रविवार, 6 सितंबर 2015

दिग्गी की हुई अमृता

किसी भी पुरुष या स्त्री को किसी भी उम्र में परस्पर प्रेम करने का अधिकार है। प्रेम को किसी भी बंधन में नहीं बांधा जा सकता न उम्र में, न जाति या मजहब के बंधन में। प्रेम सिर्फ मन देखता है।



सुभाष चंद्र 

नेताओं के चरित्र पर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं। कभी उनके आर्थिक गड़बड़ियों के लिए तो कई उनके वैयक्तिक जीवन को लेकर। नेताओं के विवाहेत्तर संबंध में हमेशा से सुर्खियों में छाए रहे हैं। यूं तो दुनिया में कई प्रेम विवाह होते हैं, लेकिन यह कुछ हटकर होगा जिसका कारण है इस विषय में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का होना और दूसरा उनकी 67 साल की उम्र और आखिर में उनकी पत्नी का स्वर्गवास होने के बावजूद वह प्रेम संबंध में पड़ गए। बमुश्किल एक साल ही हुआ और उन्होंने दोबारा शादी कर ली। मई, 2014 में प्रेम सरेआम हुई और योगेश्वर कृष्ण की जन्मदिवस के एक दिन बाद 6 सितंबर, 2015 को अमृता राय ने अपने फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया, ‘मैंने और दिग्विजय सिंह ने हिंदू रिति रिवाज से शादी कर ली है।’
जब बात नेता और पत्रकार की हो, तो सुर्खियों में रहना लाजिमी है। लिहाजा, जब बीते साल मई महीने यानी 2014 में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और टीवी पत्रकार अमृता राय की प्रेम कहानी की खबरें सरेआम हुई और बाद में इसकी स्वीकारोक्ति हुई, तो सोशल साइटस ट्विटर पर यह टॉप ट्रेंड बन गया था। उल्लेखनीय है कि सोशल साइट ट्विटर पर जो विषय सबसे ज्यादा चर्चित होते हैं, उन्हें टॉप ट्रेंडिंग लिस्ट में रखा जाता है। गूगल पर 5 लाख लोगों ने इस प्रेम कहानी को सर्च किया था। इसके अलावा फेसबुक और इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी कांग्रेस नेता और पत्रकार के संबंध उजागर होने का मामला लगातार टॉप पर है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अपनी पत्नी अमृता और दिग्विजय सिंह के रिश्ते को लेकर सोशल मीडिया में मची हलचल पर प्रोफेसर आनंद प्रधान ने नाराजगी जताई थी। उन्होंने फेसबुक पर लिखा,यह मेरे लिए परीक्षा की घड़ी है। मैं और अमृता लंबे समय से अलग रह रहे हैं। सहमति से तलाक के लिए आवेदन किया हुआ है। हमारे बीच संबंध बहुत पहले से खत्म हो चुके हैं। अलग होने के बाद अमृता अपने बारे में कोई भी फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हैं और मैं उनका सम्मान करता हूं। उन्हें भविष्य के लिए शुभकामनाएं। 
सच तो यह है कि कांग्रेस महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह हमेशा सुर्खियों में रहते हैं। हर पखवाड़ा और हर माह वह सुर्खियों में रहते हैं। मानो उनका यह सबसे प्रिय शगल हो। बीते साल दिग्गी बाबू ने अपने प्यार को ट्विटर के जरिए दुनिया के सामने रखा था। दूसरों के निजी जीवन में झांकने वाले दिग्गी बाबू ने खुद ही अपने निजी जीवन की किताब को दुनिया भर के सामने खोलकर रख दिया। दिग्विजय सिंह ने खुलेआम ट्विटर पर अपने पिछले कुछ समय से टीवी एंकर अमृता राय के साथ प्रेम संबंधों का खुलासा किया। उस समय उन्होंने दावा किया था कि वे जल्द ही अमृता के साथ शादी के बंधन में बंधेंगे।
हालांकि, इस दावे को हकीकत तक आते-आते साल भर का समय लग गया। प्रेम करने वालों के राधाकृष्ण से बढ़कर कोई उपमा या उपमेय नहीं होता है, लिहाजा श्रीकृष्णाटमी के अगले दिन अमृता ने अपने दूसरे प्यार को पति के रूप में सार्वजनिक कर दी। 
बता दें कि दिग्विजय सिंह की ‘लेडी लव’ अमृता राय जानी-मानी पत्रकार हैं। वे एनडीटीवी न्यूज चैनल में एंकर थीं, फिर उन्होंने जी न्यूज ज्वाइन किया। इन दिनों वे राज्य सभा टीवी में बतौर सीनियर एंकर काम कर रही हैं। ट्विटर पर अपने रिश्ते को कबूल करने के बाद अमृता ने यह भी कहा था कि उनका ई-मेल हैक कर लिया गया है। इस बीच एक शादीशुदा महिला पत्रकार के साथ संबंधों की स्वीकारोक्ति पर भाजपा की ओर से कहा गया था कि यह नैतिकता का प्रश्न होने के साथ अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिए उन्हें सजा भी हो सकती है। भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी ने उस समय कहा था कि गुप्त विवाह संभव नहीं है। दिग्विजय पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा था कि नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले ने नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ी है। लेकिन, अब जबकि अमृता ने पूरे हिंदू रीति-रिवाज से शादी होने का एलान कर दिया, तो भला कोई क्या कर सकता है?
मटुक चैधरी और जूली के बाद दिग्विजय सिंह दूसरे व्यक्तित्व बनकर सामने आए हैं। बताया जाता है कि अमृता अजीब किस्म की महत्वाकांक्षा की असीम विकृति का शिकार रहीं हैं। वे एक साधारण एंकर थीं। राज्य सभा टीवी में आते ही उनका रवैया बदलने लगा। अमृता का हाव भाव सामान्य एंकर की तरह नहीं था। धीरे-धीरे उनका प्रोमोशन होता गया, वो यात्राएं करने लगीं, नेताओं का साक्षात्कार लेने लगीं और अपने को शायद स्टार मानने लगीं। आनंद प्रधान से अलग होने की सोच के पीछे उनकी स्टार बन जाने और सत्ता के शीर्ष पर संबंध होने की मानसिकता की प्रमुख भूमिका रही है। कई लोगों का कहना है कि अगर एक ओर महत्वाकांक्षा का खिंचाव है और दूसरी ओर किसी खूबसूरत, जवान और पढ़ी लिखी संगिनी के साथ आलिंगबद्ध होने तथा जीने की कामना। समाज को इसका विरोध करना चाहिए...

कौन देगा जवाब?

 क्या ईवीएम आने के बावजूद वोटों से खिलवाड़ किया जा सकता है? चुनाव संबंधी निर्णय लेने में क्यों लग जाता है वर्षों का समय? क्या अरुणाचल प्रदेश की जनता देश के दूसरे लोगों के साथ नहीं कदमताल कर सकती हैं? नीदो आज भी मांग रहा है जवाब, लेकिन कौन देगा उसे?

सुभाष चंद्र

यदि यह कहा जाए कि चुनावी मौसम में सियासी दांवपेंच अपने चरम पर होता है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सुदूर पूर्वोत्तर के राज्य अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव में कुछ ऐसा ही हुआ और मामला अभी गुवाहटी हाईकोर्ट के ईटानगर बेंच में है। मामला रागा विधानसभा क्षेत्र (25) का है। 2014 विधानसभा चुनाव परिणाम में जैसे ही निवर्तमान विधायक नीदो पवित्र को महज 21 वोटों से हारने की सूचना मिलीं, उन्हें भरोसा नहीं हुआ। तमाम चीजों का आकलन करने के बाद उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मामला कोर्ट में है।
रागा विधानसभा क्षेत्र से 2004 और 2009 के विधानसभा चुनाव में नीदो पवित्र हजार वोटों से अधिक के अंतर से चुनाव जीते थे। उन्हें कई विभागों का संसदीय सचिव बनाया गया था और अपने कर्तव्य का बेहतर निर्वहन किया। वरिष्ठ कांग्रेस नेता नीदो पवित्र ने कहा कि 2014 विधानसभा चुनाव में भाजपा के नेता तमार मुरतेम ने धांधली की है। ईवीएम मशीन के वोटों की गिनती में मैं आगे चल रहा था। पोस्टल बैलेट की गिनती में भाजपा नेता ने गड़बड़ी की है और महज 21 वोटों से विजयी घोषित करवाया है। हमारे पास तमाम साक्ष्य हैं, जिससे इस गड़बड़ी का खुलासा हो रहा है। मैंने गुवाहटी हाईकोर्ट से गुहार लगाई है। सुनवाई शुरू हो चुकी है। मुझे सौ फीसदी भरोसा है कि मैं पहले दो बार रागा का विधायक रहा हूं और इस बार भी क्षेत्र की जनता ने मुझे ही अपना प्रतिनिधि बनाया है। 
उल्लेखनीय है कि रागा विधानसभा अरुणाचल प्रदेश के लोअर सुअनसरी जिला में आता है। 2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा नेता तमार मुरतेम को 6401 और कांग्रेस नेता नीदो पवित्र को 6380 वोट मिलने की घोषणा हुई। इस चुनाव में इस सीट पर 139 लोगों ने ‘नोटा’ का बटन दबाया था। इससे पहले 2009 के विधानसभा चुनाव में नीदो पवित्र 5460 वोटों के साथ और 2004 के विधानसभा चुनाव में 4258 वोटों के साथ विजयी हुए थे। बता दें कि 2004 के चुनाव में नीदो ने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी अपना चुनाव जीता था और फिर कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए थे। उससे पहले 1999, 1995 और 1990 के विधानसभा चुनाव में भी रागा विधानसभा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी तालो मुगली विजयी हुए थे।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, 2014 विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद नीदो पवित्र ने चुनाव से जुड़े तमाम साक्ष्य जुटाएं। स्थानीय प्रशासन से भी बात की। जब उनकी बातों पर समुचित गौर नहीं फरमाया गया तो आखिरकार हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट में दायर याचिका में नीदो पवित्र ने भाजपा नेता तमार मुरतेम और पीठासीन पदाधिकारी तालुक रिगिया के खिलाफ याचिका दाखिल किया है। याचिका में कहा गया है कि नीदो पवित्र को ईवीएम में 6275 वोट और 105 पोस्टल वोट मिलाकर कुल 6380 हुआ, जबकि भाजपा नेता तमार मुरतेम को ईवीएम में 6241 वोट और 160 पोस्टल वोट मिलाकर कुल 6401 वोट हुआ। याचिका में यह भी आरोप लगाया गया है कि मतदान के दिन यानी 9 अप्रैल 2014 को पोलिंग बूथ संख्या 25/15 जिग्गी एलपी स्कूल पर भाजपा नेता अपनी पत्नी श्रीमती यपी मुरतेम और कुछ कार्यकर्ताओं के साथ आर्इं और गड़बड़ियां की। ऐसे एक नहीं, कई मौका-ए-वारदात का जिक्र करते हुए नीदो पवित्र ने याचिका दाखिल किया है। उन्हें पूरा भरोसा है कि न्यायपालिका से उन्हें पूरा न्याय मिलेगा और एक जनप्रतिनिधि के रूप में वे फिर से अपने क्षेत्र सहित अरुणाचल प्रदेश के विकास में अपना योगदान देंगे। 


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तानिया के पिता हैं नीदो पवित्र
अरुणाचल प्रदेश के लोगों के लिए नीदो पवित्र एक जाना-पहचाना नाम है। दो बार कांग्रेस के विधायक और महत्वपूर्ण मंत्रालय के संसदीय सचिव के रूप में उन्होंने बेहतर काम किया है। इसे विडंबना ही कहा जाए कि पूर्वाेत्तर से बाहर निकलते हुए उनकी पहचान उनके बेटे नीदो तानियाम से अधिक है।
नीदो तानिया, एक युवक, केवल उन्नीस साल का, दुबला-पतला लड़का था। एक निजी प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में फर्स्ट इयर का छात्र। जिसे 29 जनवरी को अचानक, दिल्ली के व्यावसायिक बाजार लाजपतनगर में, आठ दुकानदारों द्वारा पीट-पीट कर खत्म कर दिया गया। उसने अपने बाल आजकल के युवाओं की तरह ‘कलर’ (रंगीन) कर रखे थे। वह दिल्ली की एक पनीर की दुकान में, पनीर या क्रीम-मक्खन खरीदने नहीं, बल्कि अपने किसी दोस्त का पता पूछने गया था। उसने अपने ऊपर की गई टिप्पणी पर नाराज हो कर उस दुकान का शीशा तोड़ दिया। इसके लिए उसने दस हजार रुपये का जुर्माना भर दिया और अपने हत्यारों के साथ ‘समझौता’ कर लिया। 
उसकी हत्या करने वालों में दो हत्यारे नाबालिग थे, ठीक उसी तरह, जैसे ‘निर्भया’ बस बलात्कार कांड का सबसे जघन्य बलात्कारी भी नाबालिग था। जाहिर है जब तक मौजूदा कानूनों में संशोधन नहीं किए जाते, तब तक उसे हत्या की सजा नहीं दी जा सकेगी। कानून को अब यह समझना होगा कि बदले हुए सामाजिक यथार्थ में बच्चे अब नाबालिग नहीं, ‘वयस्क’ हो चुके हैं। वे बलात्कार, चोरी, डकैती, लूट और हत्याएं करने लगे हैं। 
आज भी बरकरार है सवाल
निदो तानिया उस अरुणाचल प्रदेश का था, जो उत्तर-पूर्व में है, जहां रहनेवालों के चेहरे-मोहरे दिल्ली और उत्तर-भारतीयों से अलग होते हैं। वही अरुणाचल प्रदेश, जिसे चीन कई वर्षों से अपने नक्शे के भीतर दिखाता है, लेकिन इसके बावजूद वह अभी तक भारत का हिस्सा इसलिए बना हुआ है, क्योंकि वहां की जनता अब भी स्वयं को भारतीय गणतंत्र का हिस्सा मानती है।
नीदो की हत्या ने उस समय जो सवाल खड़े किए, वह आज भी कायम है। जबाव नहीं मिला। कुछ ही समय पहले अमेरिका के मशहूर अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने एक  सर्वेक्षण में दुनिया के उन दस सबसे मुख्य देशों में भारत को शिखर पर रखा है, जहां नस्ल, जेंडर (लिंग), सामुदायिक और जातीय असहिष्णुता सबसे अधिक है। इस पर सोचने की जरूरत है। निदो तानियाम की हत्या के कुछ ही दिन पहले, दक्षिण दिल्ली के उसी इलाके में, बाहर घूमने निकलीं मणिपुर की  दो लड़कियों के जूते में, दो युवकों ने अपने पालतू कुत्ते का पट्टा बांध दिया था और जब डर कर वे लड़कियां चिल्लाने लगीं, तो वे हंसने लगे और जब उनमें से एक लड़की ने कुत्ते को दूर रखने के लिए उसे पैर से ठोकर मारी तो उन्होंने उस लड़की को बाल पकड़ कर घसीटा और उसे ‘चिंकी’ कहते हुए गालियां दीं। उन लड़कियों की मदद में आए उत्तर-पूर्व के दो युवकों को उन्होंने मारा-पीटा। शिकायत करने पर भी पुलिस ने एफआइआर दर्ज नहीं की।

कहां से आए चाणक्य?


 बिहार की आबादी प्रतिशत में काफी कम ब्राह्मण देश की अस्सी प्रतिशत जगहों पर कैसे बैठे हैं? विधानसभा में इनकी संख्या आबादी प्रतिशत से अधिक कैसे है ? इसे कैसे उखाड़ फेंका जाए? इसके कौन-कौन कारक हैं ? बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया, उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था।


सुभाष चंद्र 

बेशक पुराण-शास्त्रों और समाज में ब्राह्मण को विशिष्ट मान्यता दी गई है। हिंदुस्तान की राजनीति में भी इनका काफी वर्चस्व रहा, लेकिन नब्बे के दशक आते-आते इनकी शक्ति क्षीण होती गई और ये हाशिए पर धकेल दिए गए। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रदेशों में कभी सत्ता की धुरी ब्राह्मण ही रहे, लेकिन दोनों प्रदेशों में आज ये दलित और अन्य जातियों से काफी पीछे हैं। भले ही आज भी ब्राह्मण नेता हों, लेकिन पहले वाली आदर-सत्कार उन्हें नसीब नहीं है। आखिर क्यों? नब्बे के दशक में जैसे ही बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद का चेहरा उभरता है, जातीय राजनीति में सत्ता की सियासत से ब्राह्मणों को पूरी तरह से बाहर कर दिया जाता है। बरबस ही आज सवाल उठ रहा है कि क्या चाणक्य की कर्मभूमि में ब्राह्मणों की राजनीति का अवसान काल है ? 
असल में, उत्तर प्रदेश के साथ ही बिहार में मंडल के दौर से, बिहार के संदर्भ में कहें कि कर्पूरी ठाकुर के समय से ही तिलक तराजू ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का विरोध पहले चरम पर पहुंचा और अब यह सत्ता का कारक है। बिहार की आबादी में केवल 7 प्रतिशत की भागीदारी है ब्राह्मणों की। इसमें मतदाताओं की संख्या और भी कम हो जाएगी, क्योंकि लगभग हरेक परिवार के सदस्य प्रवासी जीवन जी रहे हैं। हालांकि, डॉ. जगन्नाथ मिश्र जैसे नेता आज हौसला नहीं छोड़े हैं। उनका कहना है कि राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। तमिलनाडु को देखिए, वहां दलित राजनीति होती है, लेकिन दलितों की नेता तो जयललिता ही हैं न! फिर बिहार में ऐसी स्थिति क्यों नहीं हो सकती है? जयललिता ब्राह्मण हैं, लेकिन दलितों की नेता हैं। बकौल राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नेता जयनारायण त्रिवेदी, ‘देखिए ब्राह्मणों ने हमेशा से चाणक्य की भूमिका निभाई है और भविष्य में भी वे इस भूमिका में सक्रिय रहेंगे। चाणक्य के बगैर सत्ता चल ही नहीं सकती।’
यहां हम यह बता दें कि लोकसभा चुनाव में जैसे ही बिहार में जदयू की दुर्गति हुई, उसके बाद आनन-फानन में नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी छोड़ी और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। मांझी के मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण को शामिल नहीं किया गया था। बिहार की राजनीति में यह आजादी के बाद का पहला मंत्रिमंडल था, जिसमें एक भी ब्राह्मण नहीं रहा। इसके बाद भला कोई भी ब्राह्मण नेता क्या कहेगा? यहां सवाल यह भी है कि नीतीश कुमार जिस कुर्मी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं वो 3 प्रतिशत है, तो 7 प्रतिशत वाले ब्राह्मण का यह हाल क्यों ? आपको बता दें कि बिहार की राजनीति में 2011 की जनगणना के अनुसार, यादव 13 प्रतिशत, कुर्मी 3 प्रतिशत, कोइरी 4 प्रतिशत, कुशवाहा 2 प्रतिशत और तेली 3 प्रतिशत सहित अतिरिक्त पिछड़ा वर्ग 17 प्रतिशत, महादलित 10 प्रतिशत, पासवान और दुसाध 6 प्रतिशत, मुस्लिम 16.5 प्रतिशत, आदिवासी 1.3 प्रतिशत, भूमिहार 6 प्रतिशत, राजपूत 9 प्रतिशत और कायस्थ 3 प्रतिशत हंै।  कभी बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की तूती बोलती थी । 90 के दशक में ब्राह्मणों के उपेक्षित होने में मंडल,कमंडल की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण रही है। राममनोहर लोहिया के तीनों शिष्य लालू यादव,नीतीश कुमार ओर रामविलास पासवान ने बिहार को जिस वर्ग में बांट दिया उसमें बाह्मण समुदाय कहीं नहीं था।अभी तक का हालात ऐसा है कि सभी पार्टी ब्राह्मण को साथ लाने में डर रहे हैं कि इससे कहीं बाकी जाति उनसे दूर न हो जाएं ।
अतीत की ओर चलें, तो हमें पता चलता है कि कांगे्रस में 30 के दशक में कायस्थों का वर्चस्व था। उसके बाद राजपूत और भूमिहार का दौर आया। कांगे्रस में जब बिखराव आया और इंदिरा कांग्रेस बनी, तो ब्राह्मणों का कद बढ़ा। इंदिरा गांधी ने ब्राह्मणों के साथ पिछड़े, दलितों व मुसलमानों को मिलाकर सत्ता की सियासत के लिए एक नया समीकरण बनाया जो हिट हुआ। इसे लेकर सवर्णों की ही दूसरी जातियों में ब्राह्मणों से ईर्ष्या बढ़ी। बिहार के संदर्भ में बात करें, तो जयप्रकाश नारायण आंदोलन के समय ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया गया था।  एक नारा चला था- लाला, ग्वाला और अकबर के साला वाली जाति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि जातीय राजनीति और ब्राह्मणों के अवसान से यदि किसी को सर्वाधिक नुकसान हुआ है, तो वह कांग्रेस पार्टी है। बिहार के साथ उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस का सच इसी के करीब है। बिहार प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं प्रेमचंद्र मिश्र। वे कहते हैं कि जिस दिन ब्राह्मण फिर से कांग्रेस के साथ आ जाएंगे, उसी दिन से उनका भाग्य बदल जाएगा। 
ब्राह्मण हमेशा से अपनी सामाजिक कूटनीतिक राजनीतिक संरचना और उसकी उपयोगिता के कारण दूसरों का ध्यान खींचता आ रहा है। यही कारण है कि कल तक ब्राह्मणों के खिलाफ सर्व समाज में जहर उगलने वाले आज अपनी रणनीतियां पलटकर इनका समर्थन पाने के लिए, इनके आगे-पीछे भाग रहे हैं। बिहार में कुछ जो चर्चित ब्राह्मण नेता हुए, उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके प्रजापति मिश्र, ललित नारायण मिश्र, विनोदानंद झा, जगन्नाथ मिश्र, विंदेश्वरी दुबे, केदार पांडेय, भागवत झा ‘आजाद’ आदि का नाम लिया जाता है। ये सभी कांग्रेसी रहे। समाजवादी नेताओं में रामानंद तिवारी एक बड़े नाम हुए, लेकिन उनकी पहचान ब्राह्मण नेता की नहीं रही, बाद में उनके बेटे शिवानंद तिवारी राजनीति में आए। भागवत झा ‘आजाद’ की राजनीतिक फसल उनके बेटे कीर्ति झा ‘आजाद’ के सांसद बनने की है। यह अलग बात है कि वे अपने पिता के विपरीत भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं। भले ही 3 बार सांसद बने, लेकिन मंत्री पद अब तक नसीब नहीं हुआ है। डॉ. जगन्नाथ मिश्र खुद कई बार मुख्यमंत्री रहे, बाद में अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत नीतीश कुमार के सहारे चमकाते रहे। अब जगन्नाथ मिश्र और उनके बेटे जीतन राम मांझी खेमे में हैं। जदयू खेमे में एक संजय झा का नाम बीच-बीच में आता रहा, लेकिन कोई भी बड़ा सम्मान उन्हें अब तक नहीं मिला है। ललित नारायण मिश्र के परिवार से उनके बेटे विजय मिश्र जदयू से विधान परिषद के सदस्य हैं। विजय मिश्र के भी बेटे ऋषि मिश्र जदयू के कोटे से ही विधायक हैं, लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी में उनकी हैसियत भी बस एक विधान पार्षद या विधायक भर की है।
बहरहाल, प्रेमचंद्र मिश्रा का जो दुख है, उससे कई राजनीतिक विश्लेषक भी इत्तेफाक रखते हैं। चाणक्य को एक प्रतीक मानकर बार-बार ब्राह्मणों को श्रेष्ठ रणनीतिकार बताया जाता रहा है। बिहार में कई ब्राह्मण नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री और मंत्री रहकर लंबे समय तक राज किया है, आज वहां ओबीसी राजनीति के उभार के बाद अतिपिछड़ों व दलित-महादलितों की राजनीति के उभार के दौर में ऐसा क्या हो गया कि सवर्ण समूह की तो हैसियत बढ़ी, लेकिन ब्राह्मण अनुपयोगी होते गए। विश्लेषकों का कहना है कि बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों को एक सिरे से बाहर कर देने का मसला महत्वपूर्ण नहीं है। नीतीश कुमार पहले तो सवर्णों के लिए सवर्ण आयोग बनाकर अपनी राजनीति साधने में लगे हुए थे, लेकिन जीतन राम मांझी भी सवर्णों के लिए अलग से आरक्षण का पासा फेंक चुके हैं। चूंकि, कमान फिर से नीतीश के हाथ में है, अब भाजपा भी साथ नहीं है, लिहाजा अगड़ी जातियों को एक सवर्ण समूह में बदलने के बाद ब्राह्मणों का नुकसान सबसे ज्यादा हुआ है। 
आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ताल ठोंक रही है। गिने-चुने ब्राह्मण नेता इसके साथ हैं। भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ब्राह्मण समुदाय से जरूर हैं, लेकिन पार्टी में दबदबा नहीं बना पाए हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता अश्विनी चौबे, फिलहाल ब्राह्मण बहुल संसदीय क्षेत्र बक्सर से सांसद हैं।  सच यह भी है कि बिहार से वर्तमान समय में दो सांसद ब्राह्मण हैं और दोनों भाजपा के ही हैं।
 देश भर के अगड़ों की तरह बिहार में भी अगड़े वर्ग द्वारा मतदान का औसत और जातियों के मुकाबले कम रहता है। इसकी वजह दूसरी जातियों के अपेक्षाकृत अगड़ों की अधिक संपन्नता है। समृद्ध लोग गरीबों के मुकाबले कम मतदान करते हैं। साथ ही दूसरी जातियों के मुकाबले वो अधिक संख्या में प्रवासी होते हैं और बाहर रहने की वजह से मतदान नहीं कर पाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि हर अगड़ा भाजपा के नाम पर वोट देता है। पिछड़ों की राजनीति करने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल के जो चार सांसद 2009 में चुने गए थे, उनमें लालू को छोड़ तीनों अगड़ी जाति के थे। 
असल में, 1980 में जन्म के बाद से ही भाजपा की पहचान अगड़ी जातियों की रही। अपने दम पर वह पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों का वोट नहीं खींच पाई। 2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में और 2009 के आम चुनाव में बिहार में जदयू-भाजपा को मिली भारी जीत का सबसे बड़ा कारण ये था कि उसका गठबंधन एक सफल जातीय समीकरण पर अमल कर पाया था। बतौर मुख्यमंत्री नीतीश ने यादवों के अलावा पिछड़ी जातियों को अतिपिछड़ा का, पासवानों के अलावा दलितों को महादलित का, और सम्पन्न मुसलमानों के अलावा बाकी मुसलमानों को पसमंदा का दर्ज़ा देकर सरकारी सहायता देनी शुरू कर दी थी। इसके चलते 2010 में इस गठबंधन को अगड़ों के अलावा कई पिछड़ों और दलितों और कुछ मुसलमानों का भी वोट मिला। लेकिन जैसे ही जून 2013 में जब भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, तो यह गठबंधन टूट गया। मोदी की मुसलमान-विरोधी छवि का हवाला देते हुए नीतीश ने भाजपा से सत्रह साल पुराना नाता तोड़ लिया। जिस प्रकार से लोकसभा चुनाव में भाजपा का सफलता मिली, उससे पार्टी कार्यकर्ता उत्साहित हैं।

शुक्रवार, 26 जून 2015

हे, देवी बन जाओ महादेवी !

मैं सोचता हूं कि क्या उसे महादेवी हो जाना चाहिए ? कई बार उसकी डबडबाती आंखों ने ये सवाल किया है मुझसे ? आखिर वो कहना चाहती है कुछ। साझा करना चाहती है अपनी पीड़ा। फिर बार-बार चाहकर भी क्यों रह जाती है चुप्प। घंटों साथ बैठना। बतियाना। दुनियादारी की बातें। समाज की बातें। दूसरों की बातें। लेकिन अपना आते ही खामोशी... कब हो तोड़ेगी खामोशी ? मैं तो उससे यही करूंगा निवेदन - हे देवी, बन जाओ महादेवी।
तुमको देखकर, तुमसे मिलकर आज मुझे याद आ रही है महादेवी वर्मा की कविता - ‘अश्रु यह पानी नहीं है’। हो सकता है तुमने भी पढ़ा हो। एक बार गौर से पढ़ो। गुनो, रमो और सहेजो। 

अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
स्वाति को खोजा नहीं है औश् न सीपी को पुकारा,
मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !
शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

नमन सागर को नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले ।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

शंख कब फूँका शलभ ने फूल झर जाते अबोले,
मौन जलता दीप , धरती ने कभी क्या दान तोले?
खो रहे उच्छ्वास भी कब मर्म गाथा खोलते हैं,
साँस के दो तार ये झंकार के बिन बोलते हैं,
पढ़ सभी पाए जिसे वह वर्ण-अक्षरहीन भाषा
प्राणदानी के लिए वाणी यहाँ बंधन नहीं है ।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

किरण सुख की उतरती घिरतीं नहीं दुख की घटाएँ,
तिमिर लहराता न बिखरी इंद्रधनुषों की छटाएँ
समय ठहरा है शिला-सा क्षण कहाँ उसमें समाते,
निष्पलक लोचन जहाँ सपने कभी आते न जाते,
वह तुम्हारा स्वर्ग अब मेरे लिए परदेश ही है ।
क्या वहाँ मेरा पहुँचना आज निर्वासन नहीं है ?
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !

आँसुओं के मौन में बोलो तभी मानूँ तुम्हें मैं,
खिल उठे मुस्कान में परिचय, तभी जानूँ तुम्हें मैं,
साँस में आहट मिले तब आज पहचानूँ तुम्हें मैं,
वेदना यह झेल लो तब आज सम्मानूँ तुम्हें मैं !
आज मंदिर के मुखर घडि़यालघंटों में न बोलो
अब चुनौती है पुजारी में नमन वंदन नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है !
हे देवी तुम्हें पता है, वर्तमान में तुम्हारे जैसे निष्कपट लोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। न परिवार में, न समाज में। हर ओर छल-छद्म का राज दिख रहा है। यूं तो हर सिद्धांत का अपवाद होता है, लेकिन कितने लोग उसे याद रखते हैं ? विशेष अवसरों पर ही अपवाद पर वाद-विवाद होता है। जिसके साथ वर्षों बिताएं, आज वो अपना एक पल देने को तैयार नहीं। जिनके साथ दिन साझा किया, वो चंद बोल नहीं दे सकते। जिनके साथ दुख सुख की बातें की, वो आगे नहीं आते। जिनके साथ लड़कपन थी, वो अब गलियों में नजर नहीं आते। आखिर क्यों ? क्योंकि तुम औरों जैसी नहीं हो।
तुम्हें पता है, गांव के निरक्षर, निसहाय निर्धन, विपन्न लोग हैं, जो अपने अस्तित्व के कठिन संघर्ष को झेलते हुए ही अपनी जिंदगी काट रहे हैं। लेकिनऐसे अति सामान्य लोगों के व्यक्तित्व का भी कोई सकारात्मक, कोई उज्जवल पक्ष होता जरूर है। जीवन की भयंकर यातनाएँ सहकर भी हमेशा प्रसन्न रहने वाली लछमा का अद्भुत जीवन-दर्शन, जो तीन-चार दिन तक भूखे रहने पर मिट्टी के गोले बनाकर खा लेती है और उन्हें ही लड्डू समझकर तृप्त भी हो लेती है और हँसकर कहती है, ‘‘यह सब तो सोच की बात है, जो सोच लो, वही सच।’’ अपने इसी सोच से चकित कर देती हैं वह महादेवी वर्मा को। मार्मिक कथा में लिपटी चीनी फेरीवाले की देशभक्ति को सेविका मलिन की प्रगल्भयुक्त स्वामीभक्ति। बस, ऐसे ही हँसते-रोते अनेक पात्र हैं। इन संस्मरणों के जो जीवन में चाहे जितने आम हों महादेवी जी की कलम के कौशल ने साहित्य में तो इन्हें विशेष बना ही दिया। इन संस्मरणों के संदर्भ में जहाँ तक महादेवी जी के सामाजिक सरोकार का प्रश्न है तो इतना तो स्पष्ट है कि इनमें इन्होंने कहीं भी समाज की विकृतियों पर प्रहार करना तो दूर, एक-दो अपवादों को छोड़कर उनका उल्लेख तक नहीं किया। पर समाज का जो वर्ग उनकी रचनाओं के केंद्र में रहा है, समाज के जिन बेबस, असहाय लोगों पर उन्होंने अपनी सहानुभूति उड़ेली है, क्या वही उनके गहरे सामाजिक सरोकार का प्रमाण नहीं?
मैं समझता रहा कि ईष्वर की सर्वोत्तम कृति है नारी। वेद ने भी उसकी महिमा का बखान किया है। लेकिन तुमसे मिलने के बाद जैसे-जैसे तुम्हारा निष्कपट भाव सामने आता गया, तुम्हारे ही क्षेत्र और पूर्व संपर्क के लोगों में मैंने ईष्र्या देखी। खूब। बहुत अधिक। ऐसा क्यों ? मैंने तो सुना था कि महिलाओं में रचनात्मकता का गुण जन्मजात होता है। घर-परिवार की बालिकाएं देख-सुनकर ही माता से कई गृह उपयोगी बातें सीख जाती हैं।नारी परिवार और समाज का आधार है। इसलिए इसका सम्मान आवश्यक है। संसार के सृजन से लेकर पालन पोषण तथा सजाने, संवारने तक की सारी अवस्थाओं में नारी सहनशीलता का परिचय देकर ही अपनी भूमिका को निभा सकती है इसलिए सहनशीलता नारी का दिव्य गुण है।
तुम्हार अतीत समझकर और वर्तमान देखकर तो यही कहूंगा -  हे देवी, बन जाओ महादेवी।




शुक्रवार, 19 जून 2015

क्यों असहज करते हैं आडवाणी ?

लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल की आशंका खत्म न होने की बात कहकर नई बहस छेड़ दी है। अब विपक्ष इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहा है। यह पहला मौका नहीं है, जब आडवाणी ने अपने बयान से पार्टी को असहज स्थिति में डाला हो, इससे पहले भी कई मौकों पर आडवाणी ने पार्टी को मुश्किल में डाला। खास तौर पर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद। 



भारतीय जनता पार्टी के लौह पुरूष कहे जाने वाले वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी बार-बार अपनी ही पार्टी को असहज कर रहे हैं। ऐसा एक बार नहीं, बीते एक साल में प्रमुख रूप से वे कई बार पार्टी को बैकफुट पर ला चुके हैं। पार्टी के रणनीतिकारों के लिए न तो इसे स्वीकरते हुए बनता है और न ही वे इसे सार्वजनिक रूप से खारिज कर सकते हैं। 
एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था अब भी आपातकाल के हालात से निपटने के लिए तैयार नहीं है। भविष्य में भी नागरिक अधिकारों के निलंबन की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है। वर्तमान समय में ताकतें संवैधानिक और कानूनी कवच होने के बावजूद लोकतंत्र को कुचल सकती हैं। आडवाणी ने कहा कि 1975-77 में आपातकाल के बाद के वर्षों में मैं नहीं सोचता कि ऐसा कुछ भी किया गया है, जिससे मैं आश्वस्त रहूं कि नागरिक अधिकार फिर से निलंबित या नष्ट नहीं किए जाएंगे। यह पूछे जाने पर कि ऐसा क्या नहीं दिख रहा है, जिससे हम समझें कि भारत में फिर आपातकाल थोपने की स्थिति आ सकती है? उन्होंने कहा कि अपनी राज्य व्यवस्था में मैं ऐसा कोई संकेत नहीं देख रहा, जिससे आश्वस्त रहूं। नेतृत्व से भी वैसा कोई उत्कृष्ट संकेत नहीं मिल रहा। इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने इसे बढ़ावा दिया था। उन्होंने कहा कि ऐसा संवैधानिक कवच होने के बावजूद देश में हुआ था।  2015 के भारत में पर्याप्त सुरक्षा कवच नहीं हैं।
आम आदमी पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर कहा कि आडवाणी जी की आशंका सही है। भविष्य में इमरजेंसी की आशंका नकार नहीं सकते। क्या दिल्ली इसका पहला प्रयोग है? वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि भाजपा की हालत खराब है, अब ये चला नहीं पा रहे हैं। जनता सब देख रही है कि कैसे अपने चहेतों की मदद कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल कहते हैं कि अगर आडवाणी जी ने चिंता व्यक्त की है, तो चिंता की बात है। भाजपा को भी चिंता करनी चाहिए कि पार्टी में क्या हो रहा है?
हालांकि, लालकृष्ण आडवाणी के आपातकाल की आशंका को संघ ने नकारा है। संघ ने कहा है कि इस समय भारत में आपातकाल जैसी स्थिति नहीं है। राष्ट्रीय स्वंय संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ मनमोहन वैद्य ने ट्वीट कर देश में इमरजेंसी जैसी हालात को नकारते हुए लिखा है कि वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए आपातकाल लागू करने जैसी स्थिति भारत में है, ऐसा नही लगता है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 25-26 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल लगाया गया था। यह आपातकाल 19 महीनों तक जारी रहा था।
असल में, आडवानी जी हर साल 25 जून के आसपास आपातकाल के बारे में कुछ लिखते हैं। आपातकाल उनका भोगा हुआ यथार्थ है, इसलिए उनकी बातें आमतौर पर विश्वसनीय होती हैं। उनके राजनीतिक जीवन में आपातकाल ऐसा मंच है जिसके बाद उनको राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली, आपातकाल के दौरान वे अपनी पार्टी, भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने और उसके खिलाफ जब जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में संघर्ष हुआ तो उसमें एक घटक के नेता के रूप में शामिल हुए। 1977 में जनता पार्टी बनी और वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने। इस तरह से आपातकाल के पहले लालकृष्ण आडवानी अपनी पार्टी के अध्यक्ष तो बन चुके थे, लेकिन तब तक पार्टी की पहचान शहरी वर्ग की पार्टी के रूप में ही होती थी। लालकृष्ण आडवानी की अपनी पहचान भी उन दिनों दिल्ली के नेता की ही थी। ऐसा इसलिए था कि राजस्थान में पार्टी का काम करते हुए जब उनका तबादला दिल्ली हुआ तो उनका परिचय सुन्दर सिंह भंडारी के निजी सचिव, केआर मलकानी के सहायक, दिल्ली नगर की मेट्रोपोलिटन काउन्सिल के सदस्य, भारतीय जनसंघ की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष और दिल्ली के कोटे से 1970 में चुने गए राज्यसभा के सदस्य के रूप में ही दिया जाता था। 1973 में वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उसके बाद उनका राजनीतिक जन्म राष्ट्रीय मंच पर हुआ। उन दिनों जनसंघ पार्टी में भारी बिखराव था। पार्टी के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष रह चुके बलराज मधोक और पार्टी के अन्य बड़े नेताओं के बीच भारी मतभेद था। बलराज मधोक को लालकृष्ण आडवानी ने ही पार्टी से निकाला था। मधोक के जाने के बाद जनसंघ के तीन बड़े नेता नानाजी देशमुख, अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी माने जाते थे। इमरजेंसी में बहुत सारे नेताओं ने माफी आदि मांगी, लम्बे-लम्बे समय के लिए पैरोल की याचना करते रहे, लेकिन आडवानी जेल में ही रहे और कुछ लिखते-पढ़ते रहे। आपातकाल के बाद जेल से बाहर आने के बाद वे सूचना प्रसारण मंत्री बने और अपनी पार्टी की राजनीति में हमेशा ही महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में बने रहे, आज भी पार्टी के शीर्ष संगठन, मार्गदर्शक मंडल के सदस्य हैं।
जाहिर सी बात है कि लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल को लेकर जिस प्रकार की टिप्पणी की है, उसका विपक्षी दल माइलेज लेना चाहते हैं। विपक्ष इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहा है। हालांकि, यह पहला मौका नहीं है, जब आडवाणी ने अपने बयान से पार्टी को असहज स्थिति में डाला हो, इससे पहले भी कई मौकों पर आडवाणी ने पार्टी को मुश्किल में डाला। खास तौर पर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद। 
इससे पूर्व लालकृष्ण आडवाणी ने मध्य प्रदेश के ग्वालियर में सभी भाजपा मुख्यमंत्रियों की तुलना करते हुए शिवराज सिंह चैहान को नरेंद्र मोदी से बेहतर बता दिया। आडवाणी ने कहा था कि गुजरात तो पहले ही स्वस्थ था, उसको आपने (नरेंद्र मोदी ने) उत्कृष्ट बना दिया है। उसके लिए आपका अभिनंदन। लेकिन छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश तो बीमारू प्रदेश थे, उनको स्वस्थ बनाना...ये उपलब्धि है। आडवाणी के इस बयान को उस वक्त के पीएम पद के उम्मीदवार मोदी को डिसमिस करने के बराबर माना गया।
लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव प्रचार समिति की कमान पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को सौंपने की वकालत की थी। हालांकि नितिन गडकरी ने यह पद संभालने से इंकार कर दिया था। गडकरी ने कहा था कि पार्टी ने पहले ही इसके लिए मोदी का नाम तय कर दिया है। राजनीतिक हलकों में इस पूरे मामले को लालकृष्ण आडवाणी और मोदी के बीच बढ़ती दूरियों के तौर पर देखा गया। इस मामले पर भी भारतीय जनता पार्टी को सफाई देनी पड़ी थी।
याद कीजिए, अगस्त 2013 का समय। लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान 15 अगस्त 2013 को नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर जमकर हमला बोला था। तब मोदी के बयान की परोक्ष तौर पर आडवाणी ने आलोचना की थी। आडवाणी ने कहा था कि स्वतंत्रता दिवस जैसे मौके पर नेताओं को एक-दूसरे की आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसके बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बगैर किसी का नाम लिए कहा था कि मैं प्रधानमंत्री और उनके पूरे मंत्रिमंडल को इस अवसर पर शुभकामनाएं देता हूं। मैं चाहता हूं कि ये भावना विकसित हो। एक-दूसरे की आलोचना किए बगैर लोगों को इस दिन यह याद रखना चाहिए कि भारत में असीम संभावनाएं हैं। 15 अगस्त के मौके पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के लालकिले से दिए भाषण की तीखी आलोचना की थी। इसे लेकर भाजपा असहज स्थिति में आ गई और सफाई का दौर चल पड़ा।
डसके बाद मई 2014 का वक्त। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जबरदस्त जीत हासिल करते हुए अपने दम पर बहुमत हासिल किया। हर किसी ने इसका श्रेय मोदी को दिया। लेकिन आडवाणी ने कहा कि जीत का श्रेय सिर्फ नरेंद्र मोदी को ही नहीं, कांग्रेस को भी जाता है। जिसके शासन में जनता के बीच असंतोष फैला और जनता ने उसे सबक सिखाया। आडवाणी का ये बयान मोदी से श्रेय छीनने की कोशिश माना गया। 27 फरवरी 2014 को हुई पार्टी की बैठक में आडवाणी ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की बात से सहमति जताई। आडवाणी ने मोदी के चुनाव अभियान की आलोचना करते हुए कहा कि इससे भाजपा ‘वन मैन पार्टी’ बन गई है। आडवाणी ने भाजपा नेताओं को अपनी शिकायत दर्ज कराते हुए कहा कि वह कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के भाजपा को एक आदमी द्वारा संचालित पार्टी कहने के बयान से सहमत हैं। बैठक में नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह मौजूद थे। राहुल गांधी ने हरियाणा में 24 फरवरी,2014 को मोदी पर निशाना साधते हुए बयान दिया था कि भाजपा वन मैन पार्टी बन गई है।
अब सवाल उठता है कि आखिर लालकृष्ण आडवाणी ऐसा क्यों करते हैं ? सार्वजनिक रूप से भाजपा का कोई भी नेता-रणनीतिकार या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कोई भी पदाधिकारी इसका जवाब नहीं देता है। हां, आपसी बातचीत में पार्टी के कई नेता इतना कह देते हैं कि लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के लिए अपनी पूरी जीवन लगा दी। फिर भी वह प्रधानमंत्री पद तक नहीं पहुंच सके। उनकी प्रबल राजनीतिक इच्छा यही थी कि वे भारत के प्रधानमंत्री बने। गाहे-बगाहे दिल की कसक जुबां तक आ ही जाती है।



शनिवार, 13 जून 2015

... तो सफल रही मोदी की कूटनीति

नरेंद्र मोदी दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि मुद्दा चाहे कितना भी पेंचिदा हो, यदि नेक इरादे से समाधान ढूंढा जाए, तो रास्ता निकल सकता है और आपसी बातचीत एवं सहमति से जटिल से जटिल मुद्दों पर आगे बढ़ा जा सकता है।


जब हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति के निर्धारण की बात करते हैं तो हमें पंडित जवाहर लाल नेहरू की संसद में कही इस बात पर गौर कर लेना चाहिए। उनका कहना था- श्अंततरू विदेश नीति आर्थिक नीति का परिणाम होती है। हमने अब तक कोई रचनात्मक आर्थिक योजना अथवा आर्थिक नीति नहीं बनाई है....जब हम ऐसा कर लेंगे....तब ही हम इस सदन में होने वाले सभी भाषणों से ज्यादा अपनी विदेश नीति को निर्धारित कर पाएंगे।श् इससे एक महत्वपूर्ण बिंदु का संकेत मिलता है कि भारत की विदेश नीति, हमारे देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। इसकी विशेषता एक निरंतरता है और इसमें किसी भी समय पर आमूलचूल परिवर्तन (रैडिकल चेंजेस) देखने को नहीं मिलते हैं। अमूमन लोग अपने से छोटों से प्रगाढ़ संबंध बनाना जरूरी नहीं समझते हैं। पड़ोसी हो, तब भी नहीं। हर कोई अपने समकक्ष या अपने से बड़े और ताकतवर से दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता है। लेकिन भारतीय सत्ता की राजनीति में जब से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का पर्दापण हुआ है, आमतौर पर सोची-समझी जाने वाली बातों को बड़े फलक पर देखा गया है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह से लेकर बीते एक साल में नरेंद्र मोदी ने अपने पड़ोस के तमाम छोटे देशों का दौरा किया। संबंधों में नई ऊष्मा लाने के लिए खुद आगे आए। भूटान हो, तिब्बत हो, म्यांमार हो या बांग्लादेश। हमारा हर पड़ोसी देश हमारे लिए किसी भी सुदूर बड़े देश से अधिक महत्वपूर्ण है। गौर करें, भूटान से शुरू करते हुए नरेंद्र मोदी अब तक पाकिस्तान छोड़कर अपने सभी निकट पड़ोसी देशों में जा चुके हैं और सभी जगहों पर रिश्तों की नई संभावना उन्होंने जगाई है। हालांकि उन्हें कहीं कोई निश्चित सफलता मिली नहीं है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनय के अपने पहले वर्ष में उनका रिपोर्ट कार्ड बुरा भी नहीं है।
छले दो दशक के दौरान भारत की बढ़ती आर्थिक और सैन्य ताकत के चलते देश की सरकारों ने विदेश नीति को नया आकार देने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। पर इसके साथ यह भी देखा गया है कि पूर्ववर्ती यूपीए शासन के दौरान विदेश नीति को अप्रभावी रूप में भी पाया गया है और बाहरी सुरक्षा चुनौतियों का माकूल जवाब नहीं दिया गया है। वर्ष 2014 के आम चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और इसके नेता नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता संभाली। भारत की समूची विदेश नीति में जहां कुछ बदलावों की उम्मीद की जा सकती है तो भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा था कि देश की सरकार सदियों पुरानी अपनी श्वसुधैव कुटुम्बकमश् की परम्परा के जरिए कुछ बदलावों को लाने की कोशिश करेगी।
भाजपा के घोषणा पत्र में कहा गया था कि भारत को अपने सहयोगियों का एक संजाल (नेटवर्क) विकसित करना चाहिए। आतंकवाद को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति होगी और क्षेत्र में नए भू-सामरिक खतरों का सामना करने के लिए श्नो फर्स्ट यूजश् (पहले हमला न करने की) परमाणु नीति की समीक्षा होगी। मोदी को जितना बहुमत मिला है, लोगों की उनसे उतनी ही ज्यादा उम्मीदें हैं। भाजपा का पिछला रिकॉर्ड और मोदी के आर्थिक मोर्चे पर काम करने वाले नेता और एक कट्टरपंथी राष्ट्रवादी छवि के चलते देश के लोग अधिक सक्रिय विदेश नीति की लोग उम्मीद करते हैं। पर मोदी के नेतृत्व में भारत को पता है कि केवल स्थायी और ऊंची आर्थिक वृद्धि दर के बल पर भारत, चीन के साथ एशिया के पॉवर गैप को भर सकता है। इस अर्थ यह भी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था से भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और घटिया बुनियादी सुविधाओं को समाप्त करना ही होगा। इस बात की संभावना है कि भारत, रूस के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना चाहेगा। नई दिल्ली और मॉस्को के बीच सहयोग का एक लम्बा इतिहास रहा है, जो कि शीत युद्ध के शुरूआती वर्षों से शुरू हुआ था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया बांग्लादेश दौरा यूं तो कई मायनों में महत्वपूर्ण है। हालांकि, इस दौरे की सबसे अहम बात यह रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहे हैं कि मुद्दा चाहे कितना भी पेंचिदा हो, यदि नेक इरादे से समाधान ढूंढा जाए, तो रास्ता निकल सकता है और आपसी बातचीत एवं सहमति से जटिल से जटिल मुद्दों पर आगे बढ़ा जा सकता है। पाकिस्तान और चीन के लिए भी बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा करार एक सपष्ट संकेत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छह और सात जून को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बांग्लादेश के दौरे पर रहे। मोदी-ममता की यह जोड़ी दोनों देशों के बीच संबंधों की संभावना का एक सर्वथा नया पन्ना खोलने की कोशिश करती दिखी, जिसमें ये दोनों काफी हद तक सफल भी रहे। वैसे, ऐसी एक संभावना तब भी बनी थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2011 में बांग्लादेश पहुंचे थे, लेकिन तब ममता बनर्जी ने उनके साथ बांग्लादेश जाने से इन्कार कर, सारी संभावनाओं पर पानी फेर दिया था। इस बार हालात कुछ अलग थे। मोदी और ममता, दोनों यह जान रहे हैं कि उनकी स्थानीय राजनीति की मांग है कि वे इस अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक पहल में साथ रहें। तभी तो तमाम विश्लेषकों ने इस सच को स्वीकार किया कि मोदी-ममता के साथ ने भारत-बांग्लादेश के बीच संबंधों के बीच नया पन्ना खुलवाया, जिससेएशियाई राजनीति को नए सिरे से आकार देने का ऐतिहासिक अवसर भारत को मिला।
पिछले वर्षों में भारत सरकार ने अपने इन छोटे पड़ोसियों के बारे में एक ही नीति बना रखी थी-जितना मिले, उसमें खुश रहो जितना न मिले, उस बारे में तुम जानो, तुम्हारी किस्मत जाने! इस अंधनीति का परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश हो या नेपाल या म्यांमार या श्रीलंका, सभी जगहों पर चीन ने पैठ बना ली। हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि पड़ोस में किया गया हर निवेश क्या नकद वापस लाता है, इससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह भविष्य के कितने दरवाजे खोलता है। बांग्लादेश-भारत सड़क संधि का एक नया मौका हमारे सामने है। आज कोलकाता और अगरतला के बीच की हर व्यापारिक गतिविधि को 1,650 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। यह सड़क बन जाएगी, तो यह दूरी मात्र 350 किलोमीटर की होगी। न सिर्फ भारत के विभिन्न इलाकों में माल पहुंचाने में सहूलियत हो जाएगी, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया तक माल पहुंचाना सरल हो जाएगा। इसका दूसरा फायदा यह होगा कि इस पूरे क्षेत्र की गतिविधियों पर भारत सीधी नजर रख सकेगा और उसे किसी हद तक नियंत्रित भी कर सकेगा। आतंकवादियों की घुसपैठ, तस्करी आदि पर नजर रखने के साथ-साथ पाकिस्तान और चीन को किसी हद तक इस चतुर्भुज से अलग-थलग करने में भी भारत कामयाब हो जाएगा और उनकी फौजी गतिविधियों की टोह भी ले सकेगा। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना हमारे प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आई थीं, उन्होंने अपना प्रतिनिधि भेजा था। इसके और जो भी कारण रहे हैं, एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि नेपाल की तरह बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति की मांग है कि वहां के नेता भारत का पिछलग्गू नजर न आएं। हालांकि, कई मौकों पर शेख हसीना ने यह जताया है कि भारत उसका स्वाभाविक मित्र है।
बांग्लादेश दौरे में पड़ोसी देशों को साथ लेकर चलने की नरेंद्र मोदी की मंशा साफ झलकी है। ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा केवल देश में ही नहीं, मोदी की विदेश नीति में भी झलका है। ढाका में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत और बांग्लादेश एक साथ मिलकर आगे बढ़ सकते हैं। कोई छोटा और बड़ा नहीं है। भारत और बांग्लादेश दोनों बराबर हैं। मोदी यह संदेश देने में भी सफल हुए हैं कि एक उद्देश्यपूर्ण और समस्या-निराकरण की नीति अपनाकर दक्षिण एशिया की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन लाया जा सकता है। सार्क देशों को एकजुट करने और समस्याओं से मिलकर लड़ने की नरेंद्र मोदी की इच्छाशक्ति यह दर्शाती है कि वह इस पूरे क्षेत्र में एक बदलाव लाने का माद्दा रखते हैं।
जब चीन की बात आती है तो हमें सोचना होगा कि आर्थिक और सैन्य दृष्टि से भारत कमजोर है और मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों ना हों और उन्होंने दूसरे दलों के नेताओं की इस बात को लेकर कितनी ही आलोचना की हो कि वे चीन के दुस्साहस को अनदेखा कर रहे हैं, लेकिन खुद मोदी भी पेइचिंग से लड़ाई मोल लेना नहीं चाहेंगे। चीन को एक वैश्विक शक्ति उसकी आर्थिक ताकत के कारण माना जाता है और इस कारण से मोदी चाहेंगे कि भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत हो। अर्थव्यवस्था उनका टॉप एजेंडा इसलिए भी रहेगी क्योंकि ज्यादातर भारतीयों ने उन्हें इसलिए चुना है कि वे गरीबों की हालत में सकारात्मक परिवर्तन लाएंगे। इसलिए वे चाहेंगे कि देश के गरीब वर्ग की माली हालत में सुधार हो। मोदी की विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण चिंता पाकिस्तान होगा लेकिन वह भी इस्लामाबाद के साथ नाटकीय रूप से सख्त रुख अपनाने के पक्ष में नहीं होंगे। वे पहले ही लोगों को अपने शपथग्रहण में पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित कर चैंका चुके हैं, लेकिन वे यह बात भलीभांति समझते हैं कि पाकिस्तान के साथ लगातार होने वाले टकरावों के कारण वे देश की अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान नहीं दे सकेंगे। अगर पाकिस्तान के साथ लड़ाई होती है तो यह परमाणु युद्ध में भी बदल सकती है, लेकिन आतंकवादी हमले ऐसा विषय हैं जिनके कारण उन पर बहु्त ज्यादा दबाव होगा। उन्हें निर्णयात्मक होना होगा क्योंकि उन्हें आतंकवादियों को संदेश भी देना होगा कि वे भारत में गड़बड़ी फैलाने से बाज आएं। यह बात उनकी अपील का प्रमुख हिस्सा होगी।
नई दिल्ली चाहता है कि चीन के पूर्वी हिस्से में उसका एक मजबूत साथी हो और वह इस भूमिका के लिए जापान को सभी तरह से उचित पाता है। अपनी आर्थिक और तकनीकी ताकत के चलते जापान समुचित भी है क्योंकि टोक्यो और नई दिल्ली चीन को एक बड़ी सुरक्षा समस्या समझते हैं। भारत एक और एशियाई देश, ताइवान, के साथ अपने संबंध मजबूत रखना चाहेगा क्योंकि यह चीन के क्षेत्रीय दावों और मंशा को लेकर सशंकित रहता है। विदित हो कि कुछ समय पहले ही दक्षिण चीन महासागर में दोनों देशों के बीच झड़पें हुई हैं। लेकिन, विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी से और भी बड़े परिवर्तनों की इच्छा रखने वालों को निराशा हाथ लगेगी। हालांकि मोदी मानते हैं कि भारत एक वैश्विक ताकत है लेकिन देश यह दर्जा तब तक हासिल नहीं कर सकेगा जबतक कि वह आर्थिक मोर्चे पर अपनी मजबूती नहीं दर्शाता है। इसलिए अगर मोदी कोई बड़े परिवर्तन करते हैं तो वे देश के घरेलू मोर्चे पर करने होंगे, विदेशी मोर्चे पर नहीं।
भले ही कांग्रेस पार्टी पंडित नेहरू की विरासत पर दावा कर रही हो लेकिन नरेंद्र मोदी अपने तरीके से देश की इस पुरानी पार्टी को चुनौती देने में व्यस्त हैं। उनको भले ही पंडित नेहरू की 125वीं जयंती के आयोजन पर कांग्रेस ने आमंत्रित नहीं किया हो लेकिन बाकियों की तुलना में वह नेहरू की विरासत को अधिक पुख्ता तौर पर निर्धारित करने की कोशिश कर रहे हैं। और जिस विरासत को सत्ता में आने के बाद वह धीरे-धीरे समाप्त कर रहे हैं वह है विदेशनीति की गुटनिरपेक्ष विचारधारा। विचाराधारात्मक नारों से इतर वह बिना किसी अवरोध के सभी वैश्विक शक्तियों के साथ संबंध बनाने में मशगूल हैं। राष्ट्रों की विदेश नीतियों में सरकारें बदलने के साथ आमूलचूल परिवर्तन नहीं आता लेकिन आम चुनाव में प्रचंड बहुमत मिलने के बाद मोदी को विदेश नीति की प्राथमिकताओं और लक्ष्यों को पुनर्निर्धारित करने का अवसर मिला है। विदेश नीति के मोर्चे पर वह पहले से ही सक्रिय दिखे हैं। पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय संबंधों में नई गति के स्पष्ट संकेत दिखे हैं और नई दिल्ली अपनी क्षेत्रीय प्रोफाइल का पुनरुद्धार करने के लिए नए सिरे से बल दे रही है। पाकिस्तान को छोड़कर सभी पड़ोसी नई आशा के साथ भारत को देख रहे हैं। क्रियान्वयन के मसले पर भारतीय विश्वसनीयता की समस्या को पहचानते हुए मोदी सरकार ने पड़ोसियों के साथ नए प्रोजेक्टों की घोषणा करने के बजाय लंबित परियोजनाओं को पूरा करने पर ध्यान केंद्रित किया है।

शुक्रवार, 12 जून 2015

दलितों के भरोसे भाजपा ?

भाजपा के साथ रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े और दलित नेता या पार्टियां भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

सुभाष चन्द्र 

बिहार में अभी चुनाव का ऐलान भी नहीं हुआ है, लेकिन सियासी घमासान चरम पर है। इस घमासान में सबकी नजरें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राज मांझी पर है। पहले भी कहा गया कि इस चुनाव में मांझी के पास कई विकल्प हैं, लेकिन आखिरकार उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का साथ लेना बेहतर समझा। पहले रामबिलास पासवान, फिर उपेंन्द्र कुशवाहा और अब जीतन राम मांझी - भाजपा को लगता है कि दलित की ये तिकड़ी उसे चुनावी वैतरणी पार करा देगी। 
असल में, लालू यादव और नीतीश कुमार के गठजोड़ को धूल चटाने के लिए भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। इसी कड़ी में दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और नीतीश के धुर विरोध और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी मांझी की मुलाकात 11 जून, 2015 को हुई। लालू और नीतीश के विरोधी गुट को मात देने की उम्मीद में भाजपा को जीतनराम मांझी के तौर पर नया साथी मिल गया है। इसके अलावा सरकार में मंत्री उपेंद्र सिंह कुशवाहा ने भी अमित शाह से मुलाकात की, यानी भाजपा बेहद संजीदा होकर अपने प्लान बिहार को परवान चढ़ाने में में जुट गई है।
दरअसल, फिलहाल चुनावी वैतरणी पार करने के लिए हर किसी को एक ही शख्स पतवार नजर आ रहा है, और वो है - जीतन राम मांझी। सियासी गलियारों में सवाल भी उठा था कि आखिर ऐसा क्यों है? जवाब मिला, चूंकि मांझी के साथ बहुत सारे प्लस प्वाइंट हैं। मांझी ऐसे नेता हैं जो कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू तीनों ही पार्टियों में रह चुके हैं। इतना ही नहीं, वो इन तीनों पार्टियों की सरकारों में मंत्री भी रह चुके हैं। उसके बाद मुख्यमंत्री बने। वैसे मांझी के ताकतवर होने की तात्कालिक वजह उनका दलितों के नेता के रूप में उभरना है। ऐसे में हर पार्टी को लगता है कि जिस किसी को भी मांझी का समर्थन मिलेगा वो बीस तो पड़ेगा ही। अब ये मांझी पर ही निर्भर करता है कि वो किसे अपना दामन देते हैं या किसका दामन थामते हैं? पहले कहा गया था कि चाहें तो लालू के साथ हो लें। लालू का कहना था कि सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए सेक्युलर दलों को एकजुट होना चाहिए और इसी वजह से वो मांझी को साथ लेना चाहते हैं। उसके बाद आरजेडी से निकाले गए मधेपुरा सांसद राजेश रंजन यानी पप्पू यादव ने बिहार में तीसरे मोर्चे का प्रस्ताव रखा था। पप्पू यादव चाहते थे कि उनका जनक्रांति अधिकार मोर्चा, मांझी का हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और कांग्रेस मिलकर तीसरा मोर्चा खड़ा करें और जनता को एक मजबूत विकल्प दें। पप्पू शुरू से ही मांझी के हिमायती रहे हैं। लालू से पहले ये पप्पू यादव ही थे, जो मांझी को जनता परिवार में भी शामिल किए जाने की वकालत कर रहे थे। 
उसके बाद हवा चली, जिसका तासीर यह बता रही थी कि मांझी चाहें तो भाजपा के साथ गठबंधन कर लें। मांझी को यह विकल्प सबसे मुफीद लगा। जिस तरह उपेंद्र कुशवाहा और राम विलास पासवान भाजपा के साथ हैं, उसी तरह मांझी भी एक पॉलिटिकल एक्सटेंशन हो सकते हैं। आखिरकार हुआ भी यही। 
वर्तमान की हकीकत यही है कि साल भर पहले समाज के फर्श पर बैठे मांझी आज राजनीति के अर्श पर पहुंच चुके हैं। कहने का मतलब ये कि जिस मांझी के पास 2014 में लोक सभा चुनाव लड़ते वक्त कदम कदम पर फंड की कमी आड़े आ रही थी - उनकी ओर अब हर तरफ से मदद के हाथ बढ़े चले आ रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा और मांझी दोनों बिहार की सियासत में भाजपा के भविष्य की उजली तस्वीर की आस हैं। एक तरफ हैं एनडीए के सहयोगी और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा तो दूसरी ओर नीतीश के धुर विरोधी में तब्दील हो चुके जीतन राम मांझी। अब तो जीतन राम मांझी ने भी साफ कर दिया कि बिहार की चुनावी वैतरणी में वो एनडीए की नैया में सवार रहेंगे। बहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन ने नीतीश कुमार पर जमकर जुबानी हमले किए। उन्होंने कहा है कि नीतीश भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। अमित शाह से मुलाकात में मांझी ने कहा कि बिहार में आगामी चुनाव में एनडीए के पार्ट बनेंगे, हर हाल में नीतीश हारेंगे। हालांकि भाजपा ने सीटों का बंटवारा हुए बिना सूबे की 178 सीटों पर प्रचार शुरू कर दिया है, लेकिन उनकी सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वो किसी नेता को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करे या नहीं।
माना जा रहा हैकि बिहार में छह फैक्टर भाजपा के पक्ष में हैं। भाजपा के पक्ष में पहला सबसे बड़ा फैक्टर है, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता। दूसरा, केंद्र में भाजपा की सरकार होना। वो कहेगी कि विकास के लिए बिहार में भी भाजपा सरकार की जरूरत है। तीसरा , भाजपा का सांगठनिक ढांचा, जो बाकी सभी पार्टियों से मजबूत स्थिति में है। चैथा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो बिहार के कई इलाकों में काफी मजबूत है, वो चुनाव में भाजपा के पक्ष में काम करेगा। पांचवां कारण है, आर्थिक संसाधन के मामले में भी भाजपा दूसरी पार्टियों से काफी आगे रहेगी।  छठवाँ है, भाजपा के साथ रामविलास पासवान, जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, नंदकिशोर यादव जैसे पिछड़े और दलित नेता या पार्टियां भी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा को भी इसका अंदाजा रहा होगा कि लालू-नीतीश का गठबंधन होगा। दोनों चाहे कितनी भी बयानबाजी करें, लेकिन दोनों को कहीं न कहीं पता था कि ये गठबंधन होने वाला था। नीतीश कुमार, लालू यादव और सुशील मोदी सभी के लिए ये निर्णायक लड़ाई है। इस चुनाव की जीत-हार से इन सबके राजनीतिक भविष्य की दिशा तय होगी।

शनिवार, 30 मई 2015

डा. नजमा हेपतुल्ला

कई लोग ऊंचे पदों पर जाकर भी सहज रहते हैं। खास होकर भी आम के लिए सोचते हैं। बिना लाग-लपेट के अपनी बातों को रखते हैं। तमाम महती जिम्मेदारियों के बीच भी उनके अंदर का साहित्यकार कुलांचे मारता रहता है। ऐसी ही शख्सियत हैं डा. नजमा हेपतुल्ला। शुक्रवार को अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय के उनके दफ्तर में उनसी लंबी मुलाकात हुई, तो इन बातों की जानकारी हुई।
सौजन्य: समृद्धि भटनागर


सीएम-एलजी में धींगामुश्ती



दिल्ली में आजकल गर्मी बहुत है। लोग बेहाल हैं। सियासी गलियारों में भी मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच टकराव से नौकरशाह को अधिक तपिश की अनुभूति हो रही है। असल में दोनों के दोनों राजनीतिक पृश्ठभूमि से नहीं आते। दोनों ही नौकरशाही के अनुभव के चश्मे से साथ अपने मौजूदा मुकामों पर पहुंचे हैं। दोनों में से एक भी अगर राजनेताओं के कद का होता तो आपसी संवाद और समझौते की राह निकाल लेता जैसा कि आमतौर पर राज्यों में निर्वाचित मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच होता है। दोनों ही अपने-अपने नौकरशाही के संस्कारों के साथ राजनीतिक परिणामों वाले टकराव में जुटे हुए हैं। नजीब जंग भारतीय प्रशासनिक सेवा के लंबे अनुभव के बाद अपने वर्तमान पद पर पहुंचे हैं और केजरीवाल भारतीय राजस्व सेवा में अपनी सेवाएं देने के बाद। इसलिए दिल्ली सरकार की नौकरशाही पर नियंत्रण का मामला आसानी से निपटने वाला नहीं है।
असल में ल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच कई मुद्दों पर जारी तकरार थमने का नाम नहीं ले रही है। इस तकरार में केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा है कि वे उपराज्यपाल के माध्यम से दिल्ली का प्रशासन चलाना चाहते हैं। 
एक बानगी देखिए। दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने अरविन्द केजरीवाल सरकार की कड़ी आपत्तियों के बावजूद वरिष्ठ नौकरशाह शकुंतला गैमलिन को राज्य सरकार की कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया जिसे खुले टकराव के रूप में देखा जा रहा है। केजरीवाल की सरकार ने इस निर्णय को ‘‘असंवैधानिक’’ करार दिया है। उपराज्यपाल ने 1984 बैच की आईएएस अधिकारी शकुंतला को मुख्य सचिव का अतिरिक्त प्रभार सौंपा है। इससे कुछ समय पहले महिला अधिकारी ने जंग को एक पत्र लिखकर दावा किया था कि मुख्यमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ नौकरशाह ने उन पर इस बात के लिए दबाव डाला है कि वह इस पद की दौड़ में शामिल नहीं हों क्योंकि उनकी बिजली वितरण कंपनी बीएसईएस के साथ कथित रूप से नजदीकी है।
मुख्य सचिव के के शर्मा निजी यात्रा पर अमेरिका गये हैं जिसके चलते सरकार को एक कार्यवाहक मुख्य सचिव तैनात करना था। गैमलिन वर्तमान समय में ऊर्जा सचिव के रूप में कार्यरत हैं। इस कदम की आलोचना करते हुए आप सरकार ने कहा कि उपराज्यपाल निर्वाचित सरकार एवं मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की अनदेखी नहीं कर सकते तथा उन्होंने संविधान, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार कानून तथा कामकाज संचालन नियमों के विरुद्ध काम किया है। जंग ने आप सरकार के आरोपों का तुरंत यह कहते हुए खंडन किया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 239 एए के तहत उपराज्यपाल दिल्ली में राज्य प्राधिकारी का प्रतिनिधि होता है। उपराज्यपाल के कार्यालय के एक बयान में कहा, ‘‘कार्यावाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति की फाइल 13 मई की शाम में उपराज्पाल को सौंपी गई जिसे तत्काल मंजूरी दे दी गई। उन्होंने मुख्यमंत्री द्वारा प्रस्तावित नाम के वितरीत शकुंतला गैमलिन के नाम यह विचार करते हुए मंजूरी दी कि वह वरिष्ठ हैं और उनकी पिछली उपलब्धियां साबित हुई हैं।’’ बयान में कहा गया, ‘‘मुख्यमंत्री द्वारा प्रस्तावित नाम सेवा विभाग की ओर से दिये गए नामों की सूची में नहीं था और संबंधित अधिकारी को दिल्ली सरकार द्वारा अभी तक तैनाती नहीं दी गई है।’’
इसमें कहा गया है कि उपराज्यपाल को सौंपी गई फाइल में ऐसा कुछ भी नहीं था जो यह संकेत देता हो कि सरकार का गैमलिन के खिलाफ कुछ था और उन्हें इस बात का ‘‘खेद’’ है कि ‘‘एक वरिष्ठ अधिकारी का नाम इस तरीके से सार्वजनिक किया जा रहा है और वह भी एक महिला अधिकारी का जो कि पूर्वोत्तर की रहने वाली हैं।’’ शकुंतला को अतिरिक्त प्रभार देने के पश्चात राज्य सरकार ने उप राज्यपाल पर मुख्यमंत्री एवं निर्वाचित सरकार की अनदेखी करने का आरोप लगाया तथा कहा कि उनके पास असाधारण शक्ति नहीं है। केजरीवाल सरकार ने एक बयान में कहा, ‘‘उपराज्यपाल ने निर्वाचित सरकार, मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री (जो सेवा विभाग के प्रभारी मंत्री के रूप में काम करते हैं) की अनदेखी की है। संविधान के तहत उप राज्यपाल के पास ऐसी असाधारण शक्ति नहीं है कि वह निर्वाचित सरकार की अनदेखी करें और सीधे सचिव को निर्देश जारी करें, भले ही कोई भी अनिवार्यता क्यों न हो।’’ इसमें कहा गया कि जंग ने असाधारण तरीके से सचिव (सेवा) को सीधे निर्देश जारी कर दिया कि मुख्य सचिव का अतिरिक्त प्रभार शकुंतला को सौंपा जाये। सरकार ने कहा कि उसे शकुंतला के आचरण को लेकर कुछ आपत्ति है जिनके चलते वह उन्हें अतिरिक्त प्रभार देने को लेकर हिचक रही थी। इसमें कहा गया, ‘‘उनके बारे में धारणा है कि उनकी दिल्ली की बिजली कंपनियों के साथ काफी नजदीकियां हैं और वह सरकार के भीतर उनके हितों के लिए लाबिंग कर रही थीं। बहरहाल, माननीय उपराज्यपाल ने पूरी तरह से असंवैधानिक तरीके से शकुंतला गैमलिन को इस पद पर नियुक्त कर दिया। जंग को लिखे पत्र में शंकुतला ने केजरीवाल के सचिव राजेन्द्र कुमार पर आरोप लगाया है कि उन्होंने उन्हें टेलीफोन करके पद की दौड़ में शामिल नहीं होने को कहा था। उन्होंने आप सरकार पर सेवा के प्रति उनकी ईमानदारी को लेकर तोहमत लगाने और गलत आरोप लगाने की बात भी कही। वरिष्ठ नौकरशाह एन जयसीलन, 1980 बैच के आईएएस अधिकारी अरविन्द रे एवं एस पी सिंह कार्यवाहक मुख्य सचिव पद की दौड़ में शामिल थे।

दोबारा जयकारा जयललिता का


तमिलाडु की राजनीति में हाल के दिनों में जिस प्रकार से जयललिता का एक बार फिर से सत्तारोहण हुआ, उससे उनके रसूख का पता चलता है। आय से अधिक संपत्ति मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट से बरी होने के बाद वो फिर से मुख्यमंत्री बन गई हैं, तो अब आगे क्या होगा? यह सवाल बहुतेरे के सामने है। माना जा रहा है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट उन्हें बरी करने वाले फैसले को रद्द नहीं करता, वो बहुत अच्छी स्थिति में हैं। विपक्ष परेशानी में है. लेकिन, दिलचस्प है कि बेंगलुरु स्पेशल कोर्ट से दोषी ठहराए जाने और हाईकोर्ट के फैसले के बाद उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ी है। जब से उनको सजा हुई तब से से ही प्रशासन ठहर सा गया था। अब वो इसे चलाना शुरू करेंगी। निश्चित रूप से वो गरीबों के अलावा निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के लिए लोकप्रिय स्कीमों की घोषणा करना चाहेंगी। 
हुआ भी ऐसा ही है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पांचवी पारी शुरू करते हुए जयललिता ने 1800 करोड़ रुपये के विकास और कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की। इनमें सड़कों में सुधार और पेयजल सुविधा तथा महिला मुखिया वाले जरूरतमंद परिवारों को सहायता देना शामिल है। राज्य में अपने कल्याणकारी परियोजनाओं को जारी रखते हुए जयललिता ने और अधिक अम्मा कैंटीन खोले जाने सहित पांच बड़ी योजनाओं को मंजूरी दी, जो सब्सिडी वाली दर पर भोजन, गरीबों को आवास और पेयजल के लिए ‘आरओ’ संयंत्र मुहैया करेगा।  शपथ लेने के बाद पहली बार फोर्ट सेंट जॉर्ज में राज्य सचिवालय पहुंचने पर उन्होंने नई योजनाओं को मंजूरी देने वाली पांच फाइलों पर हस्ताक्षर किया। एक सरकारी विज्ञप्ति में कहा गया , ‘मुख्यमंत्री जयललिता ने शहरी स्थानीय निकायों में 1,000 करोड़ रुपये की लागत से सड़कों को बेहतर करने का आदेश दिया है।’
अन्नाद्रमुक प्रमुख ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सब्सिडी वाली दर पर और 201 ‘अम्मा कैंटीन’ भी खोले हैं। 800 करोड़ रुपये की तमिलनाडु ग्रामीण सड़क विकास योजना के तहत 3,500 किलोमीटर लंबी सड़क इस वित्तीय वर्ष में विकसित की जाएगी। विज्ञप्ति में कहा गया , ‘मुख्यमंत्री ने नगर पंचायत इलाकों में गरीबों के लिए एक विशेष आवास योजना को मंजूरी दी है।’ 2.10 लाख रुपये की सहायता गरीबों को अपनी छत कंक्रीट में ढालने के लिए दी जाएगी। प्रथम चरण में 20,000 परिवारों को नगर पंचायत इलाकों में सहायता दी जाएगी। पेयजल सुविधा पर बड़ा जोर देते हुए 1,274 आरओ संयंत्र आवासीय क्षेत्रों में लगाए जाएंगे। महिला मुखिया वाले गरीब परिवारों के लिए योजना के तहत ऋण योग्य लाभान्वितों को मुहैया किया जाएगा। साथ ही रोजगार के अवसरों के साथ कौशल विकास प्रशिक्षण दिया जाएगा। सरकार लाभान्वितों के विकास पर 10 से 20 हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी और योजना पांच साल में महिला मुखिया वाले सारे परिवारों को कवर करने का इरादा है। विधानसभा चुनाव होने को महज साल भर बाकी है, इसलिए ये योजनाएं मायने रखती हैं।
राज्यपाल के रोसैया ने 67 साल की जयललिता को यहां मद्रास विश्वविद्यालय शताब्दी सभागार में आयोजित एक शानदार समारोह में पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई। शपथ ग्रहण समारोह के दौरान उनके समर्थकों ने नारे लगाए। इस समारोह में 28 अन्य मंत्रियों ने भी शपथ ग्रहण की।तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और मुख्यमंत्री के रूप में जयललिता की वापसी से अन्नाद्रमुक को बल मिला है।
अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जब तमिल में ईश्वर के नाम पर शपथ ले रही थीं तो मद्रास विश्वविद्यालय शताब्दी सभागार ‘पुरात्ची थलैवी वषगा’ (क्रांतिकारी नेता जिंदाबाद) के नारों से गूंज रहा था। इससे पहले जयललिता कशीदाकारी की हुई हरे रंग की साड़ी पहने सभागार पहुंचीं तो ‘अम्मा’ की एक झलक पाने के लिए सुबह से ही जुटे उनके समर्थकों ने नारों से उनका स्वागत किया। पिछले साल 27 सितंबर को बंगलुरु की एक निचली अदालत ने आय से अधिक 66.66 करोड़ रुपए की संपत्ति के मामले में जयललिता को दोषी ठहराया था जिसके कारण वे मुख्यमंत्री पद के लिए अयोग्य हो गई थीं। कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस साल 11 मई को उन्हें इन आरोपों से बरी कर दिया था।
इस शपथ ग्रहण समारोह में फिल्म अभिनेता रजनीकांत, सरतकुमार, केंद्रीय मंत्री पोन राधाकृष्णन और अन्नाद्रमुक नेता व लोकसभा के उपाध्यक्ष एम थंबीदुरै समेत अनेक नामी गिरामी हस्तियां शामिल र्हुइं।
जयललिता ने पिछला मंत्रिमंडल लगभग समूचा बरकरार रखा है। पूर्व वनमंत्री एमएसएम आनंदन और बीमार चल रहे पीसी पांडियन को मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी गई जबकि एक अधिकारी की आत्महत्या के मामले में गिरफ्तार पूर्व मंत्री ए कृष्णामूर्ति को भी मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली। मंत्रियों को 14-14 की तादाद में दो जत्थों में शपथ दिलाई गई। इससे औपचारिक समारोह कम समय में पूरा हो गया। शपथ ग्रहण करने वालों में निवर्तमान मुख्यमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम भी शामिल थे। शपथग्रहण समारोह में अभिनेता शिवकुमार और उनके बेटे कार्ती, इंडिया सीमेंट्स के एन श्रीनिवासन सरीखे उद्योगपति और धार्मिक नेता मौजूद थे।
शपथ ग्रहण समारोह के दौरान उत्सव सरीखा माहौल था। यह पिछले साल उनके सहयोगी रहे ओ. पन्नीरसेल्वम के शपथ ग्रहण समारोह के ठीक उलट था। पन्नीरसेल्वम का शपथ समारोह बहुत फीका था और वे एक कामचलाऊ मुख्यमंत्री थे। इस बार मंत्रियों और जयललिता के समर्थकों के चेहरे दमक रहे थे। जयललिता को अन्नाद्रमुक विधायक दल की नेता चुने जाने के बाद पन्नीरसेल्वम ने शुक्रवार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।
सत्ता में जयललिता की वापसी के अवसर पर चेन्नई में राज्य के विभिन्न इलाकों से आए समर्थकों का हुजूम था। पुलिस को खास कर शपथग्रहण स्थल पर समर्थकों को नियंत्रित करने में खासी दिक्कत आई। सुरक्षाकर्मियों की कड़ी चैकसी के बीच अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता शपथ लेने के लिए अपने पोएस गार्डन आवास से निकलकर सात किलोमीटर की दूरी तय कर मद्रास विश्वविद्यालय शताब्दी सभागार पहुंचीं।
जिस सड़क से जयललिता का वाहन गुजरा उसके दोनों ओर स्टेनगनधारी कमांडो तैनात थे। जयललिता का एसयूवी वाहन धीमी गति से चल रहा था ताकि शपथ ग्रहण के लिए सभागार जाने के रास्ते में लोग अपनी ‘अम्मा’ की झलक देख सकें। रास्ते में जयललिता के वाहन पर लगातार फूल बरसाए गए जिसे सुरक्षाकर्मी लगातार साफ करते दिखे ताकि वाहन चालक को साफ साफ दिखाई दे सके और लोग जयललिता के चेहरे को स्पष्ट देख सकें। जयललिता को ‘जेड’ प्लस सुरक्षा प्राप्त है। इसलिए उनके सुरक्षा घेरे में जैमर्स और अन्य उपकरण शामिल होते हैं।

सवाल अब भी कायम 
आय से अधिक संपत्ति मामले में जयललिता बरी कर दी गईं। अब सवाल उठेंगे कि छापे में जब्त वो दस हजार साडि़यां, 28 किलो सोना, करोड़ों की जायदाद और डिपॉजिट किसके थे...एआईएडीएमके चीफ जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का यह केस चेन्नई में शुरू हुआ, लेकिन कोर्ट की कार्रवाई में अड़चनों को देखते हुए इसे बेंगलुरु ट्रांसफर कर दिया गया। 18 साल चली सुनवाई के बाद 27 सितंबर 2014 को विशेष अदालत ने जयललिता के खिलाफ फैसला दिया और उन्हें चार साल जेल की सजा सुनाई। उस फैसले के बाद जयलिता जमानत पर जेल से छूटीं। लेकिन अब वे पूरी तरह इस केस से मुक्त हैं। ईमानदार बनकर। 1996 में सत्ता जाने के बाद हुई कार्रवाई में उनकी संपत्ति का खुलासा हुआ। जयललिता के पास चेन्नई में बंगला, कई एकड़ खेतिहर भूमि, हैदराबाद में फार्म हाउस, नीलगिरी में चाय बागान, इंडस्ट्रियल शेड, 800 किलो चांदी, 28 किलो सोना, 750 जोड़ी विदेशी चप्पल-जूते, 10,500 साडि़यां, 91 कीमती घडि़यां, करोड़ों का कैश डिपॉजिट और इन्वेस्टमेंट। इस संपत्ति की कीमत हजार करोड़ से ज्यादा आंकी गई, जो उन्होंने पांच साल में अर्जित की।

मंगलवार, 24 मार्च 2015

तो नीतीश संग पींगे बढ़ाएंगे मोदी !

दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति पर भी सवाल उठे हैं। संघ के पदाधिकारियों का मानना है कि कि दिल्ली की तरह ओवर कॉन्फिडेंस में नहीं रहना चाहिए। भाजपा के पुराने साथी रहे नीतीश से नजदीकियां बढ़ाने की भी सलाह दी गई है।

दिल्ली में जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी के नेता आत्मविश्वास से लबरेज थे और चारों खाने चित हो गए, वैसा हाल बिहार में नहीं होना चाहिए। बिहार की राजनीति दूसरे प्रदेशों से अलग है। लिहाजा, भाजपा को वहां सत्ता हासिल करना है। इसके लिए अब भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कमर कस ली है। भाजपा को दो टूक सुनाया गया है और कहा गया है कि जनता दल यू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर एक बार फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहिए। हालांकि, संघ ने केवल सलाह दी और निर्णय भाजपा को करना है। हालंाकि, सियासी गलियारों में चर्चा सरेआम हो रही है कि संघ औपचारिक रूप से सलाह ही देती है, जो भाजपा के लिए आदेश माना जाता है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वाकई भाजपा नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार के संग दोस्ती करेंगे !
असल में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भाजपा को बिहार पर खास तैयारी करने को भी कहा। बिहार में पार्टी का संगठन है, लेकिन संघ चाहता है कि बिहार में और तेजी से काम होना चाहिए। संघ के पदाधिकारियों का मानना है कि कि दिल्ली की तरह ओवर कॉन्फिडेंस में नहीं रहना चाहिए। यह मौका है कि कुछ और राज्यों में पार्टी का विस्तार हो। जिस प्रकार की खबरें आजकल संघ के पदाधिकारियों के पास पहुंच रही है, उसके मुताबिक भाजपा-संघ की बैठक में संघ ने बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा को जेडीयू नेता नीतीश कुमार से दोस्ती करने की सलाह दी है। संघ ने बिहार भाजपा से कहा कि जेडीयू को कांग्रेस और आरजेडी से अलग करना हुए चुनाव में फायदा पहुंचा सकता है। संघ ने इसका फैसला भाजपा पर छोड़ा। इसी साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए संघ ने भाजपा को नीतीश कुमार से दोस्ती की सलाह दी है। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा -जदयू के बीच गठबंधन खत्म हो गया था। हालांकि संघ की ओर से केवल इस संबंध में सलाह मात्र दी गई है और नीतीश की पार्टी के साथ गठबंधन करना है या नहीं इसका पूरा फैसला भाजपा पर ही छोड़ दिया है।
उल्लेखनीय है कि शहीदी दिवस के दिन यानी 23 मार्च, 2015 को नई दिल्ली में भाजपा नेता और केंद्र मंत्री नीतिन गडकरी के आवास पर संघ और भाजपा नेताओं की समन्वय बैठक हुई। संगठन की ओर से अमित शाह, संगठन महामंत्री रामलाल और महामंत्री राम माधव थे, जबकि संघ की ओर से उनकी सेकेंड कमांड के भैया जी जोशी, सुरेश सोनी आदि मौजूद थे। आधिकारिक तौर पर इस बैठक के बारे में सिर्फ इतना ही बताया गया कि बैठक में देश की ताजा राजनीतिक स्थिति पर विचार किया गया। लेकिन पार्टी सूत्रों का कहना है कि इस बैठक में पिछले दिनों नागपुर में हुई संघ की प्रतिनिधि सभा में लिए गए फैसलों की जानकारी भाजपा और सरकार के मंत्रियों को दी गई और उनसे कहा गया कि संघ के अजेंडे के मुताबिक सुधार कार्य किए जाने चाहिए।
असल में, भाजपा के कार्यकर्ता हर राज्य से शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें लगता ही नहीं कि उनकी सरकार केंद्र में है। यह शिकायत आम है कि मंत्रियों तक पहुंच कठिन हो गई है। पार्टी में भी कमोबेश यही स्थिति है। सूत्रों का कहना है कि संघ ने इस शिकायत के निवारण के लिए एक अलग टीम बनाने का आग्रह भाजपा से किया है। इस टीम ने क्या किया, इसकी मॉनिटरिंग संघ खुद करेगा।
गौर करने योग्य यह भी है कि जब जब बिहार में भाजपा की नैया मंझधार में होती है, संघ अपने हाथ में पतवार थामता है। फरवरी महीने के तीसरे और चैथे सप्ताह में जब बिहार में सियासी नौटंकीबाजी चल रही थी, तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को लेकर कई तरह की बातें हो रही थी, उस समय भी भाजपा की हर रणनीति पर संघ की पैनी नजर थी। संघ ने भाजपा को ऐन मौके पर सचेत किया, वरना...
जिस प्रकार की खबरें आ रही हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि संघ इस साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार की कमान भी अपने हाथ में ही रखने का मन बना लिया है। बीते दिनों संघ के पदाधिकारी दत्तात्रेय होसबले ने इस मुद्दे पर बिहार के भाजपा नेताओं के साथ बैठक की है। इस बैठक में बिहार भाजपा के प्रभारी भूपेंद्र यादव के अलावा महासचिव मुरलीधर राव और अन्य वरिष्ठ नेता मौजूद थे। आपको बता दें कि कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जीतन राम मांझी की मुलाकात के बाद भाजपा पर लगातार आरोप लग रहे हैं। जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार आरोप लगा चुके हैं कि जबसे मांझी ने पीएम से मुलाकात की है, उसके बाद ही समस्या विकट हुई।
संघ से जुड़े लोगों का कहना है कि संघ बिहार में भाजपा के अभियान पर निगरानी रखने की योजना बना रहा है। खासकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद संघ ने खुद आगे आकर मोर्चा संभालने की योजना बनाई है। दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर तमाम नेताओं के हमले से भाजपा को नुकसान हुआ है और संघ इस गलती को बिहार में दोहराने नहीं देना चाहता। और तो और, दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी रणनीति पर भी सवाल उठे हैं। संघ से विशेष नियुक्ति पर आए भाजपा के सांगठनिक सचिव रामलाल हार के कारणों का विश्लेषण कर रहे हैं। संघ और पार्टी के बीच समन्वयक की भूमिका निभा रहे रामलाल को हार पर एक समीक्षा रिपोर्ट बनाने का जिम्मा भी मिला है। इसलिए बिहार में संघ भाजपा की रणनीति पर पहले से ही निगरानी करने के पक्ष में है।



रविवार, 22 मार्च 2015

कब छूमंतर होगा छूआछूत ?

इक्कीसवीं सदी में आने का गुमान और लगातार वैश्विक मानचित्र में गढ़ रहे नए मानक के बीच हिन्दुस्तान के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जाए कि आज भी हर 4 भारतीय में से 1 भारतीय छुआछूत को मानता है, तो चैंकना स्वाभाविक है। लेकिन सच से न तो आप मुंह मोड़ सकते हैं और न ही हम। जी हां, बीते दिनों इस बात का खुलासा एक सर्वे के जरिए हुआ है।
नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी ऑफ मैरिलैंड, अमेरिका द्वारा करीब 42 हजार भारतीय घरों में किया गया सर्वे इस बात का सबूत है। साल 1956 में स्थापित इस संस्थान के हालिया सर्वे में सामने आए तथ्य काफी चैंकाने वाले हैं। इस सर्वे में जिन लोगों ने छुआछूत की बात को स्वीकारा है, वे सभी धर्म या जाति से हैं। इनमें मुस्लिम, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लोग भी शामिल हैं। अगर जाति की बात की जाए, तो इस सर्वे से यह बात भी सामने आई है कि सबसे ज्यादा छुआछूत को ब्राह्मण समाज में माना जाता है। अगर धर्म की बात की जाए तो उसे सबसे पहले हिंदू फिर सिख और जैन धर्म का नाम आता है।
हम आपको बता दें कि इस सर्वे में लोगों से सवालों के जवाब ‘हां‘ या ‘ना’ में देने को कहा गया था। मसलन, क्या आपके घर में छुआछूत को माना जाता है? अगर इस सवाल का जवाब ‘ना’ में आता है, तो फिर अगला सवाल पूछा गया कि क्या आप किसी अनुसूचित जाति जनजाति के लोग को अपने किचन में घुसने देंगे? पूरे भारत में करीब 27 फीसदी लोगों ने ये माना कि वह छुआछूत को मानते हैं। मध्यप्रदेश के 53 प्रतिशत लोग छुआछूत में भरोसा रखते हैं।  हिमाचल प्रदेश में 50 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 48 प्रतिशत, राजस्थान और बिहार में 47 प्रतिशत। उत्तर प्रदेश में 43 प्रतिशत और उत्तराखंड में 40 प्रतिशत लोग छुआछूत में यकीन रखते हैं। पश्चिम बंगाल भारत का सबसे प्रोग्रेसिव राज्य है, जहां मात्र एक प्रतिशत लोग ही छुआछूत को मानते हैं। केरल में दो प्रतिशत, महाराष्ट्र में चार प्रतिशत, नॉर्थ ईस्ट में सात प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 10 प्रतिशत लोग छुआछूत में यकीन करते हैं।
गौर करने लायक यह भी है कि संविधान छुआछूत को 64 साल पहले ही खत्म कर चुका है, लेकिन लोगों के मन में आज भी यह कुप्रथा बसी हुई है। एक चैथाई से ज्यादा भारतीय छुआछूत मानते हैं और अपने घरों में किसी न किसी रूप में इसका पालन करते हैं। अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है, लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है। पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वह जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं दूसरे देशों में भी होता रहा है।
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिन्दुओं में आदिकाल से गोत्र व्यवस्था रही है। वर्ण व्यवस्था भी थी, परन्तु जातियाँ नहीं थीं। वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की दृष्टि से लागू थीं यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म (कार्य) पर आधारित थी। कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था। उदाहरण के लिए -  अपने प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में परिवर्तन के बाद पूजनीय ब्राह्मणों के वर्ण में मान्यता पा गए, तो वे तत्कालीन समाज में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। श्री राम सहित चारों भाइयों के विवाह के अवसर पर जब जनकपुर में राजा दशरथ ने चारों दुल्हनों की डोली ले जाने से पहले देश के सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए बुलाया था, तो उन्होंने श्री वाल्मीकि जी को भी विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था। 
छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी। यह उन्होंने ठीक कहा, क्योंकि हिन्दू समाज में शूद्रों को अछूत नहीं समझा जाता था। वैदिक काल में सभी का दर्जा समान था। ऋग्वेद में लिखा हैः-
“सं गच्छध्वं सं वदध्वं वो मनासि जानताम” (ऋ.1-19-2)
“समानी प्रपा सह वोन्न भागः समाने योक्त्रे सह वो यूनज्मि सम्यंचोअग्निम् समर्यतारा नाभिभिवाभितः” (अ. 3-30-6)
अर्थात्-हे मनुष्यांे, मिलकर चलो, मिलकर बोलो। तुम सबका मन एक हो, तुम्हारा खानपान इकट्ठा हो। मैं तुमको एकता के सूत्र में बाँधता हूँ। जिस प्रकार रथ की नाभि में आरे जुड़े रहते हैं, उस प्रकार एक परमेश्वर की पूजा में तुम सब इकट्ठे मिले रहो।
इस वेद मंत्र से यह सिद्ध होता है कि उस समय कोई जाति या वर्ण भेदभाव नहीं था। सभी मानव जाति एक थी और एकता के भाव को रखते हुए सबके लिए सुख शांति की कामना करते थे। वैदिक काल में आध्यात्मिकता सिखलाई जाती थी, जिसे हासिल कर के स्वाभाविक ही शारीरिक और मानसिक सभी भेदभाव नहीं पाये जाते थे।
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज दलित हैं, मुसलमान है, ईसाई हैं या अब वह बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा हैं। दलितों को श्दलितश् नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले हरिजन नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया। इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे, वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि छुआछूत वैदिक, रामायण और महाभारत काल में नहीं थी तो कब आरम्भ हुई। अधिकतर पुराणों और स्मृतियों में इसका उल्लेख है। ये ग्रन्थ भी सन्तों-ऋषियों द्वारा लिखे गये, जिसमें उन्होंने अपने विचार इस ढंग से प्रकट किए जिसके अनेक अर्थ निकलते हैं। यह उनकी वर्णन शैली का चमत्कार था। उन्होंने अपने अन्तर के अनुभव, जिसे उन्होंने बड़े-बड़े साधन करके, अनुष्ठान करके प्राप्त किया। कथा-कहानी के रोचक रूप में समय की मांग के मुताबिक ग्रन्थों में भर दिया। समय व्यतीत होने पर लोगों ने उनके असली भाव को न समझ कर उलटे अर्थ लगा लिए जो हिन्दू समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए।
आज जो नाम दिए गए हैं वह पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज है और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वह पिछले 900 साल की गुलामी की उपज है। भारत ने 900 साल मुगल और अंग्रेजों की गुलामी में बहुत कुछ खोया है खासकर उसने अपना मूल धर्म और संस्कृति खो दी है। असल में, दो तरह के लोग होते हैं- अगड़े और पिछड़े। यह मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित। पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति। पीछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई।
यह सही है कि भारतीय समाज में अनेक कुरीतियां रही हैं, किन्तु उन कुरीतियों को दूर करने के लिए अनेकों सुधारवादी सद्प्रयास हुए।  समाज में जातिपात और छुआछूत के लिए मनुस्मृति का उदाहरण दिया जाता है। कितने हिन्दुओं ने मनुस्मृति का अध्ययन किया होगा या कितने हिन्दू घरों में मनुस्मृति रखी जाती है? मनुस्मृति का उदाहरण देकर यह कहा जाता है कि परमात्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई। फिर सारे मांगलिक अनुष्ठानों में भगवान के चरणों में ही जल, पुष्प, नैवेद्य क्यों अर्पित किया जाता है? वास्तव में देखा जाए तो हिन्दू समाज में जो कुरीतियां थीं, उसे पोषित कर समाज को तोडने का काम विधर्मियों ने किया। ब्रिटिश शासकों ने उसे ही अपना गुरुमंत्र बनाया और समाज को जातियों में बांटकर अपने शत्रुओं को निस्तेज करने का काम किया। ब्रितानियों ने अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने के लिए भारतीय समाज को जाति और वर्गों में बांटने की नीति अपनाई। पुरी मंदिर की इस विकृति के बारे में जब ब्रितानियों को खबर लगी तो उन्होंने फौरन इसे वैधानिक स्वीकृति दे दी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेस्ले ने अपने कमांडिंग अफसर कर्नल कैंपबेल को पुरी कूच करने से पूर्व ‘ब्राह्मणों के धार्मिक पूर्वाग्रहों’ का पूर्ण ध्यान रखने के कड़े निर्देश दिए थे। उनकी कूटनीति काम कर गई। ब्रिटिश फौज जब पुरी पहुंची तो उसे कहीं से किसी तरह के प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति पर चलते हुए उन्होंने गैर-हिन्दुओं के मंदिर प्रवेश पर निषेध की जो परम्परा थी, उसे 1809 में कानूनी जामा पहना दिया। 
मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर डा. भीमराव अम्बेदकर और वीर सावरकर ने सार्थक आंदोलन किए। सावरकर ने रत्नागिरी में पतित पावन मंदिर की स्थापना की। नारायण गुरु और ज्योतिबा फूले आदि दलित थे और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुखर रहे। जब अपने ही समाज में तिरस्कार और भेदभाव के शिकार व्यक्ति को छलावा या अन्य प्रलोभन के बल पर दूसरे मत के प्रचारक सम्मान देने का भरोसा देते हैं तो स्वाभाविक रूप से उस मत के प्रति प्रताडि़त व्यक्ति का आकर्षण भी बढ़ता है।छुआछूत और भेदभाव का कभी कोई समर्थन नहीं कर सकता और न ही ग्रंथों में कहीं इसका उल्लेख है। उलटे सैंकड़ों प्रेरणादायक प्रसंग हैं। भगवान राम को अपनी नौका में सवार कराने वाला केवट कोई ब्राह्मण नहीं था। वह समाज के उपेक्षित वर्ग से था, किन्तु प्रभु राम ने क्या उसे दुत्कार दिया? नहीं, बल्कि उसे गले लगाया और कहा, ‘‘तुम संग सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता।’’



हिन्दू पतितो न भवेत: प्रवीण तोगडि़या
अब केवल धर्म की बात नहीं होगी। विश्व हिन्दू परिषद विभिन्न जातियों का विराट सम्मेलन आयोजित करेगी, जिस आधार पर भारत में अस्पृश्यता मुक्त समाज का परिदृश्य निर्माण किया जाएगा। बहुत से जागरण अभियानों की संरचना की जा चुकी है, जिनके द्वारा सशक्त भारत में अस्पृश्यता मुक्त समाज का स्वरूप प्रतिबिम्बित होगा। आखिर क्या विहिप की कार्ययोजना ? क्यों बनानी पड़ी ऐसी रणनीति ? इन तमाम मुद्दों पर विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष डाॅ. प्रवीण भाई तोगडि़या से बात की सुभाष चन्द्र ने। पेश है उस बातचीत के प्रमुख अंश: 


सवाल: अचानक क्यों जरूरत आन पड़ी कि विश्व हिन्दू परिषद को छुआछूत के विरोध में अभियान चलानी पड़ रही है ?
यह अचानक नहीं हुआ है। अपने स्थापना काल से ही विश्व हिन्दू परिषद सामाजिक समरसता और सहकार की बात करती रही है। ऐसा नहीं है कि हमने पहली बार इस काम को शुरू किया है। लगातार हम इसको लेकर काम करते रहे हैं। हां, इस बार हमने इस बड़े स्तर पर शुरू किया है। विश्व हिन्दू परिषद ने भारत से अस्पृश्यता निवारण के संकल्प को दोहराते हुए विशेष कार्य योजना के साथ विहिप स्वर्ण दृष्टिपथ 2025 की घोषणा की है। 

सवाल: क्या है विश्व हिन्दू परिषद का स्वर्ण दृष्टिपथ 2025 ?
इसके अनुसार जब हम अपने लक्ष्य को हासिल करेंगे, तो भारत में पुनः इस संदर्भ में नवीन आयाम प्रस्थापित होंगे। इसके लिए हमने कार्य योजना तैयार की है। जहाँ भी गांव - नगर हैं, वहाँ सभी के लिए एक जल स्रोत होगा। जहाँ कुआँ, झील या नल से सभी सभी निवासी जल ग्रहण कर सकेंगे। सभी मंदिरों में सभी हिन्दुओं का प्रवेश मान्य होगा। किसी भी मंदिर में किसी हिन्दू का प्रवेश निषेध नहीं होगा।  मृत्यु के पश्चात भी सभी हिन्दू एक रहेंगे अर्थात् एक ही श्मशान घाट में सभी का दाह-संस्कार होगा। जहाँ भी जाति आधारित श्मशान घाट है, वहाँ समाज के विभाजन का वातावरण बनता है। इसे पूर्णतः समाप्त किया जाएगा। सभी हिन्दू सहभोज में सम्मिलित हो सकेंगे। ग्रामों में पृथक जाति हेतु भोजन करने की व्यवस्था समाप्त कर एक साथ सहभोज करने की व्यवस्था विहिप द्वारा प्रचारित की जाएगी। 

सवाल: क्या यह लक्ष्य हासिल करना सरल है ? वह भी तब जब छुआछूत को लेकर भेदभाव हमारे समाज में गहराई तक फैली हुई है ?
विहिप जानती है कि यह सरल कार्य नहीं है, क्योंकि ये कुप्रथाएँ समाज में गहराई तक पैठ बना चुकी है। हमारी समरसता टोलियाँ एव अन्य कार्यकर्ता ग्राम-ग्राम तक जायेंगे तथा वहाँ अस्पृश्यता व अन्य संदर्भित विषयों की जानकारी लेकर आवश्यक समाधान प्रस्तुत करेंगे। इस संदर्भ में विहिप सामाजिक सम्पर्क समन्वय स्थापित करेंगी। कोई विरोधाभास न दर्शाते हुए एकता की सद्भावना का संचार किया जाएगा। 

सवाल: विश्व हिन्दू परिषद को छुआछूत की याद क्यों आई ? मुद्दे तो और भी हैं इस समाज में ?
देखिए, भारत में छुआछूत का कोई अस्तित्व नहीं है। विहिप ने इस सिद्धान्त पर सदैव आस्था प्रकट की है। उडूपी हिन्दू सम्मेलन 1969 के अवसर पर इस संदर्भ में सभी महामहिम शंकराचार्यों की उपस्थिति में एक संकल्प किया था। ‘हिन्दवः सर्वे सहोदरा’  अर्थात् सभी हिन्दू आपस में भाई-भाई हैं। इसके साथ ही संकल्प घोषित किया गया - ‘हिन्दू पतितो न भवेत’ अर्थात् कोई अन्य किसी हिन्दू से न छोटा है न बड़ा। इसका अनुसरण करते हुए शंकराचार्य एवं अन्य साधु संतों ने भारत के विभिन्न स्थानों पर जाकर यह संदेश दिया कि अस्पृश्यता भीषण अभिशाप रूपी संकट है। काशी के शंकराचार्य महाराज ने डोम राजा के साथ सहभोज करके छुआछूत निवारण का प्रकट संदेश दिया। 1989 में भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण हेतु अयोध्या में दलित जाति के प्रतिनिधि श्री कामेश्वर चैपाल (बिहार) के कर कमलों द्वारा ही शिलान्यास कराया गया। 

सवाल: अचानक डोमराजा का याद आना। उसके बाद कामेश्वर चैपाल का स्मरण हो आना। बिहार और उत्तर प्रदेश के आसन्न चुनावों में राजनीतिक लाभ लेने की मंशा तो नहीं है ?
विश्व हिन्दू परिषद कभी राजनीति लाभ-हानि के लिए काम नहीं करती है। बीते दस वर्षों का मेरा रिकाॅर्ड उठा कर देख लें, किसी भी चुनावी सभा में मैंने न तो भाग लिया और न ही किसी दल के पक्ष में प्रचार किया।

सवाल: विश्व हिन्दू परिषद के हिन्दू परिवार मित्र की संकल्पना क्या है ?
सभी हिन्दू परिवार अन्य जाति के एक परिवार से मैत्री संबंध बनायेंगे। दोनों परिवार मिलकर सुख-दुःख की घड़ी में एक साथ दिखाई देंगे। एक दूसरे के निवास पर जायेंगे एवं एक साथ बैठकर घर में भोजन करेंगे, न कि किसी होटल या ढाबे पर। दोनों परिवार पर्यटन पर जायेंगे तो घर के बने भोज्य पदार्थों का परस्पर सेवन करेंगे। किशोर बालक परिवार के फोटो खींचेंगे और ‘हिन्दू परिवार मित्र’ की चित्र दर्शिका आपस में वितरित करेंगे। वाट्स एप व फेसबुक आदि पर यह सब दर्शनीय बनाया जाएगा। ऐसे अनेक मित्र परिवार जो भारत में अब तक सक्रिय हैं उनकी संख्या में वृद्धि निरन्तर की जाती रहेगी। 

सवाल: पूरे देश में अच्छे दिन आने की बात की गई। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के करीब दस महीने बीत चुके हैं, आप किस रूप में देखते हैं इस सरकार के कामकाज को ?
मैंने कभी इस सरकार के कामकाज पर ध्यान ही नहीं दिया। जरूरत ही नहीं पड़ी। आपको बता दूं कि मैं विश्व हिन्दू परिषद के अभियान में इस तरह व्यस्त रहता हूं कि सामान्य परिस्थितियों में मैं एक शहर में दो लगातार रातें नहीं बिताता। जब जरूरत पड़ेगी, तो आपको बताउंगा कि इस सरकार का कामकाज कैसा है और इसके क्या किया।

सवाल: आजकल अंर्तजातीय विवाह को लेकर चर्चा होती है। आॅनर किलिंग शब्दों का इजाद हो गया है। आपकी क्या राय है? 
देखिए, मेरी व्यक्तिगत सोच यही है कि हिन्दुओं के अंतर्गत सगोत्र को छोड़कर शेष अंतर्राजातीय विवाह सही हैं। किसी भी देश में उसकी परंपरा और संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए। यदि कोई इसको तोड़ता है तो जाहिर है प्रतिक्रिया होगी।

सवाल: धर्मांतरण को लेकर समाज में कई तरह की बातें होती है। घर वापसी को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है। आखिर प्रवीण तोगडि़या को इसे किस तरह से देखते हैं ?
धर्मातरण रोकने के लिए सभी हिंदू एकजुट हों। खासतौर पर युवतियों को वह सतर्क रहकर लव जिहाद से दूर रहना होगा। ऐसे युवकों से दूर रहें, जो हिंदू होने का ढोंग कर उन्हें अपने जाल में फंसाते हैं। हिंदुओं के सम्मान की रक्षा और गोहत्या रोकने के लिए जन्माष्टमी के दिन विश्व हिन्दू परिषद का गठन हुआ था।

सवाल: क्या विश्व हिन्दू परिषद और प्रवीण तोगडि़या ने राम मंदिर का मुद्दा अब छोड़ दिया है ? क्या मोदी सरकार आने भर से इसकी इतिश्री हो गई है ?
नहीं। विश्व हिन्दू परिषद जिस भी चीज को एक बार ठान लेती है, उसे पूरा करके ही दम लेती है। हमने न तो राम मंदिर का मुद्दा कभी छोड़ा और न ही छोड़ेंगे। भगवान श्रीराम का मंदिर अपने नियत स्थान पर बनकर रहेगा। विहिप अपनी स्थापना की स्वर्ण जयंती पर उत्सव नहीं मनाएगी। उत्सव तब ही मनेगा जब राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण होगा। वर्ष 1993 केंद्र की तत्कालीन राव सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र देकर कहा था कि कोर्ट जिसके पक्ष में भी निर्णय देगा, अधिग्रहीत भूमि उसे उपलब्ध कराई जाएगी। अब केंद्र सरकार को अपने शपथपत्र को संज्ञान में लेकर अधिग्रहीत भूमि राम मंदिर के लिए सुलभ करा देनी चाहिए। 

रविवार, 15 मार्च 2015

मांझी के पीछे मोदी

जिन तीन दलों ने जीतन राम मांझी को पद से हटाया है, उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। नाम मांझी है, लेकिन मंझधार में उन्होंने कितनों को फंसा रखा है। भाजपा को भी सोचना होगा कि मांझी का अभी साथ देकर सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटा, तो छुटकारा पाने के वक्त क्या कहेंगे ? कहीं भाजपा की हालत भी नीतीश जैसी न हो जाए ? और सबसे बड़ा सवाल कि ये साथ कब तक और किस हद तक का है ?



बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के पीछे शुरुआत में नीतीश कुमार थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। नौ महीना बीतते-बीतते एक नए मांझी का स्वरूप दिखने लगा, जिसके पीछे भाजपा थी। अचानक भाजपा मांझी का साथ क्यों देने लगी ? बिहार की जनता के मन में सबसे बड़ा सवाल यही था और आज भी है। बिहार में सुशील मोदी और केंद्र में नरेंद्र मोदी को ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी कि वो मांझी के पीछे आ गए ? क्या नीतीश को नेस्तोनाबूद करने के लिए और कोई विकल्प नहीं रह गया था। 
असल में, बिहार की राजनीति को समझने-बूझने वाले भी आज सवाल कर रहे हैं कि यदि महादलित की चिंता थी, तब भाजपा ने मांझी के मुख्यमंत्री बनने पर स्वागत क्यों नहीं किया ? क्यों कहा कि ये कठपुतली मुख्यमंत्री है। हर दिन मांझी पर हमला हुआ। पर इस बीच मांझी कैसे भाजपा के करीब पहुंच गए। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि इस पोलिटिक्स को आप केमिस्ट्री की क्लास में समझना चाहते हैं या कॉमर्स की ? क्या मांझी भाजपा बीजेपी की कठपुतली नहीं हैं? नीतीश अगर रिमोट के जरिये मांझी की सरकार चला रहे थे, तो क्या बीजेपी रिमोट के जरिये मांझी को नहीं चला रही थी। 
असल में, कहा गया कि रामविलास पासवान के बाद मांझी का भाजपा की तरफ आना उसके सामाजिक आधार का विस्तार तो करेगा, लेकिन इससे मांझी या दलित राजनीति को क्या मिलेगा। क्या चुनाव बाद मुख्यमंत्री का पद मिलेगा? आखिर भाजपा ने खुद को इस खेल से खुलेआम अलग क्यों नहीं किया है। क्या वह अब भीतरघात की राजनीति भी करेगी। याद कीजिए, मांझी ने दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर कहा कि नीतीश का चेहरा एक्सपोज हो गया है। वे सत्ता के लालची हैं, लेकिन मांझी कैसे सत्ता के संन्यासी बने हुए हैं। सिर्फ इसलिए कि उनके पास एक ऐसा प्रतीक है, जिसकी काट किसी के पास नहीं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भाजपा बिहार में यह सब सामाजिक न्याय के लिए कर रही है ? क्या बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा रामविलास पासवान को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाएगी, मांझी को बनाएगी ?
बहरहाल, बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटने पर मजबूर किए जाने के एक हफ्ते बाद जीतन राम मांझी ने अपनी नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की। मांझी ने अपनी पार्टी का नाम ‘हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा’ (हम) रखा है। मांझी ने कहा कि वह इस मोर्च के जरिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमारे के असली चेहरे को पब्लिक के सामने लाएंगे। हमारी पार्टी नीतीश कुमार और जेडी(यू) को सीधी चुनौती देगी। हमलोगों ने कई लंबी बैठकों में विचार-विमर्श के बाद नई पार्टी हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा बनाने का फैसला किया है। इन बैठकों में हमने अपने समर्थकों, हमदर्दी रखने वालों और पूर्व मंत्रियों से विचार-विमर्श किया। इसके बाद हमलोग नई पार्टी बनाने के फैसले पर पहुंचे।
गौरतलब है कि मांझी और उनके समर्थक मंत्रियों, विधायकों को जेडी(यू) चीफ शरद यादव ने पार्टी से निकाल दिया था। इसके बाद से अटकलबाजी तेज थी कि अब मांझी की राजनीति किस करवट बैठेग ? मांझी के ज्यादातर समर्थक महादलित कैटिगरी से ताल्लुक रखते है। पार्टी लॉन्च करने के मौके पर मांझी ने कहा, ‘हम अपने समर्थकों के साथ नीतीश कुमार के असली चेहरे को बेनकाब करेंगे। मैंने 9 महीने के शासनकाल में महज 12 दिन काम किए हैं। ज्यादातर वक्त मौखिक संघर्ष में ही गुजरा। मैं भले 9 महीने तक सीएम की कुर्सी पर रहा, लेकिन असली काम मैंने 7 से 19 फरवरी के बीच महज 12 दिनों तक किए। 
एक बार को लगा कि बिहार जाति की राजनीति के मिथक को तोड़ेगा। लेकिन आज दस साल बाद बिहार एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा है जहां से जाति की राजनीति वाली सुरसा ने मुॅह खोल कर बिहार के विकास को अवरुद्ध कर हिंसा की भयावहता का विस्तार करने की कोशिश किया था। अफसोस! इस राजनीति को एक बार फिर हवा मिली है वह भी नीतिश कुमार के जरिए, हां यह अलग बात है कि इस बार उनकी मदद लालू यादव भी कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच एक और चेहरा बिहार की राजनीति में उभर कर आ गया है वह कोई और नहीं बल्कि निर्वासित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हैं। जीतन राम मांझी की राजनीति ने कांशीराम के उस दौर की याद दिला दी है, जब वे सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने के लिए कभी हाथ मिलाते थे तो कभी झटक कर चल देते थे। सत्तर के दशक के आखिरी साल में कर्पूरी ठाकुर को किन लोगों ने अपमानित किया बिहार की राजनीति जानती है। कर्पूरी को कुर्सी से हटाकर एक दलित चेहरा खोजा गया, रामसुंदर दास का। जिन्हें सवर्ण नेताओं के समूह और जनसंघ ने समर्थन दिया था। दिक्कत यह है कि आप जीतन राम मांझी को सामाजिक न्याय के प्रतीक से अलग भी नहीं कर सकते, लेकिन उस सियासत से आंख भी बंद नहीं कर सकते जो दिल्ली से पटना तक में इस प्रतीक के नाम पर खेली जा रही है। नैतिकता और न्याय सियासत में कब पाखंड है और कब प्रतीक यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप नीतीश को पसंद करते हैं या नरेंद्र मोदी को या फिर मांझी को। दिलचस्प बात यह है कि जिन तीन दलों ने मांझी को पद से हटाया है उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। जेडीयू से बर्खास्त मांझी इस्तीफा नहीं दे रहे हैं और दूसरी तरफ विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद भी नीतीश कुमार शपथ नहीं ले पा रहे हैं। राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी की किस्मत ही कुछ ऐसी है कि वे जहां भी जाते हैं, यूपी विधानसभा की स्थिति पैदा हो जाती है। मांझी की त्रासदी यह है कि कोई इन्हें अपनी नाव का खेवनहार नहीं बनाना चाहता, बल्कि सब मांझी को नाव बनाकर खेवनहार बनना चाहते हैं। मांझी हैं कि तूफान का सहारा लेना चाहते हैं। यह मजा कब सजा में बदल जाएगी मांझी को अभी इसका एहसास शायद न हो आज नितीश का बहुमत मिल गया माझी का विश्वास मत, भाजपा की बैशाखी पर नही टिक सका। समुद्र में आया उफान बहुत कुछ दे दिया करता है लेकिन जो कुछ ले जाता है वह मांझी से बेहतर कोई नही समझ सकता। राजनीति में मौका प्रधान है भावना नहीं।

एनडीए की नाव मांझी भरोसे!
विधानसभा चुनाव से पहले बिहार में कई तरह के समीकरण बनते बिगड़ते दिख रहे हैं। कभी जेडीयू के खेवनहार बनकर निकले मांझी जब अपनी ही नाव डूबो दिये, तो नीतीश कुमार को फिर कमान संभालना पड़ा. अब एक और खबर आ रही है। जेडीयू से निष्कासित होने के बाद बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी बिहार में अपने लिए नए सिरे से राजनीतिक जमीन तलाशने की तैयारी में हैं। इसी सिलसिले में बीते दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मिलने दिल्ली पहुंचे। उस दौरान उन्होंने कहा था कि वो चुनाव के बाद एनडीए के साथ मिलकर सरकार बना सकते हैं। जीतनराम मांझी ने कहा था कि उनकी पार्टी बिहार की कम से कम 125 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी। हालांकि मांझी ने साफ कर दिया है कि वो साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव अकेले ही लड़ेंगे और परिणाम आने के बाद ही गठबंधन को लेकर कोई फैंसला करेंगे। लेकिन उससे पहले मांझी ने गठबंधन को लेकर भाजपा का रूख साफ करने की मांग की।
उल्लेखनीय है कि चुनाव को लेकर मांझी का संगठन हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा 20 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में महारैली का आयोजन करने जा रहे है। जिसके बाद ही तय किया जाएगा कि कितनी सीटों पर चुनाव लड़ना है। मांझी ने बयान देकर कि उन्हें चुनाव के बाद कांग्रेस और आरजेडी के साथ भी गठबंधन से गुरेज नहीं है, गठबंधन की गेंद भाजपा के पाले में डाल दी है। यानी अब भाजपा बीजेपी को तय करना है कि उसे मांझी का साथ देना है या नहीं। 

भाजपा का आॅपरेशन बिहार 
भाजपा की कोशिश है कि अगर मांझी अपनी पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो यही उसके के लिए सबसे मुफीद होगा। अगर चुनाव के वक्त भाजपा और मांझी की पार्टी में तालमेल होता है, तो भी भाजपा को ही फायदा होगा। अगर नहीं होता तो भी भाजपा उसका फायदा उठा सकती है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि भाजपा की ओर से ऑपरेशन बिहार के तहत इसकी शुरुआत कर दी गई है। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि मांझी और भाजपा के बीच किस तरह का रिश्ता बनता है, लेकिन इतना जरूर है कि भाजपा चाहती है कि बिहार विधानसभा चुनाव में मांझी की भूमिका जरूर हो। इससे भाजपा को नीतीश-लालू की जोड़ी से लड़ने में कामयाबी मिलेगी।
मांझी को लेकर भाजपा के पास तीन विकल्प हैं। सबसे बेहतर विकल्प पर माथापच्ची जारी है। पहला विकल्प ये है कि मांझी को भाजपा में लाया जाए। हालांकि इससे भाजपा को ज्यादा फायदा नहीं होगा। कुछ क्षेत्रों में भाजपा को अतिरिक्त वोट ही मिल जाएगा। दूसरा विकल्प ये कि मांझी अपनी पार्टी बनाएं और चुनाव मैदान में नीतीश-लालू की जोड़ी पर जमकर हमला करें। इससे नीतीश- लालू बनाम भाजपा की बजाय त्रिकोणीय और कई जगह बहुकोणीय मुकाबला होगा। अब तक जो संकेत आए हैं, उसके तहत आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस जैसे दल मिलकर चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसे में भाजपा और अन्य दलों के गठजोड़ की सीधी टक्कर होगी। तीसरा विकल्प यह कि मांझी की पार्टी से भाजपा का तालमेल हो जाए यानी भाजपा मांझी की पार्टी को गिनती की सीटें दे और बदले में मांझी राज्य में नीतीश व लालू के खिलाफ कैंपेन करें यानी भाजपा के पक्ष में।
क्या कहती है भाजपा का यह इशारा 
भाजपा के लिए सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अगर मांझी की पार्टी के साथ मिलकर वह चुनाव लड़ती है तो महादलित वोट उसकी ओर आ सकता है। इससे लालू और नीतीश के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। पार्टी के लिए यह भी अच्छा होगा कि राज्य में सीधी टक्कर नहीं होगी। भाजपा को यह मालूम है कि अगर सीधी टक्कर हुई तो उसके लिए दिक्कतें बढ़ सकती हैं, क्योंकि नीतीश व लालू के साथ आने के बाद उनका वोट बैंक और मजबूत हो गया है।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए राजग के साथ आने के संकेत दिए है। हालांकि उन्होंने कहा है कि वे चुनाव पूर्व किसी दल से गठबंधन नहीं करेंगे, लेकिन चुनाव बाद के सारे विकल्प खुले हुए हैं। मांझी 20 अप्रैल को पटना में रैली कर अपनी नई पार्टी की घोषणा करेंगे। इस बीच रालोसद के सांसद अरुण कुमार ने मांझी से मुलाकात की है। मांझी ने कहा है कि धर्मनिरपेक्षता व विकास के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है। उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सत्ता का लालची करार देते हुए कहा कि जनादेश नीतीश कुमार को नहीं, बल्कि राजग को मिला था। उन्होंने कहा कि वे 20 अप्रैल को पटना में रैली कर नई पार्टी की घोषणा करेंगे। चुनाव पूर्व व बाद की राजनीति पर उन्होंने कहा कि अभी उनकी किसी दल से बात नहीं चल रही है। दिल्ली आए मांझी भाजपा के बड़े नेताओं के साथ मुलाकात की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा ने अगर विश्वास मत परीक्षण के आठ दिन पहले समर्थन देने की घोषणा कर दी होती तो वे उनकी सरकार बच जाती। भाजपा के अधिकांश बड़े नेता इन दिनों दिल्ली में नहीं है। वैसे भी भाजपा नेताओं को मांझी पर ज्यादा भरोसा नहीं है कि वे किस करवट बैठेंगे। इस बीच रालोसद के सांसद अरुण कुमार ने मांझी से मुलाकात कर उनको टटोला है। सूत्रों के अनुसार रालोसद मांझी को अपने साथ जोड़ना चाहती है। उसने मांझी से कहा है कि वे रालोसद में आकर राजग से जुडम् सकते हैं। हालांकि मांझी इस समय अपनी पार्टी बनाने के पक्ष में हैं, जिसे वे राजग के साथ जोड़ सकते हैं।

कैसे तोड़ेंगे नीतीश के मास्टर स्ट्रोक को
नीतिश कुमार ने संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधान खूब फायदा उठाया। बल्कि भाजपा को चिढ़ाने के लिए यह भी कह डाला कि यह प्रावधान केंद्र की एनडीए सरकार ने ही किया है। इसी प्रावधान के तहत उन्होंने मांझी को भी पार्टी व्हिप के दायरे में ला खड़ा किया। हालांकि, मांझी सदन में पहले ही असम्बद्ध करार दिए जा चुके थे। नीतीश कुमार ने बार-बार इस दौरान इस बात का भी जिक्र कर रहे थे कि मांझी का जदयू के 40-50 विधायकों के संपर्क में रहने का दावा के क्या हुआ? उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय बार-बार कहते थे कि जब चाहेंगे, सरकार गिरा देंगे, उस दावे का क्या हुआ? हालांकि भाजपा ने अपनी ओर से यह कोशिश जरूर की थी कि वोटिंग की नौबत नहीं आए। यही कारण रहा कि वोटिंग का समय आने से पहले ही भाजपा के सभी सदस्य सदन से वाक-आउट कर गए, लेकिन उनकी यह रणनीति काम नहीं आई। इसके विपरित मांझी ने सदन में नहीं आकर अपनी सदस्यता गंवाने का रिस्क जरूर लिया और साथ ही नीतिश कुमार के खिलाफ जंग का ऐलान भी कर डाला। साथ ही विश्वासमत को लेकर विधानसभा में चल रही चर्चा के दौरान मांझी ने एक अणे मार्ग स्थित अपने आवास पर पत्रकारों से यह भी कह डाला कि उनको व्हिप की अवहेलना करने के कारण विधायकी खत्म होने की कोई चिंता नहीं है। वसूल और सिद्धांत के लिए वे हर कुर्बानी देने को तैयार हैं। इस बीच नीतीश कुमार ने मांझी सरकार के 34 फैसलों को रद करने का भी साहस भी दिखा दिया है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अपने इस फैसले को जनता के समक्ष सही ठहराने के लिए वह कौन सी रणनीति अपनाएंगे?