छठ सूर्य की पूजा है। यह एकमात्र पर्व है, जब न सिर्फ उगते हुए, बल्कि डूबते हुए सूर्य की भी पूजा की जाती है। वैसे भारत में सूर्य पूजा की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। अथर्ववेद पर आधारित सूर्योपनिषद में तो सूर्य को ही ब्रह्मा माना गया है, क्योंकि उसी से यह जगत परिचालित होता है।
कहीं समूह में गीत गाती महिलाएं, तो कहीं ढोल-नगाड़ों पर थिरकते युवा। कहीं पटाखे जलाते खुशी से तालियां बजाते बच्चों का टोल, तो भरे-पूरे परिवार को खुश देखकर भाव-विभोर होते घर के बड़े-बुजुर्ग। सब के सब नए कपड़े पहने हुए। रंगे-पुते, रंगीन बल्बों की रोशनी से जगमगाते सजे-धजे मकान। साफ-सुथरी सड़कें। जगह-जगह लाउडस्पीकरों पर गूंजते भजन व लोकगीत। नदी, नहर, सरोवर, पोखर, तालाब जैसे जलाशयों की ओर हाथ में पूजन-सामग्री लेकर जाती भीड़ में मानो जात-पांत व अमीर-गरीब का भेद कहीं विलीन हो जाता है।
छठ-पूजा के मौके पर यह नजारा अब केवल बिहार के गांव शहर तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत के किसी भी शहर में बिहार व पूर्वांचल के निवासियों के बाहुल्य वाले इलाकों में देखने को मिल जाता है। दीपावली के बाद सूर्य उपासना का यह पर्व पूरे बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और पड़ोसी देश नेपाल में अपार श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यह तिथि यहां सूर्य षष्ठी व 'डाला छठÓ के नाम से भी जानी जाती है। इस पर्व में नियम-निष्ठा व पवित्रता, शुचिता, सफाई का बहुत खयाल रखा जाता है। पूजा में तनिक भी भूल होने पर अपशकुन होने की आशंका से लोग भयभीत रहते हैं।
यूं तो एक मात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की पूजा पूरे वर्ष ही विभिन्न रूपों से की जाती है। पर छठ-पूजा के मौके पर सूर्य की उपासना का ढंग निराला है। इसमें न केवल उगते सूर्य को बल्कि डूबते सूर्य को भी अघ्र्य दिया जाता है। मान्यता है कि अघ्र्य के बाद नदी से निकले व्रती के भीगे कपड़ों से शरीर पोछने पर सफेद दाग के ध4बे मिट जाते हैं।
वैसे तो छठ पर्व व्रती की हर मनोकामना को पूरा करने वाला है पर लोग सबसे ज्यादा इसे पुत्र प्राप्ति की कामना से करते हैं। शायद इसकी वजह यह है कि इस व्रत का संबंध षष्ठïी माता से भी है। छठ पर्व के बारे में अनेक पौराणिक कथाएं कही जाती हैं, जिनमें छठ पर्व की परंपरा के प्रारंभ होने का वर्णन मिलता है।
छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है। प्राचीन काल में इसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं।
आज जब पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण तथा पर्यावरण संरक्षण की समस्या से जूझ रहा है, सूर्य की उपासना का महापर्व छठ का केवल धार्मिक महत्व ही नहीं है, बल्कि ऊर्जा के अक्षय स्रोत सूर्य की पूजा और उन्हें अप्रसंस्कृत वस्तुओं का भोग लगाया जाना पर्यावरण के प्रति इस पर्व के महत्व को रेखांकित करता है। सोनपुर के गजेन्द्र मोक्ष नौलख्खा मंदिर महंत आचार्य लक्ष्मणानंद शास्त्री के अनुसार पर्यावरण संरक्षण और छठ पूजा के बीच गहरा संबंध है। छठ पूजा में प्रसाद के रूप में नई फसलों का उपयोग किया जाता है।
उन्होंने कहा गन्ना, सिंघाड़ा, नींबू, हल्दी, अदरख, नारियल, केला, संतरा, सेब के अलावा आटा चीनी एवं घी के मिश्रण से बनी ठेकुआँ जैसी वस्तुएँ प्रकृति के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के इस पर्व के महत्व को स्पष्ट करती हैं। शास्त्री ने कहा छठ पूजा में मिट्टी के बने हाथी चढ़ाए जाते हैं, जो इस पर्व के माध्यम से प्रकृति प्रदत्त इस अद्भुत जीव के संरक्षण का संदेश देती है। मिट्टी के बने हाथी को नई तैयार धान की फसल चढ़ाई जाती है।
छठ का पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं। पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर कहते हैं। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं। छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत ( उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।
तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, में पूजा का सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं।
नदी किनारे जा कर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।
सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ देते हैं लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद ले कर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।
छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।
छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है पिछले कई वर्षों से प्रशासन को इसके आयोजन के लिए विशेष प्रबंध करने पड़ते हैं। इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है।