सोमवार, 19 जनवरी 2015

उम्मीदों की दिल्ली



पूरे देषवासियों के लिए दिल्ली एक प्रतीक है। दिल्ली एक उम्मीद है उनके भविष्य के लिए । पूरे देष की सत्ता यहां से संचालित होती है। अनेकता में एकता का भाव लिए दिल्ली का मिजाज समावेषी है। बिना भेदभाव किए दिल्ली सबका स्वागत करती है। दिल्ली का चरित्र गंगा-जमुनी तहजीब का है। हर वर्ग, हर संप्रदाय, हर विचारधारा के लोग यहां निवास करते हैं। ऐसे में दिल्ली का राजनीतिक मिजाज भला एक कैसे हो सकता है ? यहां न तो क्षेत्रीय अस्मिता पर जनता को बरगलाया जा सकता है और न जाति के नाम पर।
असल में, यही सबसे बड़ी मुष्किल है राजनीतिक दलों के लिए। जब हम  दिल्ली विधानसभा चुनाव की बात करते हैं, तो विधानसभा की कुल जमा 70 सीटों को फतह करना हर राजनीतिक दल के लिए मुष्किलों भरा होता है। दिल्ली में विधानसभा पर 15 सालों तक कांग्रेस ने कब्जा किया। उसके बाद महज 49 दिन के लिए आम आदमी पार्टी ने अपना राग छेड़ा। बीते एक साल के राष्ट्रपति षासन का दंष झेल रही दिल्ली इस बार कैसा जनादेष देगी, इसको लेकर सियासी दलों की संासें अभी से फूली हुई हैं।
यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि ‘आप’ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, तो कांग्रेस पहचान की। भाजपा अपनी राजनीतिक पूंजी पर पकड़ बनाए रखना और मोदी के कद के सहारे उसमें इजाफा करने की ख्वाहिश रखती है। क्योंकि दिल्ली लोकसभा की सातों सीटों पर भाजपा का कब्जा है। क्या भाजपा दिल्ली विधानसभा में बहुमत हासिल करने वाली है? ये सवाल अब लोगों के जेहन में तैर रहे हैं। बहरहाल, दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव देश के रोचक चुनावों में से एक होंगे। जरा याद कीजिए, एक रेडियो विज्ञापन में अरविंद केजरीवाल एको साउंड यानी अनुगूंज के सहारे आह्वान करते हुए किसी बुजुर्ग महिला को आश्वस्त कर रहे हैं कि माता जी गलती  हो गई, मगर हम कहीं गए नहीं थे। मैं आ रहा हूं, आपकी सेवा के लिए। वहीं, भाजपा के विज्ञापन में दो दोस्त सुन न, सुना न टाइप की बातें करते हुए आम आदमी पार्टी को नौटंकीबाज बता रहे हैं कि यार इस बार तो बिल्कुल नहीं।
टिकट तो टिकट अब विज्ञापन भी लोगों की कैटगरी के हिसाब से बन रहा है। भाजपा के एक रेडियो विज्ञापन में बिहारी टाइप भोजपुरी हिन्दी का प्रयोग हुआ है। जात-पात की तरह पूर्वांचल दिल्ली की राजनीति का वोटबैंक है, जो इसका क्षेत्रीयकरण करने में लगा है। वहीं कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी की खिंचाई करते हुए इस लड़ाई में तीसरा कोण बनने का प्रयास कर रही है। दिल्ली में इस बार यहां के लोग नोटिस कर रहे होंगे कि कैसे विज्ञापनों-होर्डिंग्स में कांग्रेस ने वापसी की है। साल भर पहले मैदान से गायब होर्डिंग के जरिये कांग्रेस की वापसी कुछ चैकाती तो है। कांग्रेस के नारे हैं विकास की डोर कहीं छूट न जाए। हम भाईचारे की राजनीति करते हैं, सांप्रदायिकता की नहीं। कई जगहों पर यह नारा लिखा है कि इस बार सोच समझ कर वोट देना। किसी के बहकावे में मत आना। जैसे 15 साल तक कांग्रेस को चुनने वाली जनता को किसी ने बहका लिया था। उसने बिना सोचे समझे कांग्रेस को तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया।
असल में, भाजपा के लिए तो विषेषकर दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतना प्रतिष्ठा से जुड़ गया है। दिल्ली में यदि भाजपा की सरकार नहीं बनी, तो यकीन मानिए इसी वर्ष के अंत में बिहार और अगले वर्ष उत्तर प्रदेष में परचम लहराना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। लिहाजा, भाजपा कोई भी दांव बेकार नहीं होने देना चाहती। बीते एक साल में आम आदमी पार्टी सियासी दांव-पेंच बखूबी सीख चुकी है। उसके कमतर नहीं आंका जा सकता है। कांग्रेस से सामने अपने अस्तित्व की लड़ाई है। तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों की नजर भी दिल्ली पर है। क्योंकि यदि भाजपा के चुनावी रथ का पहिया एक बार फिर दिल्ली में रूकता है, तो बिहार और उत्तर प्रदेष का राजनीतिक किला फतह करना भाजपा के लिए दुष्कर हो जाएगा।

शनिवार, 17 जनवरी 2015

उसका हक है नाराज होना

उसका नाराज होना 
उसका हक है
कोई दूसरों से कहां नाराज होता है
रूठता तो अपना ही है
अपनों से
गैरों को कहां फुर्सत है ? 
उनका मुझसे क्या सरोकार है ? 
मगर पता नहीं चलता मुझे
क्यों और कब रूठी वो मुझसे 
जाहिरतौर पर रहीं होंगी मेरी ही कमियां
रहीं होंगी मेरी नादानियां
समझ नहीं पाया होउंगा उसके मन की व्यथा
उसके मन की पीड़ा
उसका संत्रास
कुछ तो होगा उसके मन में
मन को भला वो क्यों वांचेगी मेरे सामने ...



सुभाष चंद्र 05 जनवरी, 2015

जिताएगा कौन , मुद्दा कि नेता ?



दिल्ली विधानसभा चुनाव की तारीख का ऐलान होते ही तमाम राजनीतिक दल चुनावी एक्सप्रेस पर सवार हो चुके हैं। आरोपो-प्रत्यारोपों के बीच नेताओं का पाला बदलने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। आप से भाजपा में। आप से कांग्रेस में। भाजपा से आप में। इसके साथ ही चुनावी समय में अस्तित्व में आने वाले कई राजनीतिक दलों का चरित्र भी ऐसा ही देखा जा रहा है। इस सबके बीच दिल्ली की जनता के मूड का अंदाजा मुकम्मल तौर पर किसी को नहीं हो रहा है। आखिर चुनाव जिताएगा कौन ? मुददा या फिर नेता ?
पहली नजर में यही लग रहा है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला भारती जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच है। हालांकि, कई विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस नेताओं की उपस्थिति इसे त्रिकोणीय मुकाबला में बदल रही है। राजनीतिक गुणा-भाग करने वाले भी इस बात को कह रहे हैं कि इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटों में इजाफा होगा। तो ऐसे में यह सवाल उठता है कि कांगे्रस किसके कोटे से सीट झटकेगी ? किरण बेदी के भाजपा में आने और उनके तेवर से यह तय है कि भाजपा उनको ही बतौर मुख्यमंत्री मान कर चल रही है, तो भाजपा को सीटों की नुकसान की गुंजाइश नही ंके बराबर है। तो यह माना जाए कि कांग्रेस आप के लिए वोटकटुआ की भूमिका में होगी ?
बीते कई महीनों से चुनावी मोड में आ चुकी आप ने तमाम मुददों को लेकर दिल्ली की जनता को अपने पक्ष में करने की शंुरुआत कर दी। लेकिन सबसे अहम की आप के चुनावी पोस्टरों से जनलोकपाल जैसे शब्द ही गायब हो गए। जिसको लेकर वह राजनीति में आई थी। जब आप अपने मूल धुरी को ही तिलांजलि दे रही है, तो जनता किस कदर उस पर भरोसा करेगी, यह सहज की कल्पना योग्य है। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में फिनिक्स वाली जज्बे की जरुरत है। कांग्रेस आलाकमान को मानो सांप सूंघ गया है, वह तो दिल्ली प्रदेश के भरोसे बैठा दिख रहा है। ऐसे में भारत की पहली आईपीएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता किरण बेदी की भाजपा में एंट्री होती है। भाजपा के मंच से अपने पहले ही संबोधन में किरण बेदी ने यह ऐलान कर दिया कि वह ‘मिशन मोड’ में है। अब यह भाजपा संगठन की जिम्मेदारी बनती है कि वह चुनावी मोड और मिशन मोड के बीच गुणात्मक अंतर को कितना बेहतर तरीके से अंगीकार कर पाती है। यदि भाजपा वाकई किरण बेदी के मिशन मोड के अनुरुप कार्य करती है, तो दिल्ली के सत्तारोहण में भाजपा को किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए।
सवाल बहुत हैं, पर उनके उत्तर नदारद हैं। दिल्ली की मूलभूत समस्या पानी, बिजली की है। भाजपा और आप इसको लेकर अपने-अपने तरीकों से जनता से वादे कर रही है। पहले कहा गया कि आप के अरविंद केजरीवाल के बनिस्पत जनता के सामने भरोसा जताने और जीतने लायक किसी दूसरे राजनीतिक दल के पास कोई चेहरा नहीं दिखता। यही अविश्वास विगत विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा का मुख्य कारण रहा। इस बार कांग्रेस ने कोई चेहरा तो पेश नहीं किया, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति और स्वस्ति जानकार किरण बेदी को अपना महारथी बनाया है। भाजपा के बारे में कहा जा रहा था कि विजय गोयल, हर्षवर्धन, सतीश उपाध्याय और जगदीश मुखी को मुख्यमंत्री पद की लालसा है। चारों एक-दूसरे की राह में शूल बिछाएंगे, लेकिन मोदी ने जैसे ही बेदी को  आगे किया, चारों नेता एक मंच पर आकर किरण बेदी को फूलों का गुलदस्ता थमा बैठे। मन में चाहे कितना भी कलुष हो, दिल्ली की जनता ने फूलों का गुलदस्ता देखा है न....
इसमें किसी को कोई शक नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके ‘भाग्यशाली सिपहसालार’ अमित शाह महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड फतह करने के बाद दिल्ली के लिए अपने तरकश का हर तीर आजमाएंगे। शायद यही वजह है कि भाजपा जब हरियाणा-महाराष्ट्र की जीत पर जश्न में डूबी थी, मोदी ने जम्मू-कश्मीर जाने का ‘मास्टरस्ट्रोक’ खेला था। झारखण्ड में मोदी-शाह की जोड़ी ने तमाम अंदेशा को किनारे कर सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया, उसके बाद दिल्ली में भाजपा उत्साह और उम्मीदों से लबरेज हो गई है। प्रदेश भाजपा में संघ के विश्वस्त माने जाने वाले सांसद प्रभारी प्रभात झा भी हैं, जो किलेबंदी करने के लिए जाने जाते हैं।
माना जा रहा है कि इस बार का विधानसभा चुनाव ऐसे माहौल में हो रहा है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य नेता के रूप में उभरे हैं। उनकी पार्टी भाजपा को केंद्र के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड और जम्मू-कश्मीर में अप्रत्याशित सफलता मिली है। हालांकि, दिल्ली की की स्थिति इन दोनों राज्यों से थोड़ा अलग है। यहां क्षेत्रीय अस्मिता जैसी बात कोई विशेष मायने नहीं रखता है। दिल्ली पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है। यहां विभिन्न क्षेत्र, भाषा, संस्कृति के लोग निवास करते हैं। यहां राजनीतिक दौड़ में करीब-करीब देश भर में पिछड़ चुकी कांग्रेस के लिए आत्मविश्वास पाने का सुनहरा मौका है। कांग्रेस हमेशा से पिछड़ों, गरीबों, अल्पसंख्यकों के लिए राजनीति करने का दावा करती रही है। खास बात यह है कि ये सभी मुद्दे दूसरे राज्य में हमेशा से हिट होते रहे हैं। पार्टी की केंद्रीय और प्रादेशिक संगठन एकजुट होकर अगर यहां बेहतर प्रदर्शन करती है, तो वह इस पार्टी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक तरह से संजीवनी का काम करेगा।
दिल्ली में चुनावी मुद्दों के लेकर विभिन्न दलों में होड़ बढ़ेगी। केंद्र में जिस तरह भाजपा को अकेले अपने बूते बहुमत की सरकार बनाने में सफलता मिली, स्थिरता का वही नुस्खा वह दिल्ली के लोगों के सामने भी पेश कर रही है। उसने बिना किसी गठबंधन के सभी 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का मन बनाया है।



गुरुवार, 15 जनवरी 2015

क्यों किरन की हुई भाजपा ?


देष ही पहली आईपीएस अधिकारी और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रहने वाली तेज-तर्रार महिला किरन बेदी भारतीय जनता पार्टी की झंडा के नीचे आ गई। बीते कई वर्षों से राजनीति और किरन बेदी के बीच मानो लुकाछिपी का खेल चल रहा था। किरण बेदी आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल और गांधीवादी नेता अन्ना हजारे की सक्रिय सहयोगी रह चुकी हैं। केजरीवाल के राजनीतिक पार्टी बनाए जाने से खफा होकर उन्होंने अरविंद का साथ छोड़ दिया था। इसके बाद उन्होंने कई मौकों पर आप की जमकर खिंचाई भी की।

सूर्य ने अपनी गति बदली। मकर संक्रांति के दिन जैसे ही सूर्य उतरायण हुआ, कुछ ही घंटों बाद पूर्व आईपीएस अधिकारी किरन बेदी भगवाई हो गई। भगवा यानी भाजपा। विरोधी राजनीतिक दल तो कम से कम भाजपा को इसी नाम से आपसी चिरौरी में पुकारते हैं। 11, अषोक रोड पर भाजपा मुख्याल में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह पार्टी के दिल्ली प्रभारी प्रभात झा और केंद्रीय मंत्री और बड़े रणनीतिकार अरुण जेटली की मौजूदगी में भाजपा का सदस्य बनाया। सीधे तौर पर अमित षाह ने ऐलान भी कर दिया कि किरन बेदी के आने से भाजपा की दिल्ली यूनिट को मजबूती मिलेगी। वहीं, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि किरन बेदी की एक विश्वसनीय छवि है और क्रूसेडर के रूप में उनका करियर रहा है और इससे पार्टी को काफी शक्ति मिलेगी।
भला इस मौके को किरन बेदी कैसे जाने देती ? मीडियाकर्मी भी तो किरन बेदी की बात सुनने को बेताब थे। लिहाजा, किरन बेदी ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह का विश्वास मुझ पर जताया है, उसके लिए मैं आभारी हूं। मैं मोदी के प्रेरक नेतृत्व की वजह से आज यहां हूं। अपने 40 साल का अनुभव दिल्ली और देश को समर्पित करने आई हैं। दिल्ली को अब मैं अपना पूरा समय दूंगी। दिल्ली को आज स्थायी सरकार की जरूरत है। मुझे काम करना आता है और मुझे काम करवाना भी आता है। पब्लिक और सिटिजन्स को प्रशासन से जोड़ा जाएगा। पुलिस में अपने कार्यकाल के दौरान भी मैंने ऐसा ही किया। मैं अब मिशन मोड में हूं। हम दिल्ली को हिंदुस्तान का दिल बनाएंगे। भाजपा ने मुझे इसका मौका दिया है कि मेरे पास जो है, वह मैं अपने देश को दे सकूं।
उल्लेखनीय है कि किरण बेदी भारत की पहली महिला पुलिस आईपीएस अधिकारी हैं। उन्होंने स्वेच्छा से रिटायरमेंट लेने के पश्चात समाज सेवा में भूमिका निभाने का निर्णय लिया। किरण बेदी ने 1972 में पुलिस सर्विस को ज्वाइन किया। उन्होंने ईमानदारी से ड्यूटी करते हुए समाज को नई दिशा दिखाने का प्रयास किया। 27 नवबंर 2007 में उन्होंने स्वेच्छा से रियाटरमेंट लेने के बाद किरण बेदी समाज सेवा में जुट गई। लोकपाल बिल को लेकर शुरू किये गये आंदोलन में उन्होंने समाज सेवक अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल के साथ धरने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। इसके बाद उन्हें कुछ घंटों के लिए हिरासत में भी लिया गया। किरन बेदी अरविंद केजरीवाल की सहयोगी रही हैं। उन्होंने अन्ना के जनलोकपाल आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी लेकिन जब अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान किया तो उन्होंने खुद को दूर कर लिया। किरन बेदी के भाजपा में शामिल होने की चर्चा पिछले दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान भी चली थी, लेकिन तब बात सिर नहीं चढ़ पाई थी। कई बार किरन बेदी को भाजपा की ओर से दिल्ली के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की भी खबरें उड़ीं, लेकिन अब तक ऐसा कुछ हुआ नहीं था। अरुण जेटली ने भी कहा कि जब भी दिल्ली में चुनाव हुए इस तरह की अटकलें लगाई गईं। 
हालांकि, सवाल आज भी हैं। क्या किरन बेदी को भाजपा दिल्ली में किस विधानसभा से प्रत्याषी बनाएगी ? क्या भाजपा किरन बेदी को बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार प्रोजेक्ट करेगी ? या फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को लेकर दांव खेलेगी और उसके बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड की तर्ज पर बाद में मुख्यमंत्री घोषित करेगी? असल में भाजपा किरन बेदी को दिल्ली में ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल का तोड़ मानकर चल रही है। इसकी एक वजह यह भी मानी जा रही है कि पार्टी नेतृत्व किरन बेदी को बड़ा रोल देने से पहले दिल्ली भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का मन टटोलना चाहता है। किरन बेदी को लेकर पार्टी में वरिष्ठ नेताओं में असंतोष भी उभर सकता है। माना तो यह भी जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी किरन बेदी की भूमिका पर सस्पेंस बनाए रखकर आम आदमी पार्टी को आखिरी समय तक उलझाए भी रखना चाहती है।



बुधवार, 14 जनवरी 2015

दिल्ली में पूरबिये: वोटर से अधिक कुछ भी नहीं...




दिल्ली में पूर्वांचल की तादाद भले ही लाखों में हों, लेकिन आज भी उन्हें दोयम दर्जे का माना जाता है। राजनीतिक दलों के लिए तो यह जनसंख्या केवल और केवल वोटर हैं। इसके अलावा कुछ भी नहीं। दिल्ली में पूरबिये की हालात वही है, जो पूरे देष के चुनावी राजनीति में मुसलमानों की है, जिनकी याद और बात केवल चुनाव के दौरान ही की जाती है। दिल्ली में सबसे अधिक समय तक सरकार में रहने वाली कांग्रेस हो या इस बार सत्ता हासिल करने को आतुर दिख रही भाजपा, दोनों की प्रमुख राजनीतिक दलों ने पूर्वांचल के लोगों को, जिन्हें बोलचाल की भाषा में पूरबिया कहा जाता है, केवल वोट बैंक ही माना है। वैसे तो पूर्वांचली लोगों की उपस्थिति दिल्ली के कोने-कोने में है, लेकिन यहां कि सात में से चार लोकसभा और दो दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटों पर वे निर्णायक भूमिका में होते हैं।  
कहने के लिए यह कहा और सुना जाता है कि दिल्ली की राजनीति अल्पसंख्यक, दलित और पूरबिये तय करते हैं, लेकिन आज तक इन्हें मुकम्मल हक नहीं मिला है। ये तीनों वर्ग बीते दिसंबर के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के वोट बैंक माने जाते थे। इन्हीं के बूते कांग्रेस ने लगातार 15 साल भाजपा को दिल्ली की सत्ता से दूर रखा। बीते विधानसभा चुनाव में जब इस वर्ग का बड़ा भाग आम आदमी पार्टी के साथ चला गया तो कांग्रेस न केवल सत्ता से बाहर हो गई, बल्कि उसकी भारी पराजय हुई। आप ने न केवल दिल्ली की 70 सीटों में से 28 सीटें जीत लीं बल्कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। इस सच से भला कौन इनकार कर सकता है कि यदि कांग्रेस को मुसलिमों का साथ न मिलता तो उसे आठ सीटें भी न मिलतीं। दिल्ली में अल्पसंख्यक वोट करीब 15 फीसद हैं। उनका मतदान का औसत दूसरी बिरादरी के मुकाबले काफी ज्यादा होता है। 
दिल्ली के सातों लोकसभा सीटों में सबसे ज्यादा करीब 22 फीसद अल्पसंख्यक दिल्ली उत्तर पूर्व सीट पर हैं। उसके बाद चांदनी चैक में 18 फीसद, पूर्वी दिल्ली में 16 फीसद, उत्तर पश्चिम दिल्ली में 13 फीसद, दक्षिणी और नई दिल्ली में दस-दस फीसद और पश्चिम दिल्ली में करीब सात फीसद अल्पसंख्यक हैं। गरीब बस्तियों और पूरबियों में आप को ज्यादा समर्थन मिला। कांग्रेस का मूल वोटर आप के साथ हो गया। पुरबियों के वोट तो चुनाव को हर इलाके में प्रभावित करेंगे ही लेकिन चुनाव नतीजों में सबसे बड़ी भूमिका अल्पसंख्यकों की रहने वाली है। वे कांग्रेस या आप में से जिसके साथ जाएंगे उसी से भाजपा का मुकाबला होगा। एक बड़ा खतरा और भी है कि अगर आखिर तक दोनों दल में भ्रम बना रहा तो कहीं सभी सीटों पर उनके वोट बंट जाएगा और भाजपा की एक तरफा जीत हो जाए।
दिल्ली में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में पहली बार पूर्वांचली कांग्रेस और भाजपा से अपना सियासी हक मांग रहे हैं। हक की आवाज उठने के बाद राजधानी में रह रहे पूर्वांचल के अनुमानित 40 से 45 लाख लोग और उनमें से करीब 30 लाख वोटरों को देखते हुए विभिन्न दलों में उन्हें अधिक से अधिक अहमियत देने की कवायद चल रही है। कवायद करने वाले दलों में आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल यूनाइटेड आदि भी शामिल हैं। इन दिनों पूर्वांचली विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए आंख का तारा बने हुए हैं। 
वैसे तो चुनाव करीब आते ही पूर्वांचलियों पर राजनीतिक पार्टियां डोरे डालना शुरू कर देती हैं। कोई स्वास्थ्य बीमा कराने का लाभ देने, मकान देने की बात करता है, तो कोई अनाधिकृत कॉलोनियों को नियमति करने का भरोसा दिलाता है। लेकिन 1993 से हाशिए पर चल रहे पूर्वांचल के लोग अब शायद दिल्ली के नेताओं के तिलिस्म को समझ गए हैं। तभी पूर्वांचलियों द्वारा दिल्ली की राजनीति में पूरी भागीदारी की बात उठाई जाने लगी है। जानकारों का मानना है कि दिल्ली में पूर्वांचली राजनीति जिस ओर भी करवट लेगी, कुछ न कुछ अनहोनी जरूर होगी। दिल्ली की राजनीति के बारे में जानकारी रखने वाले पर्यवेक्षकों का मानना है कि इस बार इतना तो तय है कि पूर्वांचलवासियों को स्थानीय राजनीति में उचित भागीदारी नहीं देने का खामियाजा पार्टियों को भुगतना पड़ेगा। यही कारण है कि 40 लाख पूर्वांचलवासियों की संख्या बल को देखते हुए भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने-अपने पक्ष में हवा बनाने की पहल कर दी है। उन्हें अपने पाले में लाने की कसरत के चलते तथ्य और आंकड़े जुटाए जा रहे हैं। दिल्ली विधानसभा बुराड़ी , लक्ष्मीनगर, विकासपुरी, किराड़ी , बवाना, जनकपुरी, पटेलनगर, गोकुलपुरी, पटपड़गंज, शाहदरा, घोंडा, सीमापुरी, मुस्तफाबाद, संगम विहार, द्वारका, मटियाला, तिमारपुर आदि करीब दो दर्जन से अधिक सीटों पर पूर्वांचल के वोटरों की संख्या सबसे अधिक है। दिल्ली के कुल एक करोड़ 12 लाख वोटरों में से 30 लाख से अधिक वोटर पूर्वांचल के हैं। इसके बावजूद विधानसभा में उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। पिछले चुनाव यानी 2009 में कांग्रेस ने पश्चिमी दिल्ली लोकसभा सीट से महाबल मिश्र को टिकट दिया था, जबकि भाजपा ने पूर्वांचल कोटे के किसी को टिकट नहीं दिया था, जिसकी परिणति हार के रूप में मिली। एक पूर्वांचली वरिष्ठ भाजपा नेता की मानें, तो 2008 में विधानसभा चुनाव में पूर्वांचलवासियों की उपेक्षा का परिणाम मिलने के बावजूद भाजपा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में गलती दोहराई।  
कहने को दिल्ली देश की राजधानी है, लेकिन यहां की अवैध-अनधिकृत कालोनियां उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड के निवासियों से बनी है। इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद पूर्वांचलियों की पहचान एक मतदाता से अधिक नहीं है! दिल्ली की जनसंख्या में दक्षिण भारतीय लोगों की संख्या बामुश्किल एक से दो प्रतिशत है, लेकिन उनके संगठन स्कूल संचालित करते हैं, उन्होंने तमिल संगम जैसे बौद्धिक बहस के केंद्र बना रखा है, जगह-जगह उनके समाज के मंदिर हैं जहां प्रतिदिन समाज के लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं-जिसके कारण दिल्ली में उनकी पहचान एक स्वस्थ्य और विकसित समाज की बन चुकी है। दूसरी तरफ पूर्वांचल का समाज है। वैसे तो दिल्ली में बसने वाले पूर्वांचलवासियों का कोई अधिकृत सरकारी डाटा नहीं है, लेकिन रेलवे के आंकड़ों पर नजर डालें तो हर वर्ष छठ पर्व में करीब 33 लाख लोग बिहार-उप्र जाते हैं। इसके अलावा काफी बड़ी संख्या में पूर्वांचली दिल्ली में भी छठ के लिए रुक जाते हैं। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद पूर्वांचल के लोगों का न तो अपना स्कूल है, न ही उन्होंने किसी तरह के बौद्धिक बहस का कोई केंद्र ही स्थापित किया है और न ही नेतृत्व के स्तर पर ही वह पंजाबी-बनिया समाज की तरह अपनी पहचान स्थापित कर पाए हैं। पूर्वांचल की इस दशा का बहुत बड़ा कारण खुद पूर्वांचल के लोग ही हैं। दिल्ली में हर साल श्विश्व भोजपुरी सम्मेलनश् जैसे कई आयोजन तो होते हैं, लेकिन इसका मकसद भी स्वस्थ्य-सकारात्मक होने की जगह केवल नाच-गाने पर ही टिका होता है। यही कारण है कि पूर्वांचल केवल वोट बैंक बन कर रहा गया है, वोट हासिल करने वाले की हैसियत में अभी भी वह ठीक ढंग से नहीं आ पाया है। पिछले 15 साल से केंद्र व राज्य में सत्तासीन रही कांग्रेस पार्टी को दिल्ली नगर निगम से लेकर लोकसभा चुनाव तक केवल महाबल मिश्रा का परिवार ही दिखता रहा है। उसी परिवार से एक नहीं, कई-कई लोगों को टिकट देकर कांग्रेस अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री करती रही है।
अब, उत्तर पूर्वी दिल्ली से भाजपा सांसद मनोज तिवारी, जो खुद पूर्वांचल से आते हैं, कहते हैं कि पूर्वांचल (झारखंड, बिहार एवं उत्तरप्रदेश) के लोगों को शत-प्रतिशत न्याय नहीं मिला है। दिल्ली में पूर्वांचल के लोगों की संख्या अच्छी है, लेकिन राजनीति में उनको स्थान नहीं मिला पाता है। हमारी अगली लड़ाई पूर्वांचल के लोगों को न्याय दिलाने की है। हम पार्टी स्तर पर इसकी मांग करेंगे। दिल्ली में कम से कम  20 सीट तो मिलनी ही चाहिए। 

मांझी, महादलित और मुख्यमंत्री

सबकुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी। सच है दुनियावालों के हम हैं अनाड़ी - यही कह रहे हैं बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी। मुख्यमंत्री बनने के बाद से कई बार विभिन्न मंचों से खुद को महादलित होने की बात कर चुके हैं। जब भी जीतन राम मांझी के बयानों से सियासी बवंडर उठता दिखा है, वो इसे दिल से निकली हुई आवाज कह देते हैं। उनकी पार्टी जदयू की ओर से इसे मांझी की व्यक्तिगत टिप्पणी करके पल्ला झाड़ लिया गया है। अब, एक नया सियासी हुदहुद का अंदेषा हो रहा है। पटना के सियासी गलियारों में यह कानाफूसी तेज हो चली है कि मकर संक्रांति के बाद जैसे ही सूर्य उत्तरायण होगी, मांझी को भी पूर्ववर्ती कर दिया जाएगा। यानी मांझी की जगह जदयू नेतृत्व किसी और पर अपना भरोसा जताएगा। 
बेषक, अभी यह सियासी कानाफूसी हो, लेकिन पटना से लेकर दिल्ली तक सियासी तपिष बढ़ने का अंदेषा है। पटना में नीतीष कुमार के आवास से लेकर दिल्ली में षरद यादव के आवास पर आवाजाही कुछ अधिक हो चुकी है। असल में, जीतन राम मांझी को लेकर बिहारी के राजनीतिक प्रेक्षक भी कुछ यकीनी तौर पर कहने की स्थिति में नहीं हैं। राजनीति को जानने वालों की मानें, तो जब मांझी ने ये कहा - ‘सबकुछ सीखा हमने, न सीखी होषियारी। सच है दुनियावालों के हम हैं अनाड़ी‘ - तो ये मांझी की जनता के लिए लाइन थी, लेकिन जब आदेश और काम करने की बात आती है, तो वह किसी के रिमोट नहीं रहे। हालांकि अगले ही पल नीतीश की दिल्ली यात्रा के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि वह विलय के मुद्दे पर लालू यादव, शरद यादव और मुलायम सिंह से बात करने जा रहे हैं। सरकार चलाने का जिम्मा उनके कंधों पर है। जब विलय हो जाएगा, तो उस परिस्थिति में मांझी इतने आश्वस्त दिखे की बोल दिया कि वह सबके साथ मिलकर काम करेंगे। मांझी ने नीतीश को खुश करने के लिए भाजपा पर भी हमला बोला और कहा कि केंद्र की सरकार उनके साथ सहयोग नहीं कर रही है और हर मद में बिहार के हिस्से की कटौती की जा रही है।
फिलहाल, अपने बयानों से लगातार चर्चा में रहे बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की कुर्सी खतरे में नजर आ रही है। राजनीतिक गलियारों में अटकलें तेज हो गई हैं कि खरमास बाद यानी 14 जनवरी के बाद उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया जा सकता है। नीतीश ने साफ कहा कि वो ऐसा कोई आश्वासन नहीं दे सकते कि मांझी ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे। छह महीने पहले मांझी को अपनी पसंद से मुख्यमंत्री बनाने वाले नीतीश का ये बयान क्या संकेत दे रहा है ? नीतीश कुमार बागी विधायकों पर मांझी के बयान पर भी इशारों में ही नाराजगी जता चुके हैं। नीतीश ने कहा कि जदयू अपना काम ठीक से कर रहा है। जो पार्टी लाइन से अलग बयान दे रहे हैं, उससे जेडीयू पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। गौरतलब है कि मांझी ने बयान दिया था कि बागी विधायकों की सदस्यता खत्म कराना सही नहीं था। इस मामले को लेकर जदयू और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के शीर्ष नेताओं के बीच बैठक में फैसला लिया जा सकता है। उधर, नीतीश कुमार ने कहा है कि जदयू में सब ठीक है। सब ठीक चल रहा है। 
सियासी गलियारों में चल रही बातों पर यकीन करें, तो राजद अध्यक्ष लालू यादव चाहते हैं कि नीतीश कुमार फिर से बिहार के मुख्यमंत्री का पदभार संभालें। जदयू-राजद की बैठक में शीर्ष नेतृत्व इस बात पर चर्चा करेगा कि क्या जीतनराम मांझी को बदला जाए या नहीं ? बैठक में अगर मांझी को बदलने पर सहमति बन जाती है, तो इस बात पर भी चर्चा होगी कि बिहार का नया मुख्यमंत्री कौन बनेगा? 
उधर पटना में जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाने को लेकर बयानबाजी तेज हो गई है। अटकले लगाई जा रही हैं कि खरमास बाद मांझी को पद से हटाया जा सकता है। दरअसल, मांझी लगातार अपने बयानों से चर्चा में रहे हैं। कई बार तो उनके बयान उनकी ही पार्टी के लिए मुसीबत बनते नजर आए। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में जेडीयू के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। जिसके बाद एक नई व्यवस्था के तौर पर जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया था। नीतीश कुमार ने सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के उद्देश्य से अपने विश्वस्त मांझी को मुख्यमंत्री पद सौंपा। उस समय तीन दिन की ड्रामेबाजी और उसके बाद जो पटाक्षेप जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी थमाकर हुई, उसके बाद ही यह कहा जा रहा था कि जीतन राम मांझी नीतीष कुमार के मनमोहन ही साबित होंगे। यूपीए सरकार में जिस प्रकार से सोनिया गांधी ने अपने रिमोट से मनमोहन सिंह को चलाया, उसी राह पर अब नीतीष कुमार निकल पड़े हैं। सत्ता में दखल रहेगा, लेकिन जिम्मेदारी नहीं। जाहिरतौर पर ऐसे में यदि विधानसभा चुनाव में नीतीष कुमार का खूंटा-पगहा लोकसभा चुनाव की तरह ही उखड़ेगा, तो कोई भी उनसे इस्तीफे की मांग भी नहीं कर सकता है। इसे कहते हैं कि सियासत में सयानापन। 
लेकिन हाय रे सयानापन... यह तो उलटा ही हो गया। जीतन राम मांझी अपने बयानों के कारण उल्टे कई बार नीतीश के लिए ही मुसीबत बनते नजर आए। यहां तक की नीतीश के समर्थक विधायकों ने कई मौकों पर पार्टी नेतृत्व से मांझी का इस्तीफा लेने की मांग तक कर डाली। इसके साथ ही अहम सवाल यह भी है कि जदयू के अंदर सियासी बिसात पर भले ही नीतीष कुमार और मांझी यादव एक-दूसरे से परोक्ष रूप से भिड़े हों, लेकिन आने वाले समय में इसका जवाब बिहार के नए सूबेदार बने जीतन राम मांझी को ही देना होगा। विधानसभा चुनाव में जनता उनसे सवाल करेगी। नीतीष कुमार ने जिस प्रकार का विकास का मुलम्मा चढाया हुआ है, उसको लेकर भी जनता मांझी से हिसाब मांगेगी। पार्टी के स्टार प्रचारक भले ही नीतीष हों, लेकिन एक मुख्यमंत्री होने के नाते मांझी को भी पोस्टर में स्थान मिलेगा। जाहिर है, इस स्थान की कीमत भी होती है। कुल जमा यह कि चुनावी परिणाम आने के बाद भी पार्टी के अंदर और बाहर मांझी को लेकर ही तर्क-वितर्क किए जाएंगे। यदि चुनाव की तारीखों के एलान से पहले जदयू और नीतीष कुमार ने मुख्यमंत्री बदला, तो जाहिरतौर पर भाजपा सहित अन्य विपक्षी दल इसे महादलित मुद्दे से भी जोड़ेगी। इसके साथ ही मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इस बयान को भी ध्यान में रखना होगा। मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने कहा था - मुझे यह पता है कि मैं प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री नहीं होऊंगा, लेकिन कोई गरीब का बेटा ही अगला मुख्यमंत्री होगा, जो महादलित समाज से होगा। मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि मैं सीएम बनता हूं या नहीं, लेकिन मेरे महादलित भाई-बहनों का काम होना चाहिए।