
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
मनमोहन का इस्तीफा, सोनिया ने संभाली गद्दी
शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
विलासिता के लिए मातृत्व का सौदा
औरतों को लक्षित करके किसी मशहरोमारुफशायर ने कहा है कि-
मैं कभी हारी गई, पत्थर बनी, गई बनवास भी,
क्या मिला द्रोपदी, अहिल्या,जानकी बनकर मुझे।
इस पंक्ति को आधुनिकता के चादर में लपेट कर आज की नारी तमाम वर्जनाओं को तोडऩा चाहती और उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहती है। इक्कीसवीं सदी को भी न जाने किन-किन उपाधियों से सम्मानित किया जा रहा है। उपभोक्तावाद की सदी, स्त्रियों की सदी, सूचना क्रांति की सदी, और न जाने क्या-क्या...? देखा जाए तो उपभोक्तावाद और स्त्री, जब दोनों का संगम हुआ तो इक्कीसवीं सदी के खुले बाजार ने उसे हाथों-हाथ लिया।
बाजार का ही असर है कि विदेशों में लड़कियां खुलेतौर पर अपना कौमार्य बेच रही हैं तो राजधानी दिल्ली की लड़कियां अपना मातृत्व बेच रही हैं। ऐसा भी नहीं है कि ये लड़कियां कम पढ़ी-लिखी हैं और कोई इन्हें बरगला रहा है। ये तो दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं हैं, जहां सामान्य से अच्छे लोगों का ही नामांकन संभव हो पाता है। उनकी देखा-देखी कामकाजी लड़कियां भी इस पेशे में उतर चुकी हैं।
सच तो यही है कि अब अंडाणुओं की भी सौदेबाजी शुरु हो चुकी है!... हाल ही में यह खबर बाहर आ चुकी है। आसानी से पैसे कमाने के लिए दिल्ली में अकेली रहने वाली छात्राएं और कामकाजी लड्कियां अपने अंडाणु फर्टीलीटी क्लीनिकों में बेच रही है। फर्टीलिटी क्लीनिक इन अंडणु को नि:संतान दंपतियों को बेच देते है। लड़कियों को पैसा मिलता है, क्लीनिक वालों को उनका कमीशन और नि:संतान दंपत्तियों की तो बल्ले-बल्ले।
यह कारोबार लगातार बढ़ता चला जा रहा है। दिल्ली के प्रजनन विशेषज्ञों को कॉलेज जाने वाली छात्राओं और अकेली कामकाजी युवतियों की ओर से अंडाणुओं देने के लिए लगातार निवदेन मिलता रहता है। प्रत्येक लड़की के शरीर से 10 से 12 अंडाणु लिए जाते हैं ओर इसके बदले उन्हें 20 हजार से 50 हजार रुपए तक की राशि मिल जाती है। ग्रेटर कैलाश स्थित फिनिक्स अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञ सचदेवा गौड़ ने बताया कि दुनिया भर से प्रतिमाह 15 नि:संतान जोड़े अंडाणु की मांग करते हैं। बकौल गौड़ , 'अधिंकाश जोड़े विदेशी होते हैं और इसके लिए वे 60 हजार से एक लाख रुपए तक खर्च करने के लिए तैयार होते हैं। कई नि:संतान दंपत्ति तो मुंहमांगा रकम देने को तैयार हो जाते हैं।Ó दरअसल, यह एक नया चलन है। जनवरी के पहले हफ्ते में दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की चार छात्राओं ने अपने अंडाणु दिए थे। वहीं, पश्चिमी दिल्ली के बी.एल. कपूर मेमोरियल अस्पताल की चिकित्सक इंदिरा गणेशन भी स्वीकारती हैं कि 22 से 25 वर्ष की युवतियां अंडाणु देने के लिए आया करती हैं। इनमें से ज्यादातर अकेले रहने वाली कामकाजी महिलाएं या छात्राएं होती हैं।
बताया जाता है कि अकेली रहने वाली युवतियां और छात्राओं की रुची ऐसा धन कमाने में ज्यादा होती है। समाजशास्त्री मीनाक्षी नटराजन के अनुसार, वर्तमान में हर कोई अतिआधुनिक जीवन शैली अपनाना चाहता है। बिना कुछ सोचे-समझे। जबकि हरेक की आर्थिक-सामाजिक परिस्थिति अलग होती है। जब लोग अंधाधुंध नकल किसी भी चीज की करते हैं तो उसके परिणाम कभी भी सुखद नहीं होते। यहां भी वही हो रहा है। तभी जो लड़कियां अपने परिवार के साथ रहती हैं, वह थोड़ी संयमित होती हैं। अंडाणु प्रकरण में भी आप देखेंगेे कि परिवार के साथ रहने वाली युवतियां कम ही होती है जो अपने अंडाणु देने की ओफर करती है। अब बिजनेस ...कौन सी चिज का कब किया जाए...इसकी कोई मर्यादा नहीं है!...अंडाणुओं की बिक्री में अस्पताल वालों का बिजनेस चल रहा है तो.... अंडाणुओं की पूर्ति करने वाली युवतियों का भी बिजनेस चल ही रहा है।
ऐसा नहीं है कि नि:संतान दंपत्ति के लिए यही एक तरीका बचा है। कुछ वर्षों से सेरोगेट मदर का कंस्पेट भी है। चिकित्सीय विशेषज्ञों का मानना है कि इंट्रा यूटेराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) तकनीक सहज शब्दों में कहे तो कृत्रिम गर्भाधान प्रक्रिया के माध्यम से नि:संतान दंपति भी संतान प्राप्त कर सकते है। बांझपन की स्थिति के लिए पुरुषों की शारीरिक कमियां भी उत्तरदायी है। जैसे उनके वीर्य में शुक्राणु संख्या की कमी, शुक्राणु के बाहर निकलने में बाधा , वीर्य में संक्रमण, शुक्राणु की गति में कमी आदि। इसके विपरीत महिलाओं में गर्भाशय का अविकसित होना, अंडाशय में कमी जैसे अंडाणु का न बनना अथवा गाँठ, गर्भाशय के मुख से संबंधित रोग, योनि का छोटा होना कुछ प्रमुख कारण है। आईयूआई तकनीक में फैलोपियन ट्यूब का सामान्य होना जरूरी है। इस विधि के तहत महिला को पहले ऐसी दवाएं दी जाती है, जिनके असर से उसमें अंडाणु ज्यादा बनने लगें। इससे गर्भ ठहरने के अवसर बढ़ जाते है। इसके बाद अल्ट्रासाउन्ड के माध्यम से इस बात का पता लगाते है कि माह के किस दिन अंडाणु निकलता है और इसे भी नियंत्रित करने के लिए एक ऐसा इंजेक्शन लगाया जाता है, जिससे ठीक 36 घंटे बाद ही अंडाणु निकलता है। इससे यह अनुमान लगाना आसान होता है कि किस समय शुक्राणु को गर्भ में प्रवेश कराया जाए। इस अंडाणु निर्गम की जांच विधि को फॉलिक्युलर मॉनीटरिंग कहते हैं।
इस बीच पुरुष के शुक्राणु को लेकर उसे सही तरह से साफ कर लिया जाता है और विशेष तकनीक से उसे गाढ़ा किया जाता है। इससे शुक्राणु की गुणवत्ता और गतिशीलता बढ़ जाती है। अंडाणु निकलने के समय इस शुक्राणु को गर्भ में डाला जाता है। ऐसे में गर्भ ठहरने के अवसर 40 से 60 प्रतिशत तक होते है। आईयूआई तकनीक का प्रयोग उस समय भी किया जाता है, जबकि पुरुष में शुक्राणु बिल्कुल नहीं होते अथवा दवा के प्रयोग करने के बाद भी उनकी संख्या नहीं बढ़ती। ऐसे में किसी डोनर के शुक्राणु का प्रयोग किया जाता है। शुक्राणु को अंदर डालने के बाद एक निश्चित अवधि के अंतराल पर बराबर देखना पड़ता है कि शुक्राणु से अंडाणु मिला या नहीं? अगर नहीं मिलता है तो फिर दोबारा इस प्रक्रिया को करना पड़ता है। शुक्राणु का गर्भाधान कराने के पश्चात 'ल्यूटीयल सपोर्टÓ के लिये दवाएं दी जाती है और महिला को आराम करने की सलाह दी जाती है। इस प्रक्रिया के 12 से 16 दिन के अंदर गर्भाधान को सुनिश्चित किया जाता है।
प्रगति और विकास के माध्यम से स्थापित होने वाली जीवन-शैली ही दरअसल आधुनिकता है, जिसके प्रभाव से समय-समय पर मानवीय जीवन-मूल्यों में कभी थोड़े- बहुत तो कभी आमूल परिवर्तन आते हैं- सामाजिक स्तर पर भी, और व्यक्तिगत स्तर पर भी। चूंकि ऐसे परिवर्तन हमेशा ही नयी पीढ़ी का हाथ पकड़कर समाज में प्रवेश करते हैं, अक्सर बुजर्ग़ पीढ़ी की स्वीकृति इन्हें आसानी से नहीं मिलती। वे इन्हें अनैतिक कह देते हैं। असामाजिक और पतनोन्मुख करार देते हैं। सचाई यह है कि ज्ञान-विज्ञान के नये-नये आविष्कारों की वजह से वजूद में आये मूल्य पतित नहीं हो सकते। अमानवीय या असामाजिक या अनैतिक नहीं हो सकते । बल्कि इन्हीं मूल्यों को अपनाकर व्यक्ति प्रगति और विकास का वास्तविक लाभ ले सकता है। जो नहीं अपनाता, वह पिछड़ जाता है।
माँ कौन होती है ये सवाल काफी अटपटा लग रहा है , यदि ये सवाल है तो इसका जवाब है माँ वो है जो हमे जन्म देती है । पर आज हमारी बदलती सोच और बढती जरूरतों ने वैज्ञानिक खोज को वंहा पहुंचा दिया है जहाँ हम यह सोचने पर मजबूर है भारत में एक और धंधा अब तेज़ी से फलने फूलने जा रहा है वह है किराये पर कोख का। दरअसल किराये की कोख(सेरोगेट मदर) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत नि:संतान दम्पति डॉक्टरों के सलाह पर किसी अन्य महिला की कोख खरीदते है , और फिर डॉक्टरों द्वारा दम्पति के अंडाणु और सुक्राणु को निषेचित कर महिला के कोख में स्थापित किया जाता है , बच्चा जन्म लेने के कुछ ही देर बाद दम्पति के हवाले कर दिया जाता है ,और कोख बेचने वाली महिला को उसकी कीमत अदा की जाती है ।
ऐसा नहीं है कि अंडाणु का कारोबार पहली बार भारत में शुरू हो रहा है। जिसको लेकर हाय-तौबा मचाई जाए। कुछ समय पूर्व से ही ब्रिटेन में तो शुक्राणु और अंडाणुदाताओं को पहले के मुक़ाबले कई गुणा ज़्यादा पैसा दिए जाने के प्रस्तावों पर विचार चल रहा है। मानव निषेचन और भ््राूणविज्ञान परिषद इस बात पर विचार कर रही है कि दाताओं की कमी को दूर करने के लिए किस तरह से उन्हें दी जाने वाली रक़म तय की जाए। अब तक अंडाणुदाताओं को लगभग 1200 रुपये और कुछ दूसरे ख़र्चों के लिए भी भुगतान किया जाता है, लेकिन परिषद अब उनके लिए लगभग 80,000 रुपए देने पर विचार कर रही है। जबकि, शुक्राणु दाताओं को लगभग 4000 रुपए दिए जाते हैं लेकिन पुरुष दाता छह महीने के दौरान 50 बार तक शुक्राणु दान कर सकते है।
परिषद की अध्यक्ष सूज़ी लैदर का कहना है कि शुक्राणुदाताओं की तुलना में अंडाणुदाताओं का काम वैज्ञानिक दृष्टि से काफ़ी कठिन है। यह काम दर्द से भरा, तनावपूर्ण और जोख़िम भरा है। उनका कहना है कि कई उपचारगृहों और अंडाणुदाताओं ने परिषद से अधिक मुआवज़ा देने पर विचार करने को कहा है।
सूज़ी लैदर के अनुसार ब्रिटेन में अबतक लगभग 37,000 बच्चे दान दिए गए अंडाणुओं, शुक्राणुओं और भ्रूणों की मदद से पैदा हुए हैं, लेकिन हमारी खोजबीन बताती है कि चिकित्सालयों को उपयुक्त और इच्छुक दाताओं की कमी महसूस हो रही है। वो मानती हैं कि क़ानून में आने वाले बदलाव नई चुनौतियाँ और नए सवाल खड़े करते हैं, और यह बेहद ज़रुरी है कि लोग अपने विचारों को सामने रखें, ख़ासतौर से वो लोग जिनका जन्म दाता भ्रूणों, शुक्राणुओं या अंडाणुओं से हुआ है। अगर दाताओं को दी जाने वाली रक़म में बढ़ोतरी होती है तो ऐसा संभव है कि चिकित्सालय इन ख़र्चों का भार संतान चाहने वाले ज़रुरतमंद दम्पतियों पर डाल दें।
इस सच को दरकिनार भी नहीं किया जा सकता है कि पहले किराए की कोख और अब अंडाणु का कारोबार - नि:संतान दम्पति के जीवन में एक नई आशा की किरण जगाई है पर इससे जुरे कई ऐसे सवाल है जिसपर गहन चिंतन की आवश्यकता है।
बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
उ का है गोरी...
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
तालिबान को नहीं चाहिए शांति
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
बड़े कैनवास पर आने की कोशिश
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
पानी का मतलब
दुनिया को मतलब देना है
और आदमी को बचाना है
मतलबी होने से
पानी का मतलब
एक-तिहाई भू-भाग है
लेकिन घॅंूट भर की प्यास को
सूखने नहीं देना उससे भी बड़ी चुनौती है
पानी का मतलब
कविता में तैनात मतलब को छुटटी देना है
पानी का मतलब
'ठंडा मतलब कोका कोलाÓ नहीं
प्यास की वर्तनी को
बाजार बना देने की प्रवृत्ति के
खिलाफ होना है
सख्त खिलाफ।
नोट : यह कविता श्री प्रेमशंकर शुक्ल की है, जिसे मैंने किसी पत्रिका में पढ़ा था। मुझे अच्छी लगी। इसी कारण यहां पोस्ट कर रहा हँू।
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
सपना बेचिए, करोड़ों कमाइए
शनिवार, 13 फ़रवरी 2010
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
कम हो रहे हैं नागा साधु

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
राजा का है हाल बेहाल

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
प्रभाष जोशी पर लिखी किताब का लोकार्पण इसी महीने

सीधी ऊँगली से
कुछ दिन बीते भी। उसकी सास ने उसे दहेज के ताने देने शुरू कर दिया।
तुम्हारे बाप ने यह नहीं दिया, वह नहीं दिया। मायके से यह लाओ, वह लाओ। उसे यह सब सुनकर बहुत गुस्सा आता। पर वह बोलती कुछ नहीं। उसका पति दहेज का लालची तो नहीं था। लेकिन अपनी माँ के सामने कुछ बोल नहीं पाता था। वह भी घंूट-घूट कर मरने वाली नहीं थी। उसने भी तय कर लिया था कि सासुजी का दिमाग ठिकाने लगा कर रहेगी। बस कोई तरकीब हाथ लगनी चाहिए। आखिर उसने इस समस्या का समाधान खोज ही लिया।
एक दिन उसने मौका व मूड देखकर सास से कहा - माँ जी चाहती तो मैं भी हँू कि मेरे पिताजी स्कूटर, टीवी, फ्रिज वगैरह दें। अब देखिए न... अगर टीवी मिलेगा तो प्रोग्राम तो मैं भी देखूंगी न? फ्रिज का ठंडा पानी मैं नहीं पिउँुगी? पर समस्या है कि मेरे पापा हैं बहुत कंजूस। सीधी ऊँगलीे से घी निकलने वाला नहीं । आप एक पत्र लिखिए कि फलां-फलां चीजें अगर पंद्रह दिनों के अंदर न भिजवाया तो आप मुझे जलाकर मार डालेंगी। वह पत्र लेकर मैं मायके जाऊँगी तो पिताजी मेरी जान बचाने के लिए सब देने को तैयार हो जाएंगे।
सास चक्कर में आ गई। उसने वैसा ही पत्र लिखकर बहू को दे दिया। साथ में मायके जाने की आज्ञा भी। मायके पहँुचते ही बहू ने पत्र की कॉपी थाने में रपट के साथ दे दी।
आजकल वह और उसके पति सुख से जीवन बिता रहे हैं ओर सासु जी पूजा-पाठ में लगी रहती हैं।
मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010
दिव्य प्रेम का अलग संसार है
अगर इस भौतिक संसार के प्रेम में इतनी शक्ति है तो आप अंदाजा लगाइए कि रूहानी स्तर पर प्रभु प्रेम में कितनी शक्ति होगी। यह प्रेम की ही शक्ति है जो हमें भौतिक संसार से ऊपर लाकर प्रभु तक पहुंचाती है। रूहानियत की कहानी, प्रभु के प्रेम द्वारा आत्मा में जागृत हुए प्रेम की कहानी है।
एक सूफी संत एक बार अपने शिष्यों के साथ सच्चे प्रेम के गुणों पर विचार-विमर्श कर रहे थे। हर शिष्य अपने-अपने शब्दों में बताने की कोशिश कर रहा था कि सच्चा प्रेमी कैसा होता है। एक ने कहा, सच्चा प्रेमी वह है जो मुसीबतों का स्वागत करता है और उन्हें खुशी-खुशी और कृतज्ञता से स्वीकार करता है जैसे कि वे प्रभु ने भेजी हों। तब एक शेख बोला, मेरे खयाल में तो प्रभु का सच्चा प्रेमी वह है जो भक्ति में इतना खो जाता है कि उसे कुछ महसूस ही नहीं होता, चाहे उसके सिर पर सौ तलवारें गिर पड़ें।
फिर तीसरा बोला, मैं समझता हूं कि सच्चा प्रेमी वह है जो भक्ति में इतना खो जाता है कि वह उफ भी नहीं करता चाहे उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएं। हर कोई उस वक्तव्य से सहमत था, पर फिर एक और भक्त बोल पड़ा, सच्चा भक्त वह है जो मुसीबतों के बीच भी, आंतरिक रूहानी अनुभवों में इतना खोया रहता है कि वह अपना ध्यान नहीं छोड़ता।
तब सूफी ने अपने शिष्यों को राबिया बसरी का एक कथन सुनाया। राबिया बसरी बहुत बड़ी सूफी संत थीं। उन्होंने एक बार कहा था कि सच्चा प्रेम इन सब चीजों से बहुत ऊपर होता है। सच्चा प्रेमी प्रेम में इतना डूबा रहता है कि वह दर्द और आनंद में कोई फर्क नहीं करता। प्रेमी के साथ जो कुछ भी घटता है, उसका वह स्वागत करता है जैसे कि वह सब कुछ प्रियतम की ओर से ही आया हो। इसलिए एक सच्चा प्रेमी, दर्द और आनंद, दोनों से ऊपर होता है। प्रेमी सिर्फ प्रियतम को जानता है और बाकी सारा संसार उसके लिए कोई भी मायने नहीं रखता।
संत-महात्मा हमें सलाह देते हैं कि प्रभु के प्रेम को दिल में छुपा कर रखना चाहिए और संसार के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए। यह ऐसा अनुभव है जो कि आत्मा में होता है। समय के साथ-साथ प्रेम दिल में बढ़ता जाता है। यह और गहरा तथा और ज्यादा होता जाता है। हम इसे औरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहते, ताकि इसके विकास में कोई बाधा उत्पन्न न हो। प्रेम का अनुभव आत्मा के स्तर पर होता है और इसे शब्दों में पूरी तरह समझाया नहीं जा सकता। विरले लोग ही इस प्रेम को समझ सकते हैं जो आंतरिक मंडलों में प्रेमी (परमात्मा) और प्रेमिका (आत्मा) के बीच होता है। यह अनुभव इस संसार से ऊपर का है। दिव्य प्रेम या प्रभु प्रेम का अपना अलग संसार है और इस भौतिक संसार में इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। यह रूहानी प्रेमी-प्रेमिकाओं का संसार है। अगर हम अपनी ध्यान की साधना (मेडिटेशन) का समय बढ़ाएं दें तो हम भी उस संसार का अनुभव कर सकते हैं। जैसे-जैसे हम रूहानी तौर पर विकसित होते जाएंगे, वैसे-वैसे आतंरिक रहस्य हम पर खुलते जाएंगे।
(सावन कृपाल रूहानी मिशन एवं साइंस ऑफ स्प्रिच्युऐलिटी के सौजन्य से)
मुश्किल में बीमारी
सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
मधुसागर
युगों-युगों से ही पाला,
पुण्य, पुण्य से टकराकर अब,
भड़काये भीषण ज्वाला।
दावानल बड़वानल युग भी,
कम है ऐसी ज्वाला से,
तभी बुझेगी यह ज्वाला जब,
पियें पुण्यकर्ता हाला।
सत्य सत्य से, न्याय न्याय से,
हुआ द्रोह करनेवाला,
इस कारण ही पूर्ण न होता,
मधु से जीवन का प्याला।
मिले पूर्णता तो जीवन को,
साकी के मदिरालय में,
जहाँ बैठ निद्र्वंन्द पियें सब,
साकी के हाथों हाला।
जीवन-प्रतीक परिवर्तन की
निश्चित है होनेवाला,
रूके न यह परिवर्तन जब तक,
पूर्ण न हो पीनेवाला।
सकल पूर्णता संभव होगी,
केवल तब ही जीवन की,
जब सात्विक प्याले में भरकर
प्यासे पियें वरद हाला।
- धनसिंह खोबा 'सुधाकरÓ
शनिवार, 6 फ़रवरी 2010
ना...ना... नरेगा
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
क्षेत्रीयता को पलीता
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
अंगुली में अंगूठी, अंगूठी में दरख्त

