रविवार, 28 फ़रवरी 2010

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

मनमोहन का इस्तीफा, सोनिया ने संभाली गद्दी

बहुत हुआ। अब नहीं चलेगा। पांच साल से अधिक का मौका दिया। दोबारा भी कुर्सी थमाई। फिर भी न देश सुधरा और न परिवार। एक ही तो बेटा था, जिसकी शादी भी नहीं करा पाए। तो भला क्यों बनाए 'रखवारÓ। ऐसे थोड़े ही होता है। लोग तो यही कहते हैं न कि सरकार का रिमोट जब हाथ में है तो खुद ही क्यों नहीं गद्दी पर बैठ जाते हैं। नया साल का बजट भी पेश हो गया तब भी आम आदमी को राहत नहीं मिला। इसी प्रकार की तमाम मुद्दों पर सरकार और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की होलियाड बैठक हुई, जिसमें फैसला लिया गया कि डा. मनमोहन सिंह को अपने पद पर बने रहने का कोई नैतिक अधिकार शेष नहीं रह गया है। सो, उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। ताजा घटनाक्रम में मनमोहन सिंह ने भरे मन से अपन पद और गोपनीयता से इस्तीफा दे दिया है और सोनिया गांधी ने रिमोट ही नहंी पूरी सरकार अपने हाथ में रख ली है।
दरअसल, देश को बजट मिल गया। सत्ता में बैठे नेताजी सब खुश हैं, उनके दोनों मंत्रियोंं ने एकदम धांसू इलेक्शन वाला बजट पेश किया है, तो विपक्षी नेताओं की परेशानी ई है कि बजट का पोस्टमार्टम कर ऊ जनता को जो उसका सड़ा-गला पार्ट दिखा रहे हैं, उसको देखकर जनता को हार्ट अटैक नहीं हो रहा। एक ठो विपक्षी नेताजी मिले, बोले, 'पब्लिक निकम्मी हो गई है। पहले लालू ने सब्जबाग दिखा दिया, ऊ खुश हो गई... इस दफा ममता ने दिखाया तब भी खुश। आज प्रणव दा ने भी खूब छकाया, कई ख्वाब दिखाया, ऊ खुश हो गई। हमरी तो कोयो सुनबे नहीं करता है। हम कह रहा हूं कि ई बोगस बजट है, इससे लोगों का भला नहीं होगा, लेकिन पब्लिक है कि समझने को तैयार नहीं है।Ó
दो दिन पहले ममता दी का दिन था...अब प्रणब दा का । प्रणब दा को फिक्र रही ..फिस्कल घाटे की...जीडीपी की...रुपया आएगा कहां से...रुपया जाएगा कहां...लेकिन आंकड़ों की बाज़ीगरी के इस वार्षिक अनुष्ठान से हमारा-आपका सिर्फ इतना वास्ता होता है कि क्या सस्ता और क्या महंगा...इनकम टैक्स में छूट की लिमिट बढ़ी या नहीं...होम लोन सस्ता होगा या नहीं...लेकिन इस देश में 77 करोड़ लोग ऐसे भी हैं जिनका प्रणब दा से एक ही सवाल है...रोटी मिलेगी या नहीं...?
बजट से एक दिन पूर्व आर्थिक सर्वे में सुनहरी तस्वीर दिखाई गई कि भारत ने आर्थिक मंदी पर फतेह हासिल कर ली है...अगले दो साल में नौ फीसदी की दर से विकास का घोड़ा फिर सरपट दौडऩे लगेगा...लेकिन आम आदमी को इस घोड़े की सवारी से कोई मतलब नहीं...उसे सीधे खांटी शब्दों में एक ही बात समझ आती है कि दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए भी उसकी जेब में पैसे होंगे या नहीं...? दाल, चावल, आटे के दाम यूं ही बढ़ते रहे तो कहीं एक वक्त फ़ाके की ही नौबत न आ जाए...ये उसी आम आदमी का दर्द है जिसके दम पर यूपीए सरकार सत्ता में आने की दुहाई देते-देते नहीं थकती थी...चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस नारा लगाती थी...आम आदमी के बढ़ते कदम, हर कदम पर भारत बुलंद...लेकिन आठ महीने में ही आम आदमी की सबसे बुनियादी ज़रूरतों पर ही सरकार लाचार नजऱ आने लगी...।
इससे पूर्व बैठक में यह भी चर्चा हुई कि पंचवर्षीय योजनाओं के देश में 100 दिन की योजना बनी। हरेक मंत्रालय के लिए, वह भी प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर। तब किसी ने यह नहीं पूछा कि गरीबी कब दूर होगी? महंगाई कब खत्म होगी? भ्रष्टïाचार से कब छुटकारा मिलेगा? पीने के लिए जल लोगों को कब मुहैया होगा? बिजली कब आएगी? सब को रोजगार कब मिलेगी? आदि...आदि। संभव है जबाव मिलता - 100 दिन में। जबकि गुणा भाग का तात्कालिक हिसाब से मनमोहन सरकार के पास कोई 1825 दिन का जमा पूंजी था। लेकिन वे थे कि 100 दिन में ही सब निपटा देना चाहते थे। सारे मंत्री 100 दिन के टारगेट पर सेट कर दिए गए।
अब, जबकि टारगेट की सौ दिनी समय-सीमा कब की समाप्त हो चुकी है और दूसरा सौ दिन भी बीत चुका है, एक भी लक्ष्य पूरा नहीं कि या गया। सरकार ने क्या उपलब्ध्यिां हासिल की, इस पर हर कोई चुप्पी साधे हुए है। चुप, एकदम चुप। सरकार के तमाम मंत्रालय चुप्पी साधे रहे जबकि 100 दिनों का एजेंडा पेश करने के लिए मंत्रालयों और मंत्रियों में होड़ लगी हुई थी। मानो जल्दी ही सौ दिन में लिखी जाने वाली कोई कालजयी रचना स्टैंड पर आने वाली हो। ओबामा ने भी सौ दिन का टारगेट सेट किया था। कहां है किसी को पता नहीं। मुश्किल ये है कि इस चक्कर में इतने फैसले हो जाएंगे कि लागू ही नहीं हो पायेगा।
अब, जब इतना सब हो गया तो आखिर सोनिया गांधी कब तक खैर मनाती। जनता के प्रति उनकी जबावदेही भी है तो कुछ । सो, खुद ही कुर्सी थाम ली।
ये है होली स्पेशल

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

विलासिता के लिए मातृत्व का सौदा

औरतों को लक्षित करके किसी मशहरोमारुफशायर ने कहा है कि-

मैं कभी हारी गई, पत्थर बनी, गई बनवास भी,

क्या मिला द्रोपदी, अहिल्या,जानकी बनकर मुझे।

इस पंक्ति को आधुनिकता के चादर में लपेट कर आज की नारी तमाम वर्जनाओं को तोडऩा चाहती और उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहती है। इक्कीसवीं सदी को भी न जाने किन-किन उपाधियों से सम्मानित किया जा रहा है। उपभोक्तावाद की सदी, स्त्रियों की सदी, सूचना क्रांति की सदी, और न जाने क्या-क्या...? देखा जाए तो उपभोक्तावाद और स्त्री, जब दोनों का संगम हुआ तो इक्कीसवीं सदी के खुले बाजार ने उसे हाथों-हाथ लिया।

बाजार का ही असर है कि विदेशों में लड़कियां खुलेतौर पर अपना कौमार्य बेच रही हैं तो राजधानी दिल्ली की लड़कियां अपना मातृत्व बेच रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि ये लड़कियां कम पढ़ी-लिखी हैं और कोई इन्हें बरगला रहा है। ये तो दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं हैं, जहां सामान्य से अच्छे लोगों का ही नामांकन संभव हो पाता है। उनकी देखा-देखी कामकाजी लड़कियां भी इस पेशे में उतर चुकी हैं।

सच तो यही है कि अब अंडाणुओं की भी सौदेबाजी शुरु हो चुकी है!... हाल ही में यह खबर बाहर आ चुकी है। आसानी से पैसे कमाने के लिए दिल्ली में अकेली रहने वाली छात्राएं और कामकाजी लड्कियां अपने अंडाणु फर्टीलीटी क्लीनिकों में बेच रही है। फर्टीलिटी क्लीनिक इन अंडणु को नि:संतान दंपतियों को बेच देते है। लड़कियों को पैसा मिलता है, क्लीनिक वालों को उनका कमीशन और नि:संतान दंपत्तियों की तो बल्ले-बल्ले।

यह कारोबार लगातार बढ़ता चला जा रहा है। दिल्ली के प्रजनन विशेषज्ञों को कॉलेज जाने वाली छात्राओं और अकेली कामकाजी युवतियों की ओर से अंडाणुओं देने के लिए लगातार निवदेन मिलता रहता है। प्रत्येक लड़की के शरीर से 10 से 12 अंडाणु लिए जाते हैं ओर इसके बदले उन्हें 20 हजार से 50 हजार रुपए तक की राशि मिल जाती है। ग्रेटर कैलाश स्थित फिनिक्स अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञ सचदेवा गौड़ ने बताया कि दुनिया भर से प्रतिमाह 15 नि:संतान जोड़े अंडाणु की मांग करते हैं। बकौल गौड़ , 'अधिंकाश जोड़े विदेशी होते हैं और इसके लिए वे 60 हजार से एक लाख रुपए तक खर्च करने के लिए तैयार होते हैं। कई नि:संतान दंपत्ति तो मुंहमांगा रकम देने को तैयार हो जाते हैं।Ó दरअसल, यह एक नया चलन है। जनवरी के पहले हफ्ते में दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की चार छात्राओं ने अपने अंडाणु दिए थे। वहीं, पश्चिमी दिल्ली के बी.एल. कपूर मेमोरियल अस्पताल की चिकित्सक इंदिरा गणेशन भी स्वीकारती हैं कि 22 से 25 वर्ष की युवतियां अंडाणु देने के लिए आया करती हैं। इनमें से ज्यादातर अकेले रहने वाली कामकाजी महिलाएं या छात्राएं होती हैं।

बताया जाता है कि अकेली रहने वाली युवतियां और छात्राओं की रुची ऐसा धन कमाने में ज्यादा होती है। समाजशास्त्री मीनाक्षी नटराजन के अनुसार, वर्तमान में हर कोई अतिआधुनिक जीवन शैली अपनाना चाहता है। बिना कुछ सोचे-समझे। जबकि हरेक की आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति अलग होती है। जब लोग अंधाधुंध नकल किसी भी चीज की करते हैं तो उसके परिणाम कभी भी सुखद नहीं होते। यहां भी वही हो रहा है। तभी जो लड़कियां अपने परिवार के साथ रहती हैं, वह थोड़ी संयमित होती हैं। अंडाणु प्रकरण में भी आप देखेंगेे कि परिवार के साथ रहने वाली युवतियां कम ही होती है जो अपने अंडाणु देने की ओफर करती है। अब बिजनेस ...कौन सी चिज का कब किया जाए...इसकी कोई मर्यादा नहीं है!...अंडाणुओं की बिक्री में अस्पताल वालों का बिजनेस चल रहा है तो.... अंडाणुओं की पूर्ति करने वाली युवतियों का भी बिजनेस चल ही रहा है।

ऐसा नहीं है कि नि:संतान दंपत्ति के लिए यही एक तरीका बचा है। कुछ वर्षों से सेरोगेट मदर का कंस्पेट भी है। चिकित्सीय विशेषज्ञों का मानना है कि इंट्रा यूटेराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) तकनीक सहज शब्दों में कहे तो कृत्रिम गर्भाधान प्रक्रिया के माध्यम से नि:संतान दंपति भी संतान प्राप्त कर सकते है। बांझपन की स्थिति के लिए पुरुषों की शारीरिक कमियां भी उत्तरदायी है। जैसे उनके वीर्य में शुक्राणु संख्या की कमी, शुक्राणु के बाहर निकलने में बाधा , वीर्य में संक्रमण, शुक्राणु की गति में कमी आदि। इसके विपरीत महिलाओं में गर्भाशय का अविकसित होना, अंडाशय में कमी जैसे अंडाणु का न बनना अथवा गाँठ, गर्भाशय के मुख से संबंधित रोग, योनि का छोटा होना कुछ प्रमुख कारण है। आईयूआई तकनीक में फैलोपियन ट्यूब का सामान्य होना जरूरी है। इस विधि के तहत महिला को पहले ऐसी दवाएं दी जाती है, जिनके असर से उसमें अंडाणु ज्यादा बनने लगें। इससे गर्भ ठहरने के अवसर बढ़ जाते है। इसके बाद अल्ट्रासाउन्ड के माध्यम से इस बात का पता लगाते है कि माह के किस दिन अंडाणु निकलता है और इसे भी नियंत्रित करने के लिए एक ऐसा इंजेक्शन लगाया जाता है, जिससे ठीक 36 घंटे बाद ही अंडाणु निकलता है। इससे यह अनुमान लगाना आसान होता है कि किस समय शुक्राणु को गर्भ में प्रवेश कराया जाए। इस अंडाणु निर्गम की जांच विधि को फॉलिक्युलर मॉनीटरिंग कहते हैं।

इस बीच पुरुष के शुक्राणु को लेकर उसे सही तरह से साफ कर लिया जाता है और विशेष तकनीक से उसे गाढ़ा किया जाता है। इससे शुक्राणु की गुणवत्ता और गतिशीलता बढ़ जाती है। अंडाणु निकलने के समय इस शुक्राणु को गर्भ में डाला जाता है। ऐसे में गर्भ ठहरने के अवसर 40 से 60 प्रतिशत तक होते है। आईयूआई तकनीक का प्रयोग उस समय भी किया जाता है, जबकि पुरुष में शुक्राणु बिल्कुल नहीं होते अथवा दवा के प्रयोग करने के बाद भी उनकी संख्या नहीं बढ़ती। ऐसे में किसी डोनर के शुक्राणु का प्रयोग किया जाता है। शुक्राणु को अंदर डालने के बाद एक निश्चित अवधि के अंतराल पर बराबर देखना पड़ता है कि शुक्राणु से अंडाणु मिला या नहीं? अगर नहीं मिलता है तो फिर दोबारा इस प्रक्रिया को करना पड़ता है। शुक्राणु का गर्भाधान कराने के पश्चात 'ल्यूटीयल सपोर्टÓ के लिये दवाएं दी जाती है और महिला को आराम करने की सलाह दी जाती है। इस प्रक्रिया के 12 से 16 दिन के अंदर गर्भाधान को सुनिश्चित किया जाता है।

प्रगति और विकास के माध्यम से स्थापित होने वाली जीवन-शैली ही दरअसल आधुनिकता है, जिसके प्रभाव से समय-समय पर मानवीय जीवन-मूल्यों में कभी थोड़े- बहुत तो कभी आमूल परिवर्तन आते हैं- सामाजिक स्तर पर भी, और व्यक्तिगत स्तर पर भी। चूंकि ऐसे परिवर्तन हमेशा ही नयी पीढ़ी का हाथ पकड़कर समाज में प्रवेश करते हैं, अक्सर बुजर्ग़ पीढ़ी की स्वीकृति इन्हें आसानी से नहीं मिलती। वे इन्हें अनैतिक कह देते हैं। असामाजिक और पतनोन्मुख करार देते हैं। सचाई यह है कि ज्ञान-विज्ञान के नये-नये आविष्कारों की वजह से वजूद में आये मूल्य पतित नहीं हो सकते। अमानवीय या असामाजिक या अनैतिक नहीं हो सकते । बल्कि इन्हीं मूल्यों को अपनाकर व्यक्ति प्रगति और विकास का वास्तविक लाभ ले सकता है। जो नहीं अपनाता, वह पिछड़ जाता है।

माँ कौन होती है ये सवाल काफी अटपटा लग रहा है , यदि ये सवाल है तो इसका जवाब है माँ वो है जो हमे जन्म देती है । पर आज हमारी बदलती सोच और बढती जरूरतों ने वैज्ञानिक खोज को वंहा पहुंचा दिया है जहाँ हम यह सोचने पर मजबूर है भारत में एक और धंधा अब तेज़ी से फलने फूलने जा रहा है वह है किराये पर कोख का। दरअसल किराये की कोख(सेरोगेट मदर) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत नि:संतान दम्पति डॉक्टरों के सलाह पर किसी अन्य महिला की कोख खरीदते है , और फिर डॉक्टरों द्वारा दम्पति के अंडाणु और सुक्राणु को निषेचित कर महिला के कोख में स्थापित किया जाता है , बच्चा जन्म लेने के कुछ ही देर बाद दम्पति के हवाले कर दिया जाता है ,और कोख बेचने वाली महिला को उसकी कीमत अदा की जाती है ।

ऐसा नहीं है कि अंडाणु का कारोबार पहली बार भारत में शुरू हो रहा है। जिसको लेकर हाय-तौबा मचाई जाए। कुछ समय पूर्व से ही ब्रिटेन में तो शुक्राणु और अंडाणुदाताओं को पहले के मुक़ाबले कई गुणा ज़्यादा पैसा दिए जाने के प्रस्तावों पर विचार चल रहा है। मानव निषेचन और भ््राूणविज्ञान परिषद इस बात पर विचार कर रही है कि दाताओं की कमी को दूर करने के लिए किस तरह से उन्हें दी जाने वाली रक़म तय की जाए। अब तक अंडाणुदाताओं को लगभग 1200 रुपये और कुछ दूसरे ख़र्चों के लिए भी भुगतान किया जाता है, लेकिन परिषद अब उनके लिए लगभग 80,000 रुपए देने पर विचार कर रही है। जबकि, शुक्राणु दाताओं को लगभग 4000 रुपए दिए जाते हैं लेकिन पुरुष दाता छह महीने के दौरान 50 बार तक शुक्राणु दान कर सकते है।

परिषद की अध्यक्ष सूज़ी लैदर का कहना है कि शुक्राणुदाताओं की तुलना में अंडाणुदाताओं का काम वैज्ञानिक दृष्टि से काफ़ी कठिन है। यह काम दर्द से भरा, तनावपूर्ण और जोख़िम भरा है। उनका कहना है कि कई उपचारगृहों और अंडाणुदाताओं ने परिषद से अधिक मुआवज़ा देने पर विचार करने को कहा है।

सूज़ी लैदर के अनुसार ब्रिटेन में अबतक लगभग 37,000 बच्चे दान दिए गए अंडाणुओं, शुक्राणुओं और भ्रूणों की मदद से पैदा हुए हैं, लेकिन हमारी खोजबीन बताती है कि चिकित्सालयों को उपयुक्त और इच्छुक दाताओं की कमी महसूस हो रही है। वो मानती हैं कि क़ानून में आने वाले बदलाव नई चुनौतियाँ और नए सवाल खड़े करते हैं, और यह बेहद ज़रुरी है कि लोग अपने विचारों को सामने रखें, ख़ासतौर से वो लोग जिनका जन्म दाता भ्रूणों, शुक्राणुओं या अंडाणुओं से हुआ है। अगर दाताओं को दी जाने वाली रक़म में बढ़ोतरी होती है तो ऐसा संभव है कि चिकित्सालय इन ख़र्चों का भार संतान चाहने वाले ज़रुरतमंद दम्पतियों पर डाल दें।

इस सच को दरकिनार भी नहीं किया जा सकता है कि पहले किराए की कोख और अब अंडाणु का कारोबार - नि:संतान दम्पति के जीवन में एक नई आशा की किरण जगाई है पर इससे जुरे कई ऐसे सवाल है जिसपर गहन चिंतन की आवश्यकता है।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

उ का है गोरी...

कभी-कभार ऐसा होता है कि मन नहीं लगता। अब नहीं लगता तो नहीं लगता। ऐसे में हम त दोइए काम करते हैं। एक कहीं घूमने भाग जाते नहि त इंटरनेट पर बैठिए। न कोनो चिक-चिक, झिक-झिक। कल अइसन ही हुआ। कुछेक दोस्तों के संग हंसी ठिठोली शुरू हो गई।
अब, आप लोगन के त दिमाग में सवाल उठबै न करेगा कि दोस्तन के संग हंसी-ठिठोली और वह भी होरी के समय में। उ का है न कि भौजी त रहती है गाम में आर साली हुई न है.... त करें त करें क्या? है कोनो इलाज। नहिए होगा। जब हम जइसन बिहारी के पास नहि है त आप त दिल्ली वाले हैं? एक बिहारी सब पर भारी त सुनिबै किया होगा न...
खैर... ई कहानी फिर कभियो। उ का है कि कल एगो हमरे मित्र ने कहा कि आपको चढ़ गया। अब, उ का जाने कि यहां त सैलरी का दिगदारी है, तो चढ़ेगा कहाँ से... अब त मांग-चांग के पीने-पिलाने का आदति त है न। वैसे भी त होली का तैयारी करना है...आब आप लोगन तो ठहरे धनिक। आपको तो कोनो दिक्कत नई है। हमरा लोगन को तो है न... लड़कैन को तौ तनिको नहि... उनको तो रंगो नहि खरीदना होता होगा... छौड़ा सब त पन्द्रह दिन पहिले से होलियाने लगता है। अब तो अंगुरी पर गिनने लायक दिने बचा है।
देखिए... हम तो होलियाने के चक्कर में इ भूले गया था कि हम अपना मित्र के बात कर रहा था। मित्र नहि त मित्राणी समझ लीजिए। कभी-कभार त बात होता है। फोन पर कमे... नेट पर अधिक। एहि मे हमरा दोष नहि है। उनको फुर्सत नहि मिलता है। तीन-तीन मैगजीन आ अकेला जान... सब जगह लिखना पड़ता है। इतना ही दिक्कत नहि है न उनके संग। आरो बहुतो परेशानी है। एक त देखने मे सुन्नर है....बोलने में अच्छा है और सबसे बुरा लक्षण है कि सिद्घांतवादी है। अब, जब लोगन सब बिना टैंलेंटे के शॉर्टकट अपनाता है त इथिक्स से काम नहि न लेना चाहिए। लेकिन हम त समझा-समझा के थक गया। हमको त खाली समझना ही पड़ता है न। वैसे एक गप्प बता दें, हमको अपने लिए भी समझ की दिगदारी रहती है। लेकिन, बच्चा से ही सुनतै आए हैं न कि 'बाँटि चुटि खाय..राजा घर जाए...Ó। इसी लोभ में समझदारी भी बांटते फिरते हैं। अब इ त कोनो अइसन चीज है न हि कि बांटने से खतम हो जाएगा। लेकिन ई बात भी यादा ठीक नहीं है। एक बार अपना-अपनैती में बांटा जाए त ठीक।
अब सरकारी नौकरी त है नहि। प्राइवेट मे त बॉस का चमचा बनना पड़ता है। लेकिन हमारी मित्राणी है कि नहि बनेगी। नहि बनना है नहि बनइये। लेकिन फिर कोई परेशानी होगी त कोई कुछ नहीं करेगा। बता-बता के थक गया। अब का है न... कि लड़की जात का बुद्घि त घुटने में होता है न । तुरंते उपर-नीचे होने लगता है। मूड का ठिकाना नहिं। क्षणे रूष्टïा- क्षणे तुष्टïा... आखिर आदिशक्ति महादेवी भी तो ऐसी ही है न... उस पर जो सुन्नर होता है... उस पर साक्षात देवी का आशीर्वाद समझ लीजिए।
अरे देवी-महादेवी के चक्कर में त भूले गए कि हमारी मित्राणी कोनो बिहारी नहि है। खालिस दिल्ली सेट। उस पर डीयू का छौंक। फिर भी बिहारी को जानती-पहचानती है। आखिर बिहारी मतलब बकलेल, बकटेट आ परिश्रमी। अब, जो इतना विशेषण-क्रियाविशेषण के संग चलता होगा...उसको हर कोई पसंद त करबै करेगा न। ठाकरे खानदान को नहि सुहाता। तो नहि सुहाए। जाए ससुरा भाड़ में। वैसन लोग त गाम में हमरा सबके पौनी-पथारी रहता है।
लेकिन दिल्ली वाले की बात निराली। दिल्ली दिलवालों की- यूं ही नहीं कहा जाता। इ अलग बात है कि दिल्ली का कोई नहीं है। सब कहीं न कहीं से आ के बसा है। जो पहले आ कर बस गया, अपने को दिल्लीवाला कहता है। अब इसके लिए झगड़ा त नहिये होगा न। हम सब त बुद्घ को मानते हैं। बहुतो समझाए.... झगड़ा नहि करना चाहिए... अपनों के संग... घर में हो तो चलता है लेकिन ऑफिस में कभियों नहि।
अब हम बोलें तो का बोलें.... ? गरीब आदमी दिवार बरोबर। दिवार के सिर्फ कान होते हैं, मुँह नहीं। हम भी चुप-चाप कई गप्प सुन के रह जाते हैं। बोल तो सकते नहीं हैं। तो बैठे-बैठे ब्लोगिया लिए। उ कहते हैं ना कि 'साहेब रूठे तो मेहनत बचे।Ó चलो इसी बहाने फुर्सतो तो मिला। इसी बात पर बोल जोगीरा सा...रा...रा...रा...रा.... !!!
हमनी के लेख पर मित्राणी ने जो रिप्लाई दिहिस है.... उसको ज्यों का त्यों भी पढ़ते रहिए और होलियाते भी। तो पढि़ए का कहल .....
प्ंाजाबी काहि से कम नाहीं। लगता बा कि भौजी ने खूब-खूब घोटन-घोटन के परसादी बनाई है मेहमानन के लिए। संभल के, कहीं तुहार ज्याइदा चख ली है न। चखनी इतनी चढ़ जाई ई जानत नाही....
पर ई सबूतबा भी मिल गई। तभी बोलत कुछ बा, लिखवत कुछ। अब त मानवा ल कितोहरा चढ़ गइल बा। सिर्फ तोहरे नहीं, हर लोगन में इका सरूर है। तुहार मेल आइल रहे। अकोरा पडली, बाकि कुछ समझा ली न। ई केकरा पर है बाबूजी। लगता है हमै इैंन तोहारी सखियन। पर ई का ? श्ुारूआत त नैटवा पर चर्चा की। फिर अब पिटारे का मजा लाई रहत कि तुहार सखियन आवत। फिर इक दम से अ खोवत। रूके... रूकबा बबुआ। कहां भाइगल ई का Óजाने कि यहां त सैलरी का दिगदारी है,करना हैÓ। कुछ धुंधला लग रहल बा। लागत सब चढ़ गईल बा।
पत्रकार बाबू अभी पढऩ का आनंद लूट रही थी न कि दिल्ली का जिक्र। बिहारी बाबू तोहार कइसे भूल गइल कि ई दिल्ली ही तोहरा रूपइया देवत है। -----तो काई दिल्ली-----डीयू छौंक----की बातन करत।
इक बात बताइल रउआ कि। खाली हम ही तो नाही तोहार सखीयन। सब जानत है। और ई का होवत दिल्ली -----डीयू का छौंक। जलन करत हमाई से। उके बाद Óगरीब--------;तोहरा कलमवा को काई हुअतै सब ठीक हाई न। हां एक औउर बात कहित तोहार सरकारी बाबू तो नहीं। ई हम जान पर बिहारी बाबू और उपर से पत्रकार। तो हुई ना बात। समझे नाही। अरे, हम कहत------कहत कितन पीइलीए---तो हो ेहीत्र----। फिर काहि बोलत कि ' पीलन नाही------Ó मांगत मांगत नहीं। इ लूर न हो तो काहि के प-कार। और काहि का धौंस। काइल चलत जात। उभी ठहरबा न। ई बतई हम कइसन टिपपणी देहत राही। खालिस बिहारी----पियोर दिल्ली वाली-----पंजाबी कुड़ी । भाई तोहार लोगन के लेल ई दिल्ली कौनों अमेरिका से कम नाही। पंजाबी तड़का बाहरी में काइसन लागल जवाब जरूर देब हम ओकरा इंतजार करब------इ पंजाबी कुढ़ी का अकिल बाल घुटना में नाहीं, दिमाग में होता-------फगूुआ में सब चलले बा।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

तालिबान को नहीं चाहिए शांति

अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ चल रही लड़ाई के बीच तालिबान ने एक बार फिर करजई के शांति समझौते की पेशकश को ठुकरा दिया। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने तालिबान के साथ शांति समझौते की बात कही थी। इससे पहले भी तालिबान ने पाकिस्तान के संग भी शांति समझौते का ठुकरा दिया था।
ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है। कुछ दिन पूर्व लंदन में तालिबान के साथ शांति समझौते की संभावना पर कवायद के बीच पश्चिमी सेना प्रमुखों और राजनीतिज्ञों ने अफगानिस्तान से बाहर निकलने की रणनीति के तमाम पहलुओं के क्रमवार विचार किया। ब्रिटिश सेना के प्रमुख जनरल सर डेविड रिचर्ड के अनुसार तालिबान के साथ बातचीत पर विचार किया जा सकता है लेकिन यह काम ताकत की स्थिति पर ही आधारित होना चाहिए। यह सिद्धांत का नहीं वरन वक्त का मामला है। अमेरिकी सैन्य बलों के सर्वोच्च कमांडर जनरल डेविड पेट्रास ने भी अपनी सहमति जताते हुए कहा स्थिति में सुधार के पहले संघर्ष तेज होगा। अमेरिका,अफगानिस्तान में गतिरोध तोडने के लिए 30000 अतिरिक्त सैनिक भेजने जा रहा है। जनरल पेट्रास और अफगानिस्तान में अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के संयुक्त सैन्य कमांडर जनरल स्टेनली मैक क्रिस्टल ने तालिबान के नेतृत्व के साथ तुरंत बातचीत शुरू करने की संभावना से इनकार नहीं किया। जनरल पेट्रास ने कहा कि अफगान सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के तालिबान के बड़े नेताओं के बीच सुलह सफाई के लिए बातचीत में शायद पाकिस्तान के अधिकारी शामिल हो सकते हैं।अमेरिका और नाटो के सैन्य कमांडरों और राजनीतिज्ञों का मानना है कि अफगानिस्तान में सैन्य बलों की कार्रवाई तेज करके तालिबान को बातचीत के लिए राजी करने के साथ वहां के विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर अमल करने की रणनीति कारगर साबित हो सकती है।
गौरतलब है कि अफगान मुद्दे पर लंदन में की गई बैठक में भी सभी देशों ने करजई के शांति प्रयासों की काफी प्रशंसा की थी। उस दौरान भी करजई ने तालिबान आतंकियों के समक्ष हथियार छोड़ मुख्य धारा में आने का प्रस्ताव रखा था। इस बार भी तालिबान ने करजई का प्रस्ताव ठुकरा दिया। उसका कहना है कि पहले अंतरराष्ट्रीय सेनाओं को अफगानिस्तान से हटाया जाना चाहिए। राष्ट्रपति के प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए तालिबान के प्रवक्ता कारी मुहम्मद यूसुफ ने कहा, 'करजई एक कठपुतली हैं। वो एक देश या एक सरकार का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते।Ó कारी ने दावा किया, 'वो खुद ही भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। वह अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों के इशारे पर नाचते हैं। जो उनका इस्तेमाल कर अपने आपको धनी बना रहे हैं।Ó
दूसरी तरफ अमरीकी जनरल मकक्रिस्टल को लगता है कि इस सप्ताह अफग़़ानिस्तान के बारे में होने वाला सम्मेलन, अन्य देशों को उनकी उग्रवाद विरोधी नीति के बारे में तैयार करने का अच्छा अवसर है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने हताहत गठजोड़ सैनिकों की बढ़ती संख्या और अफगान सरकार की घटती विश्वसनीयता के बारे में चिंता व्यक्त की। जनरल मकक्रिस्टल ने कहा कि वह अतरिक्त 30,000 अमरीकी सैनिकों का इस्तेमाल उग्रवादियों को इतना दुर्बल बनाने के लिए करेंगे कि उनके नेता अफग़़ान सरकार के साथ समझौता करने को मजबूर हो जाएंगे। श्री मकक्रिस्टल ने कहा कि कोई भी अफग़़ान जो भविष्य पर ध्यान केन्द्रित करे, अतीत पर नहीं अफगान सरकार में भूमिका निभा सकता है। उनकी इस बात का यह मतलब निकाला जा सकता है कि एक बार लड़ाई समाप्त हो जाए तो तालिबान नेता सरकार का हिस्सा बन सकते हैं।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर इन हालातों में कैसे हो पाएगा अफगानिस्तान का पुर्नगठन? तालिबान को पैसे, नौकरी और जमीन के बदले अफगानिस्तान के पुर्नगठन योजना में शामिल होने के लिए प्रस्तावित किया गया है। अमेरिका द्वारा 2011 तक अफगानिस्तान से अंतरराष्ट्रीय सेनाओं को हटाने के प्रयास का पहला कदम है यह। परंतु इस योजना के शुरू होने के साथ ही कुछ सवाल भी खड़े हैं। इसमें उन तालिबान को शामिल करने का प्रयास किया जाएगा जो अल कायदा के साथ अपने संबंधों को छोड़कर हिंसा और हथियार त्यागने पर राजी हो जाएंगे। क्या आपरेशन मुश्तरक तालिबान को कमजोर करेगा? कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हालांकि अमेरिकी सेना ने मारजाह के कई भागों पर कब्जा कर तमाम तालिबान को मौत के घाट उतार दिया है। इसके साथ ही यह भी अहम सवाल है कि क्या मुल्ला बिरादर बनेगा मोहरा उसकी गिरफ्तारी से तालिबान पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना है। लेकिन बिरादर के बीते कल पर नजर डालने से लगता है कि अमेरिकी सेना उससे कुछ भी उगलवाने में नाकाम ही रहेंगी। उसको अफगानिस्तान के पुर्नगठन के लिए इस्तेमाल कर पाना भी एक मुश्किल काम है।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

बड़े कैनवास पर आने की कोशिश

भाजपा में नई पीढ़ी को कमान देने के प्रयास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी जादू की डिबिया से जिस अल्पज्ञात राजनेता को लोगों के सामने पेश किया है वे नितिन गडकरी आज देश की नंबर दो पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के सिंहासन पर आरूढ़ हो चुके हैं। अपने अध्यक्षीय नेतृत्व में पार्टी के राष्टï्रीय अधिवेशन का सफल संचालन कर और उसमें नए तेवर दिखाकर यह जता दिया कि उनकी भाजपा भारतीय राजनीतिक कैनवास पर बड़ा फलक पाने को बेताब है। तभी तो पंचसितारा संस्कृति और बंद कमरे से हटकर खुले मैदान में तंबू में राष्टï्रीय नेताओं के संग बैठकें हुई और एक तरह से अछूत माने जानेवाले मुस्लिम बिरादरी से भी सहयोग करने की अपील की।
दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचाकर मोहन भागवत के लिए नितिन गडकरी एक ऐसा नाम है जो लगातार पिछले कुछ वर्षों से संक्रमण और निष्क्रमण के दौर से गुजर रही भाजपा को संकट के भंवर से उबार कर नई ऊचांइयों तक पहुंचाएंगे। भाजपा की सफलता का अब तक का इतिहास ही अटल बिहारी वाजपेयी की सर्वमान्य छवि और लालकृष्ण आडवाणी की संगठन क्षमता का परिणाम रहा है। इन दोनों के अलावा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर जो भी बैठा उसकी पार्टी पर पकड़ बहुत कमजोर रही। इस सबके बीच नए अध्यक्ष को अपने कर्तव्य का बोध और जिम्मेदारियों का अहसास है। उसी का नतीजा है कि नितिन गडकरी ने कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वे समाज के बहुसंख्यक वर्ग के लिए काम करें ताकि पार्टी के वोट प्रतिशत में 10 प्रतिशत का इजाफा कर 2014 में पार्टी को देश की सत्ता हासिल हो सके। भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन के दूसरे दिन राष्ट्रीय परिषद को संबोधित करते हुए गडकरी ने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग तक अपनी पहुंच बनाने में कोई कसर न छोड़ें, यह वर्ग ऐसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की प्रतीक्षा कर रहा है जो उनके दुखड़े को सुने और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करे।
नारा 'पार्टी विद ए डिफरेंसÓ, वाद - राष्टï्रवाद और चोला भगवा। यही है शायद भाजपा की पहचान। नए अध्यक्ष ने अपने पहले ही अधिवेशन में कुछ हटकर कुछ नया करने की सोच जाहिर कर दी। बिना किसी तर्क-वितर्क के। सो, मुसलमानों से कह दिया - आप मंदिर बनवाने में सहयोग करें, भाजपा मस्जिद भी बनाने के लिए आगे आएगी। धर्मनिरपेक्षता का डंका पीटने वाले सियासी आलंबरदारों के चेहरे पर तनिक देर के लिए सिकन दिखाई पड़ी, लेकिन उसके बाद जिस प्रकार से साधु-संतों और मौलवियों ने आँखे तरेरनी शुरू की। मामला ही निपटता दिख रहा है।
ज्योतिष एवं द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती कहते हैं, 'गडकरी के विचार विहिप के उस बयान के खिलाफ हैं कि अयोध्या की सीमा में कोई मस्जिद नहीं बनाई जाए। भाजपा अध्यक्ष को यह साफ करना चाहिए कि वास्तव में मंदिर और मस्जिद का निर्माण कहां होगा?Ó शिव सेना ने भी तीखे तेवर दिखाते हुए कहा है कि मंदिर के लिए भीख मांगने की जरूरत नहीं है। भाजपा के साथ बरसों से गठबंधन की राजनीति कर रही शिवसेना ने अब राममंदिर के मसले में उसकी भूमिका को गलत ठहराने की कोशिश की है। राममंदिर के लिए मुसलमानों से जमीन देने की भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की अपील पर शिवसेना नेता और सांसद संजय राऊत ने कहा, 'राममंदिर के लिए हमें किसी से भीख मांगने की जरूरत नहीं। शिवसैनिकों ने अपनी ताकत से बाबरी मस्जिद ढहाई थी और उसी ताकत से हम राममंदिर बनाएंगे।Ó अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास ने सवाल उठाया, 'गडकरी कौन होते हैं मंदिर मामले में बोलने वाले? किसने इन्हें फैसला करने का हक दे दिया है? वे एक राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष हैं न कि राम भक्तों व हिंदू समाज के। उन्हें सीमा में रहकर बयानबाजी करनी चाहिए।Ó दूसरी ओर, जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने कहा कि असली झगड़ा तो उसी स्थान का है जहां बाबरी मस्जिद है। मस्जिद वहीं बननी चाहिए। मंदिर कहीं और बनाना है तो बात की जा सकती है। जबकि फतेहपुरी मस्जिद के इमाम मुफ्ती मुकर्रम फरमाते हैं कि यह मामला केवल एक मस्जिद का नहीं है। इसका पूरे मजहब से ताल्लुक है। बाबरी मस्जिद के स्थान से कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। मिलजुलकर रहने की हमारी परंपरा है। भाजपा बड़ा दिल करके मजिस्द वहीं बनाने पर राजी हो तो दूसरी जगह मंदिर बनाने पर किसी को कोई ऐतराज नहीं है।
सचमुच अब बहुत हो चुका। आखिर कब तक चलता रहेगा मंदिर-मस्जिद रूपी चूहे-बिल्ली का खतरनाक देश-तोड़क खेल? वोट की राजनीति की पोषक और सत्ता के लिए सामाजिक सौहाद्र्र को भी दांव पर लगाने में नहीं हिचकिचाने वाली तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियां भारतीय जनता पार्टी को साम्प्रदायिक निरूपित कर उस पर प्रहार करती हैं। सुनियोजित तरीके से उसे बचाव की भूमिका अपनाने को मजबूर करने की कोशिशें होती रहीं। उसे अल्पसंख्यक विरोधी के रूप में पेश किया जाना एक फैशन बन गया। साम्प्रदायिकता के पर्याय के रूप में भाजपा को प्रस्तुत करने की एक बड़ी साजिश इन कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने रची। इसी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से जब इतिहास बदल डालने का आह्वान अल्पसंख्यक मुस्लिमों के लिए आया है तब इस अवसर को व्यर्थ न जाने दिया जाए। भाजपा के नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मंदिर और मस्जिद दोनों बनाए जाने का आह्वान कर स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष ताकतों को चुनौती दी है। धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन राजनीति की रोटी सेंकने वाली ये ताकतें बेचैन हो उठी हैं। अगर मंदिर-मस्जिद का मसला शांतिपूर्ण तरीके से सुलझ गया तब तो इनका 'वोटबैंकÓ दिवालिया हो जाएगा।
राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषकों की रायशुमारी मानें तो मंदिर-मस्जिद के दुर्भाग्यपूर्ण, संवेदनशील विवाद को सुलझाने की दिशा में उठाया गया नितिन गडकरी का सकारात्मक कदम सर्वमान्य-सुखद परिणति का आकांक्षी रहेगा। तेजी से विकसित देशों की श्रेणी में प्रवेश की ओर अग्रसर भारत की जनता अब ऐसी साजिशों का शिकार होना नहीं चाहती। धर्म निहायत निजी आस्था का मामला है। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध सभी की धार्मिक परंपराओं को भारतीय समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। इसे छिन्न-भिन्न करने वाले राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते। अयोध्या में मंदिर और मस्जिद विवाद को हल करने की दिशा में पहली बार भाजपा ने व्यावहारिक कदम उठाने की पहल की है। सराहनीय है यह। इसके पूर्व ऐसा ठोस फैसला कभी नहीं किया गया। यह सुखदायी परिवर्तन का पूर्व संकेत है।
इससे इतर भाजपा की बात करें तो साथ में कार्यकर्ताओं को हिदायत भी दी कि वे चाटुकारिता का सहारा न लें और पैर पडऩे की आदत से दूर रहें। अपना उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने न तो नेताओं के घरों के चक्कर लगाए हैं और न ही स्वागत के लिए मालाओं पर राशि खर्च की है इसलिए कार्यकर्ता अपने काम पर ध्यान दें। गडकरी ने एक बार फिर कांग्रेस पर अपरोक्ष रूप से निशाना साधते हुए कहा कि उनके न तो पिता और न ही नाना-नानी देश के प्रधानमंत्री रहे हैं, वे तो महज एक कार्यकर्ता थे और राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए बाकी पार्टियों में तो नेता का बेटा ही अध्यक्ष बनता है। यह सिर्फ भाजपा में ही संभव है। उन्होंने कहा कि देश में 1000 पार्टियां है, 50 प्रमुख दल हैं जिनमें भाजपा सहित देश में सिर्फ पांच दल ही ऐसे हैं जहां घरानाशाही नहीं है। बाकी में तो नेता का बेटा ही अध्यक्ष होता है। हालंाकि इससे हटकरराष्ट्रीय अधिवेशन के लिए गांव के कृत्रिम परिवेश वाली तंबुओं की अस्थाई नगरी तो बसा दी, लेकिन पार्टी के कुछ बड़े नेताओं का आलीशान होटल में रात गुजारना चर्चा का विषय बना ।
भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने हालांकि दावा किया था कि पार्टी के सभी नेता तंबू में ही हैं और उनके लिए तंबू में रात गुजारना कोई नई बात नहीं है। पांच सितारा संस्कृति वाले सियासी दल की छवि से खुद को दूर रखने की भरसक कोशिश में जुटी भाजपा शुरू से कहती आ रही है कि पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान सभी नेता तंबू में ही रूकेंगे। इंदौर में आतंकी खतरे के अलर्ट के बाद भी यही बात दोहराई गई थी। बावजूद इसके चर्चा बनी हुई है कि भाजपा के राष्ट्रीय अधिवेशन के पहले दिन कुछ बड़े चेहरे तंबुओं की नगरी में दिखाई तो दिए, मगर रात उन्होंने किसी आलीशान होटल में बिताई।
इस बीच शहर की आबादी से दूर 90 एकड़ में फैली तंबुओं की नगरी में मौसम पिछले 10 दिन से असामान्य तौर पर करवट बदल रहा है। इस दौरान यह नगरी बारिश से दो बार तरबतर हो चुकी है। अब जबकि भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन शुरू हो गया है, यहां दिन में चुभने वाली धूप पड़ रही है तो रात में कड़कड़ाती सर्दी। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने बताया रात के समय अधिवेशन स्थल पर सर्द हवाएं, तंबुओं की दीवारों को पार कर भीतर आ रही हैं। उधर भाजपा में ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है, जिनका कहना है कि पार्टी के लिए उन्हें तंबू में रात गुजारने में तनिक भी परेशानी नहीं हो रही है। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान के मुताबिक भाजपा के लिए वह खटिया या चट्टान पर भी सो सकते हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि वह सड़क से अपना सफर शुरू करने वाले आदमी हैं, ऐसे में राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान उन्हें तंबू में रूकने में कोई दिक्कत नहीं हो रही है।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

पानी का मतलब

पानी का मतलब
दुनिया को मतलब देना है
और आदमी को बचाना है
मतलबी होने से

पानी का मतलब
एक-तिहाई भू-भाग है
लेकिन घॅंूट भर की प्यास को
सूखने नहीं देना उससे भी बड़ी चुनौती है

पानी का मतलब
कविता में तैनात मतलब को छुटटी देना है

पानी का मतलब
'ठंडा मतलब कोका कोलाÓ नहीं
प्यास की वर्तनी को
बाजार बना देने की प्रवृत्ति के
खिलाफ होना है
सख्त खिलाफ।



नोट : यह कविता श्री प्रेमशंकर शुक्ल की है, जिसे मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा था। मुझे अच्छी लगी। इसी कारण यहां पोस्ट कर रहा हँू।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

सपना बेचिए, करोड़ों कमाइए

अपने अस्तित्व काल से ही झारखंड आर्थिक विकास के लिए केंद्र के लिए मुंह ताकता रहा है। विकास की धारा यहां नहीं बहती। हर चुनाव में स्थानीय विकास मुद्दा बनता है, और चुनाव बाद सरकार गठन के बाद गौण हेा जाता है। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं कि यहां किसी का भी विकास नहीं हो रहा है। राजधानी रांची में तो केवल सपना बेचने का कारोबार 70 करोड़ रुपए से अधिक का बन चुका है। तो विकास की बात बेमानी कैसे हो सकती है।
दरअसल, रांची में प्रमुख व बड़े 40 कोचिंग संस्थान हैं, वहीं, छोटे व मध्यम स्तर के संस्थानों की संख्या करीब 300 होगी। इनमें वैसे शिक्षकों के घर या यहीं स्थित संस्थान भी शामिल हैं, जो अकेले या कुछ अन्य शिक्षकों का सहयोग लेकर कोचिंग क्लासेस संचालित कर रहे हैं। इन सभी संस्थानों का सम्मिलित कारोबार लगभग 70 करोड़ रुपये सालाना है। इनमें बड़े संस्थानों का हिस्सा 50 करोड़ है। छोटे व मध्यम संस्थानों का सालाना कारोबार करीब 20 करोड़। इनमें इंजीनियपरंग, मेडिकल, बैंपकंग, रेलवे, चार्टर्ड एकाउंटेंट, एमबीए, मैनेजमेंट, फ़ैशन डिजाइनिंग, विभिन्न लोक सेवा आयोग, पायलट व एयर होस्टेस सहित विभिन्न व्यावसायिक, तकनीकी व पेशेवर शिक्षा के संस्थानों में नामांकन के लिए कोचिंग करायी जाती है। शहर के कुल आठ संस्थानों का सालाना टर्न-ओवर एक-एक करोड़ से अधिक है। सरकुलर रोड स्थित एक कोचिंग संस्थान की कमाई तो 10 करोड़ प्रति वर्ष है। इंजीनियपरंग की तैयारी करानेवाले शहर के एक प्रतिष्ठित टय़ूटर अकेले सालाना तीन करोड़ कमाते हैं।
इन कोचिंग संस्थानों के लिए विद्यार्थियों के रुझान का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रांची विवि केविभिन्न कॉलेजों में जहां लगभग 75 हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं, वहीं इनमें विभिन्न पाठ्यक्रमों में विद्यार्थियों की संख्या करीब 38 हजार है। ऐसा भी नहीं है कि कोई कोचिंग खोल कर बैठ जाए और विद्यार्थी अपने आप चला आएगा। इसके पीछे भी बाजारवाद है। बाजार के छल-छद्म यहां भी चलते हैं। लिहाजा, कोचिंग संस्थान विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए हर तरीका अपनाते हैं। लगभग सभी संस्थान अपने सफल विद्यार्थियों की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। नाम, पता कम ही लोगों का बताया जाता है, लेकिन आंकड़ों में सफल विद्यार्थी कई होते हैं। बैंकिंग की तैयारी करानेवाले संस्थानों में इन दिनों कार्यक्रम में बैंक के वर्तमान व पूर्व दोनों अधिकापरयों की शिरकत से उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है।
जानकार बताते हैं कि दिल्ली में ऐसे कई गिरोह हैं, जो विभिन्न राज्यों के कोचिंग व शिक्षण संस्थान के गुमनाम मालिकों को बेस्ट टीचर, बेस्ट एजुकेशनिस्ट जैसे कई पुरस्कार देते हैं। बाद में इस सम्मान का इस्तेमाल अपना कारोबार बढ़ाने के लिए होता है। बताया जाता है कि 10-15 हजार खर्च कर ऐसा पुरस्कार बजाप्ता खरीदा जाता है... और छात्रों को लुभाने के लिए बाकायदा एजेंट की भी नियुक्ति की जाती है। कोचिंग आइआइटी, मेडिकल, बैंकिंग, सिविल सर्विस से लेकर मैट्रिक व इंटर की परीक्षाओं की तैयापरयां कराई जाती है। कोचिंग संस्थान के अलावा हिडेन कोचिंग परंपरा भी तेजी से पनप रही है। इसमें वैसे लोग हैं जो विश्वविद्यालयों के सेवानिवृत्त शिक्षक व इंजीनियर्स यहां तक कि वर्तमान में विश्वविद्यालयों से जुड़े शिक्षक अपने घरों मेंोत्रों को कोचिंग देते हैं। कोचिंग संचालक प्रत्येक वर्ष विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफ लता का दावा करते हैं। ऐसा नहीं है कि रांची में यह सिलसिला एकबारगी चल पड़ा। अपने पड़ोसी प्रदेश बिहार की राजधानी पटना से रांची वालों ने सीख ली है। बाजार के तौर-तरीकों को भी सीखा और आज कारोबार है करोड़ो में।
काबिलेगौर है कि पिछले वर्ष ही आईआईटी परीक्षा परिणाम के बाद पटना के विभिन्न कोचिंग संचालकों ने 2,500 छोत्रों के सफल होने का दावा किया था। जबकि आईआईटी में सीटों की संख्या करीब नौ हजार है। यहां भी गौर करना होगा कि बिहार में नीतिश सरकार कोचिंग संस्थानों को सरकारी पकड़ में रखना चाहती है। बिहार सरकार अब कोचिंग संस्थानों पर नकेल कसने की तैयारी कर रही है। इसके लिए वह एक नया विधेयक भी लेकर आने वाली है। इससे कई कोचिंग संस्थान मालिकों की नींद उड़ गई है। उनके मुताबिक इस कानून का इस्तेमाल अधिकारी उन्हें परेशान करने के लिए कर सकते हैं। वैसे, सरकार अपने फैसले पर अडिग है। अधिकतर कोचिंग संस्थानों के मालिक इस मुद्दे पर खुले रूप से कुछ भी कहने के लिए तैयार नहीं हैं। एक कोचिंग संस्थान के मालिक ने अपना नाम न उजागर करने की शर्त पर बताया, 'कई कोचिंग संस्थान सचमुच इस तरह का गोरखधंधा चला रहे हैं, लेकिन ज्यादातर लोग तो सही तरीके से काम कर रहे हैं। इस कानून के कारण उन पर सरकार कई तरह की बातों को जबरदस्ती थोप देगी। इससे हमें संचालन में काफी दिक्कत होगीं।Ó वहीं कुछेक कोचिंग संस्थान मालिक का कहना है कि अब हमें लाइसेंस लेने के लिए और उसके नवीनीकरण के वास्ते सरकारी अफसरों के आगे-पीछे घूमना पड़ेगा। दूसरी तरफ सिविल सेवा की तैयारी के लिए पटना में कोचिंग संस्थान चलाने वाले संचालक मानते हैं कि नियंत्रण काफी जरूरी है। हालांकि, हर फैसले के कुछ अच्छे नतीजे भी होते हैं और बुरे भी। अच्छा यह है कि इससे कोचिंग संस्थानों की गुणवत्ता बढ़ेगी। वहीं, इससे सरकारी दखलअंदाजी भी बढ़ेगी। वैसे, नफा-नुकसान के मामले में देखें, तो मुझे तो नफा ज्यादा दिखाई दे रहा है।
पटना का कोचिंग व्यवसाय इस वक्त करीब 400-500 करोड़ रुपये का है। साथ ही, इस पर अब तक सरकार का कोई नियंत्रण भी नहीं था। हालांकि, बीते दिनों कोचिंग संस्थानों पर छात्रों का गुस्सा फूटने के बाद अब सरकार ने भी इन पर नकेल कसने की कवायद तेज कर दी है। बिहार मुल्क का पहला ऐसा राज्य होगा, जहां इस बाबत कानून बनेगा। तो क्या यह माना जाए कि प्रदेश में नवनिर्वाचित सोरेन सरकार भी इसी प्रकार का कोई विधेयक लाएगी और छात्रों को सहूलियत प्रदान करेगी।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

कैसा वेलेंटाइन हो आपका, तय करें















































प्रेम प्रदर्शन का नहीं दर्शन का विषय है...








शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कम हो रहे हैं नागा साधु


दिन-दुनिया से कोई सरोकार नहीं, अपने में ही मदमस्त। देह पर भभूत लपेटे, बेतरतीब बढ़े बाल-नाखून, हाथों में त्रिशूल-ओ-कमण्डल। सामाजिक संस्कार ओ रीति-रिवाज से वास्ता नहीं। निर्वस्त्र, निर्गुण। स्वयं को आदिदेव महादेव के अनुचर बताने वाले - नागा साधु ही तो हैं। कहां रहते हैं? क्या करते हैं? जीवनयापन कैसे होता हैï? आम जन को इसका जरा भी भान नहीं।

कुछ ऐसे ही अलमस्त होते हैं नागा साधु। आम लोगों को उनके दर्शन तभी होते हैं जब कोई विशेष धार्मिक अनुष्ठान हो रहा हो। मसलन, कुंभ और अर्धकुंभ। कहने को अखाड़ों में रहते हैं, लेकिन और साधु-संतों की तरह इनके दर्शन नहीं होते हैं। इन्हें अखाड़ों का सैनिक कहा जाता है। हाथों में विभिन्न पौराणिक अस्त्र-शस्त्र से सुस्सजित। जब ये चलते हैं तो लोग बाग इनका रास्ता खाली कर देते हैं। यहां तक कि सरकारी प्रशासन भी पूरी तरह इनके लिए चुस्त-दुरूस्त रहता है। महाशिवरात्रि के दिन हरिद्वार के प्रसिद्घ 'ब्रह्मï कुंडÓ (चर्चित नाम हरकी पौड़ी) में जब विभिन्न अखाड़ों के नागा साधुओं ने स्नान किया तो कोई भी आम लोग घाट पर स्नान के लिए नहीं था।

यंू तो हरेक के मन में यह सवाल कौंधता है कि नागा साधु रहते हैं कहाँ? करते हैं कहाँ? जबाव मिलना इतना आसान नहीं है। हालंाकि, यह विभिन्न अखाड़ों से संबद्घ होते हैं। कंदराओं में निवास करते हैं। जो भी मिला खा लिया। शिव के अनुचर जो ठहरे। लेकिन हाल के दिनों में यह खबर आने लगी है कि इनकी संख्या कम हो रही है। एक नहीं कई अखाड़ों में यह कमी देखी गई है। सबसे बड़ा अखाड़ा है जूना अखाड़ा। जूना अखाड़ा के महामण्डलेश्वर आचार्य श्री अवधेशानंद गिरी जी महाराज भी इससे सहमति जताते हैं। उनकी रायशुमारी यह है कि पहले की तरह अब लोग महज भावावेश में आकर कंदराओं में नहीं आ जाते। आज का साधु अध्ययनशील होना चाहता है। सामाजिक संस्कारों की भी ईच्छा रखता है। पहले अध्ययन करता है, सीखता है, फिर साधु की रंगत में आता है।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

राजा का है हाल बेहाल


सिमटते जंगल और शिकारियों पर कोई अंकुश नहीं होने से राष्ट्रीय पशु और जंगल के राजा बाघ की संख्या लगातार कम होती जा रही है। देश के सभी अभारण्य में लगातार इनकी संख्या चिंता का सबब बनती जा रही है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार बीसवीं सदी की शुरूआत में देश में 40 हजार से ज्यादा बाघ थे। सदी के शुरूआती सात दशकों में अंधाधुंध शिकार और जंगलों के सिमटने के कारण 1972 में बाघों की संख्या घटकर 1872 रह गई। बाघों की इस तरह गिरती संख्या पर केन्द्र सरकार ने 1973 में नौ टाइगर रिजर्व इलाकों में बाघ बचाओ योजना शुरू की। इसमें उत्तर प्रदेश तथा अब उत्तराखंड का जिम कार्बेट बाघ संरक्षित वन क्षेत्र भी शामिल था। हालत तो यह है कि उत्तरप्रदेश में राज्य में 26 हजार हेक्टयर से ज्यादा वन इलाका अतिक्रमण की भेंट चढ गया है। राज्य में बाघों के एकमात्र रहने के स्थान दुधवा टाइगर रिजर्व में भी 827 हेक्टयर जमीन पर गैरकानूनी कब्जा हो चुका है।

उत्तर प्रदेश में जब 1990 में गिनती हुई तो बाघों की संख्या 240 थी। वर्ष 2001 में हुई गणना में 284 बाघ थे जिनमें 123 नर,132 मादा और 29 शावक थे। दो साल बाद 2003 में हुई गिनती में इनकी संख्या स्थिर रही और दो साल में सिर्फ एक बाघ कम मिला। उस समय पाए गए 283 बाघ में 92 न, 162 मादा और 29 शावक थे।

इतना ही नहीं, वर्ष 2005 की गिनती में दस बाघ कम हुए और इनकी संख्या 273 हो गई। वर्ष 2007 में कराई गई गिनती के परिणाम 2008 में आए और इनकी संख्या 109 हो गई। बाघों की गिनती पहले उनके पंजों के निशान के आघार पर होती थी लेकिन 2007 की गणना में पद्धति का इस्तेमाल किया गया। गिनती के इस तरीके को ज्यादा विश्वसनीय माना गया। हालांकि कुछ लोगों ने कैमरा ट्रैप पद्धति पर यह कह कर सवाल उठाया कि इसमें कैमरे जमीन से डेढ़ फुट ऊपर लगे होते हैं और शावक उसकी रेंज में नहीं आ पाते।

दरअसल, शहरीकरण, औद्योगिकी विकास की रफ्तार ने दुनियाभर में जल, जंगल, जमीन को नुकसान पहुंचाया है। इससे सर्वाधिक हानि पर्यावरण एवं उसको बनाए रखने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले अन्य प्राणियों की हुई। जंगल में जबरिया घुस आए विकास ने जानवरों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगाने की प्रक्रिया शुरू कर दी। इसका नतीजा यह है कि वन्य प्रणाली लगातार खत्म होते जा रहे हैं। कुछ जीव जंतुओं का तो नामनिशान ही मिट गया जबकि जानवरों की कई प्रजातियां लुप्तप्राय होने की कगार पर है। ऐसे में छोटे-छोटे वन्य प्राणियों से लेकर जंगल के राजा शेर (बाघ) तक सबके लिए अपनी जान बचाए रखना मुश्किल हो गया है। शेर को बचाने के जो सरकारी इंतजाम किए गए वे 'सफेद हाथीÓ साबित हो रहे हैं। जंगलात महकमे में राष्ट्रीय स्तर तक विशेष कार्ययोजना, विषय विशेषज्ञों से रायशुमारी, जांच कमेटी, बैठक, संगोष्ठी के दौर पर दौर जारी है जिनमें बेशुमार धन को खर्च किया जा चुका है।

बाघों के बारे में चर्चा और चिंतन पर बजट का बड़ा भाग खर्च कर दिए जाने के बावजूद नतीजे उत्साहवर्धक नहीं है। शेरों की संख्या बढऩा तो दूर उल्टे वे कम होते जा रहे हैं। हालत इतनी गंभीर हो गई है कि बाघ को बचाने के लिए बनाए गए राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य भी उनके लिए सुरक्षित नहीं रह गए हैं। भारत के 66 राष्ट्रीय उद्यान और 386 से अधिक अभ्यारण्य में बाघ की संख्या सिमटती जा रही है। साल दर साल बढ़ते अधिकारियों, कर्मचारियों के साथ शेरों की संख्या कम जाना आश्चर्यजनक है। वन विभाग के एक अधिकृत दस्तावेज के मुताबिक लगभग 25 वर्ष पहले भारत के विभिन्न प्रदेशों की तुलना में मध्यप्रदेशों मेें शेरों की संख्या गणना के दौरान सर्वाधिक पाई गई थी। शायद यही कारण था कि देश दुनिया में कुछ बरस पहले मध्यप्रदेश के टाईगर स्टेट के रूप में पहचाना जाता था। वर्ष 2003 की अधिकारिक जानकारी के मुताबिक देश में बाधों की कुल संख्या का 23 प्रतिशत मध्यप्रदेश में मौजूद था। बाघों की यह संख्या 712 बताई गई। वर्ष 2003 के बाद भी वन विभाग ने लगातार यह दावा किया कि बाघों को बचाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। बाघ राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्य में सुरक्षित है। ऐसी ही एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2006 में 700 से ज्यादा बाघ होने की जानकारी दी गई। इसमें भी यह उल्लेख था कि मध्यप्रदेश के पन्ना टाईगर रिजर्व में 20 से 25 तक बाघ मौजूद हैं। हाल ही में भारत सरकार ने पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या को जांचने के लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के पूर्व निदेशक पीके सेन की अध्यक्षता में तीन सदस्यों वाली कमेटी का गठन किया। इस कमेटी ने जांच के बाद जो खुलासा हुआ है उसने प्रकृति प्रेमियों, वन्यप्राणियों के संरक्षण में रूचि रखने वालों की नींद उड़ा दी है। इतना ही नहीं इस रिपोर्ट ने वन विभाग के आला अफसरों की कार्यप्रणाली को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है। सेन कमेटी ने पन्ना टाइगर रिजर्व की अवलोकन करने के बाद यह पाया कि अब वहां एक भी बाघ नहीं है। यह क्षेत्र वर्ष 2008 से ही बाघविहीन हो गया है। सेन कमेटी की इस जांच रिपोर्ट के बाद वन विभाग के गलियारों में उच्च स्तर तक हलचल हो गई है। इसके बावजूद अधिकारी रिपोर्ट को खारिज कर देना चाहते हैं। मध्यप्रदेश के मुख्य वन प्राणी संरक्षण डॉ. एचएस पावला कहते हैं कि पन्ना में बाघों के न होने से मैं सहमत नहीं हूं। बाघ लंबे क्षेत्र में विचरण करते रहते हैं और गणना के दौरान यदि वहां नहीं मिले तो इसको बाघों की विलुप्ति नहीं माना जा सकता है। वन विभाग के राज्यमंत्री राजेन्द्र शुक्ल की राय अफसरों से अलग है। वे स्वीकार करते हैं कि पिछले कुछ समय से इक्का-दुक्का बाघ ही देखे जा रहे थे। सेन कमेटी की रिपोर्ट में पन्ना क्षेत्र के बाघविहीन होने के तथ्य ने बाघ विशेषज्ञ डॉ. रघु चुड़ावत के दावे पर भी अपनी मोहर लगाकर उसे सही साबित कर दिया । 8-10 वर्षों से पन्ना क्षेत्र, में बाघों के बारे में गहन अध्ययन करते वाले डॉ. रघु चुड़ावत ने कई बार कहा कि पन्ना क्षेत्र में बाघों की लगातार मौत हो रही है और वे अब लुप्तप्राय हो गए हैं। यदि समय रहते डॉ. चुड़ावत की इस चेतावनी पर ध्यान दिया जाता तो शेरों (बाघों) की बेमौत मरने से रोका जा सकता था।

सच तो यही है कि बाघ एक अत्यंत संकटग्रस्त प्राणी है। इसे वास स्थलों की क्षति और अवैध शिकार का संकट बना ही रहता है। पूरी दुनिया में बाघ की संख्या 6,000 से भी कम है। उनमें से लगभग 4,000 भारत में पाए जाते हैं। भारत के बाघ को एक अलग प्रजाति माना जाता है, जिसका वैज्ञानिक नाम है पेंथेरा टाइग्रिस टाइग्रिस। बाघ की नौ प्रजातियों में से तीन अब विलुप्त हो चुकी हैं। ज्ञात आठ किस्मों की प्रजाति में से रायल बंगाल टाइगर उत्तर पूर्वी क्षेत्रों को छोड़कर देश भर में पाया जाता है और पड़ोसी देशों में भी पाया जाता है, जैसे नेपाल, भूटान और बांगलादेश। भारत में बाघों की घटती जनसंख्या की जांच करने के लिए अप्रैल 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर (बाघ परियोजना) शुरू की गई। अब तक इस परियोजना के अधीन बाघ के 27 आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना की गई है जिनमें 37,761 वर्ग कि.मी. क्षेत्र शामिल है।

बाघ संरक्षण में सबसे बड़ा रोड़ा बाघ एवं स्थानीय निवासियो के बीच का संघर्ष है, जहां बाघ की चुस्ती व चपलता इंसान की चालाकी के आगे मात खा जाती है, क्योंकि जंगल के निवासी जन कुछ पैसों के लालच में क्रूर शिकारियों का साथ दे देते हैं। यदि मध्यप्रदेश की बात करें जो आज की तारीख में संभवत: देश का सबसे अधिक बाघ समृद्ध क्षेत्र है जहां कान्हा व बांधवगढ़, पन्ना व पेंच जैसे टाइगर क्षेत्र हैं, यहां भी शेर को अपने आसपास के क्षेत्र में रहने वाली मानव आबादी से ही ज्यादा खतरा है क्योंकि यह वह बागड़ है जो शेर को बचाती है और यदि बागड़ ही शेर खाने लगे तो शेर का भगवान ही मालिक है ।

शेर भी शिकार की तलाश में मजबूरी में मानव क्षेत्र में प्रवेश करता है जहां उसका पहला निशाना मवेशी होते हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक शेर के लिए लगभग 15 वर्ग किमी क्षेत्रफल और खाने के लिए भरपूर शिकार होना चाहिए। औसतन एक शेर हर पांचवे दिन एक शिकार करता है, इस हिसाब से साल के लगभग 70 शिकार शेर को अपने भोजन के लिए चाहिए जिसमें शेर की पसंद हिरन, चीतल और हिरन की प्रजाति के अन्य जानवर होते हैं। जरूरत पडऩे पर शेर सुअर का भी शिकार करता है। शेर बिगड़ते पर्यावरण की ओर बहुत अच्छे से इशारा करता है, क्योंकि शेर का प्रिय भोजन हिरण या सुअर अच्छे पर्यावरण में अर्थात घनी जंगल की घास या पेड़ों से आच्छादित क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं। मानव और शेर के इस द्वंद का समाधान मानव मानसिकता में बदलाव लाकर ही किया जा सकता है जहां लोगों को शेर के लिए जगह छोडऩे के लिए तैयार किया जा सके क्योंकि हमेशा यह सवाल सामने आता है कि आदमी ज्यादा कीमती है या शेर। काठमांडू वर्कशाप में यह निर्णय भी प्रमुख था कि बाघ के अंगो के स्थान पर जीवित बाघ की मांग बनायी जा सके। ऐसी कोई नीति बने इसके लिए बाघ चित्र प्रदर्शनी व जनचेतना जैसे कार्यक्रम की बात करी गई। आज की परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि शेर ही ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि मानव जीवन की दीघकालीन भलाई के लिए पर्यावरण की रक्षा आवश्यक है और शेर व शेर से जुड़े वन्य क्षेत्र का जीवन चक्र उन्नत पर्यावरण का एक सशक्त आधार है। चींटी से लेकर हाथी तक को प्रकृति ने यह ज्ञान दिया है कि जब तक मजबूरी न हो तब तक बगैर किसी को क्षति या चोट पहंचाए कैसे जिया जाए । वर्षों पहले मनुष्य भी इस बात को जानता एवं मानता था कि अपने निकट के पर्यावरण एवं वन्य जीवन चक्र से सामंजस्य कैसे बैठाया जाये किंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज यह सामंजस्य अपना संतुलन खोता जा रहा है और इंसान यह भूल गया है कि अपने पर्यावरण तंत्र को हष्ट पुष्ट रखने के लिए शेर व शेर से जुड़े वन जीवन चक्र का स्वच्छंद विकास जरूरी है नहीं तो आने वाले समय में इस पर्यावरण व जैव असंतुलन के लिए इंसान दोषी होगा ना कि शेर ।

यह माना जा रहा है कि शासकीय, अशासकीय संस्थाओं, बाघ संरक्षण का हल्ला मचाकर फंड इक_ा करने वाले अधिकांश लोगों का ध्यान बाघ बचाने से ज्यादा बजट को खत्म करने पर है। वन्य जीवन सुरक्षा के नाम पर काम कम और खर्च अधिक हो रहा है। यदि इस ओर समय रहते ध्यान देकर प्रभावी कार्ययोजना नहीं बनाई गई तो आने वाले समय में देश प्रदेश के राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्य से बाघ का नामनिशान मिट जाएगा। आने वाली पीढ़ी बाघ के दर्शन तस्वीरों में ही कर सकेगी।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

प्रभाष जोशी पर लिखी किताब का लोकार्पण इसी महीने


हिंदी पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी पर लिखी गई एक नई किताब का लोकार्पण इसी महीने होने जा रहा है। मध्यप्रदेश फाउंडेशन द्वारा नई दिल्ली के इंडिया हेबीटेट सेंटर में पुस्तक लोकापर्ण समारोह का आयोजन किया जाएगा। प्रसिद्घ गीतकार-गजलगो जावेद अख्तर व भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान बिशन सिंह बेदी पुस्तक का लोकार्पण करेंगे। इसके अलावा, अन्य महत्वपूर्ण शख्सियतों के नाम भी तय किए जा रहे हंै।

'प्रभाष जोशी : याद, संवाद, विवाद और प्रतिवादÓ नामक पुस्तक का संपादन इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के चर्चित, वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर व कृपाशंकर ने किया है। राजेंद्र यादव, मस्तराम कपूर, अच्युतानंद मिश्र, श्रवण गर्ग, रामशरण जोशी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, रवींद्र त्रिपाठी, ओम थानवी, राम बहादुर राय, राजकिशोर, सुरेंद्र किशोर, गोबिन्द सिंह, दयानंद पाण्डेय, प्रियदर्शन, अरूण त्रिपाठी, रवीश कुमार, अरूण प्रकाश, दिलीप मंडल, अजीत कुमार, अपूर्व जोशी, अली अनवर, रजी अहमद, फजल इमाम मलिक, नंदिता मिश्र, संदीप जोशी, लीलाबाई जोशी, प्रभात रंजन दीन, सुधीर सक्सेना, गुरदयाल सिंह, विभा रानी, सुभाष चंद्र, मनीष चौहान, अजय सेतिया, सोपान जोशी, यशवंत सिंह सरीखे 60 से अधिक लोगों के लेख इसमें सग्रहित हैं। इसके अलावा स्वयं प्रभाष जोशी के कुछेक शिलालेख भी हैं, जो उनके सरोकारों को स्मरण कराते हैं। 'शिल्पायनÓ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक 278 पृष्ठों की है।


सीधी ऊँगली से

वह पढ़ी-लिखी समझदार लड़की थी। दहेज की कट्टïर विरोधी, उसने यह शादी की ही इस शर्त पर थी कि दहेज की कोई माँगें नहीं होगी। उसके पिता ने अपने हैसियत के हिसाब से जो भी बन पड़ा, दिया था।
कुछ दिन बीते भी। उसकी सास ने उसे दहेज के ताने देने शुरू कर दिया।
तुम्हारे बाप ने यह नहीं दिया, वह नहीं दिया। मायके से यह लाओ, वह लाओ। उसे यह सब सुनकर बहुत गुस्सा आता। पर वह बोलती कुछ नहीं। उसका पति दहेज का लालची तो नहीं था। लेकिन अपनी माँ के सामने कुछ बोल नहीं पाता था। वह भी घंूट-घूट कर मरने वाली नहीं थी। उसने भी तय कर लिया था कि सासुजी का दिमाग ठिकाने लगा कर रहेगी। बस कोई तरकीब हाथ लगनी चाहिए। आखिर उसने इस समस्या का समाधान खोज ही लिया।
एक दिन उसने मौका व मूड देखकर सास से कहा - माँ जी चाहती तो मैं भी हँू कि मेरे पिताजी स्कूटर, टीवी, फ्रिज वगैरह दें। अब देखिए न... अगर टीवी मिलेगा तो प्रोग्राम तो मैं भी देखूंगी न? फ्रिज का ठंडा पानी मैं नहीं पिउँुगी? पर समस्या है कि मेरे पापा हैं बहुत कंजूस। सीधी ऊँगलीे से घी निकलने वाला नहीं । आप एक पत्र लिखिए कि फलां-फलां चीजें अगर पंद्रह दिनों के अंदर न भिजवाया तो आप मुझे जलाकर मार डालेंगी। वह पत्र लेकर मैं मायके जाऊँगी तो पिताजी मेरी जान बचाने के लिए सब देने को तैयार हो जाएंगे।
सास चक्कर में आ गई। उसने वैसा ही पत्र लिखकर बहू को दे दिया। साथ में मायके जाने की आज्ञा भी। मायके पहँुचते ही बहू ने पत्र की कॉपी थाने में रपट के साथ दे दी।
आजकल वह और उसके पति सुख से जीवन बिता रहे हैं ओर सासु जी पूजा-पाठ में लगी रहती हैं।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

दिव्य प्रेम का अलग संसार है

प्रेम में हम सिर्फ अपने प्रियतम के बारे में सोचते हैं। इस अवस्था का वर्णन करते हुए कई लोग कहते हैं कि उन्हें भूख नहीं लगती, नींद नहीं आती। हर जगह उन्हें अपने प्रियतम का ही चेहरा दिखाई देता है। हर वस्तु उन्हें अपने प्रियतम की याद दिलाती है। अगर उन्हें वह फूल या वह सुगंध मिल जाती है जो एक बार उन्हें अपने प्रियतम से मिली थी, तो उसकी स्मृति जागृत हो जाती है। उन्हें अपने प्रिय का अक्स ओस की हर बूंद में और हर सितारे में दिखाई देता है। वे उसे हजारों बार याद करते हैं और सैकड़ों बार पुकारते हैं।
अगर इस भौतिक संसार के प्रेम में इतनी शक्ति है तो आप अंदाजा लगाइए कि रूहानी स्तर पर प्रभु प्रेम में कितनी शक्ति होगी। यह प्रेम की ही शक्ति है जो हमें भौतिक संसार से ऊपर लाकर प्रभु तक पहुंचाती है। रूहानियत की कहानी, प्रभु के प्रेम द्वारा आत्मा में जागृत हुए प्रेम की कहानी है।
एक सूफी संत एक बार अपने शिष्यों के साथ सच्चे प्रेम के गुणों पर विचार-विमर्श कर रहे थे। हर शिष्य अपने-अपने शब्दों में बताने की कोशिश कर रहा था कि सच्चा प्रेमी कैसा होता है। एक ने कहा, सच्चा प्रेमी वह है जो मुसीबतों का स्वागत करता है और उन्हें खुशी-खुशी और कृतज्ञता से स्वीकार करता है जैसे कि वे प्रभु ने भेजी हों। तब एक शेख बोला, मेरे खयाल में तो प्रभु का सच्चा प्रेमी वह है जो भक्ति में इतना खो जाता है कि उसे कुछ महसूस ही नहीं होता, चाहे उसके सिर पर सौ तलवारें गिर पड़ें।
फिर तीसरा बोला, मैं समझता हूं कि सच्चा प्रेमी वह है जो भक्ति में इतना खो जाता है कि वह उफ भी नहीं करता चाहे उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएं। हर कोई उस वक्तव्य से सहमत था, पर फिर एक और भक्त बोल पड़ा, सच्चा भक्त वह है जो मुसीबतों के बीच भी, आंतरिक रूहानी अनुभवों में इतना खोया रहता है कि वह अपना ध्यान नहीं छोड़ता।
तब सूफी ने अपने शिष्यों को राबिया बसरी का एक कथन सुनाया। राबिया बसरी बहुत बड़ी सूफी संत थीं। उन्होंने एक बार कहा था कि सच्चा प्रेम इन सब चीजों से बहुत ऊपर होता है। सच्चा प्रेमी प्रेम में इतना डूबा रहता है कि वह दर्द और आनंद में कोई फर्क नहीं करता। प्रेमी के साथ जो कुछ भी घटता है, उसका वह स्वागत करता है जैसे कि वह सब कुछ प्रियतम की ओर से ही आया हो। इसलिए एक सच्चा प्रेमी, दर्द और आनंद, दोनों से ऊपर होता है। प्रेमी सिर्फ प्रियतम को जानता है और बाकी सारा संसार उसके लिए कोई भी मायने नहीं रखता।

संत-महात्मा हमें सलाह देते हैं कि प्रभु के प्रेम को दिल में छुपा कर रखना चाहिए और संसार के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए। यह ऐसा अनुभव है जो कि आत्मा में होता है। समय के साथ-साथ प्रेम दिल में बढ़ता जाता है। यह और गहरा तथा और ज्यादा होता जाता है। हम इसे औरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहते, ताकि इसके विकास में कोई बाधा उत्पन्न न हो। प्रेम का अनुभव आत्मा के स्तर पर होता है और इसे शब्दों में पूरी तरह समझाया नहीं जा सकता। विरले लोग ही इस प्रेम को समझ सकते हैं जो आंतरिक मंडलों में प्रेमी (परमात्मा) और प्रेमिका (आत्मा) के बीच होता है। यह अनुभव इस संसार से ऊपर का है। दिव्य प्रेम या प्रभु प्रेम का अपना अलग संसार है और इस भौतिक संसार में इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यह रूहानी प्रेमी-प्रेमिकाओं का संसार है। अगर हम अपनी ध्यान की साधना (मेडिटेशन) का समय बढ़ाएं दें तो हम भी उस संसार का अनुभव कर सकते हैं। जैसे-जैसे हम रूहानी तौर पर विकसित होते जाएंगे, वैसे-वैसे आतंरिक रहस्य हम पर खुलते जाएंगे।



(सावन कृपाल रूहानी मिशन एवं साइंस ऑफ स्प्रिच्युऐलिटी के सौजन्य से)

मुश्किल में बीमारी

भ्रष्टाचार जैसी महामारी कोई नई बिमारी नहीं है और ना ही मात्र बिहार में इसने जड़ जमाया हुआ है बल्कि ये बिमारी कमोबेश हरेक राज्य में है। लेकिन आश्चर्य तो इस बात को लेकर है कि जब सरकारी महकमा ही शराब माफिया बन जाए तो क्या किया जाए।
दरअसल, बिहार में देशी-विदेशी शराबों की दूकान धड़ल्ले से खुल रहे हैं जिनमें कुछ वैध हैं तो बहुत सारे अवैध। सच कहा जाए तो अवैध शराब की दुकानों की बाढ़, बिहार को बर्बाद कर देने वाले कोशी नदी के बाढ़ से ज्यादा भयावह और विस्तृत है। शहर के साथ साथ गाँव भी इसके चपेट में आ रहे हैं और वहां भी देशी दारु की भरमार है, जिसमें कुछ मिलावटी और जहरीली भी हैं और वो दिन दूर नहीं जब ऐसे शराब से ढेरो लोगों की जान जाने की खबर भी सुखिऱ्यों में स्थान लेकर सभी के सामने आए।
आंकड़े बताते हैं कि लगभग 5000 दारु की दुकानें लायसेंसी हैं लेकिन जो बिना लायसेंसे के सरकारी महकमें के माफियाओं के रहमो-करम पर खुली हुई हैं उनके तादाद का पता लगाना मुश्किल है क्योंकि ये दुकानें भी किसी और चीज की दुकानों में खुली हुई हैं या फिर लोग अपने घर को ही ऐसी शराबों का दूकान बनाकर बेच रहे हैं।
इस भयावहता का दूसरा पहलू यह है कि ऐसे अपराध के नियंत्रण के लिए बने उत्पाद और मद्य निषेध विभाग अब नियंत्रण के बदले मदिरा के प्रति लोगो की रूचि बढ़ा कर ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के लिए आतुर दिखाई दे रहा है और इस गैर-कानूनी व्यवसाय से करोड़ो की उगाही की जा रही है। इसके रोकथाम के सन्दर्भ में विभागीय मंत्री जमशेद अशरफ स्वयं भी काफी दुखी और निरीह दिखाई देते हैं क्योंकि उनका कहना है की बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार जी भी इस अवैद्य व्यापार के लिए अपरोक्ष रूप से जिम्मेवार हैं क्योंकि उनकी शह पर आज नौकरशाही भी मंत्रालय को मात दे रही है और मंत्रालय कुछ भी चाह कर नहीं कर पा रहा है। मुख्यमंत्री जी के आदत में है की वो अपने राजनितिक सहयोगियों (मंत्री एवं विधायक) से राय लेने और विश्वास करने से ज्यादा नौकरशाहों और सरकारी महकमें के अधिकारिओं पर विश्वास करने लगे हैं और यही कारण है की नौकरशाही और सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार अपना खुला खेल खेल रहा है और जनता त्राहि त्राहि कर रही है।
बिहार में भ्रष्टाचार का यह नया रूप देख कर कोई भी सन्न रह जाए और सांप सूंघ जाए क्योंकि आज तक मंत्री, विधायकों और सांसदों के द्वारा भरष्टाचार में लिप्तता देखी जाती थी लेकिन बिहार में इसका अलग रूप देखने को मिला की मंत्रालय अशक्त है और नौकरशाही सशक्त और इसको प्रश्रय दिया जा रहा है मुख्यमंत्री के द्वारा। विभागीय मंत्री अशरफ जी का अपना अलग ही रोना है, वो कहते हैं की बिहार में शराब का ढाई हजार करोड़ रुपये का मार्केट है, जिसमे सिर्फ आठ या नौ करोड़ रूपया हे सरकार को मिल पाता है और बाकी सब अवैद्य शराब के धंधे के कारोबारी और घूसखोरों के पेट में चला जाता है।
जाहिरतौर पर यह बयान एकदम से चौकाने वाला है क्योंकि कहाँ ढाई हजार करोड़ रूपया और कहा आठ या नौ करोड़ रूपया। अगर विश्लेषण करके देखा जाए तो लगभग आठ या नौ करोड़ रूपया ही वैद्य शराब व्यवसाय से आना और लगभग दो या ढाई हजार करोड़ रूपया अवैद्य शराब के व्यवसाय के माध्यम से आना और सरकारी महकमें, नौकरशाहों, घूसखोरों, दलालों, अवैद्य व्यापारिओं के पेट में चला जाना बहुत ही आश्चर्य और दुर्भाग्य की बात है। परन्तु ये चिंता का विषय भी है क्योंकि ऊपर के आंकड़ों से ये अंदाजा लगाया जा सकता है की बिहार में धड़ल्ले से नकली और मिलावटी शराब का कारोबार चल रहा है और कई करोड़ लोग ऐसी शराब जैसे जहर को पीकर धीरे धीरे मौत के करीब अपने आपको ले जा रहे हैं।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

मधुसागर

पाप-पुण्य के बीच खिंचा है,
युगों-युगों से ही पाला,
पुण्य, पुण्य से टकराकर अब,
भड़काये भीषण ज्वाला।

दावानल बड़वानल युग भी,
कम है ऐसी ज्वाला से,
तभी बुझेगी यह ज्वाला जब,
पियें पुण्यकर्ता हाला।

सत्य सत्य से, न्याय न्याय से,
हुआ द्रोह करनेवाला,
इस कारण ही पूर्ण न होता,
मधु से जीवन का प्याला।

मिले पूर्णता तो जीवन को,
साकी के मदिरालय में,
जहाँ बैठ निद्र्वंन्द पियें सब,
साकी के हाथों हाला।

जीवन-प्रतीक परिवर्तन की
निश्चित है होनेवाला,
रूके न यह परिवर्तन जब तक,
पूर्ण न हो पीनेवाला।

सकल पूर्णता संभव होगी,
केवल तब ही जीवन की,
जब सात्विक प्याले में भरकर
प्यासे पियें वरद हाला।


- धनसिंह खोबा 'सुधाकरÓ

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

ना...ना... नरेगा

राष्ट्रीय रोजगार योजना यानी नरेगा के तहत हर महीने साढ़े तीन हजार करोड़ से कुछ ज्यादा और साल भर में 44 हजार करोड़ का प्रवधान किया गया । लेकिन पहले सौ दिन में 12 हजार करोड़ रुपये नरेगा में देकर सरकार ने क्या किया, इसका कोइ लेखा-जोखा नहीं है । 2008 में भी मनमोहन सिंह ने ही लालकिले पर झंडा फहराया था और 2009 में भी । किसानो को लेकर दर्द दोनो मौकों पर उभारा था । लेकिन इस एक साल में देश भर में तीन करोड़ से ज्यादा किसान मजदूर हो गये । संयोग से आजादी के बाद मजदूरों में तब्दील होने का किसानो का यह सिलसिला सबसे तेजी से उभरा है। लाल किले से अपने संबोधन में मनमोहन सिंह ने जिस तरह से नरेगा पर ज़ोर दिया उससे यह तो पता चलता ही है कि केन्द्र की मंशा वास्तव में गरीबों तक पहुँचने की है पर इसमें सबसे बड़ा पेंच जो हमेशा से ही फंसा है वह यह कि केन्द्र को इसके लिए आखऱि में राज्य सरकारों पर ही इसके लिए निर्भर होना है क्योंकि केन्द्र केवल पैसे का आवंटन ही कर सकता है और इसके उपयोग के बारे में राज्यों से कह सकता है । अब कुछ राज्यों ने इस योजना से अभूतपूर्व प्रगति की है वहीं कुछ राज्यों ने इसमें बहुत उदासीनता दिखाई है। इसके अंतर्गत किए जा सकने वाले कामों में अब बहुत से अन्य कार्यों को भी जोड़ा जा रहा है जिससे इस कार्य की स्वीकार्यता और भी हो जायेगी। इस योजना ने जहाँ ज़रूरत मंदों को बहुत सहारा दिया वहीं इसमें से भ्रष्टाचार की भी ऐसी गंदगी निकली कि देखने वाले भी शर्मिंदा हो गए। सारे देश में क्या हो रहा है कहा नहीं जा सकता पर हमारे सीतापुर जनपद में जिला सहकारी बैंक के कुछ कर्मियों ने जिस तरह से बन्दर बाँट कर इस कार्यक्रम की धज्जियाँ उड़ा दीं वह सारी योजना पर ही पानी फेरने जैसा है। एक चपरासी के खाते में 14 लाख रूपये और कुल अनुमानित 70 लाख का घोटाला वह भी केवल एक ही शाखा में आँखें खोलने वाला है। बात बात पर सी बी आई जांच मांगने वाले किसी भी नेता को इसमें ऐसा कुछ भी नहीं लगा कि इसकी जांच भी सही तरह से की जाए जिससे आगे आने वाले समय में कोई ज़रूरतमंदों का पैसा इतनी आसानी से ना खा जाए ? पर कहीं न कहीं नेताओं के संरक्षण के कारण ही सरकारी कर्मचारी इतने निरंकुश होते जा रहे हैं कि वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। राज्य सरकार एक ओर केन्द्र से धन की मांग करती रहती है और दूसरी ओर पैसे के दुरूपयोग को रोकने में कोई इच्छा शक्ति का प्रदर्शन भी नहीं कर पाती है। आज समय की मांग है कि इन सभी मामलों पर गंभीरता से विचार किया जाए कहीं ऐसा न हो कि जनता ही सामने आ जाए और जैसा कि इस बार के चुनावों में अपराधियों को मुंह की खानी पड़ी है तो आगे चलकर नेताओं को भी मुंह की खानी पड़े।
देश का अन्नदाता किसान बेहद खस्ता हालत में है और महंगाई चरम पर होने से जनता बेहाल है। सरकार ने अपने कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग का लाभ तो दे दिया लेकिन बढ़ती महंगाई के दौर में वह भी कम पड़ता दिखाई दे रहा है। निजी कर्मचारियों और मजदूरों की तो बात ही छोड़ दीजिए। वह तो किसी तरह जीवन काट रहे हैं।
याद कीजिए, यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला सप्ताह। जब सबकुछ 100 दिन में करने की बात हुई। पंचवर्षीय योजनाओं के देश में 100 दिन की योजना बनी। हरेक मंत्रालय के लिए, वह भी प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर। तब किसी ने यह नहीं पूछा कि गरीबी कब दूर होगी? महंगाई कब खत्म होगी? भ्रष्टïाचार से कब छुटकारा मिलेगा? पीने के लिए जल लोगों को कब मुहैया होगा? बिजली कब आएगी? सब को रोजगार कब मिलेगी? आदि...आदि।
यूपीए सरकार और विशेषकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का पूरा जोर ग्रामीण विकास पर था। सो, मंत्रालय भी मिला राजस्थान के कद्दावर कांग्रेसी नेता सीपी जोशी को। लेकिन आज उनके मंत्रालय की स्थिति क्या है? बहुप्रचारित नरेगा योजना अपने लक्ष्य से कोसों दूर है। वर्ष में 100 दिन रोजगार मुहैया कराने का सरकारी वाद केवल सरकारी फाइलों में मानो दम तोड़ रहा है। हाल-बेहाल है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी के संसदीय क्षेत्र भीलवाड़ा में जब देश का पहला सोशल ऑडिट हुआ तो पता चला कि सरपंचों ने फर्जी कंपनियां बनाकर अपने सगे-संबंधियों को करोड़ों रुपए के ठेके दे दिए हैं। धीरे-धीरे राज्य के दूसरे जिले से भी ऐसी शिकायतें आने लगीं, तब राजस्थान के सुदूर गांवों में रहने वाले हजारों मजदूर और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जयपुर आकर धरना-प्रदर्शन किया ताकि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को यह पता चल सके कि उनके चहेते मंत्री सीपी जोशी की अनदेखी से उनके अपने ही प्रदेश में 'नरेगाÓ महज एक मजाक बन कर रह गई है। अव्वल तो यह कि कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली और राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी में भी नरेगा के कामों में बड़े पैमाने पर धांधलियों की खबरें आए दिन सुर्खियों में आती रही हैं। सवाल तो यह उठ खड़ा हुआ है कि आखिर पार्टी को आक्रामक अगुलवाई देने की मशक्कत में लगे राहुल गांधी का हस्तक्षेप इस ओर क्यों नहीं हो रहा है? योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के मुताबिक, अभी तक किसी भी राज्य ने सभी पंजीकृत ग्रामीण परिवारों को 100 दिन का रोजगार नहीं दिया है। नरेगा कानून के तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार देना ही देना है। लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ है।
आंकड़ोंं के आधार पर बात की जाए तो फरवरी, 2006 में 200 जिलों में लांच की गई नरेगा का वर्ष 2007-2008 में और 130 जिलों में विस्तार किया गया और अब यह कार्यक्रम देश के 600 से अधिक जिलों में लागू है। ग्रामीण विकास मंत्रालय का आंकड़ा बताता है कि देश भर में नरेगा के तहत 2008-09 में करीब 4.49 करोड़ परिवारों को रोजगार मिला। वर्ष 2007-08 में पंजीकृत परिवारों में से सिर्फ 10.62 फीसदी को ही 100 दिन का रोजगार मिला। जबकि वर्ष 2006-07 में यह प्रतिशत 10.29 ही था। योजना आयोग ने भी मान लिया है कि जिस रोजगार गारंटी स्कीम को वह अपनी सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिनाती आई है, असल में वह चरमरा रही है और देश के आधे हिस्से में यह नाकामी के कगार पर है। दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार स्कीम कही जाने वाली योजना में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की दिलचस्पी और भूमिका को भी खासा प्रचारित किया जाता रहा है। लेकिन अब इस स्कीम की जमीनी हकीकत सरकार के शीर्ष स्तर पर पहुंच चुकी है। बकौल, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया, यह योजना देश के आधे हिस्से में विफल हो चुकी है और इसका लाभ जरूरतमंदों को नहीं मिल रहा। बाकी जगहों पर भी स्थिति अच्छी नहीं।Ó यह योजना बिहार, उत्तरप्रदेश , पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, गुजरात और महाराष्ट्र में बुरी तरह नाकाम रही है। इन राज्यों से लोक सभा में तकरीब 250 सांसद चुनकर आते हैं, जो एक तरह से आधे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह उन लोगों को रोजगार मुहैया कराने में नाकाम रही है, जिन्हें रोजगार की सबसे ज्यादा जरूरत है। मोंटेक सिंह अहूलवालिया ने योजना की नाकामी के पीछे भ्रष्टाचार और धांधली का भी जिक्र किया है। कई जगहों से बजट में लिकेज, लालफीताशाही और हेराफेरी की शिकायतें मिली हैं।
और प्रदेशों की बात ही क्या, जब केंद्रीय मंत्री के अपने ही प्रदेश में जहां उनकी पार्टी ही सत्तासीन है, वहां के आलम पर गौर फरमा कर देखा जाए तो राजस्थान में नरेगा के भ्रष्टाचार का जैसे जैसे खुलासा हो रहा है सरकार उससे बचने के तरीके विकसित कर रही है। नरेगा के भ्रष्टाचार को जिस सामाजिक मूल्यांकन के तहत पकड़ा जा रहा था सरकार ने उसी सामाजिक मूल्यांकन (सोशल आडिट) पर सरकारी पहरा बैठा दिया है. अब सामाजिक कार्यकर्ताओं की जगह सरकारी अधिकारी नरेगा का सामाजिक मूल्यांकन करेंगे। चाहे काम करने वालों की संख्या हो या फिर सरकार की ओर से सर्वाधिक पैसे देने की बात रही हो। महिला मजदूरों की संख्या भी राजस्थान में ही सबसे अधिक रही है। तो फिर भ्रष्टाचार में कहाँ पीछे रह सकती है। राजस्थान में आरम्भ से ही नरेगा विवादों के साये में चली आ रही है। पूर्व की भाजपा सरकार ने इसके नाम के साथ राजस्थान नाम जोडकर विवादों की शुरूआत कर दी थी।
काबिलेगौर है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी। राजस्थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष केन्द्र में ग्रामीण विकास मंत्री बने। उसके बाद से प्रदेश में नरेगा विवादों का दूसरा नाम बन गया। डां सी पी जोशी ने अपने निर्वाचन क्षेत्र भीलबाडा से सामाजिक मूल्यांकन की शुरुआत कराई। 11 चुनी हुई ग्राम पंचायतों में 2000 स्वयंसेवकों ने 10 दिन तक सामाजिक मूल्यांकन किया। इस दौरान 11 ग्राम पंचायतों में लगभग 20 लाख का प्रत्येक ग्राम पंचायत में घोटाला सामने आया। इसके बाद तो प्रदेश भर में भूचाल आ गया। सभी जगह से सामाजिक मूल्यांकन कराये जाने की माँग उठने लगी। आनन फानन में सरकार ने और 16 जिलो की 16 ऐसी ग्राम पंचायतों में सामाजिक मूल्यांकन कराने की घोषणा कर दी, जिनमें सर्वाधिक राशि खर्च की गई थी। दूसरी ओर प्रदेश भर में सरपंच लामबंद होने लग गये। उदयपुर में तो बाकायदा 500 सरपंचों ने बैठक कर सरकार पर दबाब बनाया। पंचायतीराज के चुनावों का बहाना कर सरकार ने उस समय तो सामाजिक मूल्यांकन को रोक देने की बात कर दी। उधर सामाजिक कार्यकर्ताओं के दबाब चलते पूरी तरह रोक न लगाकर कुछ सुधार करने की बात कही। लवरर,धौलपुर,जैसलमेर,बाडमेंर,हनुमानगढ,पाली,प्रतापगढ,राजसमंद,सिरोही और बाँसवाडा में ये अधिकारी एक एक ग्राम पंचायत का सामाजिक मूल्यांकन करेगें. इन अधिकारियों को वित्तीय,तकनीकी और पूर्णता और उपयोगिता प्रमाण पत्रों सहित अन्य सभी प्रकार की जाँच करने का अधिकार दिया गया है. इसके साथ ही ये संबधित ग्राम पंचायतों की शिकायतों का भी परीक्षण करेगें।
सच तो यह भी है कि जिस राष्ट्रीय ग्रामीण रोजग़ार योजना यानी नरेगा ने कांग्रेस को देश की बागडोर लगातार दूसरी बार थमा दी, उसी नरेगा की असफलता ने झारखंड का सिंहासन कांग्रेस के हाथ से छीन लिया। झारखंड में मिली पटखनी से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी की पेशानी पर सलवटें पड़ चुकी हैं। इस असफल कार्यान्वयन और चुनावी हार के जि़म्मेदार माने जा रहे हैं सी पी जोशी। यह इन्हीं का कमाल है कि देश भर में कांग्रेस का ब्रांड बनी नरेगा का झारखंड में कोई वज़ूद ही नहीं है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय और स्वानामधन्य मंत्री सी पी जोशी की घोर लापरवाही, राज्य सरकार की अनदेखी, सरकारी पदाधिकारियों, ठेकेदारों और बिचौलियों के गठजोड़ के कारण झारखंड में दजऱ्नों श्रमिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। पूरे राज्य में हलचल मच गई, लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय सोता रहा। जिस नरेगा के ज़रिए कई राज्यों में मज़दूरों को दो व़क्तकी रोटी मिलने लगी, वही नरेगा झारखंड में लूट-खसोट का ज़रिया बन गई। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही कि इस अंधेरगर्दी की ख़बर विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका सबको थी और है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन ने भी टिप्पणी की थी कि नरेगा बिचौलियों के चंगुल में है। झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल के एस नारायणन ने भी नरेगा के संबंध में कई सवाल खड़े किए। जि़ला कलेक्टरों को फटकार भी लगाई। पर सब कुछ सरकारी नक्कारखानों में गुम हो गया। इतने बड़े सबक के बाद भी मंत्री सी पी जोशी संभलने को तैयार नहीं। राहुल गांधी के दुलरुआ सी पी जोशी, राहुल के चहेते और सबसे महत्वाकांक्षी मंत्रालय केंद्रीय ग्रामीण विकास और पंचायत के मंत्री हैं। मई 09 में जब यूपीए दोबारा सत्ता में क़ाबिज़ हुई तो कांग्रेस को नई दिशा और दशा देने की मुहिम में जुटे राहुल बाबा ने केंद्रीय ग्रामीण विकास और पंचायत मंत्रालय की जि़म्मेदारी सी पी जोशी को सौंप दी। पहली बार कैबिनेट मंत्री बने सी पी जोशी को मिली इस बेहद महत्वपूर्ण भूमिका से हर कोई चौंक गया। पर चूंकि यह फैसला राहुल गांधी का था, इसीलिए पार्टी में किसी ने चूं-चपड़ नहीं की।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

क्षेत्रीयता को पलीता

मराठी मानुष बनाम उत्तरी भारतीय लोग। यह मुद्दा शिवसेना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बनता जा रहा है, और इससे भगवा खेमा दो फाड़ हो गया है। साथ ही कांग्रेस भी इसमें परोक्ष रूप से कूद कर बिहार विधानसभा चुनाव के लिए अभी से अपनी दुकान चमकाना चाहती है। सच तो यही है कि शिवसेना शुरू से स्टंट की राजनीति करती रही है। यह राजनीति कुछ समय के लिए पॉप्युलर भले हो जाए, कोई समस्या नहीं सुलझाती। चार दशकों की राजनीति में ठाकरे ने महाराष्ट्र की कोई समस्या नहीं सुलझाई। पार्टी राज्य में भी सत्ता में आई और केंद्र में भी, मगर मराठी अस्मिता के सवाल पर भी महाराष्ट्र में या मुंबई में हालात बेहतर होने का दावा खुद शिवसेना भी नहीं कर सकती।
फिर भी, ठाकरे उसी शैली में राजनीति करने को मजबूर हैं, क्योंकि अब राज ठाकरे के रूप में उनका नया राइवल उभर आया है। पूरी जिंदगी मराठी राजनीति करने के बाद उन्हें प्रदेश की मराठी जनता के सामने एक बार फिर खुद को साबित करना है। नहीं कर सके तो खारिज कर दिए जाएंगे। खारिज करने की यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। यह बात पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ठाकरे देख चुके हैं। इसीलिए राजनीतिक वानप्रस्थ से वापस आकर उन्होंने उद्धव के हाथों में सौंपी जा चुकी कमान एक बार फिर अपने हाथ में ली है।
इससे इत्तर बात की जाए कांग्रेस की और विशेषकर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की तो आजकल वह युवाओं के बल पर भारतीय राजीनीति की दशा-दिशा बदलने की योजना पर आगे निकल पड़े हैं। युवाओं के देश में यदि एक युवा नेता ऐसा करता है, तो कोई किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, शिवसेना सरीखे क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपनी दुकान फीकी पड़ती जरूर नजर आने लगती है। अतीत के बजाय भविष्य के लिए क्रियाशील होने की सलाह देते हैं राहुल गांधी। तो भला, क्यों राहुल पर तनी हैं सेनाएं? सवाल अहम है।
भारत का हर हिस्सा, सब भारतीयों के लिए है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने पटना में यही कहा था। लेकिन शिवसेना और मनसे इस पर बौखला गईं। क्या राहुल ने कोई नई बात कह दी? उन्होंने तो भारत के संविधान के लिखे को ही दोहराया है। संविधान के आर्टिकल-19 के मुताबिक, प्रत्येक भारतीय देश में कहीं भी जा सकता है और रह सकता है। खैर, राहुल ने शिवसेना को अपने ही तरीके से जवाब दिया। दिल्ली लौटकर अगले दिन ही उन्होंने महाराष्ट्र के युवा नेता राजीव सातव को ऑल इंडिया यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। राजीव के अध्यक्ष बनने से महाराष्ट्र में साफ संदेश गया कि देश में भी मराठी मानुस के लिए बहुत बड़ी जगह है। बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों पर मुंबई में हमले के खिलाफ लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और हाल में संघ और भाजपा भी विरोध जता चुके हैं। लेकिन शिवसेना ने सबसे निचले स्तर का हमला राहुल और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया के खिलाफ किया।
इसकी वजह साफ है। पिछले तीन साल में जिस तरह राहुल की लोकप्रियता बढ़ी है उससे शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे बुरी तरह विचलित हो गए हैं। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष प्रभा ठाकुर ने कहा है कि बाल ठाकरे पुत्र मोह से ग्रस्त होकर इस तरह कीचड़ उछाल रहे हैं। अस्सी साल से ऊपर के हो चुके ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव को राजनीति में स्थापित करने के लिए भतीजे राज ठाकरे को अलग-थलग कर दिया। मगर राहुल से पहले राजनीति में सक्रिय उद्धव को जनता के बीच वह स्वीकार्यता नहीं मिल पाई, जो राहुल ने कम समय में अर्जित कर ली। राहुल के ताजा बयान से बिहार और उत्तरप्रदेश के नौजवानों को जबर्दस्त हिम्मत और सुरक्षा का अहसास मिला है।
सच तो यह भी है कि राहुल की नई तरह की राजनीति पुराने कांग्रेसियों को राजीव गांधी की याद दिला रही है। राजीव द्वारा कंप्यूटर की शुरुआत करने पर उनका भी इसी तरह विरोध हुआ था। लेकिन राजीव के एक पुराने साथी कहते हैं कि आज माउस के एक क्लिक पर पुरी दुनिया है और आश्चर्य नहीं कि अगले दस साल में इस ग्लोबल विलेज की कैपिटल भारत बन जाए। भारत से ही कंप्यूटर का सबसे ज्यादा टैलंट निकल रहा है। इंटरनेट को शांति का नोबेल देने की बात हो रही है। क्योंकि नेट तोड़ता नहीं जोड़ता है। राहुल भी भारत को जोडऩे की बात कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि झगड़ा यूं कहें कि वाकयुद्घ केवल शिवसेना और कांग्रेसियों के बीच ही है। संघ भी पहले ही इसमें कूद चुका है। संघ के वरिष्ठ नेता राम माधव ने कहा था कि संघ ने अपने स्वयंसेवकों को हिंदी भाषियों व उत्तर भारतीयों की रक्षा के लिए आगे आने का निर्देश दिया है। तो शिवसेना ने भी संघ पर प्रहार शुरू कर दिया है। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने कहा कि मुम्बई दंगों के समय संघ कहां दुम दबाकर बैठा था? उन्होने संघ को सलाह दी कि मुंबई के मामले में बीच में ना आए, अगर हिंदी का प्रचार करना ही है तो दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार करके दिखाए।
दिलचस्प है कि भाजपा इस टकराव में पडऩे से फिलहाल बच रही है। इस बीच, शिवसैनिकों ने पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के आईपीएल में खेलने की हिमायत करने वाले शाहरूख खान के विरोध में मुंबई में उनके घर पर प्रदर्शन कर अपना रूख और प्रदर्शित किया। साथ ही शिवसेना ने मुंबई पर सभी भारतीयों का हक होने की संघ की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया जताते हुए कहा डाला कि देश की औघोगिक राजधानी पर सिर्फ मराठी लोगों का ही अधिकार है। इस मुद्दे पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि वह भाषा के आधार पर भेदभाव के खिलाफ है। उनकी मांग है कि मराठी-गैर मराठी को लेकर महाराष्ट्र में जारी अराजकता रोकने के लिए कदम उठाए जाएं। संघ प्रमुख भागवत ने इससे पहले कहा था, 'मुंबई सभी भारतीयों की है। सभी समुदायों के लोग, विभिन्न भाषाएं बोलने वाले नागरिक और आदिवासी भारत की संतान हैं...किसी भारतीय को रोजगार की तलाश में देश के किसी भी हिस्से में जाने से कोई नहीं रोक सकता।Ó
राजनीतिक दृष्टिï से देखा जाए तो पिछले पचीस वर्षों में सिर्फ सीटों के लेनदेन पर छोटी-मोटी तनातनी को छोड़कर भाजपा और शिवसेना के बीच कभी कोई गंभीर टकराव नहीं देखा गया है। जहां तक सवाल भाजपा के वैचारिक पूर्वज यंू कहें कि उसके मातृसंगठन राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ का है , तो उसके साथ शिवसेना की कभी कोई तकरार भी नहीं सुनी गई। हकीकत चाहे जो हो, लेकिन एक आम भारतीय की नजर में पिछले तीन दशकों से शिवसेना की छवि संघ के ही किसी परिवारी संगठन जैसी रही है। ऐसे में शिवसेना नेतृत्व का एक दिन अचानक संघ के खिलाफ उग्र बयान जारी कर देना चकित करने वाली बात है।
कहने को संघ जातीय और क्षेत्रीय पहचानों के ऊपर राष्ट्रीय पहचान को हमेशा से ही तरजीह देता आया है। लेकिन उसकी राजनीतिक प्रतिनिधि भाजपा ने जब असम में एजीपी, महाराष्ट्र में शिवसेना, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, तमिलनाडु में बारी-बारी दोनों द्रविड़ पार्टियों और गोरखालैंड और अन्य क्षेत्रों की उग्र क्षेत्रीयतावादी ताकतों के साथ गठबंधन बनाया तो संघ को को कभी इस पर एतराज जताते नहीं सुना गया। हालिया घटनाक्रम में भाजपा-झामुमो गठबंधन पर भी किसी ने चूं तक नहंी किया। चालीस साल पहले हिंदी-हिंदू-हिंदुस्थान का नारा लगाने वाले संघ परिवार का काम इस बीच हिंदी भाषा और हिंदीभाषी लोगों की अलग से कोई चिंता किए बगैर भी बखूबी चलता रहा। इस परिवार की राजनीतिक भुजा भाजपा के दोस्तों की सूची में हिंदी विरोध और हिंदीभाषी विरोध को अपना राजनीतिक औजार बनाने वाली ताकतें भी शामिल रहीं, लेकिन इससे कभी उसे कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ा। संघ नेतृत्व ने इस दौरान एक बार भी उसे न तो ऐसा करने से रोका, न ही इस दिशा में आगे आने वाले खतरों से आगाह किया।
सियासी हलकों में यह भी माना जा रहा है कि नए भाजपा अध्यक्ष गडकरी महाराष्ट्र से हैं और उनके आने के बाद बदलाव की उम्मीद की जा रही थी। सवाल यह भी है कि 2014 में होने वाले महाराष्टï्र विधानसभा चुनाव में बाल ठाकरे नाम की कोई शक्ति रहेगी या नहीं? इतना ही नहीं, यह भी कहने-सुनने को मिलती है कि शिवसेना को ऐसी ताकतों में शामिल करके देखना शायद ठीक न हो, क्योंकि गुजरातियों, मलयालियों और मुसलमानों के खुले विरोध के बावजूद कुछ समय पहले तक उसने हिंदीभाषियों को कभी सीधे तौर पर अपने हमले का निशाना नहीं बनाया था। उसकी धार इस तरफ मोडऩे का श्रेय राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को जाता है, लेकिन दोनों ताकतों के बीच इस दिशा में होड़ की राजनीति अब शुरू ही हो गई है तो दोनों में से किसी के लिए भी पांव पीछे खींचना शायद आसान न हो। इस तरह यह पहला मौका है, जब संघ का काम चित भी मेरी, पट भी मेरी वाली रणनीति से नहीं चलने वाला है।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

अंगुली में अंगूठी, अंगूठी में दरख्त




लोगों को समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती ।


देश- दुनिया में न जाने कितने सेमिनार पर्यावरण के नाम सुपुर्द किए जा चुके हैं। लोगों ने बिगड़ते पर्यावरण पर खूब आँसू बहाये, बड़े होटलों में सेमिनार किये, भारी भरकम शब्दावली के साथ बिगड़ते मौसम की चिंता की,मिनरल वॉटर के साथ सेंडविच-बर्गर का स्वाद लिया और इतनी थका देने वाली कवायद के साथ ही दुनिया की आबोहवा में खुशनुमा बदलाव आने का एहसास आ गया हो।


इसके साथ ही कुछ जज्बाती लोग हैं जो कुछ नया कर गुजरने का माद्दा रखते हैं। अमूमन लोग अंगुली में पहनी अंगूठी से ज्यादा उसमें जड़े नगीने को लेकर उत्साहित रहते हैं। अंगूठियों में कई तरह के नगीने या पत्थर पहनने का प्रचलन आम है। लेकिन अब एक ज्वैलरी डिजाइनर ने नया आइडिया पेश किया है। जिसके मुताबिक अगूंठी में कीमती नगीने या पत्थर की जगह जीवित पौधे लगाए जा सकते हैं। स्टेनलैस स्टील के बेस पर लगाए गए यह पौधे देखने में किसी छोटे द्वीप का आभास कराएंगे। दूसरे पौधों की तरह इन्हें भी पानी देने की जरूरत होगी। 23 साल के ज्वैलरी डिजाइनर हैफस्टीन जूलियन ने इसे 'ज्वैलरी एंड गार्डनिंगÓ नाम दिया गया है। इस पौधे को कांटने-छांटने की जरूरत नहीं होगी। यह पौधा अंगूठी बाहर नहीं आएगा। दरअसल, इस पौधे के बढऩे की रफ्तार काफी सुस्त होती है। हैफस्टीन के मुताबिक, 'मैं प्रकृति का समाज तक पहुंचाना चाहता हूं। क्योंकि लोग इससे बहुत दूर जा चुके हैं। मेरी ख्वाहिश है कि वे कुदरत के हर रंग को अपने आसपास महसूस करें।Ó


भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो पर्यावरण दिवस के मौकों पर और भी अन्यान्य समारोहों आदि पर नौकरशाह और नेताओं में पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने की होड़ सी मची रहती है। नेता वृक्ष लगाते हुए फ़ोटो खिंचा कर ही संतुष्ट नजऱ आए वहीं स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति कर रहे वरिष्ठों की सफ़लता से प्रेरणा लेते हुए कुछ नौकरशाहों ने पर्यावरण के बैनर वाली दुकान सजाने की तैयारी भी कर लेते हैं। जिस जगह इन आला अफ़सरों की आमद दजऱ् हो जाती है,उसके दिन फिऱना तो तय है ।


परिपाटी के अनुसार ज़ोर-शोर से बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण समारोह होते रहे हैं । मंत्री और अधिकारी पौधे लगाते हुए फ़ोटो खिंचवाते हैं । हर जि़ले के वृक्षारोपण के लम्बे चौड़े आँकड़े अखबारों की शोभा बढ़ाते हैं । यदि इन में से चौथाई पेड़ भी अस्तित्व में होते, तो अब तक देश में पैर रखने को जगह मिलना मुश्किल होता ।


यह समझ से परे है कि सड़कों पर नारे लगाने,रैली निकालने या सेमिनार करने से कोई भी समस्या कैसे हल हो पाती है । पर्यावरण नारों से नहीं संस्कारों से बचाया जा सकता है । बच्चों को शुरु से ही यह बताने की ज़रुरत होती है कि इंसानों की तरह ही हर जीव और वनस्पति में भी प्राण होते हैं । हमारी ही तरह वे सब भी धरती की ही संतानें हैं । इस नाते धरती पर उनका भी उतना ही हक है जितना हमारा ...??? लोगों को समझना होगा की प्रकृति और इंसानी संसार में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । पर्यावरण तभी सुधरेगा जब हम अपने खुद के प्रति ईमानदार होंगे । हमारी दुनिया में हर चीज़ पैसे के तराज़ू पर तौली जाती है,लेकिन प्रकृति ये भेद नहीं जानती । वह कहती है कि तुम मुझसे से भरपूर लो लेकिन ज़्यादा ना सही कुछ तो लौटाओ । अगर वो भी ना कर सको तो कम से कम जो है उसे तो मत मिटाओ ।


मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

रोशनी अभी बाकी है...

आठ लाख बच्चे अभी भी बिहार में स्कूल नहीं जा पाते हैं, जबकि पिछले चार वर्षों में ये आंकड़ा 25 लाख से घटकर आठ लाख पर पहुँचा है।बिहार में सरकार बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिलाने वाले क़ानून को अगर सही मायने में लागू करके दिखा दे तो उसे किसी चमत्कार से कम नहीं माना जाएगा। यहाँ सरकार के ज़रिए उपलब्ध कराई गई प्राथमिक शिक्षा-व्यवस्था जैसी चरमराई हुई है, वैसी शायद ही कहीं और होगी।
पटना के काठपुल मंदिरी मोहल्ले के सरकारी प्राइमरी स्कूल बजबजाती गंदगी से भरे नाले के बिल्कुल किनारे पर किसी तरह टिका हुआ एक जर्जर स्कूल भवन है। दो कमरों का एक मकान, जिसमें पहली से पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाई के लिए बने दो-दो स्कूल चलाए जा रहे हैं। बिना भवन वाले लोदीपुर उर्दू प्राइमरी स्कूल को काठपुल मंदिरी के राजकीय प्राथमिक विद्यालय में शरण दी गई है। अमूमन चार शिक्षिकाएँ और कुल मिलाकर पचास बच्चे आते हैं स्कूल में। जबकि रजिस्टर में तीन सौ से अधिक बच्चों के नाम दर्ज हैं। अभी तक जो स्कूल चलाने का नियम-क़ानून बना हुआ है वो सब ठीक से लागू होता तो राजधानी पटना के इस सरकारी स्कूल की नरक जैसी हालत क्यों होती? वहीं, कुपोषण के शिकार लग रहे यहाँ के स्कूली बच्चों का कहना है कि स्कूल में चापाकल (हैंडपाइप) नहीं है इसलिए पानी पीने के लिए दूर जाना पड़ता है। बहुत दिनों से स्कूल की बिजली लाइन कटी हुई है। शौचलाय नहीं है, ऐसे में शौच के लिए नाले के उस पार जाना पड़ता है। बरसात में जब छत से पानी चूने लगता है तो बोरिया-बस्ता लेकर इधर-उधर भागना पड़ता है।
जब राजधानी पटना का यह आलम है, जहां मुख्यमंत्री से लेकर तमाम विभागों के आला अधिकारी और मंत्री मौजूद होते हैं। गाहे-बेगाहे सड़कों पर अपनी उपस्थिति का एहसास भी करा जाते हैं। पटना शहरी क्षेत्र से आगे मनेर प्रखंड के ग्रामीण इलाके के गाँव ख़ासपुर में एकमात्र सरकारी प्राइमरी स्कूल की शक्ल-सूरत देखी तो लगा जैसे वर्षों से बेकार पड़े तबेले का जर्जर अवशेष। वहाँ दो महिला शिक्षक और आठ-दस बच्चे स्कूल के अस्तित्व में होने का संकेत भर दे रहे थे।
दरअसल, मूल समस्या जो है वो संसाधन की, पैसे की समस्या है। शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव अंजनी कुमार सिंह के अनसुार, विधेयक पर चर्चा के लिए राज्य सरकार की तरफ से दिल्ली में मैंने कहा था कि बिल के प्रावधान तो बड़े अच्छे-अच्छे हैं, लेकिन उन्हें लागू करने में जो बोझ राज्य सरकार वहन ही नहीं पाएगी,उसे जबरन राज्य पर कैसे डाला जा सकता है। ठीक है, आने वाले ख़र्च का 75 प्रतिशत केंद्र दे और 25 प्रतिशत राज्य दे तो फिर ठीक है।
जमीनी हकीकत तो यह है कि शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव भी मानते हैं कि आठ लाख बच्चे अभी भी बिहार में स्कूल नहीं जा पाते हैं, जबकि पिछले चार वर्षों में ये आंकड़ा 25 लाख से घटकर आठ लाख पर पहुँचा है। पंचायत स्तर पर दो लाख से ज़्यादा प्राइमरी और मिडिल स्कूल शिक्षकों की नियुक्ति की गई है, लेकिन ये सच्चाई उन्होंने छिपा ली कि जाली शैक्षणिक प्रमाणपत्रों को दिखाकर हज़ारों-हज़ारों अयोग्य और फज़ऱ्ी शिक्षक नियुक्त हुए हैं। ऐसे में यहाँ लोगों का भरोसा टूटा है। सभी बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार दिलाने वाला क़ानून बिहार में ठीक से लागू हो सकेगा, इसपर थोड़ा नहीं, पूरा संदेह प्राय: सभी वर्गों में है।
अब जहाँ शैक्षणिक महकमे से जुड़ी हुई हर इकाई भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई हो, जहाँ राज्य सरकार की नाक के नीचे पटना के सैंकड़ों प्राइमरी स्कूल नारकीय हालात में पड़े हों, जहाँ शिक्षा व्यवस्था में सुधार के पहले से बने नियम-क़ानून बेअसर नजऱ आने लगे हों, जहाँ मध्याह्न भोजन योजना से लेकर 'आँगन बाड़ीÓ या बाल पोषाहार योजना पूरी तरह से बेईमानों और भ्रष्टाचारियों के हाथों लुट रही हों। वहाँ केंद्रीय शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल का ड्रीम प्रोजेक्ट परिकल्पना से नीचे सरज़मीन पर उतर पाएगा?