मंगलवार, 24 मार्च 2015

तो नीतीश संग पींगे बढ़ाएंगे मोदी !

दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति पर भी सवाल उठे हैं। संघ के पदाधिकारियों का मानना है कि कि दिल्ली की तरह ओवर कॉन्फिडेंस में नहीं रहना चाहिए। भाजपा के पुराने साथी रहे नीतीश से नजदीकियां बढ़ाने की भी सलाह दी गई है।

दिल्ली में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी के नेता आत्मविश्वास से लबरेज थे और चारों खाने चित हो गए, वैसा हाल बिहार में नहीं होना चाहिए। बिहार की राजनीति दूसरे प्रदेशों से अलग है। लिहाजा, भाजपा को वहां सत्ता हासिल करना है। इसके लिए अब भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कमर कस ली है। भाजपा को दो टूक सुनाया गया है और कहा गया है कि जनता दल यू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर एक बार फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहिए। हालांकि, संघ ने केवल सलाह दी और निर्णय भाजपा को करना है। हालंाकि, सियासी गलियारों में चर्चा सरेआम हो रही है कि संघ औपचारिक रूप से सलाह ही देती है, जो भाजपा के लिए आदेश माना जाता है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वाकई भाजपा नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार के संग दोस्ती करेंगे !
असल में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा को बिहार पर खास तैयारी करने को भी कहा। बिहार में पार्टी का संगठन है, लेकिन संघ चाहता है कि बिहार में और तेजी से काम होना चाहिए। संघ के पदाधिकारियों का मानना है कि कि दिल्ली की तरह ओवर कॉन्फिडेंस में नहीं रहना चाहिए। यह मौका है कि कुछ और राज्यों में पार्टी का विस्तार हो। जिस प्रकार की खबरें आजकल संघ के पदाधिकारियों के पास पहुंच रही है, उसके मुताबिक भाजपा-संघ की बैठक में संघ ने बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा को जेडीयू नेता नीतीश कुमार से दोस्ती करने की सलाह दी है। संघ ने बिहार भाजपा से कहा कि जेडीयू को कांग्रेस और आरजेडी से अलग करना हुए चुनाव में फायदा पहुंचा सकता है। संघ ने इसका फैसला भाजपा पर छोड़ा। इसी साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए संघ ने भाजपा को नीतीश कुमार से दोस्ती की सलाह दी है। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा -जदयू के बीच गठबंधन खत्म हो गया था। हालांकि संघ की ओर से केवल इस संबंध में सलाह मात्र दी गई है और नीतीश की पार्टी के साथ गठबंधन करना है या नहीं इसका पूरा फैसला भाजपा पर ही छोड़ दिया है।
उल्लेखनीय है कि शहीदी दिवस के दिन यानी 23 मार्च, 2015 को नई दिल्ली में भाजपा नेता और केंद्र मंत्री नीतिन गडकरी के आवास पर संघ और भाजपा नेताओं की समन्वय बैठक हुई। संगठन की ओर से अमित शाह, संगठन महामंत्री रामलाल और महामंत्री राम माधव थे, जबकि संघ की ओर से उनकी सेकेंड कमांड के भैया जी जोशी, सुरेश सोनी आदि मौजूद थे। आधिकारिक तौर पर इस बैठक के बारे में सिर्फ इतना ही बताया गया कि बैठक में देश की ताजा राजनीतिक स्थिति पर विचार किया गया। लेकिन पार्टी सूत्रों का कहना है कि इस बैठक में पिछले दिनों नागपुर में हुई संघ की प्रतिनिधि सभा में लिए गए फैसलों की जानकारी भाजपा और सरकार के मंत्रियों को दी गई और उनसे कहा गया कि संघ के अजेंडे के मुताबिक सुधार कार्य किए जाने चाहिए।
असल में, भाजपा के कार्यकर्ता हर राज्य से शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें लगता ही नहीं कि उनकी सरकार केंद्र में है। यह शिकायत आम है कि मंत्रियों तक पहुंच कठिन हो गई है। पार्टी में भी कमोबेश यही स्थिति है। सूत्रों का कहना है कि संघ ने इस शिकायत के निवारण के लिए एक अलग टीम बनाने का आग्रह भाजपा से किया है। इस टीम ने क्या किया, इसकी मॉनिटरिंग संघ खुद करेगा।
गौर करने योग्य यह भी है कि जब जब बिहार में भाजपा की नैया मंझधार में होती है, संघ अपने हाथ में पतवार थामता है। फरवरी महीने के तीसरे और चैथे सप्ताह में जब बिहार में सियासी नौटंकीबाजी चल रही थी, तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को लेकर कई तरह की बातें हो रही थी, उस समय भी भाजपा की हर रणनीति पर संघ की पैनी नजर थी। संघ ने भाजपा को ऐन मौके पर सचेत किया, वरना...
जिस प्रकार की खबरें आ रही हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि संघ इस साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार की कमान भी अपने हाथ में ही रखने का मन बना लिया है। बीते दिनों संघ के पदाधिकारी दत्तात्रेय होसबले ने इस मुद्दे पर बिहार के भाजपा नेताओं के साथ बैठक की है। इस बैठक में बिहार भाजपा के प्रभारी भूपेंद्र यादव के अलावा महासचिव मुरलीधर राव और अन्य वरिष्ठ नेता मौजूद थे। आपको बता दें कि कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जीतन राम मांझी की मुलाकात के बाद भाजपा पर लगातार आरोप लग रहे हैं। जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार आरोप लगा चुके हैं कि जबसे मांझी ने पीएम से मुलाकात की है, उसके बाद ही समस्या विकट हुई।
संघ से जुड़े लोगों का कहना है कि संघ बिहार में भाजपा के अभियान पर निगरानी रखने की योजना बना रहा है। खासकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद संघ ने खुद आगे आकर मोर्चा संभालने की योजना बनाई है। दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम नेताओं के हमले से भाजपा को नुकसान हुआ है और संघ इस गलती को बिहार में दोहराने नहीं देना चाहता। और तो और, दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति पर भी सवाल उठे हैं। संघ से विशेष नियुक्ति पर आए भाजपा के सांगठनिक सचिव रामलाल हार के कारणों का विश्लेषण कर रहे हैं। संघ और पार्टी के बीच समन्वयक की भूमिका निभा रहे रामलाल को हार पर एक समीक्षा रिपोर्ट बनाने का जिम्मा भी मिला है। इसलिए बिहार में संघ भाजपा की रणनीति पर पहले से ही निगरानी करने के पक्ष में है।



रविवार, 22 मार्च 2015

कब छूमंतर होगा छूआछूत ?

इक्कीसवीं सदी में आने का गुमान और लगातार वैश्विक मानचित्र में गढ़ रहे नए मानक के बीच हिन्दुस्तान के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जाए कि आज भी हर 4 भारतीय में से 1 भारतीय छुआछूत को मानता है, तो चैंकना स्वाभाविक है। लेकिन सच से न तो आप मुंह मोड़ सकते हैं और न ही हम। जी हां, बीते दिनों इस बात का खुलासा एक सर्वे के जरिए हुआ है।
नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी ऑफ मैरिलैंड, अमेरिका द्वारा करीब 42 हजार भारतीय घरों में किया गया सर्वे इस बात का सबूत है। साल 1956 में स्थापित इस संस्थान के हालिया सर्वे में सामने आए तथ्य काफी चैंकाने वाले हैं। इस सर्वे में जिन लोगों ने छुआछूत की बात को स्वीकारा है, वे सभी धर्म या जाति से हैं। इनमें मुस्लिम, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लोग भी शामिल हैं। अगर जाति की बात की जाए, तो इस सर्वे से यह बात भी सामने आई है कि सबसे ज्यादा छुआछूत को ब्राह्मण समाज में माना जाता है। अगर धर्म की बात की जाए तो उसे सबसे पहले हिंदू फिर सिख और जैन धर्म का नाम आता है।
हम आपको बता दें कि इस सर्वे में लोगों से सवालों के जवाब ‘हां‘ या ‘ना’ में देने को कहा गया था। मसलन, क्या आपके घर में छुआछूत को माना जाता है? अगर इस सवाल का जवाब ‘ना’ में आता है, तो फिर अगला सवाल पूछा गया कि क्या आप किसी अनुसूचित जाति जनजाति के लोग को अपने किचन में घुसने देंगे? पूरे भारत में करीब 27 फीसदी लोगों ने ये माना कि वह छुआछूत को मानते हैं। मध्यप्रदेश के 53 प्रतिशत लोग छुआछूत में भरोसा रखते हैं।  हिमाचल प्रदेश में 50 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 48 प्रतिशत, राजस्थान और बिहार में 47 प्रतिशत। उत्तर प्रदेश में 43 प्रतिशत और उत्तराखंड में 40 प्रतिशत लोग छुआछूत में यकीन रखते हैं। पश्चिम बंगाल भारत का सबसे प्रोग्रेसिव राज्य है, जहां मात्र एक प्रतिशत लोग ही छुआछूत को मानते हैं। केरल में दो प्रतिशत, महाराष्ट्र में चार प्रतिशत, नॉर्थ ईस्ट में सात प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 10 प्रतिशत लोग छुआछूत में यकीन करते हैं।
गौर करने लायक यह भी है कि संविधान छुआछूत को 64 साल पहले ही खत्म कर चुका है, लेकिन लोगों के मन में आज भी यह कुप्रथा बसी हुई है। एक चैथाई से ज्यादा भारतीय छुआछूत मानते हैं और अपने घरों में किसी न किसी रूप में इसका पालन करते हैं। अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है, लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है। पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वह जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं दूसरे देशों में भी होता रहा है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दुओं में आदिकाल से गोत्र व्यवस्था रही है। वर्ण व्यवस्था भी थी, परन्तु जातियाँ नहीं थीं। वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की दृष्टि से लागू थीं यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म (कार्य) पर आधारित थी। कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था। उदाहरण के लिए -  अपने प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में परिवर्तन के बाद पूजनीय ब्राह्मणों के वर्ण में मान्यता पा गए, तो वे तत्कालीन समाज में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। श्री राम सहित चारों भाइयों के विवाह के अवसर पर जब जनकपुर में राजा दशरथ ने चारों दुल्हनों की डोली ले जाने से पहले देश के सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए बुलाया था, तो उन्होंने श्री वाल्मीकि जी को भी विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था। 
छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी। यह उन्होंने ठीक कहा, क्योंकि हिन्दू समाज में शूद्रों को अछूत नहीं समझा जाता था। वैदिक काल में सभी का दर्जा समान था। ऋग्वेद में लिखा हैः-
“सं गच्छध्वं सं वदध्वं वो मनासि जानताम” (ऋ.1-19-2)
“समानी प्रपा सह वोन्न भागः समाने योक्त्रे सह वो यूनज्मि सम्यंचोअग्निम् समर्यतारा नाभिभिवाभितः” (अ. 3-30-6)
अर्थात्-हे मनुष्यांे, मिलकर चलो, मिलकर बोलो। तुम सबका मन एक हो, तुम्हारा खानपान इकट्ठा हो। मैं तुमको एकता के सूत्र में बाँधता हूँ। जिस प्रकार रथ की नाभि में आरे जुड़े रहते हैं, उस प्रकार एक परमेश्वर की पूजा में तुम सब इकट्ठे मिले रहो।
इस वेद मंत्र से यह सिद्ध होता है कि उस समय कोई जाति या वर्ण भेदभाव नहीं था। सभी मानव जाति एक थी और एकता के भाव को रखते हुए सबके लिए सुख शांति की कामना करते थे। वैदिक काल में आध्यात्मिकता सिखलाई जाती थी, जिसे हासिल कर के स्वाभाविक ही शारीरिक और मानसिक सभी भेदभाव नहीं पाये जाते थे।
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज दलित हैं, मुसलमान है, ईसाई हैं या अब वह बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा हैं। दलितों को श्दलितश् नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले हरिजन नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया। इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे, वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी तो कब आरम्भ हुई। अधिकतर पुराणों और स्मृतियों में इसका उल्लेख है। ये ग्रन्थ भी सन्तों-ऋषियों द्वारा लिखे गये, जिसमें उन्होंने अपने विचार इस ढंग से प्रकट किए जिसके अनेक अर्थ निकलते हैं। यह उनकी वर्णन शैली का चमत्कार था। उन्होंने अपने अन्तर के अनुभव, जिसे उन्होंने बड़े-बड़े साधन करके, अनुष्ठान करके प्राप्त किया। कथा-कहानी के रोचक रूप में समय की मांग के मुताबिक ग्रन्थों में भर दिया। समय व्यतीत होने पर लोगों ने उनके असली भाव को न समझ कर उलटे अर्थ लगा लिए जो हिन्दू समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए।
आज जो नाम दिए गए हैं वह पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज है और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वह पिछले 900 साल की गुलामी की उपज है। भारत ने 900 साल मुगल और अंग्रेजों की गुलामी में बहुत कुछ खोया है खासकर उसने अपना मूल धर्म और संस्कृति खो दी है। असल में, दो तरह के लोग होते हैं- अगड़े और पिछड़े। यह मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित। पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति। पीछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई।
यह सही है कि भारतीय समाज में अनेक कुरीतियां रही हैं, किन्तु उन कुरीतियों को दूर करने के लिए अनेकों सुधारवादी सद्प्रयास हुए।  समाज में जातिपात और छुआछूत के लिए मनुस्मृति का उदाहरण दिया जाता है। कितने हिन्दुओं ने मनुस्मृति का अध्ययन किया होगा या कितने हिन्दू घरों में मनुस्मृति रखी जाती है? मनुस्मृति का उदाहरण देकर यह कहा जाता है कि परमात्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई। फिर सारे मांगलिक अनुष्ठानों में भगवान के चरणों में ही जल, पुष्प, नैवेद्य क्यों अर्पित किया जाता है? वास्तव में देखा जाए तो हिन्दू समाज में जो कुरीतियां थीं, उसे पोषित कर समाज को तोडने का काम विधर्मियों ने किया। ब्रिटिश शासकों ने उसे ही अपना गुरुमंत्र बनाया और समाज को जातियों में बांटकर अपने शत्रुओं को निस्तेज करने का काम किया। ब्रितानियों ने अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने के लिए भारतीय समाज को जाति और वर्गों में बांटने की नीति अपनाई। पुरी मंदिर की इस विकृति के बारे में जब ब्रितानियों को खबर लगी तो उन्होंने फौरन इसे वैधानिक स्वीकृति दे दी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेस्ले ने अपने कमांडिंग अफसर कर्नल कैंपबेल को पुरी कूच करने से पूर्व ‘ब्राह्मणों के धार्मिक पूर्वाग्रहों’ का पूर्ण ध्यान रखने के कड़े निर्देश दिए थे। उनकी कूटनीति काम कर गई। ब्रिटिश फौज जब पुरी पहुंची तो उसे कहीं से किसी तरह के प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति पर चलते हुए उन्होंने गैर-हिन्दुओं के मंदिर प्रवेश पर निषेध की जो परम्परा थी, उसे 1809 में कानूनी जामा पहना दिया। 
मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर डा. भीमराव अम्बेदकर और वीर सावरकर ने सार्थक आंदोलन किए। सावरकर ने रत्नागिरी में पतित पावन मंदिर की स्थापना की। नारायण गुरु और ज्योतिबा फूले आदि दलित थे और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुखर रहे। जब अपने ही समाज में तिरस्कार और भेदभाव के शिकार व्यक्ति को छलावा या अन्य प्रलोभन के बल पर दूसरे मत के प्रचारक सम्मान देने का भरोसा देते हैं तो स्वाभाविक रूप से उस मत के प्रति प्रताडि़त व्यक्ति का आकर्षण भी बढ़ता है।छुआछूत और भेदभाव का कभी कोई समर्थन नहीं कर सकता और न ही ग्रंथों में कहीं इसका उल्लेख है। उलटे सैंकड़ों प्रेरणादायक प्रसंग हैं। भगवान राम को अपनी नौका में सवार कराने वाला केवट कोई ब्राह्मण नहीं था। वह समाज के उपेक्षित वर्ग से था, किन्तु प्रभु राम ने क्या उसे दुत्कार दिया? नहीं, बल्कि उसे गले लगाया और कहा, ‘‘तुम संग सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।’’



हिन्दू पतितो न भवेत: प्रवीण तोगडि़या
अब केवल धर्म की बात नहीं होगी। विश्व हिन्दू परिषद विभिन्न जातियों का विराट सम्मेलन आयोजित करेगी, जिस आधार पर भारत में अस्पृश्यता मुक्त समाज का परिदृश्य निर्माण किया जाएगा। बहुत से जागरण अभियानों की संरचना की जा चुकी है, जिनके द्वारा सशक्त भारत में अस्पृश्यता मुक्त समाज का स्वरूप प्रतिबिम्बित होगा। आखिर क्या विहिप की कार्ययोजना ? क्यों बनानी पड़ी ऐसी रणनीति ? इन तमाम मुद्दों पर विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष डाॅ. प्रवीण भाई तोगडि़या से बात की सुभाष चन्द्र ने। पेश है उस बातचीत के प्रमुख अंश: 


सवाल: अचानक क्यों जरूरत आन पड़ी कि विश्व हिन्दू परिषद को छुआछूत के विरोध में अभियान चलानी पड़ रही है ?
यह अचानक नहीं हुआ है। अपने स्थापना काल से ही विश्व हिन्दू परिषद सामाजिक समरसता और सहकार की बात करती रही है। ऐसा नहीं है कि हमने पहली बार इस काम को शुरू किया है। लगातार हम इसको लेकर काम करते रहे हैं। हां, इस बार हमने इस बड़े स्तर पर शुरू किया है। विश्व हिन्दू परिषद ने भारत से अस्पृश्यता निवारण के संकल्प को दोहराते हुए विशेष कार्य योजना के साथ विहिप स्वर्ण दृष्टिपथ 2025 की घोषणा की है। 

सवाल: क्या है विश्व हिन्दू परिषद का स्वर्ण दृष्टिपथ 2025 ?
इसके अनुसार जब हम अपने लक्ष्य को हासिल करेंगे, तो भारत में पुनः इस संदर्भ में नवीन आयाम प्रस्थापित होंगे। इसके लिए हमने कार्य योजना तैयार की है। जहाँ भी गांव - नगर हैं, वहाँ सभी के लिए एक जल स्रोत होगा। जहाँ कुआँ, झील या नल से सभी सभी निवासी जल ग्रहण कर सकेंगे। सभी मंदिरों में सभी हिन्दुओं का प्रवेश मान्य होगा। किसी भी मंदिर में किसी हिन्दू का प्रवेश निषेध नहीं होगा।  मृत्यु के पश्चात भी सभी हिन्दू एक रहेंगे अर्थात् एक ही श्मशान घाट में सभी का दाह-संस्कार होगा। जहाँ भी जाति आधारित श्मशान घाट है, वहाँ समाज के विभाजन का वातावरण बनता है। इसे पूर्णतः समाप्त किया जाएगा। सभी हिन्दू सहभोज में सम्मिलित हो सकेंगे। ग्रामों में पृथक जाति हेतु भोजन करने की व्यवस्था समाप्त कर एक साथ सहभोज करने की व्यवस्था विहिप द्वारा प्रचारित की जाएगी। 

सवाल: क्या यह लक्ष्य हासिल करना सरल है ? वह भी तब जब छुआछूत को लेकर भेदभाव हमारे समाज में गहराई तक फैली हुई है ?
विहिप जानती है कि यह सरल कार्य नहीं है, क्योंकि ये कुप्रथाएँ समाज में गहराई तक पैठ बना चुकी है। हमारी समरसता टोलियाँ एव अन्य कार्यकर्ता ग्राम-ग्राम तक जायेंगे तथा वहाँ अस्पृश्यता व अन्य संदर्भित विषयों की जानकारी लेकर आवश्यक समाधान प्रस्तुत करेंगे। इस संदर्भ में विहिप सामाजिक सम्पर्क समन्वय स्थापित करेंगी। कोई विरोधाभास न दर्शाते हुए एकता की सद्भावना का संचार किया जाएगा। 

सवाल: विश्व हिन्दू परिषद को छुआछूत की याद क्यों आई ? मुद्दे तो और भी हैं इस समाज में ?
देखिए, भारत में छुआछूत का कोई अस्तित्व नहीं है। विहिप ने इस सिद्धान्त पर सदैव आस्था प्रकट की है। उडूपी हिन्दू सम्मेलन 1969 के अवसर पर इस संदर्भ में सभी महामहिम शंकराचार्यों की उपस्थिति में एक संकल्प किया था। ‘हिन्दवः सर्वे सहोदरा’  अर्थात् सभी हिन्दू आपस में भाई-भाई हैं। इसके साथ ही संकल्प घोषित किया गया - ‘हिन्दू पतितो न भवेत’ अर्थात् कोई अन्य किसी हिन्दू से न छोटा है न बड़ा। इसका अनुसरण करते हुए शंकराचार्य एवं अन्य साधु संतों ने भारत के विभिन्न स्थानों पर जाकर यह संदेश दिया कि अस्पृश्यता भीषण अभिशाप रूपी संकट है। काशी के शंकराचार्य महाराज ने डोम राजा के साथ सहभोज करके छुआछूत निवारण का प्रकट संदेश दिया। 1989 में भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण हेतु अयोध्या में दलित जाति के प्रतिनिधि श्री कामेश्वर चैपाल (बिहार) के कर कमलों द्वारा ही शिलान्यास कराया गया। 

सवाल: अचानक डोमराजा का याद आना। उसके बाद कामेश्वर चैपाल का स्मरण हो आना। बिहार और उत्तर प्रदेश के आसन्न चुनावों में राजनीतिक लाभ लेने की मंशा तो नहीं है ?
विश्व हिन्दू परिषद कभी राजनीति लाभ-हानि के लिए काम नहीं करती है। बीते दस वर्षों का मेरा रिकाॅर्ड उठा कर देख लें, किसी भी चुनावी सभा में मैंने न तो भाग लिया और न ही किसी दल के पक्ष में प्रचार किया।

सवाल: विश्व हिन्दू परिषद के हिन्दू परिवार मित्र की संकल्पना क्या है ?
सभी हिन्दू परिवार अन्य जाति के एक परिवार से मैत्री संबंध बनायेंगे। दोनों परिवार मिलकर सुख-दुःख की घड़ी में एक साथ दिखाई देंगे। एक दूसरे के निवास पर जायेंगे एवं एक साथ बैठकर घर में भोजन करेंगे, न कि किसी होटल या ढाबे पर। दोनों परिवार पर्यटन पर जायेंगे तो घर के बने भोज्य पदार्थों का परस्पर सेवन करेंगे। किशोर बालक परिवार के फोटो खींचेंगे और ‘हिन्दू परिवार मित्र’ की चित्र दर्शिका आपस में वितरित करेंगे। वाट्स एप व फेसबुक आदि पर यह सब दर्शनीय बनाया जाएगा। ऐसे अनेक मित्र परिवार जो भारत में अब तक सक्रिय हैं उनकी संख्या में वृद्धि निरन्तर की जाती रहेगी। 

सवाल: पूरे देश में अच्छे दिन आने की बात की गई। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के करीब दस महीने बीत चुके हैं, आप किस रूप में देखते हैं इस सरकार के कामकाज को ?
मैंने कभी इस सरकार के कामकाज पर ध्यान ही नहीं दिया। जरूरत ही नहीं पड़ी। आपको बता दूं कि मैं विश्व हिन्दू परिषद के अभियान में इस तरह व्यस्त रहता हूं कि सामान्य परिस्थितियों में मैं एक शहर में दो लगातार रातें नहीं बिताता। जब जरूरत पड़ेगी, तो आपको बताउंगा कि इस सरकार का कामकाज कैसा है और इसके क्या किया।

सवाल: आजकल अंर्तजातीय विवाह को लेकर चर्चा होती है। आॅनर किलिंग शब्दों का इजाद हो गया है। आपकी क्या राय है? 
देखिए, मेरी व्यक्तिगत सोच यही है कि हिन्दुओं के अंतर्गत सगोत्र को छोड़कर शेष अंतर्राजातीय विवाह सही हैं। किसी भी देश में उसकी परंपरा और संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए। यदि कोई इसको तोड़ता है तो जाहिर है प्रतिक्रिया होगी।

सवाल: धर्मांतरण को लेकर समाज में कई तरह की बातें होती है। घर वापसी को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है। आखिर प्रवीण तोगडि़या को इसे किस तरह से देखते हैं ?
धर्मातरण रोकने के लिए सभी हिंदू एकजुट हों। खासतौर पर युवतियों को वह सतर्क रहकर लव जिहाद से दूर रहना होगा। ऐसे युवकों से दूर रहें, जो हिंदू होने का ढोंग कर उन्हें अपने जाल में फंसाते हैं। हिंदुओं के सम्मान की रक्षा और गोहत्या रोकने के लिए जन्माष्टमी के दिन विश्व हिन्दू परिषद का गठन हुआ था।

सवाल: क्या विश्व हिन्दू परिषद और प्रवीण तोगडि़या ने राम मंदिर का मुद्दा अब छोड़ दिया है ? क्या मोदी सरकार आने भर से इसकी इतिश्री हो गई है ?
नहीं। विश्व हिन्दू परिषद जिस भी चीज को एक बार ठान लेती है, उसे पूरा करके ही दम लेती है। हमने न तो राम मंदिर का मुद्दा कभी छोड़ा और न ही छोड़ेंगे। भगवान श्रीराम का मंदिर अपने नियत स्थान पर बनकर रहेगा। विहिप अपनी स्थापना की स्वर्ण जयंती पर उत्सव नहीं मनाएगी। उत्सव तब ही मनेगा जब राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण होगा। वर्ष 1993 केंद्र की तत्कालीन राव सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र देकर कहा था कि कोर्ट जिसके पक्ष में भी निर्णय देगा, अधिग्रहीत भूमि उसे उपलब्ध कराई जाएगी। अब केंद्र सरकार को अपने शपथपत्र को संज्ञान में लेकर अधिग्रहीत भूमि राम मंदिर के लिए सुलभ करा देनी चाहिए। 

रविवार, 15 मार्च 2015

मांझी के पीछे मोदी

जिन तीन दलों ने जीतन राम मांझी को पद से हटाया है, उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। नाम मांझी है, लेकिन मंझधार में उन्होंने कितनों को फंसा रखा है। भाजपा को भी सोचना होगा कि मांझी का अभी साथ देकर सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटा, तो छुटकारा पाने के वक्त क्या कहेंगे ? कहीं भाजपा की हालत भी नीतीश जैसी न हो जाए ? और सबसे बड़ा सवाल कि ये साथ कब तक और किस हद तक का है ?



बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के पीछे शुरुआत में नीतीश कुमार थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। नौ महीना बीतते-बीतते एक नए मांझी का स्वरूप दिखने लगा, जिसके पीछे भाजपा थी। अचानक भाजपा मांझी का साथ क्यों देने लगी ? बिहार की जनता के मन में सबसे बड़ा सवाल यही था और आज भी है। बिहार में सुशील मोदी और केंद्र में नरेंद्र मोदी को ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी कि वो मांझी के पीछे आ गए ? क्या नीतीश को नेस्तोनाबूद करने के लिए और कोई विकल्प नहीं रह गया था। 
असल में, बिहार की राजनीति को समझने-बूझने वाले भी आज सवाल कर रहे हैं कि यदि महादलित की चिंता थी, तब भाजपा ने मांझी के मुख्यमंत्री बनने पर स्वागत क्यों नहीं किया ? क्यों कहा कि ये कठपुतली मुख्यमंत्री है। हर दिन मांझी पर हमला हुआ। पर इस बीच मांझी कैसे भाजपा के करीब पहुंच गए। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि इस पोलिटिक्स को आप केमिस्ट्री की क्लास में समझना चाहते हैं या कॉमर्स की ? क्या मांझी भाजपा बीजेपी की कठपुतली नहीं हैं? नीतीश अगर रिमोट के जरिये मांझी की सरकार चला रहे थे, तो क्या बीजेपी रिमोट के जरिये मांझी को नहीं चला रही थी। 
असल में, कहा गया कि रामविलास पासवान के बाद मांझी का भाजपा की तरफ आना उसके सामाजिक आधार का विस्तार तो करेगा, लेकिन इससे मांझी या दलित राजनीति को क्या मिलेगा। क्या चुनाव बाद मुख्यमंत्री का पद मिलेगा? आखिर भाजपा ने खुद को इस खेल से खुलेआम अलग क्यों नहीं किया है। क्या वह अब भीतरघात की राजनीति भी करेगी। याद कीजिए, मांझी ने दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर कहा कि नीतीश का चेहरा एक्सपोज हो गया है। वे सत्ता के लालची हैं, लेकिन मांझी कैसे सत्ता के संन्यासी बने हुए हैं। सिर्फ इसलिए कि उनके पास एक ऐसा प्रतीक है, जिसकी काट किसी के पास नहीं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भाजपा बिहार में यह सब सामाजिक न्याय के लिए कर रही है ? क्या बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा रामविलास पासवान को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाएगी, मांझी को बनाएगी ?
बहरहाल, बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटने पर मजबूर किए जाने के एक हफ्ते बाद जीतन राम मांझी ने अपनी नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की। मांझी ने अपनी पार्टी का नाम ‘हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा’ (हम) रखा है। मांझी ने कहा कि वह इस मोर्च के जरिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमारे के असली चेहरे को पब्लिक के सामने लाएंगे। हमारी पार्टी नीतीश कुमार और जेडी(यू) को सीधी चुनौती देगी। हमलोगों ने कई लंबी बैठकों में विचार-विमर्श के बाद नई पार्टी हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा बनाने का फैसला किया है। इन बैठकों में हमने अपने समर्थकों, हमदर्दी रखने वालों और पूर्व मंत्रियों से विचार-विमर्श किया। इसके बाद हमलोग नई पार्टी बनाने के फैसले पर पहुंचे।
गौरतलब है कि मांझी और उनके समर्थक मंत्रियों, विधायकों को जेडी(यू) चीफ शरद यादव ने पार्टी से निकाल दिया था। इसके बाद से अटकलबाजी तेज थी कि अब मांझी की राजनीति किस करवट बैठेग ? मांझी के ज्यादातर समर्थक महादलित कैटिगरी से ताल्लुक रखते है। पार्टी लॉन्च करने के मौके पर मांझी ने कहा, ‘हम अपने समर्थकों के साथ नीतीश कुमार के असली चेहरे को बेनकाब करेंगे। मैंने 9 महीने के शासनकाल में महज 12 दिन काम किए हैं। ज्यादातर वक्त मौखिक संघर्ष में ही गुजरा। मैं भले 9 महीने तक सीएम की कुर्सी पर रहा, लेकिन असली काम मैंने 7 से 19 फरवरी के बीच महज 12 दिनों तक किए। 
एक बार को लगा कि बिहार जाति की राजनीति के मिथक को तोड़ेगा। लेकिन आज दस साल बाद बिहार एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा है जहां से जाति की राजनीति वाली सुरसा ने मुॅह खोल कर बिहार के विकास को अवरुद्ध कर हिंसा की भयावहता का विस्तार करने की कोशिश किया था। अफसोस! इस राजनीति को एक बार फिर हवा मिली है वह भी नीतिश कुमार के जरिए, हां यह अलग बात है कि इस बार उनकी मदद लालू यादव भी कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच एक और चेहरा बिहार की राजनीति में उभर कर आ गया है वह कोई और नहीं बल्कि निर्वासित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हैं। जीतन राम मांझी की राजनीति ने कांशीराम के उस दौर की याद दिला दी है, जब वे सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने के लिए कभी हाथ मिलाते थे तो कभी झटक कर चल देते थे। सत्तर के दशक के आखिरी साल में कर्पूरी ठाकुर को किन लोगों ने अपमानित किया बिहार की राजनीति जानती है। कर्पूरी को कुर्सी से हटाकर एक दलित चेहरा खोजा गया, रामसुंदर दास का। जिन्हें सवर्ण नेताओं के समूह और जनसंघ ने समर्थन दिया था। दिक्कत यह है कि आप जीतन राम मांझी को सामाजिक न्याय के प्रतीक से अलग भी नहीं कर सकते, लेकिन उस सियासत से आंख भी बंद नहीं कर सकते जो दिल्ली से पटना तक में इस प्रतीक के नाम पर खेली जा रही है। नैतिकता और न्याय सियासत में कब पाखंड है और कब प्रतीक यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप नीतीश को पसंद करते हैं या नरेंद्र मोदी को या फिर मांझी को। दिलचस्प बात यह है कि जिन तीन दलों ने मांझी को पद से हटाया है उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। जेडीयू से बर्खास्त मांझी इस्तीफा नहीं दे रहे हैं और दूसरी तरफ विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद भी नीतीश कुमार शपथ नहीं ले पा रहे हैं। राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी की किस्मत ही कुछ ऐसी है कि वे जहां भी जाते हैं, यूपी विधानसभा की स्थिति पैदा हो जाती है। मांझी की त्रासदी यह है कि कोई इन्हें अपनी नाव का खेवनहार नहीं बनाना चाहता, बल्कि सब मांझी को नाव बनाकर खेवनहार बनना चाहते हैं। मांझी हैं कि तूफान का सहारा लेना चाहते हैं। यह मजा कब सजा में बदल जाएगी मांझी को अभी इसका एहसास शायद न हो आज नितीश का बहुमत मिल गया माझी का विश्वास मत, भाजपा की बैशाखी पर नही टिक सका। समुद्र में आया उफान बहुत कुछ दे दिया करता है लेकिन जो कुछ ले जाता है वह मांझी से बेहतर कोई नही समझ सकता। राजनीति में मौका प्रधान है भावना नहीं।

एनडीए की नाव मांझी भरोसे!
विधानसभा चुनाव से पहले बिहार में कई तरह के समीकरण बनते बिगड़ते दिख रहे हैं। कभी जेडीयू के खेवनहार बनकर निकले मांझी जब अपनी ही नाव डूबो दिये, तो नीतीश कुमार को फिर कमान संभालना पड़ा. अब एक और खबर आ रही है। जेडीयू से निष्कासित होने के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी बिहार में अपने लिए नए सिरे से राजनीतिक जमीन तलाशने की तैयारी में हैं। इसी सिलसिले में बीते दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मिलने दिल्ली पहुंचे। उस दौरान उन्होंने कहा था कि वो चुनाव के बाद एनडीए के साथ मिलकर सरकार बना सकते हैं। जीतनराम मांझी ने कहा था कि उनकी पार्टी बिहार की कम से कम 125 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि मांझी ने साफ कर दिया है कि वो साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव अकेले ही लड़ेंगे और परिणाम आने के बाद ही गठबंधन को लेकर कोई फैंसला करेंगे। लेकिन उससे पहले मांझी ने गठबंधन को लेकर भाजपा का रूख साफ करने की मांग की।
उल्लेखनीय है कि चुनाव को लेकर मांझी का संगठन हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा 20 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में महारैली का आयोजन करने जा रहे है। जिसके बाद ही तय किया जाएगा कि कितनी सीटों पर चुनाव लड़ना है। मांझी ने बयान देकर कि उन्हें चुनाव के बाद कांग्रेस और आरजेडी के साथ भी गठबंधन से गुरेज नहीं है, गठबंधन की गेंद भाजपा के पाले में डाल दी है। यानी अब भाजपा बीजेपी को तय करना है कि उसे मांझी का साथ देना है या नहीं। 

भाजपा का आॅपरेशन बिहार 
भाजपा की कोशिश है कि अगर मांझी अपनी पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो यही उसके के लिए सबसे मुफीद होगा। अगर चुनाव के वक्त भाजपा और मांझी की पार्टी में तालमेल होता है, तो भी भाजपा को ही फायदा होगा। अगर नहीं होता तो भी भाजपा उसका फायदा उठा सकती है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि भाजपा की ओर से ऑपरेशन बिहार के तहत इसकी शुरुआत कर दी गई है। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि मांझी और भाजपा के बीच किस तरह का रिश्ता बनता है, लेकिन इतना जरूर है कि भाजपा चाहती है कि बिहार विधानसभा चुनाव में मांझी की भूमिका जरूर हो। इससे भाजपा को नीतीश-लालू की जोड़ी से लड़ने में कामयाबी मिलेगी।
मांझी को लेकर भाजपा के पास तीन विकल्प हैं। सबसे बेहतर विकल्प पर माथापच्ची जारी है। पहला विकल्प ये है कि मांझी को भाजपा में लाया जाए। हालांकि इससे भाजपा को ज्यादा फायदा नहीं होगा। कुछ क्षेत्रों में भाजपा को अतिरिक्त वोट ही मिल जाएगा। दूसरा विकल्प ये कि मांझी अपनी पार्टी बनाएं और चुनाव मैदान में नीतीश-लालू की जोड़ी पर जमकर हमला करें। इससे नीतीश- लालू बनाम भाजपा की बजाय त्रिकोणीय और कई जगह बहुकोणीय मुकाबला होगा। अब तक जो संकेत आए हैं, उसके तहत आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस जैसे दल मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसे में भाजपा और अन्य दलों के गठजोड़ की सीधी टक्कर होगी। तीसरा विकल्प यह कि मांझी की पार्टी से भाजपा का तालमेल हो जाए यानी भाजपा मांझी की पार्टी को गिनती की सीटें दे और बदले में मांझी राज्य में नीतीश व लालू के खिलाफ कैंपेन करें यानी भाजपा के पक्ष में।
क्या कहती है भाजपा का यह इशारा 
भाजपा के लिए सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अगर मांझी की पार्टी के साथ मिलकर वह चुनाव लड़ती है तो महादलित वोट उसकी ओर आ सकता है। इससे लालू और नीतीश के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। पार्टी के लिए यह भी अच्छा होगा कि राज्य में सीधी टक्कर नहीं होगी। भाजपा को यह मालूम है कि अगर सीधी टक्कर हुई तो उसके लिए दिक्कतें बढ़ सकती हैं, क्योंकि नीतीश व लालू के साथ आने के बाद उनका वोट बैंक और मजबूत हो गया है।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए राजग के साथ आने के संकेत दिए है। हालांकि उन्होंने कहा है कि वे चुनाव पूर्व किसी दल से गठबंधन नहीं करेंगे, लेकिन चुनाव बाद के सारे विकल्प खुले हुए हैं। मांझी 20 अप्रैल को पटना में रैली कर अपनी नई पार्टी की घोषणा करेंगे। इस बीच रालोसद के सांसद अरुण कुमार ने मांझी से मुलाकात की है। मांझी ने कहा है कि धर्मनिरपेक्षता व विकास के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है। उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सत्ता का लालची करार देते हुए कहा कि जनादेश नीतीश कुमार को नहीं, बल्कि राजग को मिला था। उन्होंने कहा कि वे 20 अप्रैल को पटना में रैली कर नई पार्टी की घोषणा करेंगे। चुनाव पूर्व व बाद की राजनीति पर उन्होंने कहा कि अभी उनकी किसी दल से बात नहीं चल रही है। दिल्ली आए मांझी भाजपा के बड़े नेताओं के साथ मुलाकात की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा ने अगर विश्वास मत परीक्षण के आठ दिन पहले समर्थन देने की घोषणा कर दी होती तो वे उनकी सरकार बच जाती। भाजपा के अधिकांश बड़े नेता इन दिनों दिल्ली में नहीं है। वैसे भी भाजपा नेताओं को मांझी पर ज्यादा भरोसा नहीं है कि वे किस करवट बैठेंगे। इस बीच रालोसद के सांसद अरुण कुमार ने मांझी से मुलाकात कर उनको टटोला है। सूत्रों के अनुसार रालोसद मांझी को अपने साथ जोड़ना चाहती है। उसने मांझी से कहा है कि वे रालोसद में आकर राजग से जुडम् सकते हैं। हालांकि मांझी इस समय अपनी पार्टी बनाने के पक्ष में हैं, जिसे वे राजग के साथ जोड़ सकते हैं।

कैसे तोड़ेंगे नीतीश के मास्टर स्ट्रोक को
नीतिश कुमार ने संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधान खूब फायदा उठाया। बल्कि भाजपा को चिढ़ाने के लिए यह भी कह डाला कि यह प्रावधान केंद्र की एनडीए सरकार ने ही किया है। इसी प्रावधान के तहत उन्होंने मांझी को भी पार्टी व्हिप के दायरे में ला खड़ा किया। हालांकि, मांझी सदन में पहले ही असम्बद्ध करार दिए जा चुके थे। नीतीश कुमार ने बार-बार इस दौरान इस बात का भी जिक्र कर रहे थे कि मांझी का जदयू के 40-50 विधायकों के संपर्क में रहने का दावा के क्या हुआ? उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय बार-बार कहते थे कि जब चाहेंगे, सरकार गिरा देंगे, उस दावे का क्या हुआ? हालांकि भाजपा ने अपनी ओर से यह कोशिश जरूर की थी कि वोटिंग की नौबत नहीं आए। यही कारण रहा कि वोटिंग का समय आने से पहले ही भाजपा के सभी सदस्य सदन से वाक-आउट कर गए, लेकिन उनकी यह रणनीति काम नहीं आई। इसके विपरित मांझी ने सदन में नहीं आकर अपनी सदस्यता गंवाने का रिस्क जरूर लिया और साथ ही नीतिश कुमार के खिलाफ जंग का ऐलान भी कर डाला। साथ ही विश्वासमत को लेकर विधानसभा में चल रही चर्चा के दौरान मांझी ने एक अणे मार्ग स्थित अपने आवास पर पत्रकारों से यह भी कह डाला कि उनको व्हिप की अवहेलना करने के कारण विधायकी खत्म होने की कोई चिंता नहीं है। वसूल और सिद्धांत के लिए वे हर कुर्बानी देने को तैयार हैं। इस बीच नीतीश कुमार ने मांझी सरकार के 34 फैसलों को रद करने का भी साहस भी दिखा दिया है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने इस फैसले को जनता के समक्ष सही ठहराने के लिए वह कौन सी रणनीति अपनाएंगे?


मंगलवार, 10 मार्च 2015

मसरत पर गरमा गई सियासत

जिस प्रकार से जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफती मोहम्मद सईद ने मसरत को रिहा किया और राज्य में भाजपा ने अपने सहयोगी पीडीपी पर आंखें तरेरी, उसके बाद राजनीतिक बहस-मुहाबिसों का दौर गरम हो चला है। अब तो कहा यह जा रहा है कि मसरत रिहा हो गया फक्तू रिहा होने के रास्ते पर है। इतना ही नहीं, बाकी 145 राजनीतिक कैदियों की फाइल जल्द ही खुलेगी। यानी कभी आंतकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के साथ रहे मसरत और कभी जमायत उल मुजाहिद्दीन के कमांडर रहे आशिक हसन फक्तू। उसके बाद कश्मीर की जेलो में बेद 145 कैदियों की रिहाई भी आने वाले वक्त में हो जायेगी, क्योंकि राजनीतिक कैदियों की रिहाई होनी चाहिए। यह मुद्दा भाजपा के साथ सरकार बनाने के लिए चलने वाली बातचीत में उठी थी। दरअसल, जम्मू कश्मीर की सरकार को लेकर जो नजरिया दिल्ली का है उसमें मउप्ती को केन्द्र के साथ हुये करार नामे पर चलना चाहिए, लेकिन लेकिन मुफ्ती सरकार जिस नजरिये से चल रही है, उसमें उसने निकाहनामा तो केन्द्र की भाजपा सरकार के साथ पढ़ा है लेकिन मोहब्बत कश्मीरी आंतकवादियों के लेकर कर रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर की मुफ्ती मोहम्मद सरकार द्वारा हुर्रियत नेता मसरत आलम की रिहाई पर सरकार की सहयोगी पार्टी भाजपा अब विपक्ष के निशाने पर आ गई है। पीडीपी के इस निर्णय से भाजपा में खासी नाराज दिख रही है। इस बीच पीडीपी ने अलगाववादी नेताओं की रिहाई को कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (सीएमपी) का हिस्सा बताकर भाजपा को और चिढ़ाया दिया है। पीडीपी के वरिष्ठ नेता नईम अख्तर ने कहा कि यह सीएमपी का हिस्सा है। उन्होंने दावा कि मसरत को रिहा करने से पहले भाजपा से सलाह ली गई थी। भाजपा का कहना हैं कि उससे मसरत की रिहाई के बारे में सलाह नहीं ली गई थी। भाजपा की पूर्व सहयोगी शिवसेना ने कहा कि पीडीपी के साथ गठबंधन करने की कीमत चुकानी होगी। शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा, हमने भाजपा को पहले ही चेताया था कि पीडीपी के साथ गठन की सरकार बनाना एक खतरा मौल लेना है। मसरत की रिहाई गलत है। मुफ्ती मोहम्मद एक सच्चे भारतीय नहीं है। इस बीच विवादों में घिरे मसरत आलम ने कहा कि सरकारें बदलती रहेगी लेकिन जमीन पर वास्तविकता एक ही रहेगा। आलम ने कहा, मुझे तीन बार जमानत दी गई इसलिए मैं मुझे रिहा किया गया है। मैंने अपना जीवन जेल में बिताया है इसलिए यह बड़ी बात नहीं होगी अगर मुझे दोबारा गिरफ्तार कर लिया जाता है।
जम्मू कश्मीर में भी भाजपा -पीडीपी के संबंधों में इसे लेकर तनाव है। अजब संयोग है कि आंतकवाद की दस्तक जब कश्मीर में रुबिया सईद के अपहरण के साथ होती है और केन्द्र सरकार पांच आतंकवादियों की रिहाई का आदेश देती है, तो वीपी सिंह सरकार को भाजपा उस वक्त समर्थन दे रही थी। ठीक दस बरस बाद 1999 जब एयर इंडिया का विमान अपहरण कर कंधार ले जाया जाता है और तीन आंतकवादियों की रिहाई का आदेश उस वक्त एनडीए सरकार देती है, जो भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में चल रही थी। अब 15 बरस बाद 2015 में जब जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उन आतंकवादियों की रिहाई के आदेश देते हैं, जिन पर देशद्रोह से लेकर आंतकवाद की कई धारायें लगी हैं, तो संयोग से कश्मीर की सरकार में भाजपा बराबर की साझीदार होती है।
अब चूंकि केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। संघ अपना वजूद दिखाना चाहती है। जाहिर है, इस बार भाजपा और संघ पीडीपी को कोई रियायत देने के मूड में नहीं है। लिहाजा, जम्मू-कश्मीर भाजपा ने तुरंत मोर्चा संभाला और कहा कि हमें इसकी जानकारी नहीं दी गई। जम्मू कश्मीर में अलगाववादी नेता मसरत आलम को रिहा करने के बाद न केवल घाटी में भूचाल आ गया है बल्कि संघ ने भी भाजपा पर आॅंखे तरेरी है। बताया गया है कि संघ नेता भाजपा-पीडीपी गठबंधन को लेकर पहले से ही खफा थी, लेकिन मसरत की रिहाई के बाद से तो संघ ने अपना रूख और अधिक कड़ा कर लिया है। संघ नेताओं ने भाजपा से कहा है कि उसने पीडीपी से गठबंधन कर अपनी नीतियों को दरकिनार करने में कोई कोर कसर नहीं रखा है। संघ ने कहा है कि भाजपा मुफ्ती मोहम्मद से जरा यह पूछे कि क्या वे भारतीय नहीं है और यदि उनका जवाब हाॅं में है तो फिर उन्होंने सीएम बनने के तुरंत ही बाद मसरत को क्यों छोड़ दिया। इधर सईद के निर्णय को लेकर भाजपा ने अभी पूरी तरह से पत्ते तो नहीं खोले है लेकिन माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुफ्ती से इस मामले को लेकर खुलकर चर्चा जरूर करने वाले है। बताया गया है कि जिस तरह से संघ ने अपने गुस्से का इजहार किया है उसके कारण घाटी में रहने वाले वे लोग नई परेशानी में पड़ जायेगी। इनमें वे लोग शामिल है जिन्हें अभी तक मूल अधिकारों की प्राप्ति नहीं हुई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार ये बंटवारे के दौरान पाकिस्तान से आकर पंजाब प्रांत में बस गये थे, लेकिन आजादी के इतने वर्षों बाद अभी तक भारतीय का दर्जा तक नहीं मिला है। कुल मिलाकर इस तरह के लोग पीडीपी भाजपा गठबंधन के पाटों में पीसने के लिये मजबूर बने रहेंगे। जब विपक्षी दलों के तेवर सख्त हुए, तो संसद में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस तरह की गतिविधि भारत सरकार को जानकारी दिए बिना हो रही हैं और देश की एकता अखंडता के लिए जो भी जरूरी होगा उनकी सरकार करेगी।  देश की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जाएगा। आलम की रिहाई को अस्वीकार्य बताते हुए मोदी ने आज कहा कि ऐसा भारत सरकार को जानकारी दिए बिना किया गया है।  सरकार बनने के बाद वहां जो कुछ भी गतिविधियां हो रही हैं, वे न तो भारत सरकार से मशविरा करके हो रही हैं और न भारत सरकार को जानकारी देकर हो रही हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि सदन में और देश में जो आक्रोश है, उस आक्रोश में मैं भी अपना स्वर मिलाता हूं। यह देश अलगाववाद के मुद्दे पर दलबंदी के आधार पर न पहले कभी सोचता था, न अब सोचता है और न आगे कभी सोचेगा।
इससे पूर्व गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इस मामले में राज्य सरकार के गृह विभाग से मिली रिपोर्ट को सदन के साथ साझा करते हुए कहा कि सरकार जन सुरक्षा पर किसी सूरत में समझौता नहीं करेगी।  केंद्र सरकार ने इस पूरे मामले को गंभीरतापूर्वक लिया है। राज्य सरकार से पूरा स्पष्टीकरण मांगा गया है। स्पष्टीकरण मिलने के बाद यदि जरूरत हुई तो कठोर से कठोर परामर्श जारी किया जाएगा। गृह मंत्री ने राज्य सरकार से मिली जानकारी के आधार पर बताया कि मसरत ने 2010 में घाटी में हुए उग्र प्रदर्शनों में मुख्य भूमिका निभाई थी। 1995 से लेकर अब तक उस पर 27 मामले दर्ज किए गए जिनमें देशद्रोह, हत्या का प्रयास और साजिश रचने के मामले हैं। उसे अदालत से 27 मामलों में जमानत मिल चुकी है। उसे फरवरी 2010 से अब तक आठ बार हिरासत में लिया गया है।  राज्य सरकार के गृह विभाग से मिली रिपोर्ट से केंद्र अभी पूरी तरह संतुष्ट नहीं है तथा इस संबंध में और स्पष्टीकरण मांगे गए हैं।
ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि आखिर कौन है मसरत आलम ? उस पर क्या आरोप हैं, किस कानून के तहत मसरत हुआ था गिरफ्तार ? असल में, मसरत आलम को अलगाववादी हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी का करीबी माना जाता है। मसरत 2008-10 में राष्ट्रविरोधी प्रदर्शनों का मास्टरमाइंड रहा है। उस दौरान पत्थरबाजी की घटनाओं में 112 लोग मारे गए थे। मसरत के खिलाफ देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने समेत दर्जनों मामले दर्ज थे। उसे चार महीनों की तलाश के बाद अक्टूबर 2010 में पकड़ा गया था। मसरत पर संवेदनशील इलाकों में भड़काऊ भाषण के आरोप भी लग चुके हैं। मसरत आलम को अक्टूबर 2010 में श्रीनगर के गुलाब बाग इलाके से 4 महीने की मशक्कत के बाद गिरफ्तार किया गया था। गिलानी के करीबी माने जाने वाले मसरत आलम पर दस लाख रुपये का इनाम भी था। मसरत 2010 से पब्लिक सेफ्टी एक्ट यानी पीएसए के तहत जेल में बंद था। उसे बारामूला जेल में रखा गया था और उसकी रिहाई रात 9 बजे शहीद गंज पुलिस थाने से की गई। मसरत आलम की रिहाई के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कहा है कि पिछले चार साल से कश्मीर में शांति की एक बड़ी वजह यही थी कि मसरत आलम जेल में था। सीएम रहते मसरत आलम को जेल में डालने वाले उमर अब्दुल्ला ने भी ट्वीट कर इस फैसले पर सवाल खड़े किए। उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि - आलम 2010 के विरोध प्रदर्शन का मास्टरमाइंड था। ये कोई संयोग नहीं है कि उसकी गिरफ्तारी के बाद प्रदर्शन खत्म हो गए। 2010 की गर्मियों में जो कुछ हुआ, वैसा दोबारा नहीं हुआ। अफजल गुरू की फांसी के बाद भी नहीं हुआ। क्योंकि आलम नहीं था। तो अब या तो मुफ्ती सईद से एक नए सौदे के तहत आलम बाहर आया है, या फिर वो घाटी में फिर उत्पात मचाने वाला है। वक्त ही बताएगा।