शुक्रवार, 8 जून 2012
ऐसा क्यों ?
एक बार मैंने उन्हें कह दिया तुम मेरी जि़न्दगी हो! बहुत ख़ुश हुईं!! खनकती आवाज़ में बोलीं, 'शुक्रिया!Ó आज भी उनकी आवाज कानों में रस घोलती है। कितना अपनापन था। आज भी देह सिहर उठा, जब फोन रिसीव किया था। लगा वही हैं। लेकिन थी नहीं। कॉल सेंटर से फोन था। मन हुआ, सुनता ही रहूं। काश!
आज वह याद आ रही है, जब नहीं वह नहीं है। इंसानी फितरत है, जब कोई पास में नहीं होता है, तभी उसकी अहमियत जान पड़ती है। यह आभास आज हो रहा है। तब नहीं हुआ था। मन कचोट जाता है, स्मरण मात्र से। लेकिन कर भी क्या सकता हूं? उनसे जुड़ी तमाम बातें एक-एक करके मानस पाटल पर अंकित होती चली जा रही है। लगता है कल की ही बात है।
वास्तव में करीब एक दशक पूर्व हमारी पहली मुलाकाम एक छोटे से कस्बे में हुई थी। उम्र में मुझसे चंद साल बड़ी रही होंगी। आज तक उम्र नहीं पूछा। लड़कियों का उम्र नहीं पूछते भाई। मुलाकात होती गई और समय बीतता गया। यह तो समयचक्र है, जो हर वक्त चलायमान रहता हैै और उसी के वशीभूत प्राणी समझता है कि वह बदल गया हैै। लेकिन वास्तव में समय बदलता है, साथ ही नयी जिम्मेदारियां और प्राथमिकताएं आ जाती हंै। और मानव को उसे गाहे-बगाहे स्वीकार करना होता है। जिसने समय की इस नियति को स्वीकार नहीं किया है, समय उसका अस्तित्व ही मिटा देता है। समयचक्र की उसी गति में मैं बदल गया और बदल गया मेरा परिवेश। बदल गई हैं मान्यताएं । जिसे मैं अपने जीवन का सिद्घांत समझता था, जिनको अपना अराध्य मान लिया था, वह भी तो बदल गया है। याद आ रहा है, वह पड़ाव जहां आकर आकर दोनों के राह जुदा हुए। कसमें खाईं थी रहगुजर होने का। लेकिन...सामाजिक डर के कारण निभा नहीं सका। विजातीय होने से समाज का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। सामने से तो साहस था, मैं ही भीरू निकल गया।
फिर, उस मोहपाश से किसी तरह निकल पाया था। औपचारिक शिक्षा पूरी करते ही महानगर आ पहुंचा। यह रहने के संग पुराने रिश्ते छीजते गए। संवेदनाएं कम होती रहीं। प्राथमिताएं बदलती गईं। जिनके बिना पहले रहना मुश्किल होता, उनकी याद मुश्किल से ही आती। शायद यह मानवीय गुण है। आम आदमी की। जि़न्दगी में भी जैसे-जैसे महत्व एवं उपयोगिता बढ़ती जाती है, व्यक्ति उत्तेजनारहित और शांत होता जाता है। खनक! सिक्कों की खनक तो सुनी ही होगी आपने। सिक्के, मूल्य वाले तो होते हैं एक, दो, पांच के, पर आवाज ज़्यादा निकालते हैं। वहीं दस, बीस, पचास, सौ, पांच सौ और हज़ार के नोट शांत होते हैं, ख़ामोश रहते हैं, क्योंकि उनका मूल्य अधिक होता है। इसी तरह जि़न्दगी में भी जैसे-जैसे महत्व एवं उपयोगिता बढ़ती जाती है, व्यक्ति उत्तेजनारहित और शांत होता जाता है। नए जिम्मेदारियां उसे फुरसत ही नहीं लेनी देती।
सच तो यह भी है कि जि़न्दगी में हर कोई सफलता की ऊँचाई प्राप्त करना चाहता है। पर हम कितनी ऊँचाई प्राप्त कर सकते हैं, तब तक नहीं जान पाते जब तक हम उड़ान भरने के लिए अपने पंख नहीं फैलाते। मगर इसके साथ एक दिक्कत भी है। हम अपने पुराने जमीन से दूर होते जाते हैं। कुछ ऐसा ही तो हुआ था। जीवन को बेहतर बनाने की कवायद में वह स्मृति के किसी स्याह कोने में चली गईं थी। अचानक आज फोन की आवाज से बेतरतीब चित्र उभरने लगे।
उसका एक-एक कहा शब्द याद आने लगा। याद आता है उसकी सादगी, उसकी मौसिकी की न$फासत और नजाकत भी। प्रेम में टूटी हुई, बिखरी हुई- खुदï्दार स्त्री। वास्तव में उसकी बातों में एक अजीब सी चहचहाट थी जो अपने मद्घिम-मद्घिम सुरों में सोते हुओं को जगाने का काम करती थी। उसमें रूमानियत भी थी और गहरी ऐंद्रिकता भी, पर कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि सामने की दुनिया सिफऱ् एक सपना हैै। अपनी सूक्ष्म यथार्थपरकता के कारण ही मुख्य रूप से स्त्री और प्रेम को आधार बनाकर उसकी कही बातें आज भी जेह्न में आती हैं,
कितनी परिपक्व थी उसकी सोच। कभी-कभार झुंझलाती थी मुझ पर या स्वयं पर ? समाज की रूढि़वादी मान्यताओं पर? अथवा कार्यक्षेत्र की चकाचौंध भरी भागम-भाग जि़ंदगी और गलाकाट प्रतिस्पर्धा पर, जिसके मारे हुए हम दोनों ही थे? दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप चलता था, लेकिन वैयक्तिगत स्तर पर नहीं, समूह के आधार पर। मैं महिला को कोसता तो वह पुरुष को। कारण, हम दोनों कमोबेश एक ही सोच के थे। फिर भी दोस्ती थी...............।
कई बार तो गिरने से संभाला था। शुक्रिया भी तो नहीं कहा था। आखिर, गंगा में स्नान करने के बाद भला कोई यह कहता है, ''शुक्रिया माँ गंगे, तूने मेरा पाप धो डाला।ÓÓ जि़न्दगी का हर हिस्सा एक समान नहीं होता। कुछ करड़-मरड़ की आवाज़ वाला, तो कुछ कड़वे-कसैले स्वाद वाला, वहीं कुछ मुलायम तो कुछ कठोर पल वाला। जब भी परेशान होता तो वह कहा करती थी, सुंदर जि़न्दगी बस यूं ही नहीं हो जाती। इसे रोज़ बनाना पड़ता है अपनी प्रार्थनाओं से, नम्रता से, त्याग से एवं प्रेम से!
उस पल तो शांत हो जाता था। लेकिन आज मन की ज्वाला शांत नहीं हो रही। दशक बीत चुके हैं। आज फिर से उसका साथ पाने को मन आतुर हो रहा है। आखिर क्यों? मन में एक हूक-सी उठती है। जबाव मिलता है- भीरूता का यही परिणाम होता है। जब वह थी तो उसका महत्व समझ नहीं पाया और जब आज वह नहीं है तो उसका पुराण पाठ स्मृति में कर रहा हूं। यह मानवीय लक्षण है। जब कोई हमारे पास नहीं होता,तो हम बड़ा ख़ाली-ख़ाली महसूस करते हैं, अकेलापन का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों से जि़न्दगी के मतलब बदल जाते हैं। ऐसे लोग हमारे हृदय तंतुओं को छूते हैं। उनके आस-पास रहने से हममें मधुर भावनाओं का संचार होता है। जि़न्दगी में हम विभिन्न प्रकार के लोग से मिलते हैं। कुछ लोग अन्य की तुलना में हमारे ज़्यादा प्रिय हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? शायद वह हमारे किस्मत में नहीं होते। हमारी करनी का फल नियति देता है। जिसका कद्र तुमने नहीं किया, वह तुमसे आगे निकल जाएगा। तुम्हारे पास पछतावे के अलावे कुछ नहीं होता।
किसान चले सात समुद्र पार
किसान इस देश में सबसे हिकारत कि चीज़ बना दिए गए हैं। उनके नाम पर कजऱ्माफी की छलावे और धोखेबाजियों भरी घोषणा करके सरकार किसान-कन्हैया बन जाती हैं और किसान भौंचक रहते हैं कि उन्हें मिला क्या? लेकिन अब भारतीयों किसानों की उद्यमिता और लगन को देखते हुए उनकी मांग कनाडा, अमेरिका सरीखें देशों में होने लगी है।
भारतीय किसान परिश्रम, सेवा और त्याग की सजीव मूर्ति है। उसकी सादगी, सरलता तथा दुबलापन उसके सात्विक जीवन को प्रकट करती है। उसकी प्रशंसा में ठीक ही कहा गया है-
नगरों के ऐसे पाखंडों से दूर, साधना निरत, सात्विक जीवन के महा सत्य
तू नंदनीय जग का, चाहे रहे छिपा नित्य, इतिहास कहेगा तेरे श्रम में रहा सत्य।
किसान संसार का अन्नदाता कहा जाता है। वह सवेरे से सूर्यास्त तक लगातार काम करता है। संकट में भी किसी से शिकायत नहीं करता। दुख के घूंट पीकर रह जाता है। उसके रहन-सहन में बड़ी सरलता और सादगी होती है। वह फैशन और आडम्बर की दुनिया से हमेशा दूर रहता है। उसका जीवन अनेक प्रकार के अभावों से घिरा रहता है। अपनी सरलता और सीधेपन के कारण वह सेठ साहूकारों तथा ज़मीदारों के चंगुल में फंस जाता है। वह इनके शोषण की चक्की में पिसता हुआ दम तोड़ देता है। मुन्शी प्रेमचन्द्र ने अपने उपन्यास गोदान में किसान की शोचनीय दशा का मार्मिक चित्रण किया है। किसान कुछ दोषों के होने पर भी दैवी गुणों से युक्त होता है। वह परिश्रम , बलिदान, त्याग और सेवा के आदर्श द्वारा संसार का उपकार करता है। ईश्वर के प्रति वह आस्थावान है। प्रकृति का वह पुजारी तथा धरती मां का उपासक है। धन के गरीब होने पर भी वहमन का अमीर और उदार है। किसान अन्नदाता है। वह समाज का सच्चा हितैशी है। ऊसके सुख़ में ही देश का सुख़ है।
भारतीयों की प्रतिभा और उद्यमिता का लोहा देश के दूसरे विकसित देश दशकों से मानते रहे हैं। आम भारतीय सीना ठोंक कर कहता है कि अमेरिका के तकनीकी विकास में हमारी महत्ती भूमिका है, वरना 'नासाÓ जैसे संगठनों में एक तिहाई से अधिक भारतीयों की संख्या नहीं होती। हमारे देश से 'ब्रेन ड्रेनÓ की बात दशकों से होती रही है और उससे पूर्व श्रम का भी पलायन हुआ है। एक बार फिर देश से श्रम का पलायन होने वाला है, वह भी 'अन्नदाताओंÓ का। आम शहरी की नजर में किसान इस देश में सबसे हिकारत कि चीज़ बना दिए गए हैं। सरकार उनके विकास की खातिर कई योजनाओं की बात करती है, लेकिन किसान तक पहुंचते-पहुंचते वह फलीभूत नहीं हो पाती। सो, कृषि क्षेत्र का संकट पिछले दशक में एक लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की, आखिर क्यों ? शायद इसका माकूल जबाव हमारे सरकार के पास भी नहीं हो।
भले ही देश में किसानों की दुर्दशा हो रही हो पर पश्चिमी देशों में भारतीय किसानों का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। अमेरिका और कनाडा जैसे देश हमारे किसानों को अपने यहां बसाने के लिए बेकरार हैं। हालत यह है कि भारतीय किसानों को बुलाने के लिए इन देशों में अपनी आव्रजन नीतियों में भी बदलाव से गुरेज नहीं किया है।
हालिया दिनों में जिस प्रकार के संकेत मिलने शुरू हुए हैं, उससे तो यही कहा जा सकता है कि कनाडा, अमेरिका व कजाकिस्तान ने नई आव्रजन नीति बनाई है। इसके तहत इन देशों में भारतीय किसानों का बसना आसान हो जाएगा। ये देश मानते हैं कि भारतीय किसान मेहनतकश हैं और इसके सहारे वह विश्वभर में क्रांति ला सकते हैं। इसी विश्वास के चलते इन देशों ने कृषि और व्यापार श्रेणी में आव्रजन के लिए शैक्षणिक योग्यता और अंग्रेजी के ज्ञान की शर्ताें को हटा दिया है।
दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार आर्थिक सुधार के दशकों में हमारी श्रम-उत्पादकता 84 प्रतिशत तक बढ़ी है। परंतु आईएलओ की वही रिपोर्ट यह भी बताती है कि निर्माण क्षेत्र में श्रमिकों के वास्तविक मजदूरी में 22 प्रतिशत की कमी हुई है (ऐसे समय में जबकि सीईओ के वेतन आसमान छू रहे हैं)। इस तरह पिछले 15 वर्षों के दौरान अपनी आबादी के ऊपर के एक छोटे से हिस्से की अप्रत्याशित समृद्घि देखी है और ठीक उसी समय पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से शुद्ध प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता घटी है। आबादी के निचले तबके में बढ़ती भूख- खाद्य असुरक्षा की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था एफएओ का विश्व रिपोर्ट यह दिखाता है कि 1995-97 से 1999-2001 के बीच लाखों की संख्या में जितने नये भूखे भारतीय आबादी में जुड़े, वो पूरे विश्व में भूखों की कुल संख्या से भी अधिक थे। हमारे देश में ऐसे समय में भूख बढ़ी है जबकि यह इथोपिया में भी घटी है। हमारे देश के कुछ शहरों में रोज एक नया रेस्त्रां खुलता है पर हमारे देश के प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री प्रो. उत्सा पटनायक बताती हैं कि एक औसत ग्रामीण परिवार 10 वर्ष पूर्व के मुकाबले आज 1000 किलोग्राम अनाज की कम खपत प्रतिवर्ष कर रहा है। खाद्यान्न उपलब्धता के यह आंकड़े संसद में प्रतिवर्ष रखे जाने वाले उस आर्थिक सर्वेक्षण से लिए गये हैं, जो हमें शुद्ध प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता (एनपीसीए) संबंधी आँकड़े मुहैया कराता है। इस सर्वेक्षण के सहारे हम 1951 से लेकर अब तक के आँकड़े प्राप्त कर सकते हैं। यह उपलब्धता आर्थिक सुधारों के शुरूआती दिनों 1992 में 510 ग्राम थी। यह 1993 में 437 ग्राम तक गिर गया। 2005 का अपुष्ट आँकड़ा 422 ग्राम था। एक-दो वर्षों में यह थोड़ा जरूर बढ़ा है, पर पिछले 15 वर्षों में समग्र रूप से देखा जाए तो एक स्पष्ट गिरावट हुई है।
कहा जा रहा है कि द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत अब पुरानी बात है, अब दो ग्रहों की सी स्थिति है- आज 5 प्रतिशत भारतीय आबादी के लिए पश्चिमी यूरोप, संरा अमेरिका, जापान और अस्टे्रलिया बेंचमार्क है और तलछटी में रहने वाली 40 प्रतिशत आबादी के लिए उप-सहारा के अफ्रीकी देश बेंचमार्क हैं, जो साक्षरता में हमसे भी आगे हैं। पिछले दशक में ऋण का बोझ दुगुना हुआ है- हृस्स्ह्र का 59वाँ सर्वेक्षण हमें बताता है कि जहाँ 1991 में 26 प्रतिशत खेतिहर घरों पर कर्ज का बोझ था, 2003 तक यह प्रतिशत लगभग दुगुना बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया है। लिहाजा, अव्यवस्था और आय के स्त्रोतों के ध्वस्त होने एवं जीवन-खर्च में बेतहाशा वृद्धि के कारण बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इसी संदर्भ में वल्र्ड वाइड इमिग्रेशन कंसल्टेंसी सर्विसेज (डब्ल्यूडब्ल्यूआईसीएस) के सीमएडी ले.कर्नल बीएस संधू के अनुसार, ' भारतीय किसानों के लिए इस वक्त अमेरिका, कनाडा व यूरोप के देशों में स्थाई रूप से सेटल होने का उचित अवसर है। हालिया योजना के तहत न केवल विदेश जाकर समृद्घ किसान या व्यवसायी बना जा सकता है बल्कि अपने रिश्तेदारों और मित्रों को भी स्थाई नागरिकता उपलब्ध कराई जा सकती है। कृषि और व्यापार के क्षेत्र में घोषित आव्रजन योजना में आईलेटस भी पास नहीं करना पड़ेगा। केवल कृषि और व्यापार के क्षेत्र में कनाडा सरकार द्वारा घोषित योजना के तहत आठ लाख कनेडियन डॉलर की संपत्ति और पांच वर्ष का अनुभव होना जरूरी है।Ó
दरअसल, गत दिनों मोहाली में वल्र्ड वाइड इमिग्रेशन कंसल्टेंसी सर्विसेज के तत्वावधान में एक सरपंच सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें पंजाब सहित दूसरे प्रदेशों के करीब 130 सरपंच और प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। उसी सम्मेलन में यह बात सामने कि अब तक सैकड़ों किसान विदेश जाने के लिए आवेदन कर चुके हैं और कई इसके लिए मन बना रहे हैं। सम्मेलन के दौरान यह बताया गया कि कनाडा में 1.20 लाख कनेडियन डॉलर का निवेश करने पर वहां की सरकार 4 लाख कनेडियन डालर का ऋण भी प्रदान करेगी, जिसे आसान किश्तों में लौटाया जा सकता है।
भारतीय किसानों का स्याह सच यह है कि किसान इस देश में सबसे हिकारत कि चीज़ बना दिए गए हैं। उनके नाम पर कजऱ्माफी की छलावे और धोखेबाजियों भरी घोषणा करके सरकार किसान-कन्हैया बन जाती हैं और किसान भौंचक रहते हैं कि उन्हें मिला क्या। एक निर्मम प्रक्रिया हैं जो सरकार चलाने से लेकर नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू कराने तक में दिखती हैं। और इन सबसे जो निकलता हैं, वह हैं एक लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या और हजारों किसानों का विद्रोह। कृषि क्षेत्र का संकट पिछले दशक में एक लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या क्यों की ? मद्रास इंस्टीच्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रो. के. नागराज के शब्दों में कहें तो हम इस पूरी स्थिति को एक पंक्ति में इस तरह रख सकते हैं-जो प्रक्रिया इस संकट को संचालित कर रही है वो है- गाँवों के लूटनेवाली व्यवसायीकरण की प्रक्रिया। सभी मानवीय मूल्यों की विनिमय मूल्यों में तब्दीली। यह प्रक्रिया जैसे-जैसे ग्रामीण भारत में बढ़ती गई, जीविका के लाखों साधन ध्वस्त हो गये। लाखों लोग कस्बों और शहरों की ओर रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं, पर वहाँ काम नहीं हैं। वो एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ते हैं, जहाँ न तो वो मजदूर हैं और न ही किसान। कई घरेलू नौकर बन कर रह जाते हैं, जैसे कि दिल्ली शहर में झारखंड की एक लाख से अधिक लड़कियाँ घरेलू नौकरानियों के रूप में काम कर रही हैं। छोटी जोतवाले किसानों का विश्व-व्यापी संकट। हालाँकि, यह संकट किसी भी रूप में सिर्फ भारत से जुड़ा हुआ नहीं है। यह छोटे पैमाने पर खेती करने वालों का विश्वव्यापी संकट है। पूरी पृथ्वी पर से छोटे पारिवारिक खेतों को मिटाया जा रहा है और ऐसा पिछले 20 से 30 वर्षों से होता आ रहा है। यह ठीक है कि पिछले 15 साल में भारत में यह प्रक्रिया काफी तेज हुई है। नहीं तो किसानों की आत्महत्या ने कोरिया में भी काफी गंभीर चिंताएँ उत्पन्न किया है। नेपाल और श्रीलंका में भी आत्महत्याओं की दर काफी ऊँची है। अफ्रीका, बुर्किना फासो, माली जैसे इलाकों में बड़े पैमाने पर हुई आत्महत्याओं का कारण यह है कि संरा अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की सब्सिडियों के कारण उनके कपास उत्पाद का कोई खरीददार नहीं रहा। इत्तफाक से, संरा अमेरिका के मिडवेस्ट और अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में भी समय-समय पर किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएँ की हैं। वास्तव में, अस्सी के दशक में अकलाहोमा में किसानों के आत्महत्या की दर संरा अमेरिका के राष्ट्रीय आत्महत्या दर के दुगुनी से भी ज्यादा थी और ऐसा कम ही होता है कि ग्रामीण आत्महत्या दर शहरी आत्महत्या के दर से ज्यादा हो।
किसानों की स्थिति पर गहन दृष्टिï रखने वाले पी. सांईनाथ के अनुसार, 'हम कई रूपों में छोटे किसानों को टूटते और मरते देख रहे हैं। यह बहुत जरूरी है कि हम कुछ करें क्योंकि हमारा देश ऐसा सबसे बड़ा देश है जहाँ छोटे जोते वाले किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है। संभवत: हमारे यहाँ ही खेतिहर मजदूरों और भूमिहीन श्रमिकों की संख्या सबसे ज्यादा है। अगर आप गौर करें तो संरा अमेरिका में जो कुछ घटा उससे सबक लेना चाहिए।संरा अमेरिका में 1930 में 60 लाख पारिवारिक खेत थे। यह वह समय था जब भारत स्वतंत्रता प्राप्त करने से ठीक एक दशक के आसपास दूर था, तब अमेरिका की एक चौथाई आबादी इन 60 लाख खेतों पर आश्रित थी और इनमें काम करती थी। आज अमेरिका में खेतों में काम करने वालों से ज्यादा लोग जेलों में बंदी हैं। आज 7 लाख लोग खेतों पर आश्रित हैं और 21 लाख लोग जेलों में हैं।हमें कॉरपोरेट खेती की ओर धकेला जा रहा हैयह प्रक्रिया हमें किस ओर ले जा रही है ? दो शब्दों में कहें तो कॉरपोरेट खेती की ओर। यह भारत और पूरे विश्व में आने वाले दिनों में खेती की बड़ी तस्वीर है। हमें कॉरपोरेट खेती की ओर धकेला जा रहा है। एक प्रक्रिया जिसमें खेती को किसानों से छीना जा रहा है और कॉरपोरेट के हाथों में सौंप दिया जा रहा है। संरा अमेरिका में बिल्कुल ऐसा ही हुआ है और विश्व के अन्य कई देशों में भी। यह जीत बंदूकों, ट्रकों, बुलडोजरों और लाठियों के सहारे नहीं मिली। ऐसा किया गया लाखों छोटे जोत वाले किसानों के लिए खेती को अलाभकारी बनाकर, वर्त्तमान ढाँचे में खेती कर गुजर-बसर करना असंभव कर दिया गया। यह सब बातें तब सामने आईं जब स्वतंत्र भारत के इतिहास में असमानता को तेजी से बढ़ता देखा गया। और यह समझने वाली बात है कि जब समाज में असमानता बढ़ती है, तब सबसे ज्यादा भार कृषि क्षेत्र पर ही पड़ता है। हर हाल में यह एक अलाभकारी क्षेत्र है। इस कारण जब असमानता बढ़ती है तो कृषि क्षेत्र पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है।भारत में असमानता का विध्वंसकारी विकासखरबपतियों में चौथा स्थान- मुझे पूरा विश्वास है कि आप यह जान कर रोमांचित हो जायेंगे कि 2007 में भारत में खरबपतियों की चौथी सबसे बड़ी संख्या थी। खरबपतियों की संख्या में हम संरा अमेरिका, जर्मनी और रूस को छोड़ सभी देशों से आगे हैं। इतना ही नहीं कुल संपत्ति के मामले में हमारे खरबपति जर्मनी और रूस के खरबपतियों के मुकाबले ज्यादा धनी हैं।Ó
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