक्सल वाद से, बढती बेरोजगारी से कैसे निपटेगे। सिर्फ बिहार की चर्चा करे तो यहाँ 96 फीसदी किशोरिया रक्ताल्पता से पीडि़त हैं। 90 फीसदी गर्भवती व् शिशुवती माताए अकाल मौत के कगार पर खड़ी रहती हैं। कमजोर मानव कैसे जीडीपी के विकास दर को बढऩे में अपना योगदान दे सकते हैं । इन राजनेताओ के दिमाग को क्या होगया हैं। पता नहीं। जातीय आधार पर विकास के साधन जरुरत मंदों के बीच पहुचने की कवायद की जाति हैं तो वो क्या हैं जिस नीति के तहत करोडो -अरबो रूपये की सब्सिडी उद्योगपतियों को दे दी जाती हैं। आखिर कैसे भारत की परिकल्पना की जा रही हैं। भारत की जो जनता आतंक के विरुद्ध मोमबतिया जलाने एक साथ निकल पड़ती हैं उसे इसप्रकार के गैर जिम्मेदराना निर्णयों के खिलाफ भी सामने आना चाहिए। भारतीय मिडिया से इस बात की उमीद करना बेमानी हैं की वो जनमत तैयार करने में अपना योगदान दे। उसे नेताओ और सत्ता की चाकरी करने से फुरसत नहीं हैं। कितने भी बड़े तीसमारखा हो वो इस बात को समझते हैं की जिस सिस्टम के वो हिस्सा बन चुके हैं उनमे अपनी बात रखना भी कितना मुश्किल भरा कार्य हो गया हैं। आवाज कही से भी उठती हो उसे अपना स्वर प्रदान करना चाहिए। अम्बेडकर हो या लोहिया , गाँधी हो या नेहरु सबने जातिविहीन समरस समाज की कल्पना की हैं । इसे जनगणना कराकर, ऐसी कमरे में बैठ कर योजनाये बनाने से हासिल नहीं किया जा सकता।

शुक्रवार, 14 मई 2010

बेगाने होंगे ऑस्ट्रेलियाई

अगले 15 वर्ष में ऑस्ट्रेलियाई मूल के लोग अपने ही देश में बेगाने अल्पसंख्यक हो जाएंगे। खास बात यह कि भारतीयों की भूमिका पहले से कहीं दमदार होगी। विश्व के मानचित्र पर छोटा सा देश है ऑस्ट्रेलिया, जो पिछले कुछ समय से भारतीयों के खिलाफ आने से चर्चा में रहा। आने वाले समय में भारतीय ही इस देश को प्रभावित करेंगे और मूल निवासी अल्पसंख्यक हो जाएंगे। वर्तमान की स्थिति तो यही है कि ऑस्ट्रेलिया में आबादी के बदलते समीकरण से जुड़ा नया आंकड़ा वहां के स्थानीय लोगों के लिए चिंता का सबब बनता जा रहा है।
विभिन्न रिपोर्ट बता रहे हैं कि अगले 15 वर्षों में ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों से ज्यादा आबादी दूसरे देशों के प्रवासियों की हो जाएगी। खास बात यह है भारतीय प्रवासी ऑस्ट्रेलिया के सबसे बड़े समुदायों में एक होंगे। मैक्रोप्लान ऑस्ट्रेलिया के आंकड़ों के हवाले से कहा गया है कि यूरोप और एशिया, खासकर भारत और चीन से भारी तादाद में आने वाले प्रवासियों की तादाद के कारण 15 वर्ष के अंदर ऑस्ट्रेलियाई अपने ही देश में अल्पसंख्यक समूह बनकर रह जाएंगे। इसमें कहा गया है कि ऑस्ट्रेलिया में सबसे अधिक प्रवासी ब्रिटेन (14.2 प्रतिशत), न्यूजीलैंड (11.4 प्रतिशत), भारत (11.2 प्रतिशत), चीन (10.5 प्रतिशत), दक्षिण अफ्रीका (5.3 प्रतिशत) और फिलिपीन (4.1 प्रतिशत) से आते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, मैक्रोप्लान के आंकड़े दिखाते हैं कि दूसरे देशों से रेकॉर्ड तादाद में प्रवासी ऑस्ट्रेलिया आ रहे हैं, जबकि यहां के लोग उम्रदराज हो रहे हैं। इसका मतलब है कि 2025 तक प्रवासी परिवार स्थानीय निवासियों को संख्या में मात दे देंगे। यह उससे कहीं पहले होगा, जितना पहले सोचा गया था।
काबिलेगौर यह भी है कि ऑस्ट्रेलिया के वित्त मंत्रालय द्वारा जारी किए गए एक रिपोर्ट के अनुसार अगले चालीस वर्ष के भीतर ऑस्ट्रेलिया की आबादी दो-तिहाई बढ़ जाएगी। कुल जनसंख्या बढ़कर तीन करोड़ साठ लाख हो जाएगी। वित्त मंत्रालय ने तीन वर्ष पहले यह अनुमान लगाया था कि देश की आबादी में अगले चार दशकों में 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाएगी। वर्तमान अनुमान, पिछले अनुमान की तुलना में कहीं ज्यादा है। आर्थिक विकास दर के ज्यादा रहने से उत्साहित होकर ऑस्ट्रेलिया में जन्म दर बढऩे लगी है। लेकिन इससे भी कहीं अधिक खतरा यहां आप्रवासियों की संख्या में तेजी से हो रही बढ़ोतरी से है। पिछले वर्ष तक ऑस्ट्रेलिया में प्रति वर्ष दो लाख 44 हजार लोग दूसरे मुल्कों से आते रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच बुजुर्गे की संख्या में कमी दर्ज की जा रही है। दूसरे देशों से यहां आ रहे 90 प्रतिशत लोग 40 वर्ष से कम उम्र के हैं। ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या में मात्र 55 प्रतिशत ही युवा वर्ग है। रिपोर्ट पर गौर करें तो एक खतरनाक पहलू यह सामने उभरकर आता है कि वर्ष 2050 तक 65-84 वर्ष के आयु वाले बुजुगरें के औसत में बढ़ोतरी हो सकेगी। पचासी वर्ष से ज्यादा उम्र वालों की जनसंख्या में चार गुना बढ़ोतरी हो जाएगी। बुजुर्गे की जनसंख्या में बढ़ोतरी का मतलब यह है कि सरकारी खचरें में आधे से ज्यादा बजट उनके हेल्थ केयर और उन्हें किसी-न-किसी तरह लाभान्वित करने पर जाएगा। जबकि इसका स्याह पहलू तो यह है कि नौकरी पेशा और कर का भुगतान करने वालों की जनसंख्या घटकर आधी रह जाएगी।
हालांकि, इस समस्या के निपटान के लिए ऑस्ट्रेलिया सरकार की आबादी बढाऩे की नीति काम तो कर रही है लेकिन सरकार को लगता है कि अगर देश की विकास दर को बढऩा होगा तो उसे बड़े पैमाने पर युवा आबादी की जरूरत होगी। ऑस्ट्रेलिया सरकार के एक शीर्ष अधिकारी पीटर केस्टेलो की माने तो ऑस्ट्रेलिया सरकार ने देश में घटती युवा आबादी को ध्यान में रखकर एक बच्चा मम्मी के लिए, एक बच्चा पापा के लिए और एक बच्चा देश के लिए का नारा दिया था। सरकार की इस योजना के कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आए भी। लेकिन अब सरकार को लगता है कि घटती युवा आबादी से देश का विकास प्रभावित हो सकता है।
जानकारों का मानना है कि वर्ष 2047 तक मौजूदा रूझानों के मुताबिक 65 साल की उम्र के लोगों की संख्या कुल जनसंख्या का एक चौथाई हो जाएगी। वहीं कामगार युवा आबादी में बड़े पैमाने पर कमी आने की आशंका है। ऑस्ट्रेलिया में इस समय मां और बच्चे का अनुपात 1.8 है जबकि पांच साल पहले यह 1.7 था। वहीं प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अगले 40 वर्षों में 1.6 प्रतिशत के औसत के साथ बढ़ेगा जबकि पिछले 40 सालों में यह औसत 2.1 था। उम्रदराज आबादी का असर देश के चिकित्सा तंत्र पर भी पड़ेगा।
सच तो यह भी है कि देश के जनसंख्या आंकड़ों के अनुसार, ऑस्ट्रेलियाई आबादी का 40 प्रतिशत हिस्सा या तो खुद विदेशों में पैदा हुआ है या फिर उनके माता-पिता में से कोई एक विदेश में पैदा हुए हैं। मौजूदा ट्रेंड जारी रहा तो 2025 तक यह अनुपात बढ़कर 50 फीसदी हो जाएगा। प्रवासियों के मौजूदा स्तर को देखते हुए 2025 तक उनकी संख्या 2.2 करोड़ से बढ़कर 3.6 करोड़ होने की उम्मीद है।

गुरुवार, 6 मई 2010

नींद की रहस्यमयी दुनिया

दिन में हम जागते हैं और रात होते ही नींद आने लगती है. रात में कुछ देर तक तो हम जागते हैं लेकिन फिर नींद हम पर भारी होने लगती है और अंतत: हम सो जाते हैं. एकदम निष्क्रीय. हम हमारी जिंदगी का एक तिहाई हिस्सा तो सोने में ही बिता देते हैं. तो क्या हमारा इतना समय यूँ ही बरबाद जाता है? क्या नींद यह प्रकृति की एक बड़ी भूल है?
दुनिया भर के वैज्ञानिक इस सवाल का जवाब देने में लगभग असफल रहे हैं. नींद एक सामान्य प्रक्रिया है लेकिन वह असामान्य लगती है. हम आजतक इस सवाल का सटीक जवाब नहीं दे पाए कि आखिर हमें नींद लेने की आवश्यकता ही क्या है?
इसके अलावा और भी कई सवाल हैं – क्यों जीराफ मात्र 5 घंटे सोता है और शिकार शेर 15 घंटे, जबकि शेर के लिए वह भोजन बन सकता है? क्यों प्रवासी पक्षी कई दिनों के प्रवास के बाद अंत में ‘सो” जाते हैं? क्यों बच्चे अधिक देर तक नींद लेते हैं लेकिन बुजुर्ग कम देर तक? वैज्ञानिकों ने आजतक नींद से संबंधित कई व्याख्याएँ दी हैं और हर व्याख्या पर सवाल खड़े किए गए हैं. हर प्राणी और हर प्राणी की उपजातियों और यहाँ तक कि हर उपजाति के हर सदस्य की नींद की आदत अलग अलग होती है और यही एक चुनौती है. चुनौती इसलिए क्योंकि नींद की जरूरत हर किसी के लिए अलग होती है और इसका कोई निश्चित पेटर्न नहीं होता.
वी.ए. ग्रेटर लॉस एंजिलिस हैल्थकेर सिस्टम के डॉ. सीगल मानते हैं कि नींद प्रकृति की गलती नहीं है. उनके हिसाब से नींद लेना भूल हो सकती है लेकिन बिना वजह जागना उससे भी बड़ी भूल है. जर्नल नेचर रिव्यू न्यूरोसाइंस के अगस्त अंक में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के जेरोम सीगल के विचार छपे हैं. जेरोम का मानना है कि नींद प्रकृति का दिया हुआ समय प्रबंधन टूल है. जेरोम के अनुसार नींद जानवरों को खतरों से बचाती है क्योंकि सोया हुआ प्राणी खाने के लिए बाहर नहीं आता और शिकारी जानवरों का शिकार नहीं बनता.
लेकिन जैसा कि हमेशा से होता आया है, नींद से संबंधित हर व्याख्या को चुनौती मिलती है और जेरोम सीगल की व्याख्या भी इससे अपवाद नहीं है. कई वैज्ञानिकों ने जेरोम की व्याख्या को खारिज करते हुए कहा है कि सोया हुआ प्राणी काफी कम सचेत होता है इसलिए उसके लिए खतरा भी काफी अधिक होता है. कई वैज्ञानिकों का मानना है कि नींद लेकर हमारा दिमाग दिन भर की यादों को संग्रह करता है. एक दूसरी व्याख्या यह है कि नींद लेकर हमारा शरीर खुद को पहुँचे प्राकृतिक नुकसान को ठीक करता है. छोटे बच्चे अधिक सोते हैं क्योंकि उनके दिमाग को विकसित होना होता है, जबकि बुजुर्ग व्यक्ति कम सोते हैं क्योंकि उनके दिमाग के लिए विकास प्रक्रिया समाप्त हो चुकी होती है. इस तरह से हमने देखा कि नींद के ऊपर आधारित कई व्याख्याएँ वैज्ञानिक समुदाय में प्रचलित है, लेकिन आजतक कोई भी इस सवाल का सटीक जवाब नहीं दे पाया कि आखिर हमें सोने की जरूरत ही क्या है? या फिर क्या नींद प्रकृति की भूल है?


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